रामायण मनु शतरूपा की कथा

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रामायण मनु शतरूपा की कथा
रामायण मनु शतरूपा की कथा

 

रामायण मनु शतरूपा की कथा

दो०–एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
जो बिलोकि रीझै कुआरि तब मेलै जयमाल॥  

अर्थ-  इस समय तो बड़ी भारी शोभा और विशाल(सुन्दर)रूप चाहिये, जिसे देखकर राजकुमारी
मुझपर रीझ जाय और तब जयमाल [मेरे गलेमें] डाल दे॥  

 

हरि सन मागौं सुंदरताई । होइहि जात गहरू अति भाई॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ । एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥

अर्थ-   [एक काम करूँ कि] भगवानूसे सुन्दरता माँगूँ; पर भाई! उनके पास जानेमें तो बहुत देर
हो जायगी। किन्तु श्रीहरिके समान मेरा हितू भी कोई नहीं है, इसलिये इस समय वे ही मेरे
सहायक हों॥  

 

बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला । प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने । होहहि काजु हिएँ. हरषाने॥

अर्थ-  उस समय नारदजीने भगवान्‌की बहुत प्रकारसे विनती की। तब लीलामय कृपालु प्रभु [वहीं]
प्रकट हो गये। स्वामीकों देखकर नारदजीके नेत्र शीतल हो गये और वे मनमें बड़े ही हर्षित हुए
कि अब तो काम बन ही जायगा॥  

 

अति आरति कहि कथा सुनाई । करहु कृपा करि होहु सहाई॥
आपन रूप देहु प्रभु मोही । आन भाँति नहिं पावों ओही॥

अर्थ-   नारदजीने बहुत आर्त (दीन) होकर सब कथा कह सुनायी [और प्रार्थना की कि] कृपा
कीजिये और कृपा करके मेरे सहायक बनिये। हे प्रभो! आप अपना रूप मुझको दीजिये और
किसी प्रकार मैं उस (राजकन्या) को नहीं पा सकता॥ 

 

 

जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
निज माया बल देखि बिसाला | हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥

अर्थ-   हे नाथ! जिस तरह मेरा हित हो, आप वही शीघ्र कीजिये। मैं आपका दास हूँ। अपनी मायाका
विशाल बल देख दीनदयालु भगवान्‌ मन-ही-मन हँसकर बोले–॥  

 

दो०–जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥  

अर्थ-   हे नारदजी! सुनो, जिस प्रकार आपका परम हित होगा, हम वही करेंगे, दूसरा कुछ नहीं।
हमारा वचन असत्य नहीं होता॥  

 

कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देड़ सुनहु मुनि जोगी॥

एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठवऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ

अर्थ-   हे योगी मुनि! सुनिये, रोगसे व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो वैद्य उसे नहीं देता। इसी प्रकार
मैंने भी तुम्हारा हित करनेकी ठान ली है। ऐसा कहकर भगवान्‌ अन्तर्धान हो गये॥  

 

माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई । जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥
अर्थ-   [ भगवान्‌की ] मायाके वशीभूत हुए मुनि ऐसे मूढ़ हो गये कि वे भगवान्‌की अगूढ़ (स्पष्ट) वाणीको भी न समझ सके। ऋषिराज नारदजी तुरंत वहाँ गये जहाँ स्वयंवरकी भूमि बनायी
गयी थी॥  

 

निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें | मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें॥

अर्थ-   राजालोग खूब सज-धजकर समाजसहित अपने-अपने आसनपर बैठे थे। मुनि (नारद) मन-ही-
मन प्रसन्न हो रहे थे कि मेरा रूप बड़ा सुन्दर है, मुझे छोड़ कन्या भूलकर भी दूसरेको न वरेगी॥ 

 

मुनि हित कारन कृपानिधाना । दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥

सो चरित्र लखि काहुँ न पावा । नारद जानि सबहिं सिर नावा॥

अर्थ-   कृपानिधान भगवान्‌ने मुनिके कल्याणके लिये उन्हें ऐसा कुरूप बना दिया कि जिसका वर्णन नहीं
हो सकता; पर यह चरित कोई भी न जान सका। सबने उन्हें नारद ही जानकर प्रणाम किया॥ 

 

 

दो०-रहे तहाँ दुड रुद्र गन ते जानहिं सब भेड।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेठ॥  

अर्थ-   वहाँ दो शिवजीके गण भी थे। वे सब भेद जानते थे और ब्राह्मणका वेष बनाकर सारी लीला
देखते-फिरते थे। वे भी बड़े मौजी थे॥ 

 

 

जेहिं समाज बैठे मुनि जाई । हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥

अर्थ-   नारदजी अपने हृदयमें रूपका बड़ा अभिमान लेकर जिस समाज (पंक्ति) में जाकर बैठे थे,
ये शिवजीके दोनों गण भी वहीं बैठ गये। ब्राह्मणके वेषमें होनेके कारण उनकी इस चालको कोई
न जान सका॥ 

 

 

करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
रीझिहि राजकुआऔरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥

अर्थ-   वे नारदजीको सुना-सुनाकर व्यंग्य वचन कहते थे–भगवान्‌ने इनको अच्छी ‘सुन्दरता’ दी है।
इनकी शोभा देखकर राजकुमारी रीझ ही जायगी और ‘हरि’ (वानर) जानकर इन्हींको खास
तौरसे वरेगी॥ 

 

 

मुनिहे मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ़ बुद्धि भ्रम सानी॥

अर्थ-   नारद मुनिको मोह हो रहा था, क्‍योंकि उनका मन दूसरेके हाथ (मायाके वश) में था।
शिवजीके गण बहुत प्रसन्न होकर हँस रहे थे। यद्यपि मुनि उनकी अटपटी बातें सुन रहे थे, पर बुद्धि भ्रममें सनी हुई होनेके कारण वे बातें उनकी समझमें नहीं आती थीं (उनकी बातोंको वे
अपनी प्रशंसा समझ रहे थे)॥ 

 

 

काहूँ न लखा सो चरित बिसेषा । सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥

अर्थ-   इस विशेष चरितको और किसीने नहीं जाना, केवल राजकन्याने [नारदजीका] वह रूप देखा।
उनका बन्दरका-सा मुँह और भयंकर शरीर देखते ही कन्याके हृदयमें क्रोध उत्पन्न हो गया॥  

 

 

दो०–सखीं संग लै कुआँरि तब चलि जनु राजमराल।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥  

अर्थ-   तब राजकुमारी सखियोंको साथ लेकर इस तरह चली मानो राजहंसिनी चल रही है । वह अपने
कमल-जैसे हाथोंमें जयमाला लिये सब राजाओंको देखती हुई घूमने लगी॥  

 

 

जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली॥
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं । देखि दसा हर गन मुसुकाहीं॥

अर्थ-   जिस ओर नारदजी [रूपके गर्वमें ] फूले बैठे थे, उस ओर उसने भूलकर भी नहीं ताका। नारद
मुनि बार-बार उचकते और छटपटाते हैं। उनकी दशा देखकर शिवजीके गण मुसकराते हैं॥ 

 

 

धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला । कुआरि हरषि मेलेउ जयमाला॥

दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा । नृपसमाज सब भयड निरासा॥

अर्थ-   कृपालु भगवान्‌ भी राजाका शरीर धारण कर वहाँ जा पहुँचे। राजकुमारीने हर्षित होकर
उनके गलेमें जयमाला डाल दी ॥ लक्ष्मीनिवास भगवान्‌ दुलहिनको ले गये ॥ सारी राजमण्डली निराश
हो गयी॥  

 

 

मुनि अति बिकल मोहूँ मति नाठी । मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥

अर्थ-   मोहके कारण मुनिकी बुद्धि नष्ट हो गयी थी, इससे वे [राजकुमारीको गयी देख] बहुत ही
विकल हो गये। मानो गाँठसे छूटकर मणि गिर गयी हो। तब शिवजीके गणोंने मुसकराकर कहा–
जाकर दर्पणमें अपना मुँह तो देखिये!॥  

 

 

अस कहि दोउ भागे भयँ भारी । बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा । तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥

अर्थ-   ऐसा कहकर वे दोनों बहुत भयभीत होकर भागे। मुनिने जलमें झाँककर अपना मुँह देखा।
अपना रूप देखकर उनका क्रोध बहुत बढ़ गया। उन्होंने शिवजीके उन गणोंको अत्यन्त कठोर
शाप दिया॥  

 

 

दो०–होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउठ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोड॥  

अर्थ-   तुम दोनों कपटी और पापी जाकर राक्षस हो जाओ। तुमने हमारी हँसी की, उसका फल चखो।
अब फिर किसी मुनिकी हँसी करना॥  

 

 

पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥

‘फरकत अधर कोप मन माहीं । सपदि चले कमलापति पाहीं॥

अर्थ-   मुनिने फिर जलमें देखा, तो उन्हें अपना (असली) रूप प्राप्त हो गया; तब भी उन्हें सन्तोष
नहीं हुआ। उनके ओंठ फड़क रहे थे और मनमें क्रोध [भरा] था। तुरंत ही वे भगवान्‌
कमलापतिके पास चले॥  

 

 

देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई । जगत मोरि उपहास कराई॥
बीचहिं. पंथ मिले दनुजारी | संग रमा सोइ राजकुमारी॥

अर्थ-   [मनमें सोचते जाते थे–] जाकर या तो शाप दूँगा या प्राण दे दूँगा। उन्होंने जगतूमें मेरी हँसी
करायी। दैत्योंके शत्रु भगवान्‌ हरि उन्हें बीच रास्तेमें ही मिल गये। साथमें लक्ष्मीजी और वही
राजकुमारी थीं॥ 

 

 

बोले मधुर बचन सुरसाईं । मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा । माया बस न रहा मन बोधा॥

अर्थ-   देवताओंके स्वामी भगवान्‌ने मीठी वाणीमें कहा–हे मुनि! व्याकुल॒की तरह कहाँ चले ? ये
शब्द सुनते ही नारदको बड़ा क्रोध आया; मायाके वशीभूत होनेके कारण मनमें चेत नहीं रहा॥  

 

 

पर संपदा सकहु नहिं देखी । तुम्हें इरिषा कपट बिसेषी॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु॥

अर्थ-   [मुनिने कहा–] तुम दूसरोंकी सम्पदा नहीं देख सकते, तुम्हारे ईर्ष्या और कपट बहुत है।
समुद्र मथते समय तुमने शिवजीको बावला बना दिया और देवताओंको प्रेरित करके उन्हें
विषपान कराया॥ 

 

 

दो०–असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।

स्वार्थ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥ १३६॥

अर्थ-   असुरोंको मदिरा और शिवजीको विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुन्दर [कौस्तुभ] मणि
ले ली। तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। सदा कपटका व्यवहार करते हो॥  

 

 

परम स्वतंत्र न सिर पर कोईं । भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू । बिसमय हरष न हियेँ कछु धरहू॥

अर्थ-   तुम परम स्वतन्‍्त्र हो, सिरपर तो कोई है नहीं, इससे जब जो मनको भाता है, [स्वच्छन्दतासे ]
वही करते हो। भलेको बुरा और बुरेको भला कर देते हो। हृदयमें हर्ष-विषाद कुछ भी नहीं लाते ॥  

 

 

डहकि डहकि परिचेहु सब काहू । अति असंक मन सदा उछाहू॥

करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा । अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥

अर्थ-   सबको ठग-ठगकर परक गये हो और अत्यन्त निडर हो गये हो; इसीसे [ठगनेके काममें ]
मनमें सदा उत्साह रहता है। शुभ-अशुभ कर्म तुम्हें बाधा नहीं देते। अबतक तुमको किसीने ठीक
नहीं किया था॥ 

 

 

भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
बंचेहु मोहि जबवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥
अर्थ-   अबकी तुमने अच्छे घर बैना दिया है (मेरे-जैसे जबर्दस्त आदमीसे छेड़खानी की है)। अतः अपने कियेका फल अवश्य पाओगे। जिस शरीरको धारण करके तुमने मुझे ठगा है, तुम भी वही
शरीर धारण करो, यह मेरा शाप है॥ 

 

 

कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी । करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी । नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥

अर्थ-   तुमने हमारा रूप बन्दरका-सा बना दिया था, इससे बन्दर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। [मैं
जिस स्त्रीकों चाहता था, उससे मेरा वियोग कराकर] तुमने मेरा बड़ा अहित किया है, इससे तुम
भी स्त्रीके वियोगमें दुःखी होगे॥  

 

 

दो०–श्राप सीस धरि हरषि हियेँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥  

अर्थ-   शापको सिरपर चढ़ाकर, हृदयमें हर्षित होते हुए प्रभुने नारदजीसे बहुत विनती की और
कृपानिधान भगवान्‌ने अपनी मायाकी प्रबलता खींच ली॥  

 

 

जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥

अर्थ-   जब भगवानने अपनी मायाकों हटा लिया, तब वहाँ न लक्ष्मी ही रह गयीं, न राजकुमारी ही।
तब मुनिने अत्यन्त भयभीत होकर श्रीहरिके चरण पकड़ लिये और कहा–हे शरणागतके दुःखोंको हरनेवाले ! मेरी रक्षा कौजिये॥  

 

मृषा होउ मम श्राप कृपाला | मम इच्छा कह दीनदयाला॥
मैं दुर्बबन कहे बहुतेरे । कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥

अर्थ-   हे कृपालु! मेरा शाप मिथ्या हो जाय। तब दीनोंपर दया करनेवाले भगवानने कहा कि यह
सब मेरी ही इच्छा [से हुआ] है। मुनिने कहा-मैंने आपको अनेक खोटे वचन कहे हैं। मेरे पाप
कैसे मिटेंगे.

 

 

जपहु जाइ संकर सत नामा । होइहि हृदययँ तुरत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें । असि परतीति तजहु जनि भोरें॥

अर्थ-   [ भगवान्‌ने कहा–] जाकर शड्जूरजीके शतनामका जप करो, इससे हृदयमें तुरंत शान्ति होगी।
शिवजीके समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वासको भूलकर भी न छोड़ना॥ 

 

 

जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी । सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई । अब न तुम्हहि माया निअराई॥

अर्थ-   हे मुनि! पुरारि (शिवजी) जिसपर कृपा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पाता। हृदयमें ऐसा
निश्चय करके जाकर पृथ्वीपर विचरो। अब मेरी माया तुम्हारे निकट नहीं आवेगी॥ 

 

 

दो०–बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान।

सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥  

अर्थ-   बहुत प्रकारसे मुनिको समझा-बुझाकर (ढाढ़स देकर) तब प्रभु अन्तर्धान हो गये और नारदजी
श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंका गान करते हुए सत्यलोक (ब्रह्मलोक) को चले॥  

 

 

हर गन मुनिहि जात पथ देखी । बिगत मोह मन हरष बिसेषी॥
अति सभीत नारद पहिं आए । गहि पद आरत बचन सुनाए॥

अर्थ-   शिवजीके गणोंने जब मुनिको मोहरहित और मनमें बहुत प्रसन्न होकर मार्ममें जाते हुए देखा तब
वे अत्यन्त भयभीत होकर नारदजीके पास आये और उनके चरण पकड़कर दीन वचन बोले– ॥  

 

 

हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥

अर्थ-   हे मुनिराज! हम ब्राह्मण नहीं हैं, शिवजीके गण हैं। हमने बड़ा अपराध किया, जिसका फल
हमने पा लिया। हे कृपालु ! अब शाप दूर करनेकी कृपा कीजिये। दीनोंपर दया करनेवाले नारदजीने
कहा–॥ 

 

 

निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
भुज बल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिह॒हिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ॥

अर्थ-   तुम दोनों जाकर राक्षस होओ; तुम्हें महान्‌ ऐश्वर्य, तेज और बलकी प्राप्ति हो। तुम अपनी
भुजाओंके बलसे जब सारे विश्वको जीत लोगे, तब भगवान्‌ विष्णु मनुष्यका शरीर धारण करेंगे॥ 

 

 

समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाईं। भए्‌ निसाचर कालहि पाई॥

अर्थ-   युद्धमें श्रीहरिके हाथसे तुम्हारी मृत्यु होगी, जिससे तुम मुक्त हो जाओगे और फिर संसारमें
जन्म नहीं लोगे। वे दोनों मुनिके चरणोंमें सिर नवाकर चले और समय पाकर राक्षस हुए॥  

 

 

दो०–एक कलप एहीि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुवबि भार॥  

अर्थ-   देवताओंको प्रसन्न करनेवाले, सज्जनोंको सुख देनेवाले और पृथ्वीका भार हरण करनेवाले
भगवान्‌ने एक कल्पमें इसी कारण मनुष्यका अवतार लिया था॥  

 

 

एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं । चारू चरित नानाबिधि करहीं॥

अर्थ-   इस प्रकार भगवान्‌के अनेकों सुन्द, सुखदायक और अलौकिक जन्म और कर्म हैं। प्रत्येक
कल्पमें जब-जब भगवान्‌ अवतार लेते हैं और नाना प्रकारकी सुन्दर लीलाएँ करते हैं,॥  

 

 

तब तब कथा मुनीसन्ह गाईं। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥

अर्थ-   तब-तब मुनीश्वरोंने परम पवित्र काव्यरचना करके उनकी कथाओंका गान किया है और भाँति-
भाँतिके अनुपम प्रसंगोंका वर्णन किया है, जिनको सुनकर समझदार (विवेकी) लोग आश्चर्य
नहीं करते॥ 

 

 

हरि अनंत हरिकथा अनंता । कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाएं। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥

अर्थ-   श्रीहरि अनन्त हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनन्त है; सब
संतलोग उसे बहुत प्रकारसे कहते-सुनते हैं। श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर चरित्र करोड़ कल्पोंमें भी गाये
नहीं जा सकते॥

 

यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी। सेवत सुलभ सकल दुखहारी॥

अर्थ-   [शिवजी कहते हैं कि] हे पार्वती! मैंने यह बतलानेके लिये इस प्रसंगको कहा कि ज्ञानी
मुनि भी भगवान्‌की मायासे मोहित हो जाते हैं। प्रभु कौतुकी (लीलामय) हैं और शरणागतका
हित करनेवाले हैं। वे सेवा करनेमें बहुत सुलभ और सब दुःखोंके हरनेवाले हैं ॥  

 

 

सो०–सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल।
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥ 

अर्थ-   देवता, मनुष्य और मुनियोंमें ऐसा कोई नहीं है जिसे भगवान्‌की महान्‌ बलवती माया मोहित
न कर दे ॥ मनमें ऐसा विचारकर उस महामायाके स्वामी ( प्रेरक ) श्री भगवान्‌का भजन करना
चाहिये॥ 

 

 

अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहडऊँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्य भयउ कोसलपुर भूपषा॥

अर्थ-   हे गिरिराजकुमारी | अब भगवान्‌के अवतारका वह दूसरा कारण सुनो-मैं उसकी विचित्र कथा
विस्तार करके कहता हूँ–जिस कारणसे जन्मरहित, निर्गुण और रूपरहित (अव्यक्त सच्चिदानन्दघन)
ब्रह्म अयोध्यापुरीके राजा हुए॥  

 

 

जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥
जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥

अर्थ-   जिन प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको तुमने भाई लक्ष्मणजीके साथ मुनियोंका-सा वेष धारण किये बनमें
फिरते देखा था और हे भवानी! जिनके चरित्र देखकर सतीके शरीरमें तुम ऐसी बावली हो गयी
थीं कि–॥  

 

 

अजहूँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउऊँ मति अनुसारा॥

अर्थ-   अब भी तुम्हीरे उस बावलेपनकी छाया नहीं मिटती, उन्हींके भ्रमरूपी रोगके हरण
करनेवाले चरित्र सुनो। उस अवतारमें भगवान्‌ने जो-जो लीला की, वह सब मैं अपनी बुद्धिके
अनुसार तुम्हें कहँगा॥ 

 

 

भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसुकानी॥
लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥

अर्थ-  याज्ञवल्क्यजीने कहा-+ ] हे भरद्वाज ॥| शड्जूरजीके वचन सुनकर पार्वतीजी सकुचाकर प्रेमसहित
मुसकरायीं ॥ फिर वृषकेतु शिवजी जिस कारणसे भगवान्‌का बह अवतार हुआ था, उसका वर्णन
करने लगे॥  

 

 

दो०–सो मैं तुम्ह सन कहऊँ सबु सुनु मुनीस मन लाइ।
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥  

अर्थ-   हे मुनीश्वर भरद्वाज! मैं वह सब तुमसे कहता हूँ, मन लगाकर सुनो। श्रीरामचन्रजीकी कथा
कलियुगके पापोंको हरनेवाली, कल्याण ‘करनेवाली और बड़ी सुन्दर है ॥  

 

 

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भे नरसृष्टि अनूपा॥
दंपति धरम आचरन नीका। अजऊहूँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥

अर्थ-   स्वायम्भुव मनु और [उनकी पत्नी] शतरूपा, जिनसे मनुष्योंकी यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों
पति-पत्नीके धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे। आज भी वेद जिनकी मर्यादाका गान करते हैं॥  

 

 

नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरिभगत भयउ सुत जासू॥

लघु सुत नाम प्रियत्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहिं जाही॥

अर्थ-   राजा उत्तानपाद उनके पुत्र थे, जिनके पुत्र [प्रसिद्ध] हरिभक्त श्रुवजी हुए। उन (मनुजी) के
छोटे लड़केका नाम प्रियत्रत था, जिसकी प्रशंसा वेद और पुराण करते हैं॥ 

 

 

देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
आदिदेव प्रभु दीनदयाला । जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥

अर्थ-   पुनः देवहूति उनकी कन्या थी, जो कर्दम मुनिकी प्यारी पत्नी हुई और जिन्होंने आदिदेव,
दीनोंपर दया करनेवाले समर्थ एवं कृपालु भगवान्‌ कपिलको गर्भमें धारण किया॥  

 

सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगण बखाना। तत्त्व बिचार निपुन भगवाना॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥

अर्थ-   तत्त्वोंका विचार करनेमें अत्यन्त निपुण जिन (कपिल) भगवान्‌ने सांख्यशास्त्रका प्रकटरूपमें
वर्णन किया, उन (स्वायम्भुव) मनुजीने बहुत समयतक राज्य किया और सब प्रकारसे भगवान्‌की
आज्ञा [रूप शास्त्रोंकी मर्यादा] का पालन किया॥  

 

 

सो०–होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
हृदय बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥  

अर्थ-   घरमें रहते बुढ़ापा आ गया, परन्तु विषयोंसे वैराग्य नहीं होता; [इस बातको सोचकर] उनके
मनमें बड़ा दुःख हुआ कि श्रीहरिकी भक्ति बिना जन्म यों ही चला गया॥  

 

 

बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥

अर्थ-   तब मनुजीने अपने पुत्रको जबर्दस्ती राज्य देकर स्वय स्त्रीसहित वनको गमन किया ॥ अत्यन्त
पवित्र और साधकोंको सिद्धि देनेवाला तीथथोंमें श्रेष्ठ नैमिषारण्य प्रसिद्ध है॥ 

 

 

बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥

अर्थ-   वहाँ मुनियों और सिद्धोंके समूह बसते हैं। राजा मनु हृदयमें हर्षित होकर वहीं चले। वे धीर
बुद्धिवाले राजा-रानी मार्गमें जाते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो ज्ञान और भक्ति ही शरीर
धारण किये जा रहे हों॥ 

 

 

पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निर्मल नीरा॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥

अर्थ-   [चलते-चलते] वे गोमतीके किनारे जा पहुँचे। हर्षित होकर उन्होंने निर्मल जलमें स्नान किया।
उनको धर्मधुरन्धर राजर्षि जानकर सिद्ध और ज्ञानी मुनि उनसे मिलने आये॥ 

 

 

जहँ जहँ तीरथ रहे सुहाए। मुनि सकल सादर करवाए॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना | सत समाज नित सुनहिं पुराना॥

अर्थ-   जहाँ-जहाँ सुन्दर तीर्थ थे, मुनियोंने आदरपूर्वक सभी तीर्थ उनको करा दिये। उनका शरीर दुर्बल
हो गया था, वे मुनियोंके-से (बल्कल) वस्त्र धारण करते थे और संतोंके समाजमें नित्य पुराण
सुनते थे॥  

 

 

दो०–ट्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥ १४३॥

अर्थ-   और द्वादशाक्षर मन्त्र (३ नमो भगवते वासुदेवाय) का प्रेमसहित जप करते थे। भगवान्‌
वासुदेवके चरणकमलोंमें उन राजा-रानीका मन बहुत ही लग गया॥  

 

 

करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म. सच्चिदानंदा॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥

अर्थ-   वे साग, फल और कन्दका आहार करते थे और सच्िदानन्द ब्रह्मका स्मरण करते थे। फिर वे
श्रीहरिके लिये तप करने लगे और मूल-फलको त्यागकर केवल जलके आधारपर रहने लगे॥  

 

 

उर अभिलाष निरंतर होईं । देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥

अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥

अर्थ-   हृदयमें निरन्तर यही अभिलाषा हुआ करती कि हम [कैसे] उन परम प्रभुको आँखोंसे देखें,
जो निर्गुण, अखण्ड, अनन्त और अनादि हैं और परमार्थवादी (त्रह्मज्ञानी, तत्त्ववेत्ता) लोग जिनका
चिन्तन किया करते हैं॥ 

 

 

नेति नेति जेहि बेद निरूपा । निजानंद निरुपाधि अनूपा॥

संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना । उपजहिं जासु अंस तें नाना॥
अर्थ-   जिन्हें वेद ‘नेति-नेति’ (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण करते हैं । जो आनन्दस्वरूप,
उपाधिरहित और अनुपम हैं, एवं जिनके अंशसे अनेकों शिव, ब्रह्मा और विष्णुभगवान्‌ प्रकट होते हैं ॥  

 

 

ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहईं | भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा । तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥

अर्थ-   ऐसे [महान्‌] प्रभु भी सेवकके वशमें हैं और भक्तोंके लिये [दिव्य] लीलाविग्रह धारण करते
हैं। यदि वेदोंमें यह वचन सत्य कहा है तो हमारी अभिलाषा भी अवश्य पूरी होगी॥  

 

 

दो०–एहि बिधि बीते बरष घट सहस बारि आहार।
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥  

अर्थ-   इस प्रकार जलका आहार [करके तप] करते छ: हजार वर्ष बीत गये। फिर सात हजार वर्ष
वे वायुके आधारपर रहे॥  

 

 

बरष सहस दस त्यागेडठ सोऊ। ठाढ़े रे एक पद दोऊ॥
बिधि हरि हर तप देखि अपारा । मनु समीप आए बहु बारा॥

अर्थ-   दस हजार वर्षतक उन्होंने वायुका आधार भी छोड़ दिया। दोनों एक पैरसे खड़े रहे। उनका
अपार तप देखकर ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी कई बार मनुजीके पास आये॥  

 

 

मागहु बर बहु भाँति लोभाए | परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥

अर्थ-   उन्होंने इन्हें अनेक प्रकारसे ललचाया और कहा कि कुछ वर माँगो। पर ये परम धैर्यवान्‌
[राजा-रानी अपने तपसे किसीके] डिगाये नहीं डिगे। यद्यपि उनका शरीर हड्डियोंका ढाँचामात्र
रह गया था, फिर भी उनके मनमें जरा भी पीड़ा नहीं थी॥ 

 

 

प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
मागु मागु बरु भे नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥

अर्थ-   सर्वज्ञ प्रभुने अनन्य गति (आश्रय) वाले तपस्वी राजा-रानीको “निज दास” जाना। तब परम
गम्भीर और कृपारूपी अमृतसे सनी हुई यह आकाशवाणी हुई कि “वर माँगो’॥  

 

 

मृतक जिआवनि गिरा सुहाई । श्रवन रंध्र होइ उर जब आई॥
हष्ट पुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥

अर्थ-   मुर्देको भी जिला देनेवाली यह सुन्दर वाणी कानोंके छेदोंसे होकर जब हृदयमें आयी, तब
राजा-रानीके शरीर ऐसे सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट हो गये, मानो अभी घरसे आये हैं॥ 

 

 

दो०–श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात ।
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥  

अर्थ-   कानोंमें अमृतके समान लगनेवाले वचन सुनते ही उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो
गया। तब मनुजी दण्डवत्‌ करके बोले, प्रेम हृदयमें समाता न था–॥  

 

 

सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥

अर्थ-   हे प्रभो! सुनिये, आप सेवकोंके लिये कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपकी चरण-रजकी ब्रह्मा,
विष्णु और शिवजी भी वन्दना करते हैं। आप सेवा करनेमें सुलभ हैं तथा सब सुखोंके देनेवाले
हैं। आप शरणागतके रक्षक और जड-चेतनके स्वामी हैं॥  

 

 

जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्‍न होइ यह बर देहू॥
जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥

अर्थ-   हे अनाथोंका कल्याण करनेवाले ! यदि हमलोगोंपर आपका ख्लेह है, तो प्रसन्न होकर यह वर
दीजिये कि आपका जो स्वरूप शिवजीके मनमें बसता है और जिस [की प्राप्ति] के लिये मुनिलोग
यत्र करते हैं॥ 

 

 

जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन | कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥

अर्थ-   जो काकभुशुण्डिके मनरूपी मानसरोवरमें विहार करनेवाला हंस है, सगुण और निर्गुण कहकर
वेद जिसकी प्रशंसा करते हैं, हे शरणागतके दुःख मिटानेवाले प्रभो! ऐसी कृपा कीजिये कि हम
उसी रूपको नेत्र भरकर देखें॥ 

 

 

दंपति बचन परम प्रिय लागे। मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना । बिस्वबास॒ प्रगटे भगवाना॥

अर्थ-   राजा-रानीके कोमल, विनययुक्त और प्रेमरसमें पगे हुए वचन भगवान्‌को बहुत ही प्रिय लगे।
भक्तवत्सल, कृपानिधान, सम्पूर्ण विश्वेके निवासस्थान (या समस्त विश्वमें व्यापक), सर्वसमर्थ
भगवान्‌ प्रकट हो गये॥  

 

 

दो०–नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥  

अर्थ-   भगवान्‌के नीले कमल, नीलमणि और नीले (जलयुक्त) मेघके समान [कोमल, प्रकाशमय
और सरस] श्यामवर्ण [चिन्मय] शरीरकी शोभा देखकर करोड़ों कामदेव भी लजा जाते हैं॥  

 

 

सरद मयंक बदन छबि सींवा । चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥

अर्थ-   उनका मुख शरद [पूर्णिमा] के चन्द्रमके समान छविकी सीमास्वरूप था। गाल और ठोड़ी
बहुत सुन्दर थे, गला शट्डुके समान (त्रिरेखायुक्त, चढ़ाव-उतारवाला) था। लाल ओठ, दाँत और
नाक अत्यन्त सुन्दर थे। हँसी चन्द्रमाकी किरणावलीको नीचा दिखानेवाली थी॥ 

 

 

नव अंबुज अंबक छबि नीकी । चितवनि ललित भावँती जी की॥
भृूकुटि मनोज चाप छबि हारी । तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥

अर्थ-   नेत्रोंकी छबि नये [खिले हुए] कमलके समान बड़ी सुन्दर थी। मनोहर चितवन जीको बहुत प्यारी
लगती थी। टेढ़ी भौंहें कामदेवके धनुषकी शोभाकों हरनेवाली थीं। ललाटपटलपर प्रकाशमय तिलक था॥ 

 

 

कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥

अर्थ-   कानोंमें मकराकृत (मछलीके आकारके) कुण्डल और सिरपर मुकुट सुशोभित था। टेढे
(घुँघराले) काले बाल ऐसे सघन थे, मानो भौंरोंके झुंड हों। हृदयपर श्रीवत्स, सुन्दर वनमाला,
रत्नरजटित हार और मणियोंके आभूषण सुशोभित थे॥  

 

 

केहरि कंधर चारू जनेऊ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
करि कर सरिस सुभग भुजदंडा । कटि निषंग कर सर कोदंडा॥
अर्थ-   सिंहकी-सी गर्दन थी, सुन्दर जनेऊ था। भुजाओंमें जो गहने थे, वे भी सुन्दर थे। हाथीकी सूँड़के समान (उतार-चढ़ाववाले) सुन्दर भुजदण्ड थे। कमरमें तरकस और हाथमें बाण और धनुष
[शोभा पा रहे] थे॥ 

 

 

दो०–तड़ित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि।
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥  

अर्थ-   [स्वर्ण-वर्णका प्रकाशमय] पीताम्बर बिजलीको लजानेवाला था। पेटपर सुन्दर तीन रेखाएँ
(त्रिवली) थीं। नाभि ऐसी मनोहर थी, मानो यमुनाजीके भँवरोंकी छबिको छीने लेती हो ॥  

 

 

पद राजीव बरनि नहिं जाहीं । मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥

अर्थ-  जिनमें मुनियोंके मनरूपी भौरे बसते हैं, भगवान्‌के उन चरणकमलोंका तो वर्णन ही नहीं किया
जा सकता। भगवान्‌के बायें भागमें सदा अनुकूल रहनेवाली, शोभाकी राशि, जगत्‌की मूलकारणरूपा
आदिशक्ति श्रीजानकीजी सुशोभित हैं॥ 

 

 

जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
भृूकुटि बिलास जासु जग होईं । राम बाम दिसि सीता सोई॥

अर्थ-   जिनके अंशसे गुणोंकी खान अगणित लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी (त्रिदेवोंकी शक्तियाँ) उत्पन्न
होती हैं तथा जिनकी भौंहके इशारेसे ही जगत्‌की रचना हो जाती है, वही [भगवान्‌की स्वरूपा-
शक्ति] श्रीसीताजी श्रीरामचन्द्रजीकी बायीं ओर स्थित हैं॥  

 

 

छब्समुद्र हरि रूप बिलोकी | एकटक रहे नयन पट रोकी॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा । तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥

अर्थ-   शोभाके समुद्र श्रीहरिके रूपको देखकर मनु-शतरूपा नेत्रोंके पट (पलकें) रोके हुए एकटक
(स्तब्ध) रह गये। उस अनुपम रूपको वे आदरसहित देख रहे थे और देखते-देखते अघाते ही
न थे॥ 

 

 

हरष बिबस तन दसा भुलानी | परे दंड इव गहि पद पानी॥

सिर परसे प्रभु निज कर कंजा । तुत उठाए करुनापुंजा॥

अर्थ-   आनन्दके अधिक वशमें हो जानेके कारण उन्हें अपने देहकी सुधि भूल गयी। वे हाथोंसे
भगवान्‌के चरण पकड़कर दण्डकी तरह (सीधे) भूमिपर गिर पड़े। कृपाकी राशि प्रभुने अपने
करकमलोंसे उनके मस्तकोंका स्पर्श किया और उन्हें तुरंत ही उठा लिया॥ 

 

 

दो०–बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोड़ भाव मन महादानि अनुमानि॥  

अर्थ-   फिर कृपानिधान भगवान्‌ बोले-मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर और बड़ा भारी दानी मानकर,
जो मनको भाये वही वर माँग लो॥  

 

 

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी । धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥

अर्थ-   प्रभुके वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजाने कोमल वाणी कही-
हे नाथ! आपके चरणकमलोंको देखकर अब हमारी सारी मनःकामनाएँ पूरी हो गयीं॥ 

 

 

एक लालसा बड़ि उर माहीं । सुगम अगम कहि जाति सो नाहीं॥

तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाई॥

अर्थ-   फिर भी मनमें एक बड़ी लालसा है। उसका पूरा होना सहज भी है और अत्यन्त
कठिन भी, इसीसे उसे कहते नहीं बनता। हे स्वामी! आपके लिये तो उसका पूरा
करना बहुत सहज है, पर मुझे अपनी कृपणता (दीनता) के कारण वह अत्यन्त कठिन मालूम
होता है॥ 

 

 

जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई | बहु संपति मागत सकुचाई॥
तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥

अर्थ-   जैसे कोई दरिद्र कल्पवृक्षको पाकर भी अधिक द्रव्य माँगनेमें संकोच करता है, क्योंकि वह
उसके प्रभावको नहीं जानता, वैसे ही मेरे हृदयमें संशय हो रहा है॥ 

 

 

सो तुम्ह जानहु अंतरजामी । पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोही । मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥
अर्थ-   हे स्वामी! आप अन्तर्यामी हैं, इसलिये उसे जानते ही हैं। मेरा वह मनोरथ पूरा कीजिये।

[ भगवान्‌ने कहा–] हे राजन्‌! संकोच छोड़कर मुझसे माँगो। तुम्हें न दे सकूँ ऐसा मेरे पास कुछ
भी नहीं है॥ 

 

 

दो०–दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहऊँ सतिभाउ।
चाहऊँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥  

अर्थ-   [राजाने कहा–] हे दानियोंके शिरोमणि! हे कृपानिधान! हे नाथ! मैं अपने मनका सच्चा
भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ। प्रभुसे भला कया छिपाना!॥  

 

 

देखि प्रीति सुनि बचन अमोले । एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहूँ जाई । नृप तब तनय होब मैं आई॥

अर्थ-   राजाकी प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर करुणानिधान भगवान्‌ बोले-ऐसा ही
हो। हे राजन्‌! मैं अपने समान [दूसरा] कहाँ जाकर खोजूँ। अत: स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र
बनूँगा॥  

 

 

सतरूपहि बिलोकि कर जोरें | देबि मागु बरु जो रुचि तोरें॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोड़ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥

अर्थ-   शतरूपाजीको हाथ जोड़े देखकर भगवान्‌ने कहा-हे देवि! तुम्हारी जो इच्छा हो, सो वर
माँग लो। [शतरूपाने कहा–] हे नाथ! चतुर राजाने जो वर माँगा, हे कृपालु! वह मुझे
बहुत ही प्रिय लगा॥  

 

 

 

प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई । जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
तुम्ह तब्रह्मादि जनक जग स्वामी । ब्रह्मा सकल उर अंतरजामी॥

अर्थ-   परन्तु हे प्रभु! बहुत ढिठाई हो रही है, यद्यपि हे भक्तोंका हित करनेवाले! वह ढिठाई भी
आपको अच्छी ही लगती है ॥ आप ब्रह्मा आदिके भी पिता (उत्पन्न करनेवाले), जगत्‌के स्वामी
और सबके हृदयके भीतरकी जाननेवाले ब्रह्म हैं॥ 

 

 

अस समुझत मन संसय होईं । कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥

अर्थ-   ऐसा समझनेपर मनमें सन्देह होता है, फिर भी प्रभुने जो कहा वही प्रमाण (सत्य) है। [मैं
तो यह माँगती हूँ कि] हे नाथ! आपके जो निज जन हैं वे जो (अलौकिक, अखण्ड) सुख पाते
हैं और जिस परम गतिको प्राप्त होते हैं॥ 

 

 

दो०–सोड़ सुख सोड गति सोड भगति सोड़ निज चरन सनेहु।
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥  

अर्थ-   है प्रभो! वही सुख, वही गति, वही भक्ति, वही अपने चरणोंमें प्रेम, वही ज्ञान और वही
रहन-सहन कृपा करके हमें दीजिये॥  

 

 

सुनि मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥
जो कछु रुचि तुम्हे? मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥

अर्थ-  [रानीकी ] कोमल, गूढ़ और मनोहर श्रेष्ठ वाक्यरचना सुनकर कृपाके समुद्र भगवान्‌ कोमल
वचन बोले-दतुम्हारे मनमें जो कुछ इच्छा है, वह सब मैंने तुमको दिया, इसमें कोई सन्देह न
समझना॥  

 

 

मातु बिबेक अलौकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें॥
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनती प्रभु मोरी॥

अर्थ-   हे माता! मेरी कृपासे तुम्हारा अलौकिक ज्ञान कभी नष्ट न होगा। तब मनुने भगवान्‌के चरणोंकी
वन्दना करके फिर कहा-हे प्रभु! मेरी एक विनती और है–॥  

 

 

सुत बिषडक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥

अर्थ-   आपके चरणोंमें मेरी वैसी ही प्रीति हो जैसी पुत्रके लिये पिताकी होती है, चाहे मुझे कोई बड़ा
भारी मूर्ख ही क्‍यों न कहे। जैसे मणिके बिना साँप और जलके बिना मछली [नहीं रह सकती],
वैसे ही मेरा जीवन आपके अधीन रहे (आपके बिना न रह सके) ॥  

 

 

 

अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी । बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥

अर्थ-   ऐसा वर माँगकर राजा भगवान्‌के चरण पकड़े रह गये। तब दयाके निधान भगवानने कहा-ऐसा
ही हो। अब तुम मेरी आज्ञा मानकर देवराज इन्द्रकी राजधानी (अमरावती) में जाकर वास करो॥  

 

 

सो०–तहँ करि भोग बिसाल तात गएँ कछु काल पुनि।
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥  

अर्थ-   हे तात! वहाँ [स्वर्गक] बहुत-से भोग भोगकर, कुछ काल बीत जानेपर, तुम अवधके राजा
होगे। तब मैं तुम्हारा पुत्र होऊँगा॥  

 

 

इच्छामय नरबेष सँवारें । होइहडँ प्रगट निकेत तुम्हारें॥

अंसन्ह सहित देह धरि ताता । करिहडँ चरित भगत सुखदाता॥
अर्थ-   इच्छानिर्मित मनुष्यरूप सजकर मैं तुम्हारे घर प्रकट होऊँगा। हे तात! मैं अपने अंशोंसहित देह धारण करके भक्तोंको सुख देनेवाले चरित्र करूँगा॥  

 

 

जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥

आदिसक्ति जेहिं जग॒उपजाया। सोउ अवतरिहिे मोरि यह माया॥

अर्थ-   जिन (चरित्रों) को बड़े भाग्यशाली मनुष्य आदरसहित सुनकर, ममता और मद त्यागकर,
भवसागरसे तर जायँगे। आदिशक्ति यह मेरी [स्वरूपभूता] माया भी, जिसने जगत्‌को उत्पन्न किया
है, अवतार लेगी॥  

 

 

पुरठब मैं अभिलाष तुम्हारा । सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतधान भए. भगवाना॥

अर्थ-   इस प्रकार मैं तुम्हारी अभिलाषा पूरी करूँगा। मेरा प्रण सत्य है, सत्य है, सत्य है। कृपानिधान
भगवान्‌ बार-बार ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गये॥  

 

 

दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥
समय पाइ तनु तजि अनयासा । जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥

अर्थ-   वे स्त्री-पुरुष (राजा-रानी) भक्तोंपर कृपा करनेवाले भगवान्‌को हृदयमें धारण करके कुछ
कालतक उस आश्रममें रहे। फिर उन्होंने समय पाकर, सहज ही (बिना किसी कष्टके) शरीर छोड़कर,
अमरावती (इन्द्रकी पुरी) में जाकर वास किया॥  

 

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