अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 7(anmol wachan)

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अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 7(anmol wachan)

 

जिस प्रकार रात में तारे प्रकाश देते हैं, उसी तरह संकट भी मनुष्य को मार्ग दिखाता है।

 

यदि हम अपने शत्रुओं का गुप्त इतिहास पढ़ें, तो पाएंगे कि हर व्यक्ति के जीवन में इतना दुख और शोक भरा होता है कि हमारे मन में उनके प्रति शत्रुता का भाव नहीं रहेगा।

 

धन, वैभव, परिवार, विद्या, दान, रूप, बल और कर्म आदि के गर्व से अंधे होकर दुष्ट लोग भगवान और उनके भक्त महात्माओं का तिरस्कार करते हैं

 

जैसे यात्री रास्ते में मिलते हैं और थोड़ी देर ठहरने के बाद अपनी-अपनी राह पर चल पड़ते हैं, वैसे ही हमारे सांसारिक संबंध होते हैं। प्रारब्ध के कारण दो लोग मिलते हैं और फिर प्रारब्ध के कारण ही बिछड़ जाते हैं। जो इस संसार के असत्य रूप को समझ लेता है, उसे दुख नहीं सताता।

 

सम्पूर्ण प्राणी परमात्मा से उत्पन्न होते हैं, इसलिए ये सभी ब्रह्म ही हैं। यह निश्चय करना चाहिए।

 

सब प्रेम की बात करते हैं, पर सच्चे प्रेम को पहचानता कोई नहीं। जब मन हर समय प्रेम में डूबा रहे, तभी सच्चा प्रेम समझना चाहिए।

 

कवियों ने संतों के हृदय को नवनीत जैसा बताया है, पर उन्होंने गलती की। नवनीत तो अपने ताप से पिघलता है, परंतु संत दूसरों के दुख से पिघलते हैं।

 

रात के पहले पहर सभी जागते हैं, दूसरे पहर भोगी जागते हैं, तीसरे पहर चोर और चौथे पहर योगी जागते हैं।

 

सच्चा पंडित वही है जिसके प्रेम के नेत्र खुल गए हैं, जो ज्ञान और प्रेम में डूबकर पशु, वनस्पति और पत्थरों में अपने ईश्वर को देखता और पूजता है।

 

लोग भला कहें या बुरा, इनकी बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। संसार के यश और निंदा की परवाह किए बिना ईश्वर की राह पर चलना चाहिए।

 

जैसे नमक और कपूर का रंग एक जैसा होता है, परंतु स्वाद अलग होता है, उसी प्रकार मनुष्यों में भी पापी और पुण्यात्मा होते हैं।

 

संसार में वैसे ही रहो जैसे मुंह में जीभ रहती है। जीभ कितना भी घी खा ले, पर चिकनी नहीं होती।

 

जो दुखियों पर दया करता है, धर्म में मन लगाता है, घर से वैरागी होता है और दूसरों का दुख अपना समझता है, वही अविनाशी भगवान को प्राप्त करता है।

 

जिसने युद्ध में लाखों को जीत लिया, वह असली विजयी नहीं है। सच्चा विजेता वही है जिसने अपने आप को जीत लिया।

 

मनुष्यों द्वारा जो भी क्रिया होती है, वह ब्रह्म की सत्ता से होती है। परंतु अज्ञानवश हम इसे नहीं जानते। जैसे घड़ा असल में मिट्टी ही होता है, परंतु हम उसे मिट्टी से अलग समझते हैं, यही अज्ञान है।

 

बार-बार दुख पाने के बावजूद मनुष्य विषयों से सुख पाने की आशा नहीं छोड़ता। यही मोह की महिमा है।

 

जो मनुष्य अपनी वर्तमान स्थिति पर विचार नहीं करता और यह सोचता है कि अंत में मुक्ति हो जाएगी, वह पुरुषार्थ नहीं करता और मृत्यु के चक्र से कभी मुक्त नहीं हो सकता।

 

यदि अपने भीतर और बाहर प्रकाश चाहते हो, तो जीभ के द्वार पर राम नाम रूपी दीपक रख दो। राम नाम जपने से भीतर और बाहर ज्ञान का प्रकाश होगा।

 

जो गाफिल है, उसके लिए साईं का घर दूर है। परंतु जो बंदा उनकी उपस्थिति में हमेशा हाजिर रहता है, उसके लिए साईं हाजिर हैं।

 

जिसके आचरण में वैराग्य उतर आया हो, वही सच्चा विरागी है। केवल वाणी का वैराग्य सच्चा वैराग्य नहीं है।

 

भगवान का साकार रूप भी सत्य है और निराकार भी सत्य है। जो तुम्हें अच्छा लगे, उसी में विश्वास करो और उसे पुकारो, तुम उसी को पाओगे। जैसे मिसरी का टुकड़ा चाहे जिस ओर से खाओ, वह मीठा ही लगेगा।

 

वही विश्वास लाओ जो ध्रुव, प्रह्लाद और नामदेव में था। इसी विश्वास से सभी शंकाएँ, संदेह और झगड़े दूर हो जाते हैं।

 

काम के वश में रहने वाला व्यक्ति ही असली कंगाल है। जो सदा संतुष्ट है, वही सच्चा धनी है। इंद्रियाँ ही मनुष्य की शत्रु हैं। विषयों का आकर्षण ही बंधन है। संसार मनुष्य का सबसे बड़ा रोग है, और संसार से निर्लिप्त होकर रहना ही इसकी दवा है।

 

जिस प्रकार एक स्त्री अपने नैहर (मायके) में रहते हुए भी पति के प्रति समर्पित रहती है, उसी प्रकार एक सच्चा भक्त इस संसार में रहते हुए भी हरि को कभी नहीं भूलता।

ऊँची जाति का घमंड नहीं करना चाहिए, क्योंकि भगवान के दरबार में केवल भक्ति ही मूल्यवान है।

 

पृथ्वी पर कदम रखते हुए ध्यान रखना, जल को छानकर पीना, वाणी को सत्य से शुद्ध करके बोलना और मन में विचारकर वही करना जो उत्तम लगे।

 

मन को सही मार्ग पर लाने के लिए चार साधन आवश्यक हैं: पहला ‘सत्य’, दूसरा ‘संसार से विरक्ति’, तीसरा ‘उच्च आचरण और पवित्रता’, और चौथा ‘अपने अपराधों के लिए प्रभु से क्षमा माँगना’।

 

कभी भी अपने चरित्र को गिरने न दें। गिरने में कोई गौरव नहीं है, बल्कि बार-बार गिरकर फिर उठने में ही सच्ची महानता है।

 

जिस प्रकार बिना दवा के बीमारी को ठीक करना कठिन है, उसी प्रकार बिना ज्ञान के सांसारिक जीवन की समस्याओं का समाधान करना भी मुश्किल है। अज्ञान में डूबा हुआ मनुष्य भोग-लिप्सा में उलझा रहता है।

 

किसी चीज़ से घृणा मत करो। निर्लिप्त होकर कर्म करो, जैसे एक वैद्य रोगियों का इलाज करता है और रोग को अपने पास नहीं आने देता। सब उलझनों से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से कर्म करो।

 

जब शरीर से प्राण निकल जाएँगे तब पछताना व्यर्थ होगा। इसलिए जब तक यह शरीर स्वस्थ है, राम का स्मरण करके उनके गुण गाओ।

 

यदि तेरे हृदय में प्रेम है, तो उसे दिखाने की ज़रूरत नहीं है, तेरे अंतर्यामी भगवान तेरे हृदय के भावों को जानते हैं।

 

तीन चीज़ें ऐसी हैं जिन्हें जितना बढ़ाओगे, वे उतनी ही बढ़ेंगी: भूख, नींद और भय। इनसे सावधान रहना चाहिए।

 

भगवान की अनन्य भक्ति से मनुष्य उस परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर सकता है, जो संपूर्ण जगत्‌ का स्वामी और सभी लोकों का महेश्वर है।

जो मनुष्य मानव जीवन का महत्व नहीं समझता, वह कभी भी संतों और सज्जनों की सेवा से प्राप्त होने वाले माधुर्य का अनुभव नहीं कर सकता।

 

ईश्वर की मर्जी के साथ खुद को एकरूप कर लो। शारीरिक और सांसारिक आवश्यकताओं के लिए उनकी इच्छा को ही अपनी इच्छा बना लो।

 

जो मनुष्य अपने सुख के लिए किसी जीव की हत्या करता है, वह कभी भी सच्चे सुख का अनुभव नहीं कर सकता।

 

चार अवस्थाओं में जीते-जी यमराज का स्मरण नहीं किया, अब जब शरीर छूट जाएगा, तब पछताना व्यर्थ होगा। यमराज की यातनाओं से बचने का एकमात्र उपाय राम का स्मरण है।

जिसने प्रेम को नहीं अपनाया, कामनाओं को नहीं जीता और जिसने भगवान के दर्शन नहीं किए, उसका जीवन व्यर्थ है।

 

विवेक और वैराग्य के बिना जीवन की दिशा तय करना मुश्किल है। विवेक और वैराग्य से युक्त व्यक्ति ही सच्चा साधु होता है।

 

जो भगवान के भजन में लीन हैं, उनका मन शांत और निर्मल हो जाता है, और वे संसार की मोह-माया से मुक्त होकर जीवन को आनंदमय बना लेते हैं।

 

भगवान का नाम ही भवसागर से पार होने की दवा है।

 

जो लोग भगवान की सेवा केवल फल प्राप्त करने के उद्देश्य से करते हैं और मन से कामनाओं का त्याग नहीं करते, वे वास्तव में सेवक नहीं होते, बल्कि वस्तुओं के बदले अधिक मूल्य चाहने वाले लोग होते हैं।

 

जिसका मन परमात्मा में स्थित रहता है, उसकी देखभाल स्वयं परमात्मा करते हैं।

 

जब कोई व्यक्ति किसी महान कार्य में लग जाता है, तो उसके निम्न श्रेणी के कार्य स्वतः ही अन्य लोग संभाल लेते हैं। जैसे-जैसे वह अपने ध्येय की ओर अग्रसर होता है, उसके सांसारिक और शारीरिक कार्य भी प्रकृति के नियम से सहज रूप से पूर्ण होते जाते हैं।

 

वह विद्या, जिससे मनुष्य जीवन संग्राम में शक्तिमान नहीं होता, जिससे उसका चरित्र निखरता नहीं है, और जिससे वह परोपकारी और पराक्रमी नहीं बनता, वास्तव में विद्या नहीं है।

 

बदला लेने का विचार त्याग कर क्षमा करना अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ना है, और जीवन में स्वर्गिक आनंद का अनुभव करना है।

 

सच्चे सत्त्वगुणी भक्त वे होते हैं जो रात को बिस्तर में पड़े-पड़े ध्यान करते हैं। लोग समझते हैं कि वे सो रहे हैं, परंतु जब अन्य लोग सो रहे होते हैं, तब वे परलोक का कार्य कर रहे होते हैं। ऐसे भक्त बाहर का दिखावा बिल्कुल भी पसंद नहीं करते।

 

इस संसार में करोड़ों लोग भगवान के उपासक कहलाते हैं, परंतु सच्चे उपासक वे हैं जो ईश्वर की इच्छा के अनुसार चलते हैं, अपने स्वार्थ का त्याग करके दूसरों का भला करते हैं। भगवान भी उन्हीं के साथ होते हैं।

 

मान-सम्मान और प्रतिष्ठा की इच्छा मृत्यु की कामना के समान है। कई महान पुरुष भी इसमें फंसकर अपने साधन से च्युत हो जाते हैं। प्राण भले ही छूट जाएं, परंतु भगवान की स्मृति एक क्षण के लिए भी मन से नहीं हटनी चाहिए।

 

जगत की प्रभुता ऐसी है जैसे स्वप्न में मिला हुआ पराया खजाना। जैसे जागने पर उस खजाने का कोई अस्तित्व नहीं रहता, वैसे ही संसार की प्रभुता भी वास्तविकता में कुछ नहीं है।

 

जिस प्रकार एक ही अग्नि विभिन्न लकड़ियों में प्रवेश करके अलग-अलग प्रकार की ज्वालाओं का रूप धारण कर लेती है, उसी प्रकार एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न प्राणियों में विविध प्रकार का अनुभव करती है।

 

अहंकार के कारण ही आत्मा को “मैं देह हूँ” का भ्रम होता है, और इसके परिणामस्वरूप जन्म-मरण रूप संसार की प्राप्ति होती है।

 

यदि कोई पिता या पुत्र मर जाता है, तो मूर्ख ही उसके लिए छाती पीटते हैं। ज्ञानी लोग समझते हैं कि इस असार संसार में किसी का वियोग वैराग्य का कारण होता है, जो अंततः सुख और शांति लाता है।

 

जो लोग भगवान से विमुख होते हैं, वे कभी भी सच्चा सुख प्राप्त नहीं कर सकते, चाहे संसार में असंभव चीजें भी क्यों न हो जाएं।

 

ज्ञानी लोग आत्मा और संसार के पदार्थों के बीच स्पष्ट अंतर देख पाते हैं, इसलिए वे संसार के असत्य पदार्थों में “मैं” का भाव नहीं रखते।

 

भगवान गोविंद से वियोग में मेरा हर एक क्षण युगों के समान बीतता है। मेरी आंखें निरंतर वर्षा कर रही हैं, और संपूर्ण संसार मुझे शून्य प्रतीत होता है।

 

भगवान को प्राप्त करने का पहला साधन है उनके प्रति अडिग निश्चय। एक बार यह निश्चय हो जाए, तो इंद्रियों को नियंत्रित करना आसान हो जाता है, और व्यक्ति उच्च अवस्था को प्राप्त करता है।

 

बुद्धि रूपी चकवी को चाहिए कि वह भगवान के चरण-सरोवर में निवास करे, जहां प्रेम-वियोग, रोग, दुख या शोक का कोई स्थान नहीं है, और निरंतर ‘राम-राम’ का जप होता रहता है।

 

जो कार्य कल करना है, उसे आज ही कर लो, और जो आज करना है, उसे अभी कर लो, क्योंकि पल भर में मृत्यु आ सकती है। लोग मूर्ख होते हैं जो अस्थायी सुख को ही असली सुख मानकर उसके पीछे दौड़ते रहते हैं।

 

यह संसार पानी के बुलबुले के समान है—एक उठता है और दूसरा गायब हो जाता है।

 

कामवासना के जागने पर भगवान का नाम जपना चाहिए और जोर-जोर से कीर्तन करना चाहिए। कामवासना भगवान के नाम और कीर्तन के सामने टिक नहीं सकती।

 

परमात्मा के साक्षात्कार से सभी बंधन समाप्त हो जाते हैं। क्लेशों का अंत हो जाता है, और जन्म-मृत्यु का चक्र भी समाप्त हो जाता है।

 

शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध जैसे इंद्रिय-विषयों में प्रवृत्त होने से बचना चाहिए, और मन में यह भावना रखनी चाहिए कि ये विषय असत्य हैं और नरक की ओर ले जाने वाले हैं।

 

यह सम्पूर्ण विश्व भगवान की महिमा का विस्तार है, इसलिए एक बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह सभी को समान दृष्टि से देखे।

 

संसार में दुख का सबसे बड़ा कारण राग है, जबकि त्याग ही सबसे बड़ा सुखदाता है।

 

साधुओं की संगति से भगवान के पराक्रम की कथा सुनने का अवसर मिलता है, जिससे मोक्ष की श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा से प्रेम और प्रेम से भगवान में भक्ति की वृद्धि होती है।

 

बुद्धिमान और धैर्यवान पुरुषों को चाहिए कि वे अन्य सभी कर्मों को छोड़कर आत्मचिंतन में लगे रहें और संसार के बंधनों से मुक्त होने का प्रयास करें।

 

यदि धन चोरी हो जाए, तो रोने का कोई कारण नहीं है। सच्ची समझ यह है कि देने और ले जाने वाला एक ही है—भगवान। वह हमारे मन को जीतने के लिए विभिन्न बहाने बनाता है। गोपियों का इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है कि भगवान श्रीकृष्ण उनका मक्खन चुरा लें। धन्य हैं वे लोग जिनका सब कुछ भगवान ने चुरा लिया, यहाँ तक कि उनका मन और चित्त भी।

 

अहंकार व्यर्थ है। जीवन और यौवन कुछ भी स्थायी नहीं है; सब कुछ एक क्षणभंगुर स्वप्न के समान है।

 

हे प्रभु, मैं तुम्हारे समक्ष हाथ जोड़कर यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे वह वस्तु कभी मत देना जो देखने में तो अच्छी लगे, पर अंत में मेरा बुरा करे और मेरी बुद्धि को गलत मार्ग पर ले जाए।

सभी भिन्नताओं में एकता का अनुभव करना और विभाजनों में अभिन्नता का बोध ही भारतीय साधना का अंतिम लक्ष्य है।

 

जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है, वैसे ही सजग, उद्योगी और योग्य व्यक्ति संतों की संगति से मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

 

जिज्ञासु व्यक्ति को अपनी इंद्रियों को मन में लय करना चाहिए, मन को व्यष्टि-बुद्धि में, और व्यष्टि-बुद्धि को समष्टि-बुद्धि में लय कर अंत में उसे शुद्ध आत्मा में विलीन कर देना चाहिए।

 

जो लोग दूसरों की आजीविका नष्ट करते हैं, घर उजाड़ते हैं, और पति-पत्नी के बीच कलह उत्पन्न करते हैं, वे नरक में जाते हैं।

 

पुत्र, पत्नी, मित्र, भाई और अन्य संबंधों को यात्रियों के अस्थायी मिलन के समान समझना चाहिए।

 

जैसे नींद टूटते ही स्वप्न समाप्त हो जाता है, वैसे ही इस शरीर के नाश के साथ सभी संबंध समाप्त हो जाते हैं।

 

वे महात्मा धन्य हैं जो सत्य के उपासक हैं। उनके हृदय में न किसी के प्रति राग है और न द्वेष। वे सभी प्राणियों को समान दृष्टि से देखते हैं और समभाव रखते हैं।

 

सच्चा वैष्णव वह है जिसका मन विषयों में नहीं भटकता, जिसका मन निर्मल है और जिसकी इन्द्रियाँ विकारों से मुक्त रहती हैं।

 

मनुष्य को अपनी पत्नी के अलावा किसी अन्य स्त्री से संबंध नहीं रखना चाहिए। उसे किसी स्त्री को अपने पास अचानक न ठहरने दे और अपनी पत्नी के साथ उचित व्यवहार रखते हुए अपने चित्त को आसक्त न होने दे।

 

जैसे धान जब तक पकता नहीं, अंकुरित हो सकता है, परंतु एक बार पकने पर वह फिर अंकुरित नहीं होता। उसी प्रकार जब जीव ज्ञान की अग्नि में पक जाता है, तो उसे फिर जन्म नहीं लेना पड़ता। अज्ञान के रहते ही जन्म-मृत्यु का चक्र चलता रहता है।

 

जब विवेक के द्वारा मन की सारी उपाधियाँ समाप्त हो जाती हैं और वैराग्य उत्पन्न हो जाता है, तब मनुष्य भीतर और बाहर से मुक्त होकर सच्चा योगी बन जाता है।

 

भगवद-नाम का स्मरण न होना सबसे बड़ा दुःख है। परंतु जब भगवान का नाम स्मरण हो रहा हो, तो चाहे शरीर कितने भी कष्ट में हो, उसे परम सुख ही मानना चाहिए।

 

तुम्हारे सांसारिक बंधन और संबंध तुम्हें चिंता और दुर्भाग्य में डालते हैं। उनसे ऊपर उठो और ईश्वर से एकता का अनुभव करो। यही तुम्हारा उद्धार है, क्योंकि तुम स्वयं मोक्षस्वरूप हो।

 

जिस व्यक्ति के पास ईश्वर का स्मरण करने की शक्ति है, वह सच्चा धनवान है। और जिसके पास यह संपत्ति नहीं है, वह चाहे कितना ही बड़ा राजा क्यों न हो, असल में वही सच्चा गरीब और अनाथ है।

 

पिता और माता ईश्वर के प्रत्यक्ष रूप हैं। उनकी सेवा में परमात्मा की सत्ता का अनुभव होता है। सच्ची भक्ति से उनकी सेवा करने पर मनुष्य को सिद्धि प्राप्त होती है।

 

जो लोग दूसरों की निंदा में आनंद लेते हैं, वे मित्रता की सच्ची मिठास नहीं जानते। वे फूट का बीज बोकर अपने पुराने मित्रों को भी दूर कर देते हैं।

 

परमात्मा सदैव हमें सुख देते हैं, और यदि हमारे पाप न हों, तो हमारे जीवन में सदैव कल्याण ही होगा।

 

महर्षियों ने प्रतिष्ठा को अत्यंत तुच्छ और त्याज्य माना है। त्यागी व्यक्ति को बिना प्रतिष्ठा की इच्छा के, कीट के समान अपने मार्ग पर निर्बाध विचरण करना चाहिए।

 

यदि एक भी इन्द्रिय विचलित हो जाती है, तो मनुष्य की बुद्धि खो जाती है, जैसे मशक में छेद हो जाने पर सारा जल निकल जाता है।

 

चैतन्य और विवेक से युक्त महाभाग्यवान व्यक्ति चाहे वस्त्रहीन हो, चाहे जटा-जूटधारी या मृगचर्म पहनने वाला हो, वह बिना किसी बंधन के पृथ्वी पर स्वेच्छा से विचरण करता है।

 

भगवान की भक्ति ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है। उनकी भक्ति से ही परम शांति प्राप्त होती है।

 

मेधावी और ज्ञानी सत्पुरुषों का संग करो, क्योंकि महापुरुषों की शरण में जाकर ही व्यक्ति सुख और शांति का अनुभव करता है।

 

जब केवल राम की शरण में जाने से जीवन के सभी उद्देश्य सिद्ध हो सकते हैं, तो किसी और के द्वार पर जाकर अपनी हीनता दिखाना अनुचित है।

 

मनुष्य! उस दिन को याद रख, जब तेरा शरीर छूट जाएगा और तुझे श्मशान में जला दिया जाएगा। तब न कोई साथ जाएगा और न कोई तेरा सहायक बनेगा।

 

 

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अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 6

 

 

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