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रामायण नारद जी की कथा
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥
अर्थ- वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार हुआ, वह मैं आगे कहूँगा। अभी तुम श्रीरामचन्द्रजेके अवतारका
परम सुन्दर और पवित्र (पापनाशक) चरित्र सुनो॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउऊँ उमा सादर सुनहु॥
अर्थ- श्रीहरिके गुण, नाम, कथा और रूप सभी अपार, अगणित और असीम हैं। फिर भी हे पार्वती !
मैं अपनी बुद्धिके अनुसार कहता हूँ, तुम आदरपूर्वक सुनो॥
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाएं। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई । इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥
अर्थ- हे पार्वती! सुनो, वेद-शास्त्रोंने श्रीहरिके सुन्दर, विस्तृत और निर्मल चरित्रोंका गान किया है।
हरिका अवतार जिस कारणसे होता है, वह कारण “बस यही है’ ऐसा नहीं कहा जा सकता (अनेकों
कारण हो सकते हैं और ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें कोई जान ही नहीं सकता) ॥
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी | मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना ॥
अर्थ- हे सयानी ! सुनो, हमारा मत तो यह है कि बुद्धि, मन और वाणीसे श्रीरामचन्द्रजीकी तर्कना नहीं की
जा सकती | तथापि संत, मुनि, वेद और पुराण–अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार जैसा कुछ कहते हैं, ॥
तस मैं सुमुखि सुनावऊँ तोही। समुझि परहइ जस कारन मोही॥
जब जब होड़ धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥
अर्थ- और जैसा कुछ मेरी समझमें आता है, हे सुमुखि! वही कारण मैं तुमको सुनाता हूँ। जब-
जब धर्मका हास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी । सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा । हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥
अर्थ- और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गौ, देवता
और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँतिके [दिव्य] शरीर धारण कर
सज्जनोंकी पीड़ा हरते हैं॥
दो०–असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥
अर्थ- वे असुरोंको मारकर देवताओंको स्थापित करते हैं, अपने [श्वासरूप] वेदोंकी मर्यादाकी रक्षा
करते हैं और जगत्में अपना निर्मल यश फैलाते हैं। श्रीरामचन्द्रजीके अवतारका यह कारण है॥
सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥
अर्थ- उसी यशको गा-गाकर भक्तजन भवसागरसे तर जाते हैं। कृपासागर भगवान् भक्तोंके हितके लिये शरीर
धारण करते हैं। श्रीरामचन्द्रजीके जन्म लेनेके अनेक कारण हैं, जो एक-से-एक बढ़कर विचित्र हैं॥
जनम एक दुड कहउऊँ बखानी | सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ । जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥
अर्थ- हे सुन्दर बुद्धिवाली भवानी! मैं उनके दो-एक जन्मोंका विस्तारसे वर्णन करता हूँ, तुम सावधान
होकर सुनो। श्रीहरिके जय और विजय दो प्यारे द्वारपाल हैं, जिनको सब कोई जानते हैं॥
बिप्र श्राप तें दूनत भाई। तामस असुर देह तिन््ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटकलोचन । जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥
अर्थ- उन दोनों भाइयोंने ब्राह्मण (सनकादि) के शापसे असुरोंका तामसी शरीर पाया। एकका नाम था
हिरण्यकशिपु और दूसरेका हिरण्याक्ष । ये देवराज इन्द्रके गर्बको छुड़ानेवाले सारे जगतमें प्रसिद्ध हुए॥
बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
होड़ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥
अर्थ- वे युद्धमें विजय पानेवाले विख्यात वीर थे। इनमेंसे एक (हिरण्याक्ष) को भगवान्ने वराह
(सूअर)का शरीर धारण करके मारा; फिर दूसरे (हिरण्यकशिपु) का नरसिंहरूप धारण करके वध
किया और अपने भक्त प्रह्मादका सुन्दर यश फैलाया॥
दो०–भए निसाचर जाइ तेड् महाबीर बलवान।
कुंभकरन रावन सुभट सुर बिजई जग जान॥
अर्थ- वे ही [दोनों] जाकर देवताओंको जीतनेवाले तथा बड़े योद्धा, रावण और कुम्भकर्ण नामक
बड़े बलवान् और महावीर राक्षस हुए, जिन्हें सारा जगत् जानता है॥
मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
एक बार तिन््ह के हित लागी। धरेड सरीर भगत अनुरागी॥
अर्थ- भगवान्के द्वारा मारे जानेपर भी वे (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) इसीलिये मुक्त नहीं हुए
कि ब्राह्मणके वचन (शाप) का प्रमाण तीन जन्मके लिये था। अतः एक बार उनके कल्याणके
लिये भक्तप्रेमी भगवानूने फिर अवतार लिया॥
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित पवित्र किए संसारा॥
अर्थ- वहाँ (उस अवतारमें ) कश्यप और अदिति उनके माता-पिता हुए, जो दशरथ और ‘कौसल्याके नामसे प्रसिद्ध थे। एक कल्पमें इस प्रकार अवतार लेकर उन्होंने संसारमें पवित्र
लीलाएँ कीं॥
एक कलप सुर देखि दुखारे । समर जलंधर सन सब हारे॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥
अर्थ- एक कल्पमें सब देवताओंको जलन्धर दैत्यसे युद्धमें हार जानेके कारण दुःखी देखकर शिवजीने
उसके साथ बड़ा घोर युद्ध किया; पर वह महाबली दैत्य मारे नहीं मरता था॥
परम सती असुराधिप नारी । तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥
अर्थ- उस दैत्यराजकी स्त्री परम सती (बड़ी ही पतिब्रता) थी। उसीके प्रतापसे त्रिपुरासुर [जैसे अजेय
शत्रु] का विनाश करनेवाले शिवजी भी उस दैत्यको नहीं जीत सके॥
दो०–छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।
जब तेहिं जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥
अर्थ- प्रभुने छलसे उस स्त्रीका ब्रत भड्ज कर देवताओंका काम किया। जब उस स्त्रीने यह भेद जाना,
तब उसने क्रोध करके भगवान्को शाप दिया॥
तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
तहाँजलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥
अर्थ- लीलाओंके भण्डार कृपालु हरिने उस स्त्रीके शापको प्रामाण्य दिया (स्वीकार
किया) । वही जलन्धर उस कल्पमें रावण हुआ, जिसे श्रीरामचन्द्रजीने युद्धमें मारकर
परमपद दिया॥
एक जनम कर कारन एहा । जेहि लगि राम धरी नरदेहा॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी । सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥
अर्थ- एक जन्मका कारण यह था, जिससे श्रीरामचन्द्रजीने मनुष्यदेह धारण किया। हे भरद्वाज मुनि!
सुनो, प्रभुके प्रत्येक अवतारकी कथाका कवियोंने नाना प्रकारसे वर्णन किया है॥
नारद श्राप दीन्ह एक बारा । कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी॥
अर्थ- एक बार नारदजीने शाप दिया, अतः एक कल्पमें उसके लिये अवतार हुआ। यह बात सुनकर
पार्वतीजी बड़ी चकित हुईं [और बोलीं कि] नारदजी तो विष्णुभक्त और ज्ञानी हैं॥
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा । का अपराध रमापति कीन्हा॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥
अर्थ- मुनिने भगवान्को शाप किस कारणसे दिया? लक्ष्मीपति भगवान्ने उनका क्या अपराध किया
था? हे पुरारि (शद्भूरजी )! यह कथा मुझसे कहिये। मुनि नारदके मनमें मोह होना बड़े आश्चर्यकी
बात है॥
दो०–बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोड़।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥
अर्थ- तब महादेवजीने हँसकर कहा–न कोई ज्ञानी है न मूर्ख | श्रीरघुनाथजी जब जिसको जैसा करते
हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है॥
सो०–कहऊें राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥
अर्थ- [याज्ञवल्क्यजी कहते हैं–] हे भरद्वाज! मैं श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंकी कथा कहता हूँ, तुम
आदरसे सुनो। तुलसीदासजी कहते हैं-मान और मदको छोड़कर आवागमनका नाश करनेवाले
रघुनाथजीको भजो॥
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि । बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा । देखि देवरिषि मन अति भावा॥
अर्थ- हिमालय पर्वतमें एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुन्दर गड्डाजी बहती थीं। वह
परम पवित्र सुन्दर आश्रम देखनेपर नारदजीके मनको बहुत ही सुहावना लगा॥
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥
अर्थ- पर्वत, नदी और वनके [सुन्दर] विभागोंको देखकर नारदजीका लक्ष्मीकान्त भगवान्के चरणोंमें
प्रेम हो गया। भगवान्का स्मरण करते ही उन (नारद मुनि) के शापकी (जो शाप उन्हें दक्ष
प्रजापतिने दिया था और जिसके कारण वे एक स्थानपर नहीं ठहर सकते थे) गति रुक गयी और
मनके स्वाभाविक ही निर्मल होनेसे उनकी समाधि लग गयी॥
मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू । चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥
अर्थ- नारद मुनिकी [यह तपोमयी ] स्थिति देखकर देवराज इन्द्र डर गया। उसने ‘कामदेवको
बुलाकर उसका आदर-सत्कार किया [और कहा कि] मेरे [हितके] लिये तुम अपने
सहायकोंसहित [नारदकी समाधि भज्ज करनेको] जाओ। [यह सुनकर] मीनध्वज कामदेव मनमें
प्रसज्ञ होकर चला॥
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा । चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
जे कामी लोलुप जग माहीं । कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
अर्थ- इन्द्रके मनमें यह डर हुआ कि देवर्षि नारद मेरी पुरी (अमरावती) का निवास(राज्य) चाहते
हैं। जगत्में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौएकी तरह सबसे डरते हैं॥
दो०–सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥
अर्थ- जैसे मूर्ख कुत्ता सिंहको देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं
उस हड्डीको सिंह छीन न ले, वैसे ही इन्द्रको [नारदजी मेरा राज्य छीन लेंगे, ऐसा सोचते] लाज
नहीं आयी॥
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ । निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भूंगा॥
अर्थ- जब कामदेव उस आश्रममें गया, तब उसने अपनी मायासे वहाँ वसन््त-ऋतुको उत्पन्न किया।
तरह-तरहके वृक्षोंपर रंग-बिरंगे फूल खिल गये, उनपर कोयलें कूकने लगीं और भौरे गुंजार करने लगे ॥
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥
अर्थ- ‘कामाग्निको भड़कानेवाली तीन प्रकारकी (शीतल, मन्द और सुगन्ध) सुहावनी हवा चलने
लगी। रम्भा आदि नवयुवती देवाड्नाएँ, जो सब-कौ-सब कामकलामें निपुण थीं, ॥
करहिं गान बहु तान तरंगा । बहुबिधि क्रौड़हिं पानि पतंगा॥
देखि सहाय मदन हरषाना । कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
अर्थ- वे बहुत प्रकारकी तानोंकी तरड्गके साथ गाने लगीं और हाथमें गेंद लेकर नाना प्रकारके खेल
खेलने लगीं। कामदेव अपने इन सहायकोंको देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और फिर उसने नाना
प्रकारके मायाजाल किये॥
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी । निज भय डरेउ मनोभव पापी॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू । बड़ रखवार रमापति जासू॥
अर्थ- परन्तु कामदेवकी कोई भी कला मुनिपर असर न कर सकी। तब तो पापी कामदेव अपने
ही [नाशके] भयसे डर गया। लक्ष्मीपति भगवान् जिसके बड़े रक्षक हों, भला, उसकी सीमा
(मर्यादा)को कोई दबा सकता है ?॥
दो०–सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥
अर्थ- तब अपने सहायकोंसमेत कामदेवने बहुत डरकर और अपने मनमें हार मानकर बहुत ही आर्त
(दीन) वचन कहते हुए मुनिके चरणोंको जा पकड़ा॥
भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई । गयउ मदन तब सहित सहाई॥
अर्थ- नारदजीके मनमें कुछ भी क्रोध न आया। उन्होंने प्रिय वचन कहकर कामदेवका समाधान
किया। तब मुनिके चरणोंमें सिर नवाकर और उनकी आज्ञा पाकर कामदेव अपने सहायकोंसहित
लौट गया॥
मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
अर्थ- देवराज इन्द्रकी सभामें जाकर उसने मुनिकी सुशीलता और अपनी करतूत सब
कही, जिसे सुनकर सबके मनमें आश्चर्य हुआ और उन्होंने मुनिकी बड़ाई करके श्रीहरिको
सिर नवाया॥
तब नारद गवने सिव पाहीं । जिता काम अहमिति मन माहीं॥
मार चरित संकरहि सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
अर्थ- तब नारदजी शिवजीके पास गये। उनके मनमें इस बातका अहंकार हो गया कि हमने
कामदेवको जीत लिया। उन्होंने कामदेवके चरित्र शिवजीकों सुनाये और महादेवजीने उन
(नारदजी) को अत्यन्त प्रिय जानकर [इस प्रकार] शिक्षा दी–॥
बार बार बिनवडेँँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ । चलेहुँ प्रसंग. दुराएहु तबहूँ॥
अर्थ- हे मुनि! मैं तुमसे बार-बार विनती करता हूँ कि जिस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनायी है,
उस तरह भगवान् श्रीहरिको कभी मत सुनाना। चर्चा भी चले तब भी इसको छिपा जाना॥
दो०–संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥
अर्थ- यद्यपि शिवजीने यह हितकी शिक्षा दी, पर नारदजीको वह अच्छी न लगी। हे भरद्वाज!
अब कौतुक (तमाशा) सुनो। हरिकी इच्छा बड़ी बलवान् है॥
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई । करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
अर्थ- श्रीरामचन्द्रजी जो करना चाहते हैं, वही होता है, ऐसा कोई नहीं जो उसके विरुद्ध कर सके।
श्रीशिवजीके वचन नारदजीके मनको अच्छे नहीं लगे, तब वे वहाँसे ब्रह्मतोकको चल दिये॥
एक बार करतल बर बीना । गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहूँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥
अर्थ- एक बार गानविद्यामें निपुण मुनिनाथ नारदजी हाथमें सुन्दर वीणा लिये, हरिगुण गाते हुए
क्षीरसागरको गये, जहाँ वेदोंके मस्तकस्वरूप (मूर्तिमान् वेदान्ततत्त्व) लक्ष्मीनिवास भगवान् नारायण
रहते हैं ॥
हरषि मिले उठि रमानिकेता । बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया । बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥
अर्थ- रमानिवास भगवान् उठकर बड़े आनन्दसे उनसे मिले और ऋषि (नारदजी) के साथ आसनपर
बैठ गये | चराचरके स्वामी भगवान् हँसकर बोले–हे मुनि! आज आपने बहुत दिनोंपर दया की ॥
काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिर्वँ राखे॥
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥
अर्थ- यद्यपि श्रीशिवजीने उन्हें पहलेसे ही बरज रखा था, तो भी नारदजीने ‘कामदेवका सारा चरित्र
भगवान्को कह सुनाया। श्रीरघुनाथजीकी माया बड़ी ही प्रबल है। जगत्में ऐसा कौन जन्मा है जिसे
वह मोहित न कर दे॥
दो०–रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान।
तुम्हे! सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥ १२८॥
अर्थ- भगवान् रूखा मुँह करके कोमल वचन बोले–हे मुनिराज! आपका स्मरण करनेसे दूसरोंके
मोह, काम, मद और अभिमान मिट जाते हैं [ फिर आपके लिये तो कहना ही क्या है ?] ॥
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें । ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
अर्थ- हे मुनि! सुनिये, मोह तो उसके मनमें होता है जिसके हृदयमें ज्ञान-वैराग्य नहीं है। आप तो
ब्रह्मचर्यव्रतमें तत्पर और बड़े धीरबुद्धि हैं। भला, कहीं आपको भी कामदेव सता सकता है ?॥
नारद कहेउ सहित अभिमाना । कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेठ गरब तरू भारी॥
अर्थ- नारदजीने अभिमानके साथ कहा- भगवन् ! यह सब आपकी कृपा है ॥ करुणानिधान भगवान्ने
मनमें विचारकर देखा कि इनके मनमें गर्वके भारी वृक्षका अंकुर पैदा हो गया है॥
बेगि सो मैं डारिहडँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई । अवसि उपाय करबि मैं सोई॥
अर्थ- मैं उसे तुरंत ही उखाड़ फेंकूँगा, क्योंकि सेवकोंका हित करना हमारा प्रण है। मैं अवश्य ही
वह उपाय करूँगा जिससे मुनिका कल्याण और मेरा खेल हो॥
तब नारद हरि पद सिर नाई । चले हृदय अहमिति अधिकाई॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी । सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
अर्थ- तब नारदजी भगवान्के चरणोंमें सिर नवाकर चले। उनके हृदयमें अभिमान और भी बढ़ गया।
तब लक्ष्मीपति भगवान्ने अपनी मायाको प्रेरित किया। अब उसकी कठिन करनी सुनो॥
दो०–बिरचेठ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥ १२९॥
अर्थ- उस (हरिमाया) ने रास्तेमें सौ योजन (चार सौ कोस) का एक नगर रचा। उस नगरकी भाँति-
भाँतिकी रचनाएँ लक्ष्मीनिवास भगवान् विष्णुके नगर (वैकुण्ठ) से भी अधिक सुन्दर थीं॥
बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥
अर्थ- उस नगरमें ऐसे सुन्दर नर-नारी बसते थे मानो बहुत-से कामदेव और [उसकी स्त्री] रति
ही मनुष्य-शरीर धारण किये हुए हों। उस नगरमें शीलनिधि नामका राजा रहता था, जिसके यहाँ
असंख्य घोड़े, हाथी और सेनाके समूह (टुकड़ियाँ) थे॥
सत सुरेस सम बिभव बिलासा । रूप तेज बल नीति निवासा॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी । श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥
अर्थ- उसका वैभव और विलास सौ इन्द्रोंक समान था। वह रूप, तेज, बल और नीतिका घर था।
उसके विश्वमोहिनी नामकी एक [ऐसी रूपवती] कन्या थी, जिसके रूपको देखकर लक्ष्मीजी भी
मोहित हो जायूँ॥
सोइ हरिमाया सब गुन खानी । सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँँ अगनित महिपाला॥
अर्थ- वह सब गुणोंकी खान भगवान्की माया ही थी। उसकी शोभाका वर्णन कैसे किया जा सकता
है। वह राजकुमारी स्वयंवर करना चाहती थी, इससे वहाँ अगणित राजा आये हुए थे॥
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ । पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥
अर्थ- खिलवाड़ी मुनि नारदजी उस नगरमें गये और नगरवासियोंसे उन्होंने सब हाल पूछा। सब
समाचार सुनकर वे राजाके महलमें आये। राजाने पूजा करके मुनिको [आसनपर] बैठाया॥
दो०–आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥
अर्थ- [फिर] राजाने राजकुमारीको लाकर नारदजीको दिखलाया [और पूछा कि–] हे नाथ! आप
अपने हृदयमें विचारकर इसके सब गुण-दोष कहिये॥
देखि रूप मुनि बिरति बिसारी । बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने । हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥
अर्थ- उसके रूपको देखकर मुनि वैराग्य भूल गये और बड़ी देरतक उसकी ओर देखते ही रह गये।
उसके लक्षण देखकर मुनि अपने-आपको भी भूल गये और हृदयमें हर्षित हुए, पर प्रकटरूपमें
उन लक्षणोंको नहीं कहा॥
जो एहि बरइ अमर सोइक् होईं । समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥
अर्थ- [लक्षणोंको सोचकर वे मनमें कहने लगे कि] जो इसे ब्याहेगा, वह अमर हो जायगा और
रणभूमिमें कोई उसे जीत न सकेगा। यह शीलनिधिकी कन्या जिसको वरेगी, सब चर-अचर जीव
उसकी सेवा करेंगे॥
लच्छन सब बिचारि उर राखे । कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥
अर्थ- सब लक्षणोंको विचारकर मुनिने अपने हृदयमें रख लिया और राजासे कुछ अपनी ओरसे बनाकर कह
दिया। राजासे लड़कौके सुलक्षण कहकर नारदजी चल दिये। पर उनके मनमें यह चिन्ता थी कि–॥
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला । हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥
अर्थ- मैं जाकर सोच-विचारकर अब वही उपाय करूँ, जिससे यह कन्या मुझे ही वरे। इस समय
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