अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 9(anmol wachan)

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अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 9(anmol wachan)
अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 9(anmol wachan)

 

अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 9(anmol wachan)

 

चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं, सिर के बाल सफेद हो गए हैं, सारे अंग ढीले हो गए हैं, पर तृष्णा तो दिन-ब-दिन बढ़ती जाती है।

जवानी बुढ़ापे से, स्वास्थ्य बीमारियों से, और जीवन मृत्यु से असित है, लेकिन तृष्णा को किसी भी प्रकार की चिंता नहीं होती।

मनुष्य चाहे कितना ही कमजोर और जर्जर शरीर का क्यों न हो, फिर भी तृष्णा का त्याग नहीं करता, यही सबसे बड़ा आश्चर्य है।

अंग शिथिल हो गए हैं, सिर के बाल सफेद हो गए हैं, दांत गिर चुके हैं, शरीर काँप रहा है, फिर भी मनुष्य आशा के बंधन को नहीं छोड़ता।

जिसके मन में भगवान के दर्शन की तीव्र लालसा होती है, वह इस नश्वर संसार की अस्थिरता को देखकर विषयों की ओर मुड़ता ही नहीं।

शरणागत जब भगवान द्वारा बताए गए साधनों में मन लगाता है, तो भगवान स्वयं उसे अपने स्वरूप का ज्ञान प्रदान कर देते हैं।

इस मृत्यु के संसार में अमरता पाने का एक ही उपाय है: जो व्यक्ति सिर्फ भगवान की ओर देखता है और दूसरी किसी ओर नहीं, वही मृत्यु से मुक्त हो सकता है।

जैसे संसार के विचारों में उलझकर मनुष्य गहरे संसार में फंस जाता है, वैसे ही ईश्वर के विचारों में खोकर वह ईश्वर के समान बन सकता है।

हृदय में कामनाओं का वास होता है, उसे ही संसार कहा जाता है, और जब उन कामनाओं का पूर्ण नाश हो जाता है, तो उसे मोक्ष कहा जाता है

जो व्यक्ति कामनाओं और तृष्णा से मुक्त होते हैं, वे मानव रूप में देवता समान होते हैं।

जो लोग जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाना चाहते हैं, उन्हें तृष्णा रूपी राक्षसी के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। इस माया में फंसने पर व्यक्ति बाध्य होकर सबसे नीच कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है।

सूर्य और चंद्रमा को दिन-रात निरंतर घूमना पड़ता है। उन्हें एक दिन क्या, एक क्षण भी विश्राम करने का अधिकार नहीं है, तो फिर हम और आप किस गणना में आते हैं?

बड़ों की कठिनाइयाँ देखकर छोटों को अपनी परेशानियों पर रोने की बजाय संतोष करना चाहिए। इस संसार में कोई भी पूर्ण रूप से सुखी नहीं है।

विषयों का भोग चाहे जितने समय तक करो, एक दिन वे अवश्य तुम्हें छोड़ देंगे। तो क्यों न तुम स्वयं ही उन्हें छोड़ दो? तुम्हारे ऐसा करने से तुम्हें अनंत सुख मिलेगा, और उनके छोड़ने से अत्यधिक दुःख भोगना पड़ेगा।

तृष्णा विषयों के संपर्क में आने से अत्यधिक बढ़ती है।

जो लोग तृष्णा का त्याग करते हैं, उससे नफरत करते हैं, और उसे अपने पास नहीं आने देते, तृष्णा भी उनसे दूर भाग जाती है।

तृष्णा को तुरंत त्यागो! समय के साथ यह और भी बलवती हो जाएगी, फिर इसे छोड़ना तुम्हारी क्षमता से बाहर हो जाएगा।

पत्तों और पानी पर जीवन यापन करने वाले ऋषि भी जब स्त्रियों के मोह में पड़ गए, तो फिर घी-दूध खाने वालों का क्या कहना!

कामना का ऐसा प्रभाव होता है कि इससे देवता भी धैर्य खो बैठते हैं।

जहाँ स्त्री होती है, वहाँ सभी विषय उपस्थित होते हैं। यही संतों का अनुभव है।

न तो स्त्री के साथ अनावश्यक बातचीत करनी चाहिए, न पहले देखी हुई स्त्री की याद करनी चाहिए, और न उनकी चर्चा करनी चाहिए। यहाँ तक कि उनका चित्र भी नहीं देखना चाहिए।

विषय विष के समान हैं, और उनका त्याग ही सुख की जड़ है।

काम को जीत लो। जिसने काम पर विजय पा ली, उसने सब कुछ जीत लिया।

स्त्री के लिए पति तभी प्रिय होता है जब उसमें उसका स्वार्थ हो। पति के लिए भी यह स्थिति वही होती है, दोनों ओर स्वार्थ का संबंध होता है।

सबकी प्रीति झूठी है, सच्ची प्रीति तो केवल प्रभु में ही होती है।

स्त्री का मोह साँप के विष से भी अधिक घातक है। साँप के काटने से मृत्यु होती है, पर स्त्री के रूप-चिन्तन से ही व्यक्ति मर जाता है।

कामी पुरुषों और स्त्रियों के संपर्क से व्यक्ति भी कामी हो जाता है, और अगले जन्म में क्रोधी, लोभी और मोहग्रस्त बनता है।

रूप को केवल देखने भर से ही विष का प्रभाव हो जाता है। रूप-लालसा का त्याग कर दो।

रूप की लालसा एक काली नागिन के समान है। केवल वही लोग इससे बच सकते हैं जो ईश्वर का नाम जपते हैं।

जल में डूबने वाला बच सकता है, पर विषयों में डूबा व्यक्ति नहीं बचता।

कनक (धन) और कामिनी (स्त्री) – इनसे बचकर रहो, ये भगवान और जीव के बीच में खाई बनाते हैं।

जितना प्रेम संसार के रूपों में है, उतना ही यदि भगवान में हो जाए, तो फिर क्या कहना!

सूखी हड्डी में खून नहीं होता, पर कुत्ता फिर भी सूखी हड्डी को चबाता रहता है, जैसे व्यक्ति मोह से बंधा रहता है।

दुर्लभ मानव शरीर पाकर और वेद-शास्त्र पढ़ने के बाद भी यदि मनुष्य संसार में उलझा रहे, तो फिर संसार के बंधनों से कौन मुक्त होगा?

काम, क्रोध, लोभ और मोह को त्यागकर आत्मा में झाँको और देखो कि तुम वास्तव में कौन हो। जो आत्मा का ज्ञान नहीं रखते, अपने स्वरूप को नहीं पहचानते, वे मूर्ख नरक में पड़े सड़ते रहते हैं।

जिसे किसी चीज की आवश्यकता नहीं, वह किसी की खुशामद क्यों करेगा? निःस्पृह व्यक्ति के लिए यह संसार तिनके के समान है। यदि सुख चाहते हो, तो इच्छाओं को त्याग दो।

जो जितना छोटा होता है, वह उतना ही घमंड करता है और उछलता है। जो जितना बड़ा और पूर्ण होता है, वह उतना ही गंभीर और निरभिमानी होता है। नदी-नाले थोड़े से जल से इतरा उठते हैं, किंतु सागर, जिसमें अनंत जल होता है, हमेशा गंभीर रहता है।

अभिमान या अहंकार महान् अनर्थों का मूल है, यह विनाश की निशानी है।

राज्य और धन-दौलत क्या सदा आपके कुल में रहेंगे या आपके साथ जाएँगे? इस पर विचार करो।

हे मनुष्य! जोश में आकर इतना गर्व और उन्माद मत दिखाओ। इस दुनिया में कई नदियाँ उफान पर आकर उतर गईं, और कितने ही बाग लगकर सूख गए।

हे मनुष्य! मौत से डर, अभिमान का त्याग कर।

मनुष्य का घमंड असीमित होता है—वह किसी को कुछ नहीं समझता। यदि मौत ने इसे विवश न कर रखा होता, तो यह भगवान को भी कुछ न समझता।

अपने प्रबल शत्रु अभिमान का नाश करो।

मनुष्य को जो मांगना हो, सर्वशक्तिमान भगवान से मांगना चाहिए, वही सबकी इच्छा पूरी कर सकता है।

हे दास, राम जैसा मालिक तेरे सिर पर खड़ा है, फिर तुझे क्या अभाव है? उसकी कृपा से ऋद्धि-सिद्धि तेरी सेवा करेंगी और मुक्ति तेरे पीछे फिरेगी।

अगर सेवक दुखी रहता है, तो परमात्मा भी सभी कालों में दुखी रहता है। वह दास को कष्ट में देखकर क्षणभर में प्रकट होकर उसे निहाल कर देता है।

जिसकी गांठ में राम हैं, उसके पास सब सिद्धियाँ हैं। उसके आगे अष्ट सिद्धि और नौ निधि हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं।

जैसे सूर्य में रात और दिन का भेद नहीं है, वैसे ही विचार करने पर अखंडचित्त स्वरूप केवल शुद्ध आत्मतत्त्व में न बंधन है और न मोक्ष। कितनी आश्चर्य की बात है कि प्रभु, जो हमारे आत्मा के आत्मा हैं, हम पराया मानकर बाहर-बाहर ढूंढते फिरते हैं।

मांझी की एहसान मेरी बला उठाए, मैंने तो अपनी नाव ईश्वर के नाम पर छोड़ दी है और उसका लंगर भी तोड़ दिया है।

जब मुझे बुद्धिमानों की सोहबत से कुछ मालूम हुआ, तब मैंने समझा कि मैं तो कुछ भी नहीं जानता।

हे मलिन मन! तू पराए दिल को प्रसन्न करने में किस लिए लगा रहता है? यदि तू तृष्णा को छोड़कर संतोष कर ले, अपने में ही संतुष्ट रहे, तो तू स्वयं चिंतामणि स्वरूप हो जाए। फिर तेरी कौन-सी इच्छा पूरी न हो?

जब आँखों में प्यारे कृष्ण की मनमोहिनी छवि समा जाती है, तब उसमें और किसी की छवि के लिए स्थान ही नहीं रहता।

जिस तरह सराय को भरी हुई देखकर मुसाफिर उसमें कोठरियाँ खाली न पाकर लौट जाते हैं, उसी तरह नयनों में मममोहन की बाँकी छवि देखकर संसारी मिथ्या खूबसूरतें आँखों के पास भी नहीं फटकतीं।

जिस सुख के लिए मनुष्य tantas आफतें उठाता है, उस सुख का सच्चा स्रोत तो स्वयं उसके दिल में मौजूद है।

हालांकि संसार में सुख का कोई ठिकाना नहीं है—सर्वत्र भय ही भय है, पर दुष्ट और नीचों का भय सबसे भारी है।

यदि आपको साँप डंसें, बिच्छू काटे या हाथी मारे, तो कुछ हर्ज मत समझो। आग में जलने, जल में डूबने और पहाड़ से गिरने में भी कोई हानि नहीं समझो; ये सब भले हैं—इनसे हानि नहीं, हानि और खतरा है दुष्ट की संगति से, इसलिए दुर्जन की सोहबत मत करो।

हमारी सुबुद्धि हमसे कह रही है कि मनरूपी शैतान के भरमाने में मत आओ। मन की राह पर न चलो, बल्कि मन को अपनी राह पर चलाओ। सच्चा सुख वैराग्य में ही है, इस महावाक्य को क्षणभर भी न भूलो।

कमल के पत्ते पर ठहरी हुई जल की बूँद के समान क्षणभंगुर जीवन के लिए, मूर्खतावश धनमद से निःसंकोच धनी मनुष्यों के सामने बेहया होकर अपनी तारीफ करने का घोर पाप करने वाले हमलोगों ने कौन-सा पाप नहीं किया?

जिस तरह पानी का बुलबुला उठता और क्षणभर में नष्ट हो जाता है, उसी तरह आदमी पैदा होता है और क्षणभर में नष्ट हो जाता है।

यह मनुष्य उसी तरह अदृश्य हो जाएगा, जैसे सुबह का तारा देखते-देखते गायब हो जाता है।

जिस तरह देखते-देखते हौज का पानी मोरी की राह से निकलकर बिला जाता है, उसी प्रकार यह जीवात्मा भी शरीर से निकल जाएगी। इसे केवल कुछ ही दिनों का समय समझिए।

इस चंचल जीवन के लिए अज्ञानी मनुष्य नीच से नीच कर्म करने में संकोच नहीं करता। यह एक बड़ी लज्जा की बात है। अगर मनुष्यों को हजारों या लाखों वर्षों की उम्र मिलती या यदि सभी काकभुशुंडी होते, तो न जाने मनुष्य कितने पापकर्म करने से पीछे नहीं हटता!

हे मनुष्यों, अपनी आँखें खोलकर देखो और कान लगाकर सुनो! मिट्टी, पत्थर, लकड़ी जैसी चीजों की भी कुछ उम्र होती है, लेकिन तुम्हारी उम्र कुछ भी नहीं। इसलिए इस क्षणिक जीवन में पापकर्म मत करो।

हे भाई, यह कितनी कष्टकारी बात है! पहले यहाँ किस प्रकार का राजा राज करता था, उसकी राजसभा कैसी होती थी, वहाँ किस प्रकार के शूर, सामन्त और सेना होते थे, साथ ही चन्द्रानना स्त्रियाँ भी होती थीं, लेकिन आज सब सूना है। सबको काल ने खा लिया है।

जिन मकानों में तरह-तरह के बाजे बजते और गीत गाए जाते थे, वे अब खाली पड़े हैं। अब उन पर कौवे बैठते हैं।

जिसे सूर्य कहते हैं, वह भी एक ऐसा चिराग या दीपक है जो हवाके सामने रखा हुआ है, और अब बुझने ही वाला है। तब अन्य चीजों की बात ही क्या? संसार की यही दशा है।

एक दिन इस जगत का अस्तित्व ही नहीं रहेगा, तब और किसकी आस्था की जाएगी? यह जगत तो केवल भ्रममात्र है।

बारी-बारी से सभी प्यारे और मित्र चल बसे हैं। अब तुम्हारी बारी भी नित्य निकट आ रही है।

मनुष्य का जीवन बहुत ही संक्षिप्त है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि जब तक सांस है, सब कुछ त्यागकर केवल परमात्मा का भजन करे। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि जीवन की यह अवधि कितनी सीमित है।

जिस प्रकार एक कच्चा घड़ा फूटने में अधिक समय नहीं लेता, उसी तरह यह शरीर भी नाश होने में देर नहीं लगाता। हमें इस सच्चाई को समझना चाहिए कि हमारा शरीर अस्थायी है और इसकी कोई गारंटी नहीं है।

जब बाहरी युक्तियों और तर्कों द्वारा भगवान के अस्तित्व का निरूपण किया जाता है, तो वह केवल बाहरी वाणी का विकास होता है। ऐसे तर्कों से भगवान का वास्तविक बोध नहीं हो सकता। वास्तविकता को जानने के लिए गहरे अनुभव और आस्था की आवश्यकता है।

आज आपका शरीर स्वस्थ है, लेकिन यह कोई आश्चर्य नहीं है कि कल आप बीमार होकर मृत्यु के शय्या पर पड़ सकते हैं या अचानक मर भी सकते हैं। इसलिए सतर्क रहें, होश संभालें, और अपने आगे के सफर की तैयारी इस क्षण से करें।

आपके कर्मों का फल आपके सामने आएगा; जो आप यहाँ बोते हैं, वही वहाँ काटेंगे। यदि आप यहाँ अच्छे कर्म करेंगे, तो वहाँ भी अच्छे फल प्राप्त करेंगे। यह जीवन एक तरह का बीज है, जो भविष्य के लिए बोया जाता है।

यह जीवन सपने के समान है। जिस प्रकार आप रात के स्वप्न को मिथ्या समझते हैं, उसी तरह दिन के दृश्यों को भी मिथ्या समझें। यह समझना महत्वपूर्ण है कि जीवन की वास्तविकता कितनी क्षणिक है।

इस दुनिया में कार्य बहुत हैं, और इसका हाल यह है कि पलक मारने भर का भरोसा नहीं है। इस क्षणभर की जिन्दगी में आपको कौन-सा ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे आगे की यात्रा में सुख ही सुख मिले, इस पर विचार करें।

संसार में आकर दो मुख्य कार्य करें: एक तो भूखों को भोजन दें, और दूसरा भगवान का नाम लें। यही जीवन का सार है, और इससे आपकी आत्मा को शांति मिलेगी।

जगत में आप जो कुछ भी करेंगे, उसकी एक गहरी परछाई होगी, इसलिए हर कर्म का विचारपूर्वक करना आवश्यक है।

संसारी माया-जाल में सच्चा सुख नहीं है। जो लोग इस संसार में सुखी दिखाई देते हैं, वे वास्तव में दुःखी हैं। उनका सुख केवल दिखावटी होता है, सच्चा सुख नहीं होता।

प्रेम में जो तन्मय हो जाते हैं, वही सच्चे प्रेम का अनुभव करते हैं। बिना तन्मयता के प्रेम केवल एक ढोंग है, जो खोखला होता है।

भगवान को जानने के लिए चरित्र की शुद्धि अत्यंत आवश्यक है। जब तक किसी का चरित्र विशुद्ध नहीं होता, तब तक वह भगवान को न तो पहचान सकता है और न ही देख सकता है।

ईश्वर-उपासना करने वाले को सबसे पहले अपने चित्त और इंद्रियों को उनके विषयों से हटा कर अपने अधीन करना चाहिए। बिना चित्त को एकाग्र किए और बिना इंद्रियों को संयमित किए, ध्यान लगाना संभव नहीं है।

ध्यान करने वाले को न तो शरीर को हिलाना चाहिए और न ही किसी दिशा में देखना चाहिए।

महादेव ही हमारा एकमात्र देव हो, जाह्नवी जल ही हमारा पेय हो, एक गुफा ही हमारा घर हो, दिशा ही हमारे वस्त्र हों, समय ही हमारा मित्र हो, किसी के सामने दीन न होना ही हमारा मन हो, और वजट वृक्ष ही हमारी अर्धांगी हो।

जगदीश उन्हीं को मिलते हैं, जो गर्व से दूर भागते हैं और विवेकशील होते हैं। जो अपनी गर्दन ऊँची करता है, वह अंततः मुँह के बल गिरता है।

आशा एक नदी के समान है। उसमें इच्छारूपी जल है, तृष्णा उस नदी की तरंगें हैं, प्रीति उसके मकर हैं, और तर्क-वितर्क या दलीलें उसके पक्षी हैं।

यदि तुम आनंद की खोज में हो, तो आशा, इच्छा, प्रीति, तर्क, वितर्क, मोह और चिंता को तुरंत छोड़कर शुद्धचित्त हो जाओ। भगवान के भजन और ध्यान में तन्मय रहो।

जब मन एक ही स्थान पर स्थिर हो जाता है, तो सहज रूप से हीरा उत्पन्न होता है। चंचल मन से सिद्धियाँ दूर भागती हैं, इसलिए स्थिरचित्त होना आवश्यक है।

जो लोग संसार के जंजालों से छुटकारा पाना चाहते हैं और जन्म-मरण के कष्ट नहीं भोगना चाहते, उन्हें अपने मन को वश में करना चाहिए। मन को इधर-उधर जाने से रोकें और करतार के ध्यान में लगावें।

अपने दिल को संयमित करो, अभिमान को समाप्त करो। इसमें तुम्हारी महानता है। बड़े-बड़े खूँखार जानवरों को मारने में जो वीरता होती है, वह इस कार्य में नहीं है।

हे मनुष्यों, अभ्यास करो। अभ्यास से सभी कठिनाइयाँ हल हो जाती हैं। मन को बासनाहीन बनाओ। बासनाहीन और निर्मल चित्त वाले व्यक्ति पर उपदेश जल्दी असर करता है, और ईश्वर का अनुराग शीघ्र ही उत्पन्न हो जाता है।

खाली पेट भरने के लिए कौवे की तरह पराए मुँह की ओर देखना उचित नहीं। यदि तुम्हें किसी के मुँह की तलाश है, तो उस परमात्मा की ओर देखो, जो अभाव से मुक्त है और सबका दाता है।

भगवान के चरणकमलों से परिचित हुए बिना, उनके पद-पद्मों से प्रेम हुए बिना, मनुष्य के मन की दौड़ समाप्त नहीं होती।

जो लोग गेरुआ बाना धारण करके साधु बन जाते हैं, लेकिन भगवान में मन नहीं लगाते और पेट के लिए दर-दर चिल्लाते रहते हैं, वे इस बात को नहीं समझते कि उन्होंने गेरुआ वस्त्र क्यों पहना था। गेरुआ वस्त्र संसार से विराग का प्रतीक है।

स्वामी के दरबार में किसी चीज़ की कमी नहीं होती। वहाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सभी पदार्थ मौजूद हैं। उनके भक्त जो चाहते हैं, उन्हें वही मिलता है।

हे मन, अब तू परमात्मा में लग जा; संसारी सुखों में अब हमारी कोई इच्छा नहीं है, इनकी असलियत हमने देख ली है।

जो संतोष में है, वह हमेशा सुखी है। जिनकी इच्छाएँ बड़ी हैं, वे कभी सुखी नहीं हो सकते। तृष्णा से ग्रसित व्यक्ति हमेशा दुखी रहता है। संतोष सबसे बड़ी दौलत से भी अधिक महत्वपूर्ण है।

जो सुखी होना चाहता है, उसे तृष्णा को त्यागना होगा और परमात्मा द्वारा जो दिया जाए, उसी में संतोष करना होगा। जहाँ संतोष है, वहाँ भगवान हैं, और जहाँ भगवान हैं, वहाँ संतोष है।

मनुष्य-देह पाकर ही मनुष्य अपने उद्धार का उपाय कर सकता है, क्योंकि इस जन्म में भले-बुरे के विचार करने की शक्ति होती है। इसलिए मनुष्य-जन्म को मामूली समझकर दुनियावी सुख-भोगों में मत गँवाओ।

जिस व्यक्ति में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर और अन्य विकार नहीं होते, जो सुख-दुःख और मान-अपमान को नहीं जानता, उसे न खुशी होती है और न ही रंज। ऐसा व्यक्ति अपने शरीर से अलग है, न किसी की तारीफ करता है और न किसी की बुराई करता है। उसे न किसी से प्रेम है और न किसी से बैर। उसका न किसी से लेना-देना है और न किसी को देने का कोई व्यवहार है। ऐसा ही महापुरुष भगवान को प्रिय होता है।

बुढ़ापा हमारे शरीर को निर्बल और रूप को कुरूप बना देता है, साथ ही सामर्थ्य और बल का नाश करता है। मृत्यु हमेशा सिर पर मंडराती रहती है। ऐसी स्थिति में, मित्र, कहीं भी सुख नहीं है। अगर तुम सच्चा सुख चाहते हो, तो भगवान का भजन करो।

मनुष्य चाहे कल्पवृक्ष के नीचे क्यों न चला जाए, जब तक सीतापति की कृपा नहीं होगी, तब तक उसके दुःखों का नाश नहीं हो सकता। इसलिए संसार से उदासीन होकर, मित्रता और शत्रुता को छोड़कर भगवान से प्रेम करो।

भगवान की भक्ति सबसे सर्वोपरि है। भगवान की भक्तिभाव से जो कार्य संभव है, वह घोर से घोर तपस्या से भी नहीं किया जा सकता।

चाहे तुम सारे वेद-शास्त्र पढ़ लो, यम-नियम का पालन कर लो, धर्मशास्त्र का मनन कर लो, या सारे तीर्थ कर लो, यदि हृदय में राम नहीं हैं, तो ये सब व्यर्थ हैं।

दोस्तों से दोस्ती और दुश्मनों से दुश्मनी को छोड़कर, संसार से उदासीन होकर भगवान से प्रेम करो। यही सच्चा मार्ग है।

हे! तुम दसों दिशाओं में क्यों भागते फिरते हो? भगवान के द्वारा किए गए कामों का ख्याल करो। देखो, जब तुम मुँह बंद करके छिपे हुए थे, तब भी तुम्हें खाने के लिए पहुँचाया गया। जब तुम्हारे दांत आए, तब भी तुम्हें मुँह खोलते ही खाने का टुकड़ा दिया गया। वही प्रभु, जिसने तुम्हारी गर्भावस्था में, जब तुम जड़ और मूक थे, तुम्हारी देखभाल की, क्या वह अब तुम्हारी खबर नहीं लेगा?

तुम क्यों चीखते फिरते हो? भगवान पर भरोसा रखो; प्रभु ही तुम्हारी हर तरह से रक्षा करेंगे।

मनुष्य, तुम्हारी जिंदगी बेहद सीमित है। इस संक्षिप्त जीवन को बर्बाद मत करो। इसे समाप्त होने में देर नहीं लगेगी। यदि तुम सभी का आसरा छोड़कर जगदीश की सेवा करोगे, तो तुम्हारा निश्चित रूप से भला होगा।

शरीरधारी भोग—विषय-सुख—साधन बादलों में चमकने वाली बिजली की तरह क्षणिक होते हैं। मनुष्यों की आयु हवाओं से छिन्न-भिन्न हुए बादलों के जल के समान अस्थायी है। जवानी की उमंग भी स्थिर नहीं रहती। इसलिए, बुद्धिमानों! धैर्य से अपने चित्त को एकाग्र करो और उसे योग साधना में लगाओ।

सच तो यह है कि यह शरीर बिजली की चमक और बादल की छाया की तरह चंचल और अस्थिर है। जिस दिन जन्म लिया, उसी दिन मृत्यु पीछे पड़ गई, और अब वह अपना समय देख रही है। जैसे ही समय पूरा होगा, यह शरीर नष्ट हो जाएगा।

जिस तरह जल अज्ञलिम में नहीं ठहरता, उसी तरह लक्ष्मी भी किसी के पास स्थायी नहीं रहती।

संसारिक पदार्थ, लक्ष्मी, विषयभोग और आयु चंचल और क्षणिक हैं। इसी प्रकार, यौवन भी क्षणिक है।

इस संसार में जो विभिन्न प्रकार के मनमोहक और आकर्षक पदार्थ दिखाई देते हैं, वे सभी नाशवान हैं। वास्तव में, ये सब कुछ नहीं हैं; केवल मन की कल्पना से इनकी सृष्टि की गई है। जो लोग इन पर विश्वास करते हैं, वे मूर्ख हैं, ज्ञानी नहीं।

इस जगत में ज्ञानी का जीवन सार्थक होता है, जबकि अज्ञानी का जीवन निरर्थक है। इस जीवन की वास्तविकता को समझना बेहद जरूरी है। विभूति क्षणिक है, यौवन भी क्षणिक है, फिर भी लोग परलोक-साधना की चिंता नहीं करते। मनुष्यों का यह व्यवहार अत्यंत आश्चर्यजनक है।

हे मनुष्यों! होश करो, गफलत की नींद से जागो। देखो, मृत्यु तुम्हारे द्वार पर खटखटा रही है। यह सच है कि परिवार के सदस्य जैसे स्त्री, पुत्र, भाई, बहन, माता-पिता आदि तब तक प्यारे और सगे-सम्बंधी हैं जब तक कि शरीर नाश नहीं होता।

यह संसार वास्तव में दो स्थानों के बीच का एक ठहराव है। यात्री यहाँ आकर क्षण भर के लिए आराम करते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे यात्रियों का आपस में मेल बढ़ाना और एक-दूसरे के मोह में फँसना वास्तव में दुख उत्पन्न करने वाला है।

इस जगत में न कोई अपना है और न पराया। सभी संबंध औरAttachments अस्थायी हैं।

हे अज्ञानी मनुष्य! मुझे तुम्हारी इस बात पर बड़ा आश्चर्य होता है कि तुम इस बालू के मकान में निसंकोच और आनंद में बैठे हो। इसे नाश होने में कितनी देर लगेगी, यह सोचने का विषय है। यह स्थिरता मात्र भ्रम है, और वास्तविकता के प्रति सजग रहना आवश्यक है।

दूध में मधुरता तब तक बनी रहती है जब तक उसे सर्प नहीं छूता। इसी तरह, मनुष्य में गुण भी तब तक रहते हैं जब तक कि तृष्णा का स्पर्श नहीं होता। इसलिए, बुद्धिमानों को चाहिए कि वे अनित्य और नाशवान विषयों से दूर रहें, क्योंकि इनमें कोई भी वास्तविक सुख नहीं है।

यदि आप विषयों का भोग करेंगे, तो नरक की अग्नि में जलने के लिए मजबूर होंगे और जन्म-मरण के संकटों का सामना करना पड़ेगा। इसके बजाय, परमात्मा का भजन या योग साधना करके आप नित्य सुख का अनुभव कर सकते हैं और परमानंद में लीन हो सकते हैं। इसलिए, अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखें और एकाग्रचित्त होकर परमात्मा का भजन करें।

समुद्र की लहरों की तरह मन की दौड़ होती है। अगर मन ठिकाने आ जाए और उसमें समुद्र की तरह तरंगें न उठें, तो सहजता से हीरा उत्पन्न हो सकता है; यानी परमात्मा की प्राप्ति संभव है।

बहुत समय हो गया है कि मैं मुड़ता रहा, लेकिन आज तक भगवान नहीं मिले। कैसे मिलेंगे? जब मन राम में लगेगा, तब राम मिलेंगे। लेकिन मन तो विषयों और भोगों में लगा रहता है, ऐसे में राम कैसे मिल सकते हैं?

विषय-भोग, आयु, और यौवन को अनित्य और क्षणिक समझकर इनमें आसक्ति न रखें। मन को एकाग्र करके हर क्षण परमात्मा का भजन करें, ताकि जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा मिले और परमात्मा की प्राप्ति हो सके।

इस शरीर का कोई भरोसा नहीं है; यह क्षणभर में नष्ट हो सकता है। इस स्थिति में सर्वोत्तम उपाय यही है कि हर सांस में परमात्मा का नाम लें। बिना उसके नाम के एक सांस भी नहीं ले पाओगे। यही उद्धार का सबसे बड़ा उपाय है।

परमात्मा के प्रेम और उसकी सेवा के बिना सब कुछ व्यर्थ है; यह सिर्फ एक ढोंग है। सबसे बड़ी बुद्धिमानी इसी में है कि दुनिया से मुंह मोड़कर परमात्मा के चरणों में ध्यान लगाया जाए।

नाशवान संपत्तियों की खोज में अपना जीवन बर्बाद करना कोरी मूर्खता है। प्रतिष्ठा के पीछे भागना एक प्रकार का पागलपन है। ऊँचे पदों की लालसा इंसान को नरक की ओर ले जाती है, और भौतिक इच्छाओं के पीछे भागना मृत्यु का द्वार खोलने के समान है।

ऐसी वस्तुओं के लिए सिर परिश्रम करना, जिनका भोग करने पर महान दुखदायी दंड भोगना पड़ेगा, एक साफ धोखा है। दीर्घकालिक जीवन की कामना कितनी ओछी है, और उत्तम जीवन व्यतीत करने के बाद प्रमाद करना कितना बड़ा पाप है!

जल्द ही आंखों से हट जाने वाली वस्तुओं पर मोह करना और अक्षय आनंद की ओर जीवन को प्रवाहित न करना आत्मप्रवृत्ति का संकेत है। इस कहावत को हमेशा याद रखें कि आंखें देखकर संतुष्ट नहीं होतीं और कान सुनकर कभी नहीं अघाते। इसलिए, देखने और सुनने वाली चीजों से अपने हृदय को हटाने का प्रयास करें। क्योंकि जो लोग वासनाओं के संकेत पर चलते हैं, वे आत्म-चैतन्य पर कालिमा पोत लेते हैं और परमात्मा की कृपा को खो देते हैं।

भगवान ने कहा है कि जो मेरा अनुसरण करता है, वह अंधकार में नहीं भटकता।

जो व्यक्ति अपने को भुलाकर ब्रह्मांड के संचालन की प्रक्रिया को समझने में व्यस्त रहता है, वह परमात्मा की सेवा करने वाले गृहस्थ की तुलना में कहीं अधिक उत्कृष्ट है। जिसने अपने को सही से पहचान लिया, वह अपनी insignificance को महसूस करता है और दूसरों द्वारा की गई प्रशंसा में गर्वित नहीं होता।

अगर मैं दुनिया की सभी चीजों को समझ लूं, लेकिन दान और दया के भावों को न रखूं, जो मनुष्य को परमात्मा की दृष्टि में ऊंचा बनाते हैं, तो मेरा सारा ज्ञान बेकार है। अपनी मुक्ति के साधनों को छोड़कर अन्य विषयों पर ध्यान केंद्रित करना, जिनसे आत्मा को कोई लाभ नहीं होता, एक बड़ी अज्ञानता है।

बड़े से बड़े ज्ञान से आत्मा संतुष्ट नहीं होती, जबकि उत्तम जीवन मन को शांति, तृप्ति और प्रेम प्रदान करता है। एक पवित्र हृदय परमात्मा के सामने बड़ा सहारा बनता है। जितना ऊंचा ज्ञान, उतना ही उत्तम जीवन। यदि ऐसा संभव हो, तो ठीक है; अन्यथा, सारा प्रयास बेकार और निरर्थक है।

शरीर के लिए कोई कितनी ही मेहनत करे या उसे आरामदायक रखने के कितने ही उपाय खोजे, वह अंततः नाश होगा, चाहे वह आज हो या सैकड़ों वर्षों बाद। इसलिए, बहुज्ञ होने का गर्व न करो; बल्कि अपनी अज्ञानता को स्वीकार करो।

यदि तुम कोई बात जानकर या सीखकर लाभ उठाना चाहते हो तो छिपे रहने का प्रयास करो और लोगों से आदर पाने की कोशिश कभी न करो।

सबसे उत्तम और सबसे लाभदायक अध्ययन, सच्चा आत्मज्ञान और आत्मविचार है।

अपने संबंध की किसी भी वस्तु की बड़ाई न करना और सदा दूसरों का हित सोचना तथा उनके संबंध में ऊँचा विचार रखना ही बुद्धिमानी और पूर्णता का परिचायक है।

यदि तुम दूसरों को खुली तौर पर पाप करते देखते हो या बहुत भयंकर अपराध करते पाते हो, तो भी तुम्हें अपने को उनसे अच्छा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि तुम नहीं जानते कब तक तुम इस अच्छी स्थिति में रह सकोगे।

हम सभी दुर्बल प्राणी हैं, परंतु हमें अपने से अधिक दुर्बल किसी को भी नहीं समझना चाहिए।

वह व्यक्ति धन्य है जो बनने और बिगड़ने वाले अड्डों और अक्षरों से नहीं, स्वयं सत्य से शिक्षा लेता है, जो स्वतः आत्मस्वरूप है।

हमारे अपने विचार और हमारी अपनी इंद्रियाँ प्रायः हमें भ्रांत कर देती हैं और सत्य-असत्य की परख नहीं कर सकतीं।

अच्छे और अंधकारगत वस्तुओं के संबंध में वाद-विवाद करने और झगड़ने से तुम्हें क्या लाभ? आँख खोलकर भगवान की इस रहस्यपूर्ण रचनाओं को तो देखो, फिर तुम्हें और कुछ देखना ही नहीं रहेगा।

 

 

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