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भगवान द्वत्तात्रेय के 24 गुरु
महर्षि अत्रि के तीन पुत्रों में दत्तात्रेय जी ज्येष्ठ पुत्र थे। वे बचपन से ही ज्ञान और वैराग्य से सम्पन्न थे। जब वे सयाने हुए तो अत्रि का देहान्त हो गया। प्रजा ने बड़ा पुत्र होने के कारण इनको राजसिंहासन पर बिठा दिया।
राजा बनकर कुछ काल तक तो वे प्रजा की पालना करते रहे किन्तु बाद में इन्हें राज्य को ओर से घृणा हो गई जिससे वे राज्य का त्याग करके अकेले ही विचरने लगे। इनको सौम्य और दयालु मूर्ति को देखकर कई मुनि बालक इनके साथ हो लिए। काफी प्रयत्न करके दत्तात्रेय जी ने उन बालकों से अपना पिण्ड छुड़ाया तथा नग्न होकर विचरने लगे। कभी नगरों में जाकर उपदेश देते व कभी बनों और पर्वतों में अकेले ही विचरते। कभी शून्य मंदिरों में जाकर ध्यानावस्थित होकर बैठे रहते। वे अपने में ही आनन्दमग्न रहते थे।
एक दिन दत्तात्रेय जो अपने आप में मग्न मस्त हाथी की तरह चले जा जा रहे थे। इनको ऐसा मस्त व परमानन्द में लीन देखकर एक राजा ने इनसे पूछा कि आपको ऐसी कौनसी वस्तु मिल गई है
जिससे आप इतने मस्त या आनन्दित रहते हैं तथा ऐसा आनन्द आपको किस गुरु से मिला है? राजा के इस प्रश्न को सुनकर द्तात्रेय जी ने कहा-” पुरुष का विशेष करके गुरु तो स्वयं का आत्मा ही है क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान से अपने आत्मा के ज्ञान से ही पुरुष कल्याण को प्राप्त होता है।”
दत्तात्रेय जी फिर कहते हैं कि हे राजन्! मैंने किसी एक मनुष्यको गुरु नहीं बनाया है, न मैंने किसी से कानों में फूँक मरवाकर मंत्र दीक्षा ही ली है किन्तु जिन-जिन में जो-जो गुण मुझे दिखाई दिया है उन-उन के गुणों को मैंने ग्रहण किया है इसलिए वे सभी मर गुरु हैं। इस प्रकार मेरे कुल २४ गुरु हैं। जिनसे मुझे जो गुण मिला है वे ही मेरे गुरु हैं। एक-एक गुण मुझे सबमें दिखाई दिया है।
राजा ने कहा कि हे महाराज! जिन चौबीस से आपको जो गुण मिले हैं उनके नामों का आप कथन करें तथा आपने उनमें क्या-क्या गुण ग्रहण किए हैं उनका भी कथन करें जिससे मुझे भी उनका ज्ञान हो जाए।
दत्तात्रेय जी ने राजा को जिज्ञासु जानकर कहा कि हे राजन! तुम एकाग्र होकर श्रवण करो। पहले मैं उन २४ गुरुओं के नाम तुम्हें बताता हूँ फिर उनके गुणों का वर्णन करूँगा। मेरे ये २४ गुरु निम्न प्रकार हैं–
१. पृथ्वी, २. जल, ३. अग्नि, ४. वायु, ५. आकाश, ६. चन्द्रमा, ७. सूर्य, ८. कपोत, ९. अजगर, ६०. सिंधु, ११. पतंग, १२. भ्रमर, १३. मधुमक्खी, १४. गज, १५. मृग, १६. मीन, १७. पिंगला, १८.कुररपक्षी, १९. बालक, २०. कुमारी, २१. सर्प, २२. शरकृतू, २३. मकड़ी और २4 वाँ भृंगी। ये ही २४ मेरे गुरू हैं जिनसे मैंने एक-एक गुण ग्रहण किया है। ये गुण इस प्रकार हैं–
१. पृथ्वी–दत्तात्रेय जी कहते हैं कि क्षमा और परोपकार ये दो गुण मुझे पृथ्वी से मिले हैं। पृथ्वी को हम कितने ही प्रकार से खोदते हैं किन्तु वह हम से बदला न लेकर क्षमा ही करती है तथा सम्पूर्ण जीवों का पालन पोषण ही करती है। जो पुरुष इन गुणों को ग्रहण कर लेता है वह जीवन मुक्त होकर विचरता है। मैने पृथ्वी से इन गुणों को ग्रहण किया है।
२. जल–दत्तात्रेय जी कहते हैं कि जल से मैंने दो गुण ग्रहण किये हैं–स्वच्छता एवं माधुर्यता। जिस प्रकार जल स्वभाव से ही स्वच्छ और मधुर होता है उसी प्रकार मनुष्य को भी अपने स्वभाव से स्वच्छ और मधुर होना चाहिए। उसे छल-कपट से रहित होकर मधुरभाषी होना चाहिए। ये दो गुण मैंने जल से लिए. हैं।
३. अग्नि–दत्तात्रेय जी कहते हैं कि अग्नि का अपना उदर ही पात्र है। जितनी उसकी क्षमता है उतना ही वह अपने उदर में रखती है। मनुष्य को भी जितनी उसके उदर में क्षमता है उतना ही ग्रहणकरना चाहिए । इससे अधिक का संग्रह नहीं करना चाहिए। इसलिए मैंने अग्नि को भी अपना गुरु बनाया।
४. वायु–दत्तात्रेय जी कहते हैं कि जिस प्रकार वायु निरन्तर चलता रहता है किन्तु किसी भी पदार्थ में आसक्त नहीं होता उसी प्रकार मनुष्य को भी निरन्तर चलता फिरता रहना चाहिए। किन्तु किसी में आसक्त नहीं होना चाहिए तथा शरीर के भीतर का वायु जो कुछ मिल जाता है उसी को ग्रहण कर सन्तुष्ट हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य को भी जो कुछ मिल जाए उसी को ग्रहण कर सन्तुष्ट हो जाना चाहिए। अधिक भोग की इच्छा नहीं करनी चाहिए। इसी गुण को मैंने वायु से ग्रहण किया है।
५. आकाश–दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन्! जिस प्रकार आकाश में सूर्य, चन्द्र, तारागण, वायु, बादल आदि होते हैं किन्तु आकाश का किसी से कोई सम्बन्ध नहीं होता, वह सदा असंग ही रहता है। वह व्यापक भी है और असंगमी है उसी प्रकार आत्मा भी असंग और व्यापक है। शरीर के साथ भी आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है और संसार में रहकर भी आत्मा किसी में लिप्त नहीं होता। इस असंगता के गुण को मैंने आकाश से लिया है । इसलिए आकाश को मैंने अपना गुरु बनाया है।
६. चन्द्रमा–दत्तात्रेय जी कहते हैं कि जिस प्रकार चन्द्रमा सर्वकाल में एक रस रहता है, न घटता है न बढ़ता है, वह पूर्ण ही रहता है किन्तु पृथ्वी की छाया पड़ने से वह घटता बढ़ता ज्ञात होता है। किन्तु उसका स्वरूप न घटता है, न बढ़ता है बैसे ही आत्मा भी पूर्ण है। वह घटती बढ़ती नहीं है । वह सर्वकाल में एकरस रहती है। आत्मा की पूर्णता का ज्ञान मैंने चन्द्रमा से लिया है। इसलिए हे राजन! मैंने चन्द्रमा को भी अपना गुरु माना है।
७. सूर्य–दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन्। मेरा सातवाँ गुरु सूर्य है। जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से पृथ्वी तल से जल को खींचकर फिर समय पर उसका त्याग कर देता है। उसी प्रकार
विद्वान् पुरुष को भी अपनी इन्द्रियों से विषयों को ग्रहण कर फिर उनका त्याग कर देना चाहिए। इस गुण को मैंने सूर्य से ग्रहण कियाहै जिससे वह भी मेरा गुरु है।
८ . कपोत–दत्तात्रेय जी आगे कहते हैं कि हे राजन्! मेरा आठवाँ गुरु कपोत है । स्नेह ही मनुष्य की मृत्यु का कारण बनता है। इसलिए मनुष्य को स्नेह का त्याग करना चाहिए। इसका एक उदाहरण
मैंने कपोत में देखा कि कपोत किस प्रकार स्नेहवश अपने प्राण गँवा देता है। एक बार मैंने देखा कि वन में एक वृक्ष के ऊपर एक कपोत और कपोतिनी दोनों रहते थे। उन्होंने उसी वृक्ष पर बच्चों को भी उत्पन किया। जब वे बच्चे बड़े हुए तो वे वृक्ष के नीचे उतरकर इधर-उधर खेलने लगे। एक बार एक बहेलिया वहाँ आया और उसने अपना जाल बिछाकर उन बच्चों को उसमें फैंसा दिया।
इस पर कपोतिनी ने स्नेहवश सोचा कि जिसकी सन्तति मारी जाए उसका जीने के बनिस्बत मरना ही अच्छा है। ऐसा सोचकर वह कपोतिनी भी उसी जाल में गिर पड़ी तो बहेलिये ने उसे भी पकड़ लिया। इस पर कपोत ने भी स्नेहवश ऐसा ही विचार किया कि जिसका परिवार हो नष्ट हो जाए उसका जिंदा रहने से क्या लाभ है? ऐसा सोचकर
कपोत भी उसी जाल में गिर पड़ा | बहेलिये ने उसे भी पकड़ लिया और चल पड़ा। हे राजन्! स्नेह के वश में होकर हो वे कपोत और कपोतिनी मारे गए। मनुष्य के जन्म और मरण का कारण स्नेह ही है। इसलिए वीतरागी पुरुष को स्तेह का त्याग करना चाहिए। यही मोक्ष का साधन है। इस स्नेह त्याग का गुण मैंने कपोत से सीखा है। इसलिए कपोत भी मेरा गुरु है।
९. अजगर–दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन्! जिस प्रकार अजगर एक स्थान पर पड़ा रहता है और अपने भोजन के लिए भी यत्न नहीं करता। जो कुछ उसे दैवयोग से मिल जाता है उसी से सन्तुष्ट रहता है। उससे अधिक की भी बह इच्छा नहीं करता, न संग्रह ही करता है उसी प्रकार संन्यासी को भी ईश्वर में विश्वास
रखकर जो कुछ मिल जाता है उसी से सन्तुष्ट रहना चाहिए। न अधिक की इच्छा करनी चाहिए, न संग्रह ही करना चाहिए। सबका पोषण करने वाला ईश्वर है। मलूकदास जी ने भी इसी तथ्य को लेकर कहा है–
अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए सब के दाता राम॥
संन्यासी का ऐसा ही व्यवहार होना चाहिए। इसलिए यह गुण
मैंने अजगर से सीखा है। उसे भी मैंने अपना गुरु माना है।
१०. सिन्धु–दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन! मैंने समुद्र को भी अपना गुरु माना है। जिस प्रकार समुद्र में अनेक नदियों के जल मिलने पर भी बह चलाएमान नहीं होता, न अपनी सीमा व मर्यादा का उल्लंघन ही करता है उसी प्रकार सन्यासी का मन भी अनेक विषय भोगों के उपस्थित होने पर भी चलायमान नहीं होता।अपनी मर्यादा में रहता है। संन्यासी का ऐसा ही व्यवहार होना चाहिए। यह गुण मैंने सिन्धु से सीखा है। इसलिए वह भी मेरा गुरु है। मन को अडोल रखना सन्यासी का गुण है।
११. पतंग–सृष्टि में पाँच भूत पदार्थ हैं–आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी | इनके पाँच विषय हैं–आकाश का शब्द,वायु का स्पर्श, अग्नि का रूप, जल का रस और पृथ्वी का गन्ध। इन विषयों को ग्रहण करने के लिए पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं जिनसे इन विषयों का ग्रहण होता है। ये इन्द्रियाँ हैं–कान, त्वचा, आँखें, जिह्ला तथा
नासिका। कान शब्द को ग्रहण करते हैं, त्वचा स्पर्श का अनुभव करती है, आँखें रूप को ग्रहण करती हैं, जिह्ला रस को ग्रहण करती है तथा नासिका गन्ध का अनुभव करतीं है। इन विषयों के प्रति आसक्त ही मनुष्य के पतन का कारण बनती है इसलिए सभी ज्ञानियों ने इन विषयों के प्रति आसक्ति के त्याग को ही मुक्ति का साधन माना है।
अष्टावक्र राजा जनक से कहते हैं कि-
“’है प्रिय! यदि तू मुझे चाहता है तो विषयों को विषके समान छोड़ दे।’!
(अष्टावक्रगीता २/२)
इन विषयों के चंगुल में फँसे हुए की किस प्रकार दुर्गति होती है इसके विषय में शंकराचार्य जी कहते हैं कि–
“अपने-अपने स्वभाव के अनुसार शब्दादि पाँच विषयों में से केवल एक-एक से बँधे हुए हिरण, हाथी,
पतंग, मछली और भोरें मृत्यु को प्राप्त होते हैं। फिर इन पाँचों से जकड़ा हुआ मनुष्य कैसे बच सकता है।
(विवेक चूड़ामणि ३/७८)
दत्तात्रेय जी भी इसी सत्य को पतंग, भ्रमर, मधुमक्खी, गज, मृग और मीन का उदाहरण देकर कहते हैं कि वे सभी एक-एक विषय की ओर आसक्त होकर अपने प्राण गँवा देते हैं। इसलिए मनुष्य को इन विषयों से आसक्त ना होकर इनके प्रति बैराग धारण करना चाहिए जिससे उसकी दुर्गति न हो।
यहाँ पतंगे का उदाहरण देकर कहते हैं कि जिस प्रकार पतंगा रूप से मोहित होकर दीपक अथवा अग्नि की ओर आकर्षित होकर अपने प्राण ही गँवा देता है उसी प्रकार मनुष्य स्त्री के रूप में मोहित होकर उसकी ओर आकर्षित होता है तो इससे उसकी मुक्ति सम्भव ही नहीं है। वह जन्म-मृत्यु के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पा सकता। अनित्य भोगों की ओर आकर्षित होने वाला नित्य भोगों से वंचित ही रहता है। दत्तात्रेय जी कहते हैं कि यह गुण मैंने पतंगे से सीखा है इसलिए वह भी मेरा गुरु है।
१२. भ्रमर–जिस प्रकार भ्रमर गंध से प्रभावित होकर कमल के भीतर स्वयं फँस जाता है दत्तात्रेय जी कहते हैं कि इसी प्रकार मनुष्य भी अपनी वासना के कारण स्वयं संसार में लिप्त रहता है जिससे उसकी मुक्ति सम्भव ही नहीं है। इसलिए संन्यासी को इसका त्याग करना चाहिए दूसरा कारण दत्तात्रेय जी बताते हैं
कि जिस प्रकार भ्रमर भिन्न पुष्पों पर जाकर उसका रस इकट्ठा करता है उसी प्रकार संन्यासी को भी एक-एक घर से एक एक रोटी का ग्रास लेकर अपना उदर भरना चाहिए। इसकी शिक्षा
मैंने भ्रमर से ली है। इसलिए उसे भी मैंने अपना गुरु माना है।
१३. मधुमक्खी–दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन्! मधुमक्खी कितना श्रम करके अपना छत्ता बनाती है तथा उसमें शहद जमा करती है किन्तु उसका लाभ वह नहीं उठा सकती। कोई दूसरा ही
उसका लाभ उठाता है तथा उसका शहद संग्रह ही उसकी मृत्यु का कारण बनता है। इसलिए संन्यासी को संग्रह को वृत्ति से दूर रहना चाहिए। यह शिक्षा मैंने मधुमक्खी से ली। इसलिए उसे भी मैंने गुरु
माना है।
१४. गज–हे राजन्! जिस प्रकार कामवासना से पीड़ित हाथी कागज की हथिनी पर मोहित होकर गढढे में गिर पड़ता है और फिर जन्मभर सैकड़ों अंकुशों को अपने शिर पर खाता रहता है उसी प्रकार कामातुर पुरुष भी स्त्री से मोहित होकर अनेक कष्ट सहता रहता है। इस प्रकार कामशक्त में कितने दुर्गुण हैं यह शिक्षा मैंने गज से ली। इसलिए उसे भी मैंने गुरु माना है।
१५. मृग–हे राजन् ! जिस प्रकार हिरण राग पर मोहित होकर शिकारी का शिकार बन जाता है उसी प्रकार मनुष्य भी राग के वशीभूत होकर बन्धन में पड़ जाता है। राग सुनना श्रोत्र इन्द्रिय का गुण है। शब्दों से प्रभावित न होने का गुण मैंने मृग से सीखा है। इसलिए मृग को भी मैंने अपना गुरु माना है।
१६. मीन–हे राजन् ! जिस प्रकार मछली रसेन्द्रिय की वासना के कारण मछुआरे के कांटे में फंसकर अपने प्राण गँवा देती है उसी प्रकार मनुष्य भी जिह्वा के स्वाद के वशीभूत होकर अनेक व्याधियों
का शिकार हो जाता है तथा मृत्यु को भी प्राप्त हो जाता है। इसलिए रसनेन्द्रिय की वासना का त्याग करना चाहिए | यह गुण मैंने मछली से सीखा है। इसलिए उसे भी मैंने गुरु माना है।
१७. पिंगला–दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन्! निराशा का गुण मैंने एक वैश्या से सीखा है। एक नगर में पिंगला नाम की एक वैश्या रहती थी। वह अपने ग्राहकों के लिए श्रृंगार करके खिड़को पर बैठकर बाहर देखा करती थी | एक दिन उसके पास कोई ग्राहक नहीं आया तो वह बड़ी बेचैन हुई व अंत में निराश होकर सो गई व अपने कर्म पर घृणा करने लगी । इसी प्रकार संसारी प्राणी भी भोगों कौ प्राप्ति न होने पर निराश होकर तथा भोगों में सुख न मानकर आत्मज्ञान को ओर बढ़ता है तभी उसे सच्चा सुख मिलता है। यह ज्ञान मैंने उस पिंगला वैश्या से सीखा। इसलिए वह भी मेरी गुरु है।
१८. कुररपक्षी–दत्तात्रेय जी फिर कहते हैं कि हे राजन! कुरर नामक पक्षी से मैंने भोगों के त्याग से सुख प्राप्ति को शिक्षा ली इसलिए मैंने उसे भी अपना गुरु माना। कुरर नामक एक पक्षी था। उसे कहीं से एक माँस का टुकड़ा मिल गया। वह उसे मुँह में लेकर उड़ गया तथा सोचा कि कहीं बैठकर इसे आराम से खाऊँगा। किन्तु कई दूसरे पक्षी उस टुकड़े को लेने के लिए उसके पीछे पड़ गए और उसे मारने लगे। कुरर पक्षी ने सोचा कि यदि मैं इस टुकड़े को छोड़ दूँतो ये मुझे छोड़ देंगे। यह सोचकर उसने उस टुकड़े को जमीन पर गिरा दिया तो वे पक्षी भी उसे छोड़कर उड़ गए। इसलिए जो भोगों में लिप्त है उसी पर चोर, तस्कर आदि वार करते है। त्याग से ही परम शान्ति मिलती है। यह शिक्षा मैंने कुरर पक्षी से ली।
१९. बालक–हे राजन्! दूध पीने वाला बालक दूध पीकर चिन्तारहित होकर जिस प्रकार आराम से सो जाता है। उसे अन्य किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रहती उसी प्रकार हम भी भिक्षान्न में जो कुछ मिल जाता है उसे खाकर सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त होकर आराम से सो जाते हैं। चिन्तारहित रहने का गुण मैंने बालक से सीखा है इसलिए उसे भी मैंने अपना गुरु माना है।
२०. कुमारी–दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन्! अकेले रहने का गुण मैंने एक कुमारी कन्या से सीखा है इसलिए मैंने उसे भी अपना गुरु माना है। बहुत से व्यक्तियों के एक साथ रहने पर लड़ाई होती है तथा दो के इकट्ठा होने से भी बातें होती हैं, विचार व ध्यान नहीं होता। इसलिए संन्यासी को अकेला ही रहना चाहिए।
दत्तात्रेय जी कहते हैं कि एक बार एक ग्राम में मैं भिक्षा के लिए गया। वहाँ एक ब्राह्मण के घर में एक कुमारी कन्या अकेली थी। वह धान कूट रही थी। तभी एक भिक्षुक ने उसके द्वार पर जाकर भीखमाँगी।
कन्या जब धान कूट रही थी तो उसके हाथों की चूड़ियाँ आवाज कर रही थीं। कन्या ने एक-एक करके उन चूड़ियों को उतार दिया। जब दो-दो चूड़ियाँ ही रह गईं तब भी थोड़ी-थोड़ी आवाज आती रही। जब एक-एक ही रह गई तो उनकी आवाज आना बंद हो गया। इस पर मैंने सोचा कि अधिक लोगों से मेल-जोल संन्यासी के ध्यान में बाधक होता है इसलिए उसे अकेले ही रहना चाहिए। दो का संग भी ठीक नहीं है।
२१. सर्प–हे राजन्! जिस प्रकार सर्प अपना घर नहीं बनाता। वह किसी बने बनाए घर में (बिल में) ही रहता है उसी प्रकार संन्यासी को भी अपना घर नहीं बनाना चाहिए जिससे घर के प्रति उसका मोह न हो जाए, वह बने बनाए घर मंदिरों व गुफाओं में ही रहता है । यह गुण मैंने सर्प से सोखा है। इसलिए उसे भी मैंने अपना गुरु माना है।
22. शरकृत्–हे राजन्! मन को एकाग्र करने का गुण मैंनेएक बाण बनाने वाले से सीखा इसलिए उसे भी मैंने अपना गुरु माना।
हे राजन्! किसी नगर के बाजार में किसी मकान पर एक बाणों का बनाने वाला बाण बना रहा था। उसकी दृष्टि बाण को सीधा करने में लगी थीं। दैवयोग से उसी समय वहाँ राजा कौ सवारी निकली लेकिन उसकी दृष्टि बाण को सीधा करने में लगी थी। उसे ध्यान ही नहीं रहा कि कब राजा की सेना निकली |
पीछे से एकसवार ने आकर उससे पूछा कि क्या इधर से राजा की सवारी गई है ? तो उसने कहा कि मुझे पता नहीं है। मुझे नहीं मालूम है । उसका मन इतना एकाग्र हो गया कि उसे आसपास क्या हो रहा है इसका पता ही नहीं चला। ध्यान की इसी एकाग्रता को मैंने उससे सीखा। वह भी मेरा गुरु है।
२३. मकड़ी–हे राजन्! जिस प्रकार मकड़ी अपने मुँह से तार को निकालकर फिर उसी में स्वयं फैंस जाती है उसी प्रकार मनुष्य स्वयं अपने संकल्प विकल्पों से स्वयं इस दुनियाँ में फैंस जाता है। इसलिए अपने संकल्प विकल्पों के त्याग का गुण मैंने मकड़ी से सीखा है। इस कारण उसे भी मैंने अपना गुरु माना है।
२४. भृंगी–हे राजन्! मेरा २4 वाँ गुरु एक भूंगी है। भृंगी एक जीव होता है जो किसी कौट को पकड़कर अपने घोंसले में रख लेता है तथा उसे अपने सम्मुख रखकर शब्द करता है। बह कीट उस भृंगी के शब्द को बार-बार सुनकर भूंगीरूप ही हो जाता है। उसी प्रकार मनुष्य भी बार-बार शरीर का ही चिन्तन करते रहने से वह
अपने को शरीर ही समझने लगता है किन्तु जब उसे होश आता है कि वह शरीर नहीं बल्कि आत्मा है तो वह इस शरीर के मोह का त्यागकर आत्मरूप में स्थित हो जाता है। इसलिए बह गुण मैंने भृंगी से सीखा है। अत: उसे भी मैंने अपना गुरु माना है।
दत्तात्रेय जी राजा को कहते हैं कि मेरे इन चौबीस गुरुओं ने मुझे परमार्थ का बोध कराया जिससे मैं अः व्वरूप आत्मा में स्थित होकर जीवनमुक्त हुआ हूँ। अब मैं परमानन्द में स्थित हूँ। अत: मैं समस्त चिन्ताओं से मुक्त होकर विचरता हूँ।
दत्तात्रेय जी के ज्ञानोपदेश को सुनकर राजा भी सांसारिक मोह का त्यागकर आत्मानन्द का लाभ ले सका।
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