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पद – राग माली गौड़ी,कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों
पंडिता मन रंजिता, भगति हेत त्यौ लाइ लाइ रे॥
प्रेम प्रीति गोपाल भजि नर, और कारण जाइ रे॥
दाँम छै पणि कांम नाहीं, ग्याँन छै पणि अंध रे॥
श्रवण छै पणि सुरत नाहीं, नैन छै पणि अंध रे॥
जाके नाभि पदक सूँ उदित ब्रह्मा, चरन गंग तरंग रे॥
कहै कबीर हरि भगति बांछू जगत गुर गोब्यंद रे॥
बिष्णु ध्यांन सनान करि रे, बाहरि अंग न धोई रे।
साच बिन सीझसि नहीं, कांई ग्यांन दृष्टैं जोइ रे॥
जंबाल मांहैं जीव राखै, सुधि नहीं सरीर रे॥
अभिअंतरि भेद नहीं, कांई बाहरि न्हावै नीर रे॥
निहकर्म नदी ग्यांन जल, सुंनि मंडल मांहि रे॥
ओभूत जोगी आतमां, कांई पेड़ै संजमि न्हाहि रे॥
इला प्यंगुला सुषमनां, पछिम गंगा बालि रे॥
कहै कबीर कुसमल झड़ै, कांई मांहि लौ अंग पषालि रे॥
भजि नारदादि सुकादि बंदित, चरन पंकज भांमिनी।
भजि भजिसि भूषन पिया मनोहर देव देव सिरोवनी॥
बुधि नाभि चंदन चरिचिता, तन रिदा मंदिर भीतरा॥
राम राजसि नैन बांनी, सुजान सुंदर सुंदरा॥
बहु पाप परबत छेदनां, भौ ताप दुरिति निवारणां॥
कहै कबीर गोब्यंद भजि, परमांनंद बंदित कारणां॥
रमैणी (राग सूहौ)
तू सकल गहगरा, सफ सफा दिलदार दीदार॥
तेरी कुदरति किनहूँ न जानी, पीर मुरीद काजी मुसलमानी॥
देवौ देव सुर नर गण गंध्रप, ब्रह्मा देव महेसुर॥
तेरी कुदरति तिनहूँ न जांनी॥
काजी सो जो काया बिचारै, तेल दीप मैं बाती जारै॥
तेल दीप मैं बाती रहे, जोति चीन्हि जे काजी कहै॥
मुलनां बंग देइ सुर जाँनी, आप मुसला बैठा ताँनी॥
आपुन मैं जे करै निवाजा, सो मुलनाँ सरबत्तरि गाजा॥
सेष सहज मैं महल उठावा, चंद सूर बिचि तारौ लावा॥
अर्ध उर्ध बिचि आनि उतारा, सोई सेष तिहूँ लोक पियारा॥
जंगम जोग बिचारै जहूँवाँ, जीव सिव करि एकै ठऊवाँ॥
चित चेतनि करि पूजा लावा, तेतौ जंगम नांऊँ कहावा॥
जोगी भसम करै भौ मारी, सहज गहै बिचार बिचारी॥
अनभै घट परचा सू बोलै, सो जोगी निहचल कदे न डोले॥
जैन जीव का करहू उबारा, कौंण जीव का करहु उधारा॥
कहाँ बसै चौरासी मतै संसारी, तिरण तत ते लेहु बिचारी॥
प्रीति जांनि राम जे कहै, दास नांउ सो भगता लहै॥
पंडित चारि वेद गुंण गावा, आदि अंति करि पूत कहावा॥
उतपति परलै कहौ बिचारी, संसा घालौ सबै निवारी॥
अरधक उरधक ये संन्यासी, ते सब लागि रहै अबिनासी॥
अजरावर कौ डिढ करि गहै, सो संन्यासी उम्मन रहै॥
जिहि धर चाल रची ब्रह्मंडा, पृथमीं मारि करी नव खंडां॥
अविगत पुरिस की गति लखी न जाई, दास कबीर अगह रहे ल्यौ लाई॥1॥
*टिप्पणी: * ख-प्रति में इसके आगे यह रमैणी है-
बावन आखिर लोकत्री, सब कुछ इनहीं माँहि॥
ये सब षिरि जाहिगे, सो आखिर इनमें नाँहि॥
ते तौ आधि अनंद सरूपा, गुन पल्लव बिस्तार अनूपा।
साखा तत थैं कुसम गियाँनाँ, फल सो आछा राम का नाँमाँ॥
सदा अचेत चेत जिव पंखी, हरि तरवर करि बास॥
झूठ जगि जिनि भूलसी जियरे, कहन सुनन की आस॥
जिहि ठगि ठगि सकल जग खावा, सो ठग ठग्यो ठौर मन आवा॥
डडा डर उपजै डर जाई, डरही मैं डर रह्यौ समाई॥
जो डर डरै तो फिर डर लागै, निडर होई तो डरि डर भागै॥
ढढा ढिग कत ढूँढै आना, ढूँढत ढूँढत गये परांना॥
चढ़ि सुमर ढूँढि जग आवा, जिमि गढ़ गढ़ा सुगढ़ मैं पावा॥
णणारि णरूँ तौ नर नाहीं, करै ना फुनि नवै न संचरै॥
धनि जनम ताहीं कौ गिणां, मेरे एक तजि जाहि घणां॥
तता अतिर तिस्यौ नहीं गाई, तन त्रिभुवन में रह्यौ समाई॥
जे त्रिभुवन तन मोहि समावै, तो ततै तन मिल्या सचु पावै॥
अथा अथाह थाह नहीं आवा, वो अथाह यहु थिर न रहावा॥
थोरै थलि थानै आरंभै, तो बिनहीं थंभै मंदिर थंभै॥
ददा देखि जुरे बिनसन हार, जस न देखि तस राखि बिचार॥
दसवै द्वारि जब कुंजी दीजै, तब दयालु को दरसन कीजै॥
धधा अरधै उरध न बेरा, अरधे उरधै मंझि बसेरा॥
अरधै त्यागि उरध जब आवा, तब उरधै छाँड़ि अरध कत धावा॥
नना निस दिन निरखत जाई, निरखत नैन रहे रतबाई॥
निरखत निरखत जब जाइ पावा, तब लै निरखै निरख मिलावा॥
पपा अपार पार नहीं पावा, परम जोति सौ परो आवा॥
पांचौ इंद्री निग्रह करै, तब पाप पुंनि दोऊ न संचरै॥
फफा बिन फूलाँ फलै होई, ता फल फंफ लहै जो कोई॥
दूंणी न पड़ै फूकैं बिचारैं, ताकी फूंक सबै तन फारै॥
बबा बंदहिं बंदै मिलावा, बंदहि बंद न बिछुरन पावा॥
जे बंदा बंदि गहि रहै, तो बंदगि होइ सबै बंद लहै॥
भभा भेदै भेद नहीं पावा, अरभैं भांनि ऐसो आवा॥
जो बाहरि सो भीतरि जाना भयौ भेद भूपति पहिचाना॥
ममाँ मन सो काज है, मनमानाँ सिधि होइ॥
मनहीं मन सौ कहै कबीर, मन सौं मिल्याँ न कोइ॥
ममाँ मूल गह्याँ मन माना, मरमी होइ सूँ मरमही जाना॥
मति कोई मनसौं मिलता बिलमावै, मगन भया तैं सोगति पावै॥
रमैणी (सतपदी रमैणी)
कहन सुनन कौ जिहि जग कीन्हा, जग भुलाँन सो किनहुँ न चीन्हा॥
सत रज तम थें कीन्हीं माया, आपण माझै आप छिपाया॥
तुरक सरीअत जनिये, हिंदू बेद पुरान॥
मन समझन कै कारनै, कछु एक पढ़िये ज्ञान॥
जहाँ बोल तहाँ आखिर आवा, जहाँ अबोल तहाँ मन न लगावा॥
बोल अबोल मंझि है सोई, जे कुछि है ताहि लखै न कोई॥
ओ अंकार आदि मैं जाना, लिखि करि मेटै ताहि न माना॥
ओ ऊकार करै जस कोई, तस लिखि मरेणां न होई॥
ककाँ कवल किरणि मैं पावा, अरि ससि बिगास सपेट नहीं आवा॥
अस जे जहाँ कुसुम रस पावा, तौ अकह कहा कहि का समझावा॥
खखा इहै खोरि मनि आवा, तौ खोरहि छाँड़ चहूँ दिस धावा॥
खसमहिं जानि षिमा करि रहै, तौ हो दून षेव अखै पद लहै॥
गगा गूर के बचन पिछाना, दूसर बात न धरिये काना॥
सोइ बिहंगम कबहुँ न जाई, अगम गहै गहि गगन रहाई॥
घघा घटि निमसै सोई, घट फाटा घट कबहुँ न होई॥
तौ घट माँहि घाट जो पावा, सुघटि छाड़ि औघट कत आवा॥
नना निरखि सनेह करि, निरवालै संदेह॥
नाहीं देखि न भाजिये, प्रेम सयानप येह॥
चचा चरित चित्र है भारी, तजि बिचित्र चेतहुँ चितकारी॥
चित्र विचित्र रहै औडेरा, तजि बिचित्र चित राखि चितेरा॥
छछा इहै छत्रापति पासा, तिहि छाक न रहै छाड़ि करि आसा॥
रे मन हूं छिन छिन समझाया, तहाँ छाड़ि कत आप बधाया॥
जजा जे जानै तौ दुरमति हारी, करि बासि काया गाँव॥
रिण रोक्या भाजै नहीं, तौ सूरण थारो नाँव॥
झझा उरझि सुरझि नहीं जाना, रहि मुखि झझखि झझखि परवाना॥
कत झषिझिषि औरनि समझावा, झगरौ कीये झगरिबौ पावा॥
नना निकटि जु घटि रहै, दूरि कहाँ तजि आइ।
जा कारणि जग ढूँढियो, नैड़े पायौ ताहि॥
टटा निकट घाट है माहीं, खोलि कपाट महील जब जाहीं॥
रहै लपटि जहि घटि परो, आई, देखि अटल टलि कतहुँ न जाई।
ठठा ठौर दूरि ठग नीरा, नीठि नीठि मन कीया धीरा॥
सूक बिरख यहु जगत उपाया, समझि न परै बिषम तेरी माया॥
साखा तीनि पत्रा जुग चारी, फल दोइ पापै पुंनि अधिकारी॥
स्वाद अनेक कथ्या नहीं जांहीं, किया चरित सो इन मैं नाहीं॥
तेतौ आहि निनार निरंजना, आदि अनादि न आंन॥
कहन सुन कौ कीन्हु जग, आपै आप भुलाँन॥
जिनि नटवे नटसारी साजी, जो खेलै सो दीसे बाजी॥
मो बपरा थें जोगपति ढीठो, सिव बिरंचि नारद नहीं दीठी॥
आदि अंति जो लीन भये हैं, सहजै जाँनि संतोखि रहे हैं॥
जजा सुतन जीवतही जरावै, जोबन जारि जुगुति सो पावै॥
अंसंजरि बुजरि जरि बरिहै, तब जाइ जोति उजारा लहै॥
ररा सरस निरस करि जानैं, निरस होइ सुरस करि मानै॥
यहु रस बिसरै सो रस होई, सो रस रसिक लहै जे कोई॥
लला लहौ तो भेद है, कहूँ तो कौ उपगार॥
बटक बीज मैं रमि रह्या, ताका तीन लोक बिस्तार॥
ववा वोइहिं जाणिये, इहि जाँण्याँ वो होइ॥
वो अस यहु जबहीं मिल्या, इहि तब मिलत न जाषे कोइ॥
ससा सो नीको करि सोधै, घट पर्या की बात निरोधै॥
घट पर्यो जे उपजै भाव, मिले ताहि त्रिभुवनपति राव॥
षषा खोजि परे जे कोई, जे खोजै सो बहुरे न होई॥
षोजि बूझि जे करै बिचार, तौ भौ जल तिरत न लागे बार॥
शशा शोई शेज नू बारे, शोई शाव संदेह निवारे॥
अति सुख बिसरे परम सुख पावै, सो अस्त्री सो कंत कहावै॥
हहा होइ होत नहीं जानै, जब जब होइ तबै मन मानै॥
ससा उनमन से मन लावै, अनंत न जाइ परम सुख पावै॥
अरु जे तहाँ प्रेम ल्यौ लावै, तो डालह लहैं लैहि चरन समावै॥
षषा षिरत षपत नहीं चेते, षपत षपत गये जुग केते॥
अब जुग जानि जोरि मन रहै, तौ जहाँ थै बिछरो सो थिर रहै॥
बावन अषिर जोरै आनि, एकौ आषिर सक्या न जानि॥
सति का शब्द कबीरा कहै, पूछौ जाइ कहा मन रहै॥
पंडित लोगन कौ बौहार, ग्यानवंत कौं तन बिचारि॥
जाकै हिरदै जैसी होई, कहै कबीर लहैगा सोई॥2॥
सहजै राम नाम ल्यौ लाई, राम नाम कहि भगति दिढाई।
राम नाम जाका मन माँनाँ, तिन तौ निज सरूप पहिचाँनाँ॥
निज सरूप निरंजना निराकार अपरंपार अपार।
राम नाम ल्यौ लाइस जियरे, जिनि भूलै बिस्तार॥
करि बिस्तार जग धंधै लाया, अंत काया थैं पुरिष उपाया।
जिहि जैसी मनसा तिहि तैसा भावा, ताकूँ तैसा कीन्ह उपावा॥
तेतौ माया मोह भुलाँनाँ, खसम राम सो किनहूँ न जांनां॥
ता मुखि बिष आवै बिष जाई, ते बिष ही बिष मैं रहै समाई॥
माता जगत भूत सुधि नांहीं, भ्रमि भूले नर आवैं जाहीं॥
जानि बूझि चेते नहीं अंधा, करम जठर करम के फंधा॥
करम का बाँधा जीयरा, अह निसि आवै जाइ॥
मनसा देही पाइ करि, हरि बिसरै तौ फिर पीछै पछिताइ॥
तौ करि त्राहि चेति जा अंधा, तजि पर कीरति भजि चरन गोब्यंदा॥
उदर कूप तजौ ग्रभ बासा, रे जीव राम नाम अभ्यासा॥
जगि जीवन जैसे लहरि तरंगा, खिन सुख कूँ भूलसि बहु संगा॥
भगति कौ हीन जीवन कछू नांहीं, उतपति परलै बहुरि समाहीं॥
भगति हीन अस जीवनां, जनम मरन बहु काल॥
आश्रम अनेक करसि रे जियरा, राम बिना कोइ न करै प्रतिपाल॥
सोई उपाय करि यहु दुख जाई, ए सब परहरि बिसै सगाई॥
माया मोह जरै जग आगी, ता संगि जरसि कवन रस लागी॥
त्राहि त्राहि करि हरी पुकारा, साधु संगति मिलि करहु बिचारा॥
रे रे जीवन नहीं बिश्रांमां, सुख दुख खंउन राम को नांमां॥
राम नाम संसार मैं सारा, राम नाम भौ तारन हारा॥
सुम्रित बेद सबै सुनै, नहीं आवै कृत काज।
नहीं जैसे कुंडिल बनित मुख, मुख सोभित बिन राज॥
अब गहि राम नाम अबिनासी, रि तजि जिनि कतहूँ कैं जासी॥
जहाँ जाइ तहाँ तहाँ पतंगा, अब जिनि जरसि संमझि बिष संगा॥
चोखा राम नाम मनि लीन्हा, भिंग्री कीट भ्यंग नहीं कीन्हा॥
भौसागर अति वार न पारा, ता तिरबे का करहु बिचारा॥
मनि भावै अति लहरि बिकारा, नहीं गमि सूझै वार न पारा॥
भौसागर अथाह जल तामैं बोहिथ राम अधार।
कहै कबीर हम हरि सरन, तब गोपद खुद बिस्तार॥
रमैणी (बड़ी अष्टपदी रमैणी)
एक बिनाँनी रच्या बिनांन, सब अयांन जो आपै जांन॥
सत रज तम थें कीन्हीं माया, चारि खानि बिस्तार उपाया॥
पंच तत ले कीन्ह बंधानं, पाप पुंनि मांन अभिमानं॥
अहंकार कीन्हें माया मोहू, संपति बिपति दीन्हीं सब काहू॥
भले रे पोच अकुल कुलवंता, गुणी निरगुणी धन नीधनवंता॥
भूख पियास अनहित हित कीन्हो, हेत मोर तोर करि लीन्हा॥
पंच स्वाद ले कीन्हां बंधू, बँधे करम जा आहि अबंधू॥
अचर जीव जंत जे आही, संकट सोच बियापैं ताही॥
निंद्या अस्तुति मांन अभिमांना, इनि झूठै जीव हत्या गियांनां॥
बहु बिधि करि संसार भुलावा, झूठै दोजगि साच लुकावा॥
माया मोह धन जोबना, इनि बँधे सब लोइ॥
झूठै झूठ बियापियां, कबीर अलख न लखई कोइ॥
झूठनि झूठ साँच करि जानां, झूठनि मैं सब साँच लुकानां॥
धंध बंध कीन्ह बहुतेरा, क्रम बिवर्जित रहै न नेरा॥
षट दरसन षट आश्रम कीन्हा, षट रस खाटि काम रस लीन्हां॥
चारि बेद छह सास्त्रा बखानैं, विद्या अनंत कथैं को जांनै॥
तप तीरथ ब्रत कीन्हें पूजा, धरम नेम दान पुन्य दूजा॥
और अगम कन्हें ब्यौहारा, नहीं गमि सूझै वार न पारा॥
लीला करि करि भेख फिरावा, ओट बहुत कछू कहत न आवा॥
गहन ब्यंद नहीं कछू नहीं सूझै, आपन गोप भयौ आगम बूझै॥
भूलि परो जीव अधिक डराई, रजनी अंध कूप ह्नै धाई॥
माया मोह उनवै भरपूरी, दादुर दामिनि पवनां पूरी॥
तरिपै बरिषै अखंड धारा, रैनि भाँमिनी भया अँधियारा॥
तिहि बियोग तजि भये अनाथा, परे निकुंज न पावै पंथा॥
वेद न आहि कहूँ को मानै, जानि बूझि मैं मया अयानै॥
नट बहु रूप खेलै सब जांनै, कला केर गुन ठाकुर मांने॥
ओ खेले सब ही घट मांही, दूसर के लेखै कछु नाहीं॥
जाकें गुन सोई पै जांनै, और को जानै पार अयानै॥
भले रे पोच औसर जब आवा, करि सनामांन पूरि जम पावा॥
दान पुन्य हम दिहूँ निरासा, कब लग रहूँ नटारंभ काछा॥
फिरत फिरत सब चरन तुरांनै, हरि चरित अगम कथै को जानै॥
गण गंध्रप मुनि अंत न पावा, रह्यो अलख जग धंधै लावा॥
इहि बांजी सिव बिरंचि भुलांनां, और बपुरा को क्यंचित जांनां॥
त्राहि त्राहि हम कीन्ह पुकारा, राखि राखि साई इहि बारा॥
कोटि ब्रह्मंड गडि दीन्ह फिराई, फल कर कीट जनम बहुताई॥
ईश्वर जोग खरा जब लीन्हा, टरो ध्यान तप खंड न कीन्हां॥
सिध साधिका उनथै कहु कोई, मन चित अस्थिर कहुँ कैसै होई॥
लीला अगम कथै को पारा, बसहु समीप कि रहौ निनारा॥
खग खोज पीछै नहीं, तूँ तत अपरंपार॥
बिन परसै का जांनिये, सब झूठे अहंकार॥
अलख निरंजन लखै न कोई, निरभै निराकार है सोई॥
सुनि असथूल रूप नहीं रेखा, द्रिष्टि अद्रिष्टि छिप्यौ नहीं पेखा॥
बरन अबरन कथ्यौ नहीं जाई, सकल अतीत घट रह्यौ समाई॥
आदि अंत ताहि नहीं मधे, कथ्यौ न जाई आहि अकथे॥
अपरंपार उपजै नहीं बिनसै, जुगति न जांनिये कथिये कैसे॥
जस कथिये तत होत नहीं, जस है तैसा सोइ॥
कहत सुनत सुख उपजै, अरु परमारथ होइ॥
जांनसि नहीं कस कथसि अयांनां, हम निरगुन तुम्ह सरगुन जानां॥
मति करि हीन कवन गुन आंहीं, लालचि लागि आसिरै रहाई॥
गुंन अरु ग्यान दोऊ हम हीनां, जैसी कुछ बुधि बिचार तस कीन्हां॥
हम मसकीन कछु जुगति न आवै, ते तुम्ह दरवौ तौ पूरि जन पावै॥
तुम्हरे चरन कवल मन राता, गुन निरगुन के तुम्ह निज दाता॥
जहुवां प्रगटि बजावहु जैसा, जस अनभै कथिया तिनि तैसा॥
बाजै जंत्रा नाद धुनि होई, जे बजावै सो औरै कोई॥
बांजी नाचै कौतिग देखा, जो नचावै सो किनहूँ न पेखा॥
आप आप थैं जानिये, है पर नाहीं सोइ॥
कबीर सुपिनै केर धंन ज्यूँ, जागत हाथि न होइ॥
जिनि यहु सुपिनां फुर करि जांनां, और सब दुखियादि न आंनां॥
ग्यांन हीन चेत नहीं सूता, मैं जाया बिष हार भै भूता॥
पारधी बांन रहै सर साँधे, बिषम बांन मारै बिष बाधै॥
काल अहेड़ी संझ सकारा, सावज ससा सकल संसारा॥
दावानल अति जरै बिकारा, माया मोह रोकि ले जारा॥
पवन सहाइ लोभ अति भइया, जम चरचा चहुँ दिसि फिरि गइया॥
जम के चर चहुँ दिसि फिरि लागे, हंस पखेरुवा अब कहाँ जाइवे॥
केस गहै कर निस दिन रहई, जब धरि ऐंचे तब धरि चहई॥
कठिन पासु कछू चलै न उपाई, जंम दुवारि सीझे सब जाई॥
सोई त्रास सुनि राम न गावै, मृगत्रिष्णां झूठी दिन धावै॥
मृत काल कीनहूँ नहीं देखा, दुख कौ सुख करि सबहीं लेखा।
सुख करि मूल न चीन्हसि अभागी, चीन्है बिना रहै दुख लागी॥
नीब काट रस नीब पियारा, यूँ विष कूँ अमृत कहै संसारा॥
अछित रोज दिन दिनहि सिराई, अमृत परहरि करि बिष खाई॥
जांनि अजांनि जिन्हैं बिष खावा, परे लहरि पुकारै धावा॥
बिष के खांये का गुन होई, जा बेद न जानै परि सोई॥
मुरछि मुरछि जीव जरिहै आसा, कांजी अलप बहुखीर बिनासा॥
तिल सुख कारनि दुख अस मेरू, चौरासी लख लीया फैरू॥
अलप सुख दुख आहि अनंता, मन मैंगल भूल्यौ मैमंता॥
दीपक जोति रहै इक संगा, नैन नेह मांनूं परै पतंगा॥
सुख विश्राम किनहूँ नहीं पावा, परहरि साच झूठे दिन धावा॥
लालच लागे जनम सिरावा, अति काल दिन आइ तुरावा॥
जब लग है यहु निज तन सोई, तब लग चेति न देखै कोई॥
जब निज चलि करि किया पयांनां, भयौ अकाज तब फिर पछितांनां॥
मृगत्रिष्णां दिन दिन ऐसी, अब मोहि कछू न सोहाइ॥
अनेक जतन करि टारिये, करम पासि नहीं जाइ॥
रे रे मन बुधिवत भंडारा, आप आप ही करहुँ बिचारा॥
कवन सयाँना कौन बौराई, किहि दुख पइये किहि दुख जाई॥
कवन सार को आहि असारा, को अनहित को आहि पियारा॥
कवन साच कवन है झूठा, कवन करू को लागै मीठा॥
किहि जरिये किहि करिले अनंदा, कवन मुकति को मल के फंदा॥
रे रे मन मोंहि ब्यौरि कहि, हौ तत पूछौ तोहि॥
संसै मूल सबै भई, समझाई कहि मोहि॥
सुनि हंसां मैं कहूँ बिचारी, त्रिजुग जोति सबै अँधियारी॥
मनिषा जनम उत्तिम जो पावा, जांनू राम तौ सयांन कहावा॥
नहीं चेतै तो जनम गँवाया, परौं बिहान तब फिरि पछतावा॥
सुख करि मूल भगति जो जांनै, और सबै दुखया दिन आनै॥
अंमृत केवल राम पियारा, और सबै बिष के भंडारा॥
हरि आहि जौ रमियै रांमां, और सबै बिसमा के कांमां॥
सार आहि संगति निरवांनां, और सबै असार करि जांनां॥
अनहित आहि सकल संसारा, हित करि जानियै राम पियारा॥
साच सोई जे थिरह रहाई, उपजै बिनसै झूठ ह्नै जाई॥
मींठा सो जो सहजै पावा, अति कलेस थै करूँ कहावा॥
ना जरियै ना कीजै मैं मेरा, तहाँ अनंद जहाँ राम निहोरा॥
मुकति सोज आपा पर जांनै, सो पद कहाँ जु भरमि भुलानै॥
प्राननाथ जग जीवनाँ, दुरलभ राम पियार।
सुत सरीर धन प्रग्रह कबीर, जीये रे तर्वर पंख बसियार॥
रे रे जीव अपना दुख न संभारा, जिहि दुख ब्याप्या सब संसारा॥
मायां मोह भूले सब लोई, क्यंचित लाभ मांनिक दीयौ खोई॥
मैं मेरी करि बहुत बिगूला, जननी उदर जन्म का सूला॥
बहुत रूप भेष बहु कीन्हां, जुरा मरन क्रोध तन खींना॥
उपजै बिनसै जोनि फिराई, सुख कर मूल न पावै चाही॥
दुख संताप कलेस बहु पावै, सो न मिलै जे जरत बुझावै॥
जिहि हित जीव राखिहै भाई, सो अनहित है जाइ बिलाई॥
मोर तोर करि जरे अपारा, मृगतृष्णा झूठी संसारा॥
माया मोह झूठ रह्यौ लागी, को भयौ इहाँ का ह्नै है आगी॥
कछु कछु चेति देखि जीव अबहीं, मनिषा जनम ज पावै कबही॥
सारि आहि जे संग पियारा, जब चेतै तब ही उजियारा॥
त्रिजुग जोनि जे आहि अचेता, मनिषा जनम भयौ चित चेता॥
आतमां मुरछि मुरछि जरि जाई, पिछले दुख कहता न सिराई॥
सोई त्रास जे जांनै हंसा, तौ अजहुँ न जीव करै संतोसा॥
भौसागर अति वार न पारा, ता तिरिबे को करहु बिचारा॥
जा जल की आदि अंति नहीं जानिये, ताकौ डर काहे न मानिये॥
को बोहिथ को खेवट आही, जिहि तिरिये सो लीजै चाही॥
समझि बिचारि जीव जब देखा, यहु संसार सुपन करि लेखा॥
भई बुधि कछू ग्यांन निहारा, आप आप ही किया बिचारा॥
आपण मैं जे रह्यौ समाई, नेड दूरि कथ्यौ नहीं जाई॥
ताके चीन्है परचौ पावा, भई समझि तासूँ मन लावा॥
भाव भगति हित बोहिया, सतगर खेवनहार॥
अलप उदिक तब जाँणिये, जब गोपदखुर बिस्तार॥
रमैणी (दुपदी रमैणी)
भरा दयाल बिषहर जरि जागा, गहगहान प्रेम बहु लगा॥
भया अनंद जीव भये उल्हासा, मिले राम मनि पूगी आसा॥
मास असाढ़ रबि धरनि जरावै, जरत जरत जल आइ बुझावै॥
रूति सुभाइ जिमीं सब जागी, अंमृत धार होइ झर लागी॥
जिमीं मांहि उठी हरियाई, बिरहनि पीव मिले जन जाई॥
मनिकां मनि के भये उछाहा, कारनि कौन बिसारी नाहा॥
खेल तुम्हारा मरन भया मेरा, चौरासी लख कीन्हां फेरा॥
सेवग संत जे होइ अनिआई, गुन अवगुन सब तुम्हि समाई॥
अपने औगुन कहूँ न पारा, इहै अभाग जे तुम्ह न संभारा॥
दरबो नहीं काँई तुम्ह नाहा, तुम्ह बिछुरे मैं बहु दुख चाहा॥
मेघ न बरिखै जांहि उदासा, तऊ न सारंग सागर आसा॥
जलहर मरौं ताहि नहीं भावै, कै मरि जाइ कै उहै पियावै॥
मिलहु राम मनि पुरवहु आसा, तुम्ह बिछुर्या मैं सकल निरासा॥
मैं रनिरासी जब निध्य पाई, राम नाम जीव जाग्या जाई॥
नलिनीं कै ज्यूँ नीर अधारा, खिन बिछुरयां थैं रवि प्रजारा॥
राम बिनां जीव बहुत दुख पावै, मन पतंग जगि अधिक जरावै॥
माघ मास रुति कवलि तुसारा, भयौ बसंत तब बाग संभारा॥
अपनै रंगि सब कोइ राता, मधुकर बार लेहि मैंमंता॥
बन कोकिला नाद गहगहांना, रुति बसंत सब कै मनि मानां॥
बिरहन्य रजनी जुग प्रति भइया, पिव पिव मिलें कलप टलि गइया॥
आतमा चेति समझि जीव जाई, बाजी झूठ राम निधि पाई॥
भया दयाल निति बाजहिं बाजा, सहज रांम नांम मन राजा॥
जरत जरत जल पाइया, सुख सागर कर मूल॥
गुर प्रसादि कबीर कहि, भागी संसै सूल॥
राम नाम जिन पाया सारा, अबिरथा झूठ सकल संसारा॥
हरि उतंग मैं जानि पतंगा, जंबकु केहरि कै ज्यूँ संगा॥
क्यंचिति ह्नैसुपिनै निधि पाई, नहीं सोभा कौ धरी लुकाई॥
हिरदै न समाइ जांनियै नहीं पारा, लगै लोभ न और हकारा॥
सुमिरत हूँ अपनै उनमानां, क्यंचित जोग रांम मैं जानां॥
मुखां साध का जानियै असाधा, क्यंचित जोग राम मैं लाधा॥
कुबिज होई अंमृत फल बंछ्या, पहुँचा तब मन पूगी इंछ्या॥
नियर थें दूरि दूरि थैं नियरा, रामचरित न जानियै जियरा॥
सीत थैं अगिन फुनि होई, रबि थैं ससि ससि थैं रबि सोई॥
सीत थैं अगनि परजई, थल थैं निधि निधि थैं थल करई॥
वज्र थैं तिण खिण भीतरि होई, तिण थैं कुलिस करे फुनि सोई॥
गिरबर छार छार गिरि होई, अविगति गति जानै नहीं कोई॥
जिहि दुरमति डोल्यौ संसारा, परे असूझि बार नहिं पारा॥
बिख अंमृत एक करि लीन्हां, जिनि चीन्हा सुख तिहकूँ हरि दीन्हा॥
सुख दुख जिनि चीन्हा नहीं जांनां, ग्रासे काल सोग रुति मांनां॥
होइ पतंग दीपक मैं परई, झूठै स्वादि लागि जीव जरई॥
कर गहि दीपक परहि जू कूपा, बहु अचिरज हम देखि अनूपा॥
ग्यानहीन ओछी मति बाधा, मुखां साध करतूति असाधा॥
दरसन समि कछू साध न होई, गुर समांन पूजिये सिध सोई॥
भेष कहा जे बुधि बिगूढ़ा, बिन परचे जग बूड़नि बूड़ा॥
जदपि रबि कटिये सुर आटी, झूठे रबि लीन्हा सुर चाही॥
कबहूँ हुतासन होइ जरावे, कबहुँ अखंड धार बरिषावै॥
कबहूँ सीत काल करि राजा, तिहूँ प्रकार बहुत दुख देखा॥
ताकूँ सेवि मूढ सुख पावै, दौरे लाभ कूँ मूल गवावै॥
अछित राज दिने दिन होई, दिवस सिराइ जनम गये खोई॥
मृत काल किनहूँ नहीं देखा, माया माह धन अगम अलेखा॥
झूठै झूठ रह्यौ उरझाई, साचा अलख जग लख्या न जाई॥
साचै नियरै झूठै दूरी, बिष कूँ कहै सजीवन मूरी॥
कथ्यौ न जाइ नियरै अरु दूरी, सकल अतीत रह्या घट पूरी॥
जहाँ देखौ तहाँ राम समांनां, तुम्ह बिन ठौर और नहिं आंनां॥
जदपि रह्या सकल घट पूरी, भाव बिनां अभिअंतरि दूरी॥
लोभ पाप दोऊ जरै निरासा, झूठै झूठि लागि रही आसा॥
जहुवाँ ह्नै निज प्रगट बजावा, सुख संतोष तहाँ हम पावा॥
नित उठि जस कीन्ह परकासा, पावर रहै जैसे काष्ठ निवासा॥
बिना जुगति कैसे मथिया जाई, काष्ठै पावक रह्या समाई॥
कष्टै कष्ट अग्नि पर जरई, जारै दार अग्नि समि करई॥
ज्यूँ राम कहै ते राम होई, दुख कलेस घालै सब खोई॥
जन्म के कलि बिष जांहि बिलाई, भरम करम का कछु न बसाई॥
भरम करम दोऊ बरतै लोई, इनका चरित न जांनै कोई॥
इन दोऊ संसार भुलावा, इनके लागैं ग्यांन गंवावा॥
इनकौ भरम पै सोई बिचारी, सदा अनंद लै लीन मुरारी॥
ग्यांन दृष्टि निज पेखे जोई, इनका चरित जानै पै सोई॥
ज्यूँ रजनी रज देखत अद्दधियारी, डसे भुवंगम बिन उजियारी॥
तारे अगिनत गुनहि अपारा, तऊ कछू नहीं होत अधारा॥
झूठ देखि जीव अधिक डराई, बिना भुवंगम डसी दुनियाई॥
झूठै झूठ लागि रही आसा, जेठ मास जैसे कुरंग पियासा॥
इक त्रिषावंत दह दिसि फिर आवै, झूठै लागा नीर न पावै॥
इक त्रिषावंत अरु जाइ जराई, झूठी आस लागि मरि जाई॥
नीझर नीर जांनि परहरिया करम के बांधे लालच करिया॥
कहै मोर कछु आहि न वाहीं, धरम करम दोऊ मति गवाई॥
धरम करम दोउ मति परहरिया, झूठे नांऊ साच ले धरिया॥
रजनी गत भई रबि परकासा, धरम करम धूँ केर बिनासा॥
रवि प्रकास तारे गुन खींनां, आचार ब्यौहार सब भये मलीनां॥
बिष के दाधे बिष नहीं भावै, जरत जरत सुखसागर पावै॥
अनिल झूठ दिन धावै आसा, अंध दुरगंध सहै दुख त्रासा॥
इक त्रिषावंत दूसरे रबि तपई, दह दिसि ज्वाला चहुंदिसि जरई॥
करि सनमुखि जब ग्यांन बिचारी, सनमुखि परिया अगनि मंझारी॥
गछत गछत तब आगै आवा, बित उनमांन ढिबुआ इक पावा॥
सीतल सरीर तन रह्या समाई, तहाद्द छाड़ि कत दाझै जाई॥
यूं मन बारुनि भया हमारा, दाधा दुख कलेस संसारा॥
जरत फिरे चौरासी लेखा, सुख कर मूल कितहूं नहीं देखा॥
जाके छाड़े भये अनाथा, भूलि परे नहीं पावै पंथा॥
अछै अभि अंतरि नियरै दूरी, बिन चीन्ह्या क्यूद्द पाइये मूरी॥
जा दिन हंस बहुत दुख पावा, जरत जरत गुरि राम मिलावा॥
मिल्या राम रह्या सहजि समाई, खिन बिछुर्या जीव उरझै जाई॥
जा मिलियां तैं कीजै बधाई, परमानंद भेटिये रैनि दिन गाई॥
सखी सहेली लीन्ह बुलाई, रूति परमानंद भेटिये जाई॥
चली सखी जहुंवा निज रांमां, भये उछाह छाड़े सब कामा॥
जानूं की मोरै सरस बसंता, मैं बलि जाऊँतोरि भगवंता॥
भगति हेत गावै लैलीनां, ज्यूं नि नाद कोकिला कीन्हा॥
बाजै संख सबद धुनि बैनां, तन मन चित हरि गोविंद लीना॥
चल अचल पांइंन पंगुरनी मधुकरि ज्यूं लेहि अघरनी॥
सावज सींह रहे सब माँची, चंद अरु सूर रहै रथ खाँची॥
गण गंध्रप सुनि जीवै देवा, आरति करि करि बिनवै सेवा॥
बासि गयंद्र ब्रह्मा करै आसा, हंम क्यूं चित दुर्लभ राम दासा॥
भगति हेतु राम गुन गावै, सुर नर मुनि दुर्लभ पद पावै॥
पुनिम बिमल ससि मात बसंता, दरसन जोति मिले भगवंता॥
चंदन बिलनी बिरहिनि धारा, यूं पूजिये प्रानपति राम पियारा॥
भाव भगति पूजा अरु पाती, आतमराम मिले बहुत भाँती॥
राम राम राम रुचि मांनै, सदा अनंद राम ल्यौ जांनै॥
पाया सुख सागर कर मूला, जो सुख नहीं कहूँ समतूला॥
सुख समाधि सुख भया हमारा, मिल्या न बेगर होइ॥
जिहि लाधा सो जांनिहै, राम कबीर और न जानै कोइ॥
रमैणी (अष्टपदी रमैणी)
केऊ केऊ तीरथ ब्रत लपटानां, केऊ केऊ केवल राम निज जाना॥
अजरा अमर एक अस्थाना, ताका मरम काहू बिरलै जानां॥
अबरन जोति सकल उजियारा, द्रिष्टि समांन दास निस्तारा॥
जो नहीं उपज्या धरनि सरीरा, ताकै पथि न सींच्या नीरा॥
जा नहीं लागे सूरजि के बांनां, सो मोहि आंनि देहु को दाना॥
जब नहीं होते पवन नहीं पानी, तब नहीं होती सिष्टि उपांनी॥
जब नहीं होते प्यंड न बासा, तब नहीं होते धरनी अकासा॥
जब नहीं होते गरभ न मूला, तब नहीं होते कली न फूला॥
जब नहीं सबद नहीं न स्वादं, तब नहीं होते विद्या न वादं॥
जब नहीं होते गुरु न चेला, तब गम अगमै पंथ अकेला॥
अवगति की गति क्या कहूँ, जिसकर गांव न नांव॥
गन बिहूंन का पेखिये, काकर धरिये नांव॥
आदम आदि सुधि नहीं पाई, मां मां हवा कहाँ थै आई॥
जब नहीं होते रांम खुदाई, साखा मूल आदि नहीं भाई॥
जब नहीं होते तुरक न हिंदू, मांका उदर पिता का ब्यंदू॥
जब नहीं होते गाइ कसाई, तब बिसमला किनि फुरमाई॥
भूलै फिरै दीन ह्नै धांवै, ता साहिब का पंथ न पावै॥
संजोगै करि गुंण धर्या, बिजोगै गुंण जाइ॥
जिभ्या स्वारथि आपणै कीजै बहुत उपाइ॥
जिनि कलमां कलि मांहि पठावा, कुदरत खोजि तिनहं नहीं पावा॥
कर्म करीम भये कर्तूता, वेद कुरान भये दोऊ रीता॥
कृतम सो जु गरभ अवतरिया, कृतम सो जु नाव जस धरिया॥
कृतम सुनित्य और जनेऊ, हिंदू तुरक न जानै भेऊ॥
मन मुसले की जुगति न जांनै, मति भूलै द्वै दीन बखानै॥
पाणी पवन संयोग करि, कीया है उतपाति॥
सुंनि मैं सबद समाइगा, तब कासनि कहिये जाति॥
तुरकी धरम बहुत हम खोजा, बहु बाजगर करै ए बोंधा॥
गाफिल गरब करै अधिकाई, स्वारथ अरथि बधै ए गाई॥
जाकौ दूध धाई करि पीजै, ता माता को बध क्यूं कीजै॥
लुहरै थकै दुहि पीया खीरो, ताका अहमक भकै सरीरो॥
बेअकली अकलि न जांनहीं, भूले फिरै ए लोइ॥
दिल दरिया दीदार बिन, भिस्त कहाँ थै होइ॥
पंडित भूले पढ़ि गुन्य वेदा, आप न पांवै नांनां भेदा॥
संध्या तरपन अरु षट करमां, लागि रहे इनकै आशरमां॥
गायत्री जुग चारि पढ़ाई, पूछौ जाइ कुमति किनि पाई॥
सब में राम रहै ल्यौ सींचा, इन थैं और कहौ को नीचा॥
अति गुन गरब करै अधिकाई, अधिकै गरबि न होइ भलाई॥
जाकौ ठाकुर गरब प्रहारी, सो क्यूँ सकई गरब संहारी॥
कुल अभिमाँन बिचार तजि, खोजौ पद निरबांन॥
अंकुर बीज नसाइगा, तब मिलै बिदेही थान॥
खत्री करै खत्रिया धरमो, तिनकूं होय सवाया करमो॥
जीवहि मारि जीव प्रतिपारैं, देखत जनम आपनौ हारै॥
पंच सुभाव जु मेटै काया, सब तजि करम भजैं राम राया॥
खत्री सों जु कुटुंब सूं सूझै, पंचू मेटि एक कूं बूंझै॥
जो आवध गुर ग्यान लखावा, गहि करबल धूप धरि धावा॥
हेला करै निसांनै घाऊ, जूझ परै तहां मनमथ राऊ॥
मनमथ मरे न जीवई, जीवण मरण न होइ॥
सुनि सनेही रांम बिन, गये अपनपौ खोइ॥
अरु भूले षट दरसन भाई, पाखंड भेष रहे लपटाई॥
जैन बोध अरु साकत सैंना, चारवाक चतुरंग बिहूंना॥
जैन जीव की सुधि न जानै, पाती तोरि देहुरै आंनै॥
अरु पिथमीं का रोम उपारे, देखत जीव कोटि संहारै॥
मनमथ करम करै असराग, कलपत बिंद धसै तिहि द्वारा॥
ताकी हत्या होइ अदभूता, षट दरसन मैं जैन बिगूता॥
ग्यान अमर पद बाहिरा, नेड़ा ही तैं दूरि॥
जिनि जान्याँ तिनि निकटि है, रांम रह्या सकल भरपूरि॥
आपनं करता भये कुलाला, बहु बिधि सिष्टि रची दर हाला॥
बिधनां कुंभ कीये द्वै थाना, प्रतिबिंब ता मांहि समांनां॥
बहुत जतन करि बांनक, सौं मिलाय जीव तहाँ ठाँट॥
जठर अगनि दी कीं परजाली, ता मैं आप करै प्रतिपाली॥
भीतर थैं जब बाहिर आवा, सिव सकती द्वै नाँव धरावा॥
भूलै भरमि परै जिनि कोई, हिंदू तुरक झूठ कुल दोई॥
घर का सुत जो होइ अयाँनाँ, ताके संगि क्यूँ जाइ सयाँनाँ॥
साची बात कहै जे वासूँ, सो फिरि कहै दिवाँनाँ तासू॥
गोप भिन्न है एकै दूधा, कासूँ कहिए बाँम्हन सूधा॥
जिनि यहु चित्र बनाइया, सो साचा सतधार॥
कहै कबीर ते जन भले, जे चित्रवत लेहि बिचार॥5॥
रमैणी (बारहपदी रमैणी)
पहली मन में सुमिरौ सोई, ता सम तुलि अवर नहीं कोई॥
कोई न पूजै बाँसूँ प्रांनां, आदि अंति वो किनहूँ न जाँनाँ॥
रूप सरूप न आवै बोला, हरू गरू कछू जाइ न तोला॥
भूख न त्रिषां धूप नहीं छांही, सुख दुख रहित रहै सब मांही॥
अविगत अपरंपार ब्रह्म, ग्याँन रूप सब ठाँम॥॥
बहु बिचारि करि देखिया, कोई न सारिख राँम॥
जो त्रिभुवन पति ओहै ऐसा, ताका रूप कहो धै कैसा॥
सेवग जन सेवा कै तांई, बहुत भाँति करि सेवि गुसाई॥
तैसी सेवा चाहौ लाई, जा सेवा बिन रह्या न जाई॥
सेव करंताँ जो दुख भाई, सो दुख सुख बरि गिनहु सवाई॥
सेव करंताँ सो सुख पावा, तिन्य सुख दुख दोऊ बिसरावा॥
सेवक सेव भुलानियाँ, पंथ कुपंथ न जान।
सेवे सो सेवा करै, जिहि सेवा भल माँन॥
जिहि जग की तस की तस के ही, आपै आप आथिहै एही॥
कोई न लखई वाका भेऊ, भेऊ होई तो पावै भेऊ॥
बावैं न दांहिनै आगै न पीछू, अरध उरध रूप नहीं कीछू॥
माय न बाप आव नहीं जावा, नाँ बहु जण्याँ न को वहि जावा॥
वो है तैसा वोही जानै, ओही आहि आहि नहीं आँनै॥
नैनाँ बैंन अगोचरीं, श्रवनाँ करनी सार।
बोलन कै सुख कारनै, कहिये सिरजनहार॥
सिरजनहार नाँउ धूँ तेरा, भौसागर तिरिबै कूँ भेरा॥
जे यहु मेरा राम न करता, तौ आपै आप आवंटि जग मरता॥
राम गुसाई मिहर जु कीन्हाँ, भेरा साजि संत कौ दीन्हाँ॥
दुख खंडणाँ मही मंडणा, भगति मुकुति बिश्रांम॥
विधि करि भेरा साजिया, धर्या राम का नाम॥
जिनि यह भेरा दिढ़ करि गहिया, गये पार तिन्हौ सुख लहिया॥
दुमनाँ ह्नै जिनि चित्त डुलावा, करि छिटके थैं थाह न पावा॥
इक डूबे अरु रहे उबारा, ते जगि जरे न राखणहारा॥
राखन की कछु जुगति न कीन्हीं, राखणहार न पाया चीन्हीं॥
जिनि चिन्हा ते निरमल अंगा, जे अचीन्ह ते भये पतंगा॥
राम नाम ल्यौ लाइ करि, चित चेतन ह्नै जागि॥
कहै कबीर ते ऊबरे, जे रहे राम ल्यौ लागि॥
अरचिंत अविगत है निरधारा, जांष्यां जाइ न वार न पारा॥
लोक बेद थै अछै नियारा, छाड़ि रह्यौ सबही संसारा॥
जसकर गांउ न ठांउ न खेरा, कैसें गुन बरनूं मैं तेरा॥
नहीं तहाँ रूप रेख गुन बांनां, ऐसा साहिब है अकुलांनां॥
नहीं सो ज्वान न बिरध नहीं बारा, आपै आप आपनपौ तारा॥
कहै कबीर बिचारि करि, जिन को लावै भंग॥
सेवौ तन मन लाइ करि, राम रह्या सरबंग॥
नहीं सो दूरि नहीं सो नियरा, नहीं सो तात नहीं सो सियरा॥
पुरिष न नारि करै नहीं क्रीरा, धांम न धांम न ब्यापै पीरा॥
नदी न नाव धरनि नहीं धीरा, नहीं सो कांच नहीं सो हीरा॥
कहै कबीर बिचारि करि, तासूँ लावो हेत॥
बरन बिबरजत ह्नै रह्या, नां सो स्यांम न सेत॥
नां वो बारा ब्याह बराता, पीत पितंबर स्यांम न राता॥
तीरथ ब्रत न आवै जाता, मन नहीं मोनि बचन नहीं बाता॥
नाद नबिंद गरंथ नहीं गाथा, पवन न पांणी संग न साथा॥
कहै कबीर बिचार करि, ताकै हाथि न नाहिं॥
सो साहिब किनि सेविये, जाके धूप न छांह॥
ता साहिब कै लागौ साथा, सुख दुख मेटि रह्यौ अनाथा॥
ना दसरथ धरि औतरि आवा, नां लंका का राव संतावा॥
देवै कूख न औतरि आवा, ना जसवै ले गोद खिलावा॥
ना वो खाल कै सँग फिरिया, गोबरधन ले न कर धरिया॥
बाँवन होय नहीं बलि छलिया, धरनी बेद लेन उधरिया॥
गंडक सालिकराम न कोला, मछ कछ ह्नै जलहिं न डोला॥
बद्री वैस्य ध्यांन नहीं लावा, परसरांम ह्नै खत्री न सतावा॥
द्वारामती सरीर न छाड़ा, जगन्नाथ ले प्यंड न गाड़ा॥
कहै कबीर बिचार करि ये ऊले ब्योहार॥
याही थैं जे अगम है, सो बरति रह्या संसारि॥
नां तिस सबद व स्वाद न सोहा, ना तिहि मात पिता नहीं मोहा॥
नां तिहि सास ससुर नहीं सारा, ना तिहि रोज न रोवनहारा॥
नां तिहि सूतिग पातिग जातिग, नां तिहि माइ न देव कथा पिक॥
ना तिहि ब्रिध बधावा बाजै, नां तिहि गीत नाद नहीं साजै॥
ना तिहि जाति पांत्य कुल लीका, नां तिहि छोति पवित्रा नहीं सींचा॥
कहै कबीर बिचारि करि, ओ है पद निरबांन।
सति ले मन मैं राखिये, जहा न दूजी आन॥
नां सो आवै ना सो जाई, ताकै बंध पिता नहीं माई॥
चार बिचार कछु नहीं वाकै, उनमनि लागि रहौ जे ताकै॥
को है आदि कवन का कहिये, कवन रहनि वाका ह्नै रहिये॥
कहै कबीर बिचारि करि, जिनि को खोजै दूरि॥
ध्यान धरौ मन सुध करि, राँम रह्या भरपूरि॥
नाद बिंद रंक इक खेला, आपै गुरु आप ही चेला॥
आपै मंत्रा आपै मंत्रोला, आपै पूजै आप पूजेला॥
आपै गावै आप बजावै, अपनां कीया आप ही पावै॥
आपै धूप दीप आरती, आपनीं आप लगावै जाती॥
कहै कबीर बिचारि करि झूठा लोही चांम॥
जो या देही रहित हैं, सो है रमिता राम॥
रमैणी (चौपदी रमैणी)
ऊंकार आदि है मूला, राजा परजा एकहिं सूला।
हम तुम्ह मां हैं एकै लोहू, एकै प्रान जीवन है मोहू॥
एकही बास रहै दस मासा, सूतग पातग एकै आसा॥
एकहीं जननीं जान्यां संसारा, कौन ग्यान थैं भये निनारा॥
ग्यांन न पायो बावरे, धरी अविद्या मैड।
सतगुर मिल्या न मुक्ति फल ताथैं खाई बैड॥
बालक ह्नै भग द्वारे आया, भग भुगतान कूँ पुरिष कहावा॥
ग्यांन न सुमिरो निरगुण सारा, बिष थैं बिरंचि न किया बिचारा॥
साध न मिटी जनम की, मरन तुराँनाँ आइ॥
मन क्रम बचन न हरि भज्या, अंकुर बीज नसाइ॥
तिण चारि सुरही उदिक जु पीया, द्वार दूध बछ कूँ दीया।
बछा चूखत उपजी न दया, बछा बाँधि बिछोही मया॥
ताका दूध आप दुहि पीया, ग्यान बिचार कछू नहीं कीया॥
जे कुछ लोगनि सोई किया, माला मंत्रा बादि ही लीया॥
पीया दूध रूध ह्नै आया, मुई गाइ तब दोष लगाया॥
बाकस ले चमरां कूँ दीन्हीं, तुचा रंगाई करौती कीन्हीं॥
ले रूकरौती बैठे संगा, ये देखौ पीछे के रंगा॥
तिहि रूकरौती पाँणी पीया, बहु कुछ पाड़े अचिरज कीया॥
अचिरज कीया लोक मैं, पीया सुहागल नीर॥
इंद्री स्वारथि सब किया, बंध्या भरम सरीर॥
एकै पवन एक ही पांणी, करी रसोई न्यारी जाँनी॥
माटी सूं माटी ले पोती, लागी कहाँ धूं छोती॥
धरती लीपि पवित्रा कीन्ही, छोति उपाय लोक बिचि दीन्हीं॥
याका हम सूं कहौ बिचारा, क्यूँ भव तिरिहौ इहि आचारा॥
ए पाँखंड जीव के भरमाँ, माँनि अमाँनि जीव के करमाँ॥
करि आचार जू ब्रह्म सतावा, नांव बिनां संतोष न पावा॥
सालिगराम सिला करि पूजा, तुलसी तोडि भया नर दूजा॥
ठाकुर ले पाटै पौढ़ावा, भोग लगाइ अरु आप खावा॥
सांच सील का चौका दीजै, भाव भगति कीजै सेवा कीजै॥
भाव भगति की सेवा मांनै, सतगुर प्रकट कहै नहीं छाँनै॥
अनभै उपजि न मन ठहराई, परकीरति मिलि मन न समाई॥
जल लग भाव भगति नहीं करिहौ, तब लग भवसागर क्यूँ तिरिहौ॥
भाव भगति बिसवास बिनु, कटै न संसै सूल॥
कहै कबीर हरि भगति बिन, मूकति नहीं रे मूल॥
साखी
आठ जाम चौंसठि घरी तुअ निरखत रहै जीव।
नीचे लोइन क्यों करौ सब घट देखौ पीउ॥
ऊँच भवन कनक कामिनी सिखरि धजा फहराइ।
ताते भली मधूकरी संत संग गुन गाइ॥
अंबर घनहरू छाइया बरिष भरे सर ताल।
चातक ज्यों तरसत रहै, तिनकौ कौन हवाल॥
अल्लह की कर बंदगी जिह सिमरत दुख जाइ।
दिल महि साँई परगटै बुझै बलंती लाइ॥
अवरह कौ उपदेस ते मुख मैं परिहै रेतु।
रासि बिरानी राखते खाया घर का खेतु॥
कबीर आई मुझहि पहि अनिक करे करि भेसु।
हम राखे गुरु आपने उन कीनो आदेसु॥
आखी केरे माटूके पल पल गई बिहाइ।
मनु जंजाल न छाड़ई जम दिया दमामा आइ॥
आसा करिये राम की अवरै आस निरास।
नरक परहि ते मानई जो हरिनाम उदास॥
कबीर इहु तनु जाइगा सकहु त लेहु बहोरि।
नागे पांवहु ते गये जिनके लाख करोरि॥
कबीर इहि तनु जाइगा कवने मारग लाइ।
कै संगति करि साध की कै हरि के गुन गाइ॥
एक घड़ी आधी घड़ी आधी हूं ते आध।
भगतन सेटी गोसटे जो कीने सो लाभ॥
एक मरंते दुइ मुये दोइ मरंतेहि चारि।
चारि मरंतहि छंहि मुये चारि पुरुष दुइ नारि॥
ऐसा एक आधु जो जीवत मृतक होइ।
निरभै होइ कै गुन रवै जत पेखौ तत सोइ॥
कबीर ऐसा को नहीं इह तन देवै फूकि।
अंधा लोगु न जानई रह्यौ कबीरा कूकि॥
ऐसा जंतु इक देखिया जैसी देखी लाख।
दीसै चंचलु बहु गुना मति हीना नापाक॥
कबीर ऐसा बीजु सोइ बारह मास फलंत।
सीतल छाया गहिर फल पंखी केल करंत॥
ऐसा सतगुर जे मिलै तुट्ठा करे पसाउ।
मुकति दुआरा मोकला सहजै आवौ जाउ॥
कबीर ऐसी होइ परी मन को भावतु कीन।
मरने ते क्या डरपना जब हाथ सिधौरा लीन॥
कंचन के कुंडल बने ऊपर लाख जड़ाउ।
दीसहि दाधे कान ज्यों जिन मन नाहीं नाउ॥
कबीर कसौटी राम की झूठा टिका न कोइ।
राम कसौटी सो सहै जो मरि जीवा होइ॥
आठ जाम चौंसठि घरी तुअ निरखत रहै जीव।
नीचे लोइन क्यों करौ सब घट देखौ पीउ॥
ऊँच भवन कनक कामिनी सिखरि धजा फहराइ।
ताते भली मधूकरी संत संग गुन गाइ॥
अंबर घनहरू छाइया बरिष भरे सर ताल।
चातक ज्यों तरसत रहै, तिनकौ कौन हवाल॥
अल्लह की कर बंदगी जिह सिमरत दुख जाइ।
दिल महि साँई परगटै बुझै बलंती लाइ॥
अवरह कौ उपदेस ते मुख मैं परिहै रेतु।
रासि बिरानी राखते खाया घर का खेतु॥
कबीर आई मुझहि पहि अनिक करे करि भेसु।
हम राखे गुरु आपने उन कीनो आदेसु॥
आखी केरे माटूके पल पल गई बिहाइ।
मनु जंजाल न छाड़ई जम दिया दमामा आइ॥
आसा करिये राम की अवरै आस निरास।
नरक परहि ते मानई जो हरिनाम उदास॥
कबीर इहु तनु जाइगा सकहु त लेहु बहोरि।
नागे पांवहु ते गये जिनके लाख करोरि॥
कबीर इहि तनु जाइगा कवने मारग लाइ।
कै संगति करि साध की कै हरि के गुन गाइ॥
एक घड़ी आधी घड़ी आधी हूं ते आध।
भगतन सेटी गोसटे जो कीने सो लाभ॥
एक मरंते दुइ मुये दोइ मरंतेहि चारि।
चारि मरंतहि छंहि मुये चारि पुरुष दुइ नारि॥
ऐसा एक आधु जो जीवत मृतक होइ।
निरभै होइ कै गुन रवै जत पेखौ तत सोइ॥
कबीर ऐसा को नहीं इह तन देवै फूकि।
अंधा लोगु न जानई रह्यौ कबीरा कूकि॥
ऐसा जंतु इक देखिया जैसी देखी लाख।
दीसै चंचलु बहु गुना मति हीना नापाक॥
कबीर ऐसा बीजु सोइ बारह मास फलंत।
सीतल छाया गहिर फल पंखी केल करंत॥
ऐसा सतगुर जे मिलै तुट्ठा करे पसाउ।
मुकति दुआरा मोकला सहजै आवौ जाउ॥
कबीर ऐसी होइ परी मन को भावतु कीन।
मरने ते क्या डरपना जब हाथ सिधौरा लीन॥
कंचन के कुंडल बने ऊपर लाख जड़ाउ।
दीसहि दाधे कान ज्यों जिन मन नाहीं नाउ॥
कबीर कसौटी राम की झूठा टिका न कोइ।
राम कसौटी सो सहै जो मरि जीवा होइ॥
कविता संग्रह
कबीर गरबु न कीजियै देही देखि सुरंग।
आजु कालि तजि जाहुगे ज्यों कांचुरी भुअंग॥
गहगंच परौं कुटुंब के कंठै रहि गयो राम।
आइ परे धर्म राइ के बीचहिं धूमा धाम॥42॥
कबीर गागर जल भरी आजु कालि जैहै फूटि।
गुरु जु न चेतहि आपुनो अधमाझली जाहिगे लूटि॥
गुरु लागा तब जानिये मिटै मोह तन ताप।
हरष सोग दाझै नहीं तब हरि आपहि आप॥
कबीर बाणी पीड़ते सति गुरु लिये छुड़ाइ।
परा पूरबली भावनी परगति होई आइ॥
चकई जौ निसि बीछुरै आइ मिले परभाति।
जो नर बिछुरै राम स्यों ना दिन मिले न राति॥
चतुराई नहिं अति घनी हरि जपि हिरदै माहि।
सूरी ऊपरि खेलना गिरैं त ठाहुर नाहि॥
चरन कमल की मौज को कहि कैसे उनमान।
कहिबे को सोभा नहीं देखा ही परवान॥
कबीर चावल कारने तुमको मुहली लाइ।
संग कुसंगी बैसते तब पूछै धर्मराइ॥
चुगै चितारै भी चुगै चुगि चुगि चितारै।
जैसे बच रहि कुंज मन माया ममता रे॥
चोट सहेली सेल की लागत लेइ उसास।
चोट सहारे सबद की तासु गुरु मैं दास॥
जग कागज की कोठरी अंध परे तिस मांहि।
हौ बलिहारी तिन्न की पैसु जू नीकसि जाहि॥
जग बांध्यौ जिह जेवरी तिह मत बंधहु कबीर।
जैहहि आटा लोन ज्यों सोन समान शरीर॥
जग मैं चेत्यो जानि कै जग मैं रह्यौ समाइ।
जिनि हरि नाम न चेतियो बादहि जनमें आइ॥
कबीर जहं जहं हौ फिरो कौतक ठाओ ठांइ।
इक राम सनेही बाहरा ऊजरू मेरे भांइ॥
कबीर जाको खोजते पायो सोई ठौर।
सोइ फिरि के तू भया जकौ कहता और॥
जाति जुलाहा क्या करे हिरदै बसै गुपाल।
कबीर रमइया कंठ मिलु चूकहि सब जंजाल॥
कबीर जा दिन ही सुआ पाछै भया अनंद।
मोहि मिल्यो प्रभु अपना संगी भजहि गोबिंद॥॥
जिह दर आवत जातहू हटकै नाही कोइ।
सो दरु कैसे छोड़िये जौ दरु ऐसा होइ॥
जीया जो मारहि जोरु करि कहते हहि जु हलालु।
दफतर दई जब काढिहै होइगा कौन हवालु॥
कबीर जेते पाप किये राखे तलै दुराइ।
परगट भये निदान सब पूछै धर्मराइ॥61॥
जैसी उपजी पेड़ ते जो तैसी निबहै ओड़ि।
हीरा किसका बापुरा पुजहिं न रतन करोड़ि॥
जो मैं चितवौ ना करै क्या मेरे चितवे होइ।
अपना चितव्या हरि करैं जो मारै चित न होइ॥
जोर किया सो जुलुम है लेइ जवाब खुदाइ।
दफतर लेखां नीकसै मार मुहै मुह खाइ॥
जो हम जंत्रा बजावते टूटि गई सब तार।
जंत्रा बिचारा क्या करे चले बजावनहार॥
जो गृह कर हित धर्म करु नाहिं त करु बैराग।
बैरागी बंधन करै ताकौ बड़ौ अभागु॥
जौ तुहि साध पिरम्म की सीस काटि करि गोइ।
खेलत खेलत हाल करि जौ किछु होइ त होइ॥
जौ तुहि साध पीरम्म की पाके सेती खेलु।
काची सरसो पेलि कै ना खलि भई न तैलु॥
कबीर झंखु न झंखियै तुम्हरो कह्यो न होइ।
कर्म करीम जु करि रहे मेटि न साकै कोइ॥
टालै टेलै दिन गया ब्याज बढंतो जाइ।
नां हरि भज्या ना खत फट्यो काल पहूँचो आइ॥
ठाकुर पूजहिं मोल ले मन हठ तीरथ जाहि।
देखा देखी स्वांग धरि भूले भटका खाहि॥
कबीर डगमग क्या करहि कहा डुलावहि जीउ।
सब सुख की नाइ को राम नाम रस पीउ॥
डूबहिगो रे बापुरे बहु लोगन की कानि।
परोसी के जो हुआ तू अपने भी जानि॥
डूबा था पै उब्बरो गुन की लहरि झबक्कि।
जब देख्यो बड़ा जरजरा तब उतरि परौं ही फरक्कि॥
तरवर रूपी रामु है फल रूपी बैरागु।
छाया रूपी साधु है जिन तजिया बादु बिबादु॥
कबीर तासै प्रीति करि जाको ठाकुर राम।
पंडित राजे भूपती आवहि कौने काम॥
तूं तूं करता तूं हुआ मुझ मं रही न हूं।
जब आपा पर का मिटि गया जित देखौ तित तूं॥
थूनी पाई थिति भई सति गुरु बंधी धीर।
कबीर हीरा बनजिया मानसरोवर तीर॥
कबीर थोड़े जल माछली झीरवर मेल्यौ जाल।
इहटौ घनै न छूटिसहि फिरि करि समुद सम्हालि॥
कबीर देखि कै किह कहौ कहे न को पतिआइ।
हरि जैसा तैसा उही रहौ हरखि गुन गाइ॥
देखि देखि जग ढूढिया कहूँ न पाया ठौर।
जिन हरि का नाम न चेतिया कहा भुलाने और॥
कबीर धरती साध की तरकस बैसहि गाहि।
धरती भार न ब्यापई उनकौ लाहू लाहि॥
कबीर नयनी काठ की क्या दिखलावहि लोइ।
हिरदै राम न चेतही इक नयनी क्या होइ॥
जा घर साध न सोवियहि हरि की सेवा नांहि।
ते घर मरहट सारखे भूत बसहि तिन मांहि॥
ना मोहि छानि न छापरी ना मोहि घर नहीं गाउँ।
मति हरि पूछे कौन है मेरे जाति न नाउँ॥
निर्मल बूँद अकास की लीनी भूमि मिलाइ।
अनिल सियाने पच गये ना निरवारी जाइ॥
नृपनारी क्यों निंदिये क्यों हरिचेरी कौ मान।
ओह माँगु सवारै बिषै कौ ओह सिमरै हरि नाम॥
नैंन निहारै तुझको òवन सुनहु तुव नाउ।
नैन उचारहु तुव नाम जो चरन कमल रिद ठाउ॥
परदेसी कै घाघरै चहु दिसि लागी आगि।
खिंथा जल कुइला भई तागे आँच न लागि॥
परभाते तारे खिसहिं त्यों इहु खिसै सरीरु।
पै दुइ अक्खर ना खिसहिं त्यों गहि रह्यौ कबीरु॥
पाटन ते ऊजरूँ भला राम भगत जिह ठाइ।
राम सनेही बाहरा जमपुर मेरे भाइ॥
पापी भगति न पावई हरि पूजा न सुहाइ।
माखी चंदन परहरै जहँ बिगध तहँ जाइ॥
कबीर पारस चंदनै तिन है एक सुगंध।
तिहि मिलि तेउ ऊतम भए लोह काठ निरगंध॥
पालि समुद सरवर भरा पी न सकै कोइ नीरु।
भाग बड़े ते पाइयो तू भरि भरि पीउ कबीर॥
कबीर प्रीति इकस्यो किए आगँद बद्धा जाइ।
भावै लंबे केस कर भावै घररि मुड़ाइ॥
कबीर फल लागे फलनि पाकन लागै आँव।
जाइ पहूँचै खसम कौ जौ बीचि न खाई काँव॥
बाम्हन गुरु है जगत का भगतन का गुरु नाहिं।
उरझि उरझि कै पच मुआ चारहु बेदहु माहि॥
कबीर बेड़ा जरजरा फूटे छेक हजार।
हरुये हरुये तिरि गये डूबे जिनि सिर भार॥
भली भई जौ भौ पर्या दिसा गई सब भूलि।
ओरा गरि पानी भया जाइ मिल्यौ ढलि कूलि॥
कबीर भली मधूकरी नाना बिधि को नाजु।
दावा काहू को नहीं बड़ी देस बड़ राजु॥
कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि रामु।
आदि जगादि सगस भगत ताकौ सब बिश्राम॥
जम का ठेगा बुरा है ओह नहिं सहिया जाइ।
एक जु साधु मोहि मिलो तिन लीया अंचल लाइ॥
कबीर यह चेतानी मत सह सारहि जाइ।
पाछै भोग जु भोगवै तिनकी गुड़ लै खाइ॥
रस को गाढ़ो चूसिये गुन को मरिये रोइ।
अवमुन धारै मानसै भलो न कहिये कोइ॥
कबीर राम न चेतिये जरा पहूँच्यौ आइ।
लागी मंदर द्वारि ते अब थ्या काद जाइ॥
कबीर राम न चेतियो फिरिया लालच माहि।
पाप करंता मरि गया औध पुजी खिन माहि॥
कबीर राम न छोड़िये तन धन जाइ त जाउ।
चरन कमल चित बोधिया रामहि नाम समाउ॥
कबीर राम न ध्याइयो मोटी लागी खोरि।
काया हाड़ी काठ की ना ओह चढ़े बहोरि॥
राम कहना महि भेंदु है तामहिं एकु बिचारु।
सोइ राम सबै कहहिं सोई कौतुकहारु॥
कबीर राम मैं राम कहु कहिबे माहि बिबेक।
एक अनेकै मिलि गयां एक समाना एक॥
रामरतन मुख कोथरी पारख आगै भोलि।
कोइ आइ मिलैगो गाहकी लेगी महँगे मोलि॥
लागी प्रीति सुजान स्यों बरजै लोगु अजानु।
तास्यो टूटी क्यों बनै जाके जीय परानु॥
बांसु बढ़ाई बूड़िया यों मत डूबहु कोइ।
चंदन कै निकटें बसे बांसु सुगंध न होइ॥
कबीर बिकारहु चितवते झूठे करंते आस।
मनोरथ कोइ न पूरियो चाले ऊठि निरास॥
बिरहु भुअंगम मन बसै मत्तु न मानै कोइ।
राम बियोगी ना जियै जियै त बौरा होइ॥
बैदु कहै हौं ही भला दारू मेरे बस्सि।
इह तौ बस्तु गोपाल की जब भावै ले खस्सि॥
वैष्णव की कुकरि भली साकत की बुरी माइ।
ओह सुनहिं हर नाम जस उह पाप बिसाहन जाइ॥
वैष्णव हुआ त क्या भया माला मेली चारि।
बाहर कंचनवा रहा भीतरि भरी भंगारि॥
कबीर संसा दूरि करु कागह हेरु बिहाउ।
बावन अक्खर सोधि कै हरि चरनों चित लाउ॥
संगति करियै साध की अंति करै निर्बाहु।
साकत संगु न कीजिये जाते होइ बिनाहु॥
कबीर संगत साध की दिन दिन दूना हेतु।
साकत कारी कांबरी धोए होइ न सेतु॥
संत की गैल न छांड़ियै मारगि लागा जाउ।
पेखत ही पुन्नीत होइ भेटत जपियै नाउ॥
संतन की झुरिया भली भठी कुसत्ती गाँउ।
आगि लगै तिह धोलहरि जिह नाहीं हरि को नाँउ॥
संत मुये क्या रोइयै जो अपने गृह जाय।
रोवहु साकत बापुरो जू हाटै हाट बिकाय॥
कबीर सति गुरु सूरमे बाह्या बान जु एकु।
लागत की भुइ गिरि पर्या परा कलेजे छेकु॥
कबीर सब जग हौं फिरो मांदलु कंध चढ़ाइ।
कोई काहू को नहीं सब देखी ठोक बजाइ॥
कबीर सब ते हम बुरे हम तजि भलो सब कोइ।
जिन ऐसा करि बूझिया मीतु हमारा सोइ॥
कबीर समुंद न छाड़ियै जौ अति खारो होइ।
पोखरि पोखरि ढूँढते भली न कहियै कोइ॥
कबीर सेवा की दुइ भले एक संतु इकु राम।
राम जु दाता मुकति को संतु जपावै नामु॥
साँचा सति गुरु मैं मिल्या सबद जु बाह्या एकु।
लागत ही भुइ मिलि गया पर्या कलेजे छेकु॥
कबीर साकत ऐसा है जैसी लसन की खानि।
कोने बैठे खाइये परगत होइ निदान॥
साकत संगु न कीजियै दूरहि जइये भागि।
बासन करा परसियै तउ कछु लागै दागु॥
साद्दचा सतिगुरु क्या करै जो सिक्खा माही चूक।
अंधे एक न लागई ज्यों बासु बजाइयै फूँकि॥
साधू की संगति रहौ जौ की भूसी खाउ।
होनहार सो होइहै साकत संगि न जाउ॥
साधु को मिलने जाइये साधु न लीजै कोइ।
पाछे पाउं न दीजियो आगै होइ सो होइ॥
साधू संग परापति लिखिया होइ लिलाट।
मुक्ति पदारथ पाइयै ठाकन अवघट घाट॥
सारी सिरजनहार की जाने नाहीं कोइ।
कै जानै आपन धनी कै दासु दिवानी होइ॥
सिखि साखा बहुतै किये केसी कियो न मीतु।
चले थे हरि मिलन को बीचै अटको चीतु॥
सुपने हू बरड़ाइकै जिह मुख निकसै राम।
ताके पा की पानही मेरे तन को चाम॥
सुरग नरक ते मैं रह्यौ सति गुरु के परसादि।
चरन कमल की मौज महि रहौ अंति अरु आदि॥
कबीर सूख न एह जुग करहि जु बहुतैं मीत।
जो चित राखहि एक स्यों ते सुख पावहिं नीत॥
कबीर सूरज चाद्दद कै उरय भई सब देह।
गुरु गोबिंद के बिन मिले पलटि भई सब खेह॥
कबीर सोई कुल भलो जा कुल हरि को दासु।
जिह कुल दासु न ऊपजे सो कुल ढाकु पलासु॥
कबीर सोई मारिये जिहि मूये सुख होइ।
भलो भलो सब कोइ कहै बुरो न मानै कोइ॥
कबीर सोइ मुख धन्नि है जा मुख कहिये राम।
देही किसकी बापुरी पवित्रा होइगो ग्राम॥
हज काबे हौं जाइया आगे मिल्या खुदाइ।
साईं मुझस्यो लर पर्या तुझै किन फुरमाई गाइ॥
हरदी पीर तनु हरे चून चिन्ह न रहाइ।
बलिहारी इहि प्रीति कौ जिह जाति बरन कुल जाइ॥
हरि को सिमरन छाड़िकै पाल्यो बहुत कुंटुब।
धंधा करता रहि गया भाई रहा न बंधु॥
हरि का सिमरन छाड़िकै राति जगावन जाइ।
सर्पनि होइकै औतरे जाये अपने खाइ॥
हरि का सिमरन छाड़िकै अहोई राखे नारि।
गदही होइ कै औतरै भारु सहै मन चारि॥
हरि का सिमरन जो करै सो सुखिया संसारी।
इत उत कतहु न डोलई जस राखै सिरजनहारि॥
हाड़ जरे ज्यों लाकरी केस जरे ज्यों घासु।
सब जग जरता देखिकै भयो कबीर उदासु॥
है गै बाहन सघन घन छत्रापती की नारि।
तासु पटंतर ना पुजै हरि जन की पनहारि॥
है गै बाहन सघन घन लाख धजा फहराइ।
या सुख तै भिक्खा भली जौ हरि सिमरन दिन जाइ॥
जहाँ ज्ञान तहँ धर्म है जहाँ झूठ तहद्द पाप।
जहाँ लाभ तहद्द काल है जहाँ खिमा तहँ आप॥
कबीरा तुही कबीरू तू तेरो नाउ कबीर।
रात रतन तब पाइयै जो पहिले तजहिं सरीर॥
कबीरा धूर सकेल कै पुरिया बाँधी देह।
दिवस चारि को पेखना अंत खेह की खेह॥
कबीरा हमरा कोइ नहीं हम किसहू के नाहि।
जिन यहु रचन रचाइया तितहीं माहिं समाहिं॥
कोई लरका बेचई लरकी बेचै कोइ।
साँझा करे कबीर स्यों हरि संग बनज करेइ॥
कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-7
कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-6
कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-5
कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-4
कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-3
कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-2
कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-1
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