अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 8(anmol wachan)

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अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 8(anmol wachan)

अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 8(anmol wachan)
अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 8(anmol wachan)

 

 

जो लोग दूसरों की आँखों में धूल झोंकने में माहिर होते हैं, वे सोचते हैं कि वे भगवान को भी छल सकते हैं। लेकिन सर्वज्ञ और सर्वव्यापी भगवान को धोखा देने का विचार ही उनकी मूर्खता है।.

 

मूर्ख व्यक्ति सोचता है कि वह इंद्रियों के सुख का आनंद ले रहा है, पर उसे यह समझ नहीं आता कि इसके बदले वह अपनी जीवनशक्ति ही खो देता है।

 

हृदय की सरलता और निर्मलता ईश्वरीय ज्योति हैं, जो ईश्वर का मार्ग दिखाती हैं। प्रभु से क्षमा की आशा हमें इस पवित्रता की ओर खींचती है, और प्रभु का भय हमें पाप से दूर रखता है। भगवान की महिमा का स्मरण ही हमें सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ाता है।

 

यदि आप भगवान के दास कहलाते हैं, तो फिर दुनिया की आशाओं के पीछे मत भागो। जब आप सर्वशक्तिमान प्रभु को पा चुके हैं, तो फिर किसी और के सामने झुकने की क्या आवश्यकता है?

 

दुनिया की किसी भी वस्तु का विश्लेषण करने पर आपको पांच तत्व मिलेंगे: सत्ता, प्रकाश, आनंद, नाम, और रूप। इनमें से पहली तीन चीजें ब्रह्म से संबंधित हैं, जबकि शेष दो संसार से। इसलिए नाम और रूप से मन हटाकर सच्चिदानंद में ध्यान केंद्रित करो।

 

जब तक परमात्मा के वास्तविक स्वरूप की पहचान नहीं होती, तब तक संसार और उसके प्राणी अविद्या के रूप में दिखाई देते हैं। लेकिन जब बास्तविकता का ज्ञान होता है, तब जीव और जगत की माया मिट जाती है और केवल परब्रह्म दिखाई देता है।

 

शोक, मोह, सुख-दुख और देह की उत्पत्ति माया के कारण होती है। यह संसार केवल बुद्धि का विकार है, जिसमें कुछ भी स्थायी नहीं है।

 

विषय-वासना में फँसना मानव का धर्म नहीं है। स्त्री, धन, पुत्र, संपत्ति, और अन्य सांसारिक वस्तुएं क्षणभंगुर हैं, उनमें ममता रखना भूल है। केवल भगवान की भक्ति से मोक्ष संभव है, जो कि सर्वश्रेष्ठ और शाश्वत है।

 

ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है, लेकिन उसके लिए शुद्ध मन होना भी आवश्यक है। वैराग्य के बिना ज्ञान स्थिर नहीं रह सकता।

 

यदि कोई व्यक्ति जान जाए कि भोजन में विष मिला है, तो वह तुरंत उसे छोड़ देगा। इसी प्रकार जब संसार की अनित्यता और दुखों का पता चल जाता है, तो मनुष्य वैराग्य धारण कर लेता है, और फिर वह वैराग्य हटता नहीं

 

मैंने संसार के सुख-दुख, जीवन-मरण, बुढ़ापा और रोग को देखा है, और इन्हीं से मुक्ति पाने के लिए संन्यास लिया है। क्या अब भी मैं मूर्खों की तरह वापस उन सुखों का आनंद लेने जाऊँगा?

 

भगवान की खोज और सांसारिक महत्वाकांक्षा दोनों साथ नहीं चल सकतीं। जिस तरह आग और पानी एक साथ नहीं हो सकते, उसी तरह राज्यपद की इच्छा रखने वाले व्यक्ति के लिए शांति की आकांक्षा निरर्थक है।

 

देह को चाहे जितना भी सुख-दुख हो, भक्त उसकी परवाह नहीं करता। उसका ध्यान केवल भगवद्भक्ति में ही लगा रहता है और वह भक्ति के आनंद में डूबा रहता है।

 

जिस तरह घर में दिया जलाने से झरोखा भी प्रकाशित होता है, उसी तरह जब भगवान मन में प्रकट होते हैं, तो इंद्रियाँ भी भक्ति के आनंद में डूब जाती हैं।

 

भगवान के नाम का उच्चारण किसी भी रूप में, चाहे हंसी में हो या दुख में, सभी पापों को नष्ट कर देता है।

 

जो व्यक्ति सांसारिक भोगों को प्राप्त होने पर भी उन्हें स्वीकार नहीं करता, वह सच्चा मनुष्य है। और जो उन्हें लेकर योग्य पात्रों को देता है, वह भी सच्चा है, लेकिन आधा। जो केवल लेता है, लेकिन किसी को कुछ नहीं देता, वह न तो मक्खीचूस कहलाने योग्य है और न ही बुद्धिमान।

 

जो मनुष्य केवल संसार की साधना में लगा रहता है, वह इस लोक और परलोक दोनों में दुःख पाता है।

 

ज्ञान और प्रेम एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। जिस मार्ग का अनुसरण भी करो, अंतिम लक्ष्य पर पहुँचते ही समझ में आएगा कि आत्मदर्शन ही प्रेम है।

 

मांस, हड्डियों से बने शरीर में बहुत से मनुष्य सिर्फ भोगों के लिए जीते हैं, लेकिन उनमें बुद्धिमान लोग बहुत कम होते हैं। जो अज्ञान के कारण जन्म-मृत्यु और दुखों के चक्र में फंसे रहते हैं, वे पशुओं के समान हैं।

 

जो व्यक्ति न तो अपने लिए और न ही दूसरों के लिए धन, पुत्र या राज्य की इच्छा रखते हैं, और न ही अधर्म से उन्नति चाहते हैं, वही सदाचारी और धर्मनिष्ठ होते हैं।

 

गाय अपने गले की माला के गिरने या बने रहने की परवाह नहीं करती, वैसे ही जो व्यक्ति आनंद में लीन हो जाता है, वह शरीर के बने रहने या नष्ट होने की चिंता नहीं करता।

 

भगवान के रूप का ध्यान करो, उनके नामों का स्मरण करो, उनके गुणों का गायन करो और उनकी लीलाओं का वर्णन और श्रवण करो।

 

हे भगवान! मेरे शेष जीवन के दिन किसी पवित्र वन में “शिव, शिव” का जाप करते हुए बीतें। चाहे वह साँप हो या फूल, बैरी हो या मित्र, कोमल बिस्तर हो या कठोर पत्थर, मेरी दृष्टि सब पर समान हो जाए।

 

भगवान श्रीराम की कृपा जिस पर होती है, उसके लिए विष अमृत बन जाता है, शत्रु मित्र बन जाते हैं, समुद्र गौ के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि शीतल हो जाती है, और सुमेरु पर्वत तिनके के समान हल्का हो जाता है।

 

प्रेम का नाम सब लेते हैं, परंतु सच्चा प्रेम वही है, जिसमें मनुष्य आठों पहर उसी में डूबा रहे।

 

सच्ची लौ वही है, जो कभी बुझती नहीं। जब तक जीवन है, वह लौ जलती रहती है, और मृत्यु के समय प्रेम में ही विलीन हो जाती है। यही सच्ची प्रीति है।

 

जैसे ही प्राणी जन्म लेता है, उसकी उम्र घटने लगती है। जैसे दीपक में तेल घटने से वह बुझ जाता है, वैसे ही जीवन समाप्त हो जाता है।

 

ईर्ष्या, लोभ, क्रोध, और कटु वचन से दूर रहो, यही धर्म की प्राप्ति का मार्ग है।

 

तिनके की तरह हल्का और पेड़ की तरह सहनशील बनो, अहंकार छोड़कर दूसरों को सम्मान दो, तभी साधना सफल होती है। इसके लिए सत्संग, धर्मग्रंथों का अध्ययन, गुरु की आज्ञा का पालन और माता-पिता की सेवा आवश्यक है।

 

सत्ययुग में भगवान का ध्यान, त्रेता में यज्ञ, द्वापर में सेवा से जो फल मिलता था, वही कलियुग में केवल भगवान के नाम कीर्तन से मिलता है। जो दिन-रात हरि का कीर्तन करते हुए संसार का कार्य करते हैं, वे धन्य हैं।

 

एक पल भी बर्बाद नहीं होता; शरीर नश्वर है। इसलिए बुद्धिमान लोगों को यह विचार करना चाहिए कि नित्य वस्तु क्या है। उस नित्य वस्तु का ज्ञान ही सबसे बड़ा ज्ञान है।

 

जो लोग दूसरों की आँखों में धूल झोंकने में माहिर होते हैं, वे यह सोचते हैं कि वे भगवान को भी धोखा दे सकते हैं। लेकिन सर्वज्ञ और सर्वव्यापी भगवान के मामले में ऐसा सोचना पूरी तरह से मूर्खता है।

 

मनुष्य यह सोचता है कि वह इंद्रियों के सुख का आनंद ले रहा है, परंतु वह नहीं जानता कि अशुद्ध विचारों और कर्मों के परिणामस्वरूप उसकी जीवन-शक्ति ही धीरे-धीरे क्षीण हो जाती है।

 

हृदय की सरलता और निर्मलता ईश्वर की दिव्य ज्योति है। यह ज्योति ही हमें ईश्वर का सच्चा मार्ग दिखाती है। प्रभु से क्षमा की उम्मीद हमें उनकी ओर खींचती है, और प्रभु का भय हमें पापों से दूर रखता है। प्रभु की महिमा का स्मरण ही हमें सत्य के मार्ग पर अग्रसर करता है।

 

जो लोग अपने को भगवान के सेवक कहते हैं, उन्हें संसार की आशाओं में नहीं उलझना चाहिए। जब प्रभु का सामर्थ्य प्राप्त कर लिया, तो किसी के सामने दीन बनकर झुकने की आवश्यकता नहीं होती।

 

संसार की किसी भी वस्तु का विश्लेषण करने पर उसमें सत्य, प्रकाश, आनंद, नाम और रूप मिलते हैं। इनमें से सत्य, प्रकाश और आनंद तो ब्रह्म की विशेषताएँ हैं, जबकि नाम और रूप संसार के हैं। इसलिए नाम-रूप से मन हटाकर सच्चिदानंद में लीन होना ही वास्तविक साधना है।

 

जब तक परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का अनुभव नहीं होता, तब तक यह संसार और इसमें बंधे जीव मात्र अविद्या का परिणाम लगते हैं। सत्य के ज्ञान के साथ ही जीव और संसार का भेद मिट जाता है, और केवल परब्रह्म ही दृष्टिगोचर होने लगता है।

 

शोक, मोह, दुःख और सुख का उत्पन्न होना मायारूपी संसार के ही खेल हैं। यह संसार मात्र एक स्वप्न है, इसमें कोई वास्तविकता नहीं है।

 

इंद्रिय भोगों के वश में होकर संसार में बंधनों में फँसना मानव धर्म नहीं है। स्त्री, धन, पुत्र, पशु, घर, भूमि, और खजाना—ये सभी नाशवान हैं। इनसे ममता रखना एक भूल है। केवल भगवान की भक्ति से मोक्ष प्राप्त हो सकता है, जो कि शाश्वत और सर्वोच्च है।

 

ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है, परंतु उस ज्ञान की कदर करने के लिए मन को शुद्ध रखना आवश्यक है। वैराग्य के बिना ज्ञान स्थिर नहीं रह सकता।

 

संसार की क्षणभंगुरता को समझते ही मनुष्य को वैराग्य प्राप्त हो जाता है।

 

जो व्यक्ति पराई स्त्रियों को अपनी माता के समान नहीं समझता, वह महान मूर्ख है। उसके पापों का कोई प्रायश्चित्त नहीं हो सकता।

 

सच्चा ज्ञानी वही है जो पराई स्त्री को माता के समान, पराए धन को मिट्टी के समान, और सभी जीवों को अपने समान समझता है। ऐसा व्यक्ति ही सही मायने में देखता है, बाकी सब तो अंधे हैं।

 

शरीर नश्वर है, ऐश्वर्य अस्थायी है, और मृत्यु सदैव हमारे निकट है। इसलिए धर्म का पालन करना चाहिए।

 

जो अपना जीवन सुखपूर्वक बिताना चाहता है, उसे विषयों का संग नहीं करना चाहिए। और जो परम पद की इच्छा रखते हैं, उन्हें विषयों का नाम तक नहीं लेना चाहिए।

 

जो लोग आपकी बातें सुनना चाहते हैं, उन्हें ही अपनी बातें बताएं। जो सुनने को तैयार नहीं, उनसे विवाद में न उलझें।

 

विषय-भोग में सच्चा सुख नहीं है। एक दिन ऐसा आएगा जब मनुष्य को इनसे अलग होना ही पड़ेगा, और उस समय विषय-भोगी को अत्यधिक दुःख सहना पड़ता है।

 

आत्मचिंतन करो, लेकिन यह सरल कार्य नहीं है। इसके लिए मन को नियंत्रण में रखना होगा, उसे विषयों से हटाना होगा और एकाग्र करना होगा। तभी आत्मचिंतन सफल होगा।

 

मूर्ख व्यक्ति अपने भाग्य पर संतुष्ट नहीं होता और धन के लिए इधर-उधर भटकता है। जब उसे कुछ नहीं मिलता, तो वह रोता और पछताता है।

 

यदि तुम सुख और शांति से जीवन व्यतीत करना चाहते हो, तो तृष्णा के फंदे से निकलकर भाग्य पर संतोष करो।

 

हे तृष्णा! क्या इतने पाप करवाने के बाद भी तुझे संतोष मिला या नहीं?

 

सूर्य के उदय और अस्त के साथ मनुष्य की आयु प्रतिदिन घटती जाती है। समय बीतता जाता है, लेकिन दैनिक कामों में उलझे रहने के कारण यह हमें दिखाई नहीं देता। लोग जन्म लेते, कष्ट सहते और मर जाते हैं, फिर भी हमें कोई भय नहीं होता। यह स्पष्ट करता है कि संसार एक नशे में डूबा हुआ है।

 

मनुष्य दूसरों को बूढ़ा और मरते हुए देखता है, लेकिन स्वयं के लिए यह मानता है कि वह हमेशा जवान और अमर रहेगा।

 

हे मानव! मिथ्या आशा में अपने दुर्लभ जीवन को व्यर्थ मत करो। मृत्यु सदा सिर पर खड़ी है। एक सांस पर भी भरोसा मत करो। जो सांस बाहर निकल गई, वह फिर लौटेगी या नहीं, इसका कोई भरोसा नहीं। इसलिए मोह और अज्ञानता को त्यागो, और अपने सच्चे सृजनहार में मन लगाओ, क्योंकि वही सच्चा साथी है।

 

मांगना और मरना दोनों एक जैसे हैं, बल्कि मरना मांगने से बेहतर है। यहां तक कि त्रिलोकीनाथ भगवान को भी मांगने से छोटा होना पड़ा। फिर अन्य लोगों की तो बात ही क्या!

 

हाथ ऊपर करो, पर नीचे न फैलाओ। यदि कभी किसी के सामने हाथ फैलाना पड़े, तो उससे बेहतर है कि मर जाना।

 

स्त्री और बच्चों की चिंता में मनुष्य की पूरी आयु व्यतीत हो जाती है, लेकिन परमात्मा के भजन के लिए समय नहीं मिलता।

 

स्त्री-मोह ही संसार वृक्ष का बीज है। उसके पांच इंद्रिय भोग—शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध—इसके पत्ते हैं। काम, क्रोध, लोभ आदि इसकी शाखाएँ हैं, और पुत्र-पुत्रियाँ इसके फल। तृष्णा रूपी जल से यह वृक्ष पल्लवित होता है।

 

लोहे और लकड़ी की बेड़ियों से छुटकारा मिल सकता है, लेकिन स्त्री और संतान के मोह की बेड़ियों से मनुष्य का पीछा नहीं छूटता। जिन लोगों का दर्शन करने से पाप लगता है, उन्हीं के लिए स्त्री के मोह में फंसा मनुष्य खुशामद करता है।

 

किस्मत ने मनुष्य को कितना कमजोर बनाया है, फिर भी वह दोनों लोकों के लिए परेशान है। उसे इस संसार और परलोक की चिंता सता रही है।

 

सिंह की तरह क्रूर मुखवाला, अत्यधिक मदमस्त हाथी, और वीर योद्धा—ये सभी स्त्रियों के आगे कायर हो जाते हैं।

 

मनुष्य अपने पापों को कितना ही छिपाए, लेकिन एक न एक दिन वे प्रकट हो ही जाते हैं।

 

घी, नमक, तेल, दाल और ईंधन की चिंता में बड़े-बड़े बुद्धिमानों की पूरी उम्र बीत जाती है। यही कारण है कि उन्हें ईश्वर-भजन के लिए समय नहीं मिलता।

 

जितनी कम आवश्यकताएँ होंगी, उतना ही अधिक सुख मिलेगा। यही कारण है कि महात्मा लोग महलों में न रहकर पेड़ों के नीचे जीवन व्यतीत करते हैं।

 

विषयों का हमने उपभोग नहीं किया, बल्कि उन्होंने हमारा उपभोग किया। हमने तपस्या नहीं की, बल्कि तप ने हमें तपाया। काल का अंत नहीं हुआ, बल्कि हमारा ही अंत हो गया। तृष्णा का बुढ़ापा नहीं आया, लेकिन हमारा बुढ़ापा आ गया।

 

लोग संसार को नहीं छोड़ते, बल्कि संसार ही उन्हें त्याग देता है।

 

जो लोग शक्ति और सामर्थ्य होते हुए विषयों को छोड़ते हैं, वही प्रशंसा के पात्र होते हैं।

 

घर-गृहस्थी में रहकर भीषण ठंड, गर्मी और दुख सहने ही पड़ते हैं। तो फिर तपस्या ही क्यों न की जाए? क्योंकि गृहस्थ जीवन के कष्ट से कोई लाभ नहीं है, लेकिन तप से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।

 

धन के ध्यान से जो सुख मिलता है, वह क्षणिक और मिथ्या होता है। इसलिए धन का ध्यान छोड़कर भगवान शिव के चरणों का ध्यान करना बेहतर है, जिससे सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं और अंततः जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है।

 

स्त्री के अधीन होना विनाश के मार्ग पर पहला कदम रखना है।

 

 

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