रामायण शिव पार्वती संवाद

surimaa.com में आपका स्वागत है जानिए, रामायण बालकाण्ड देवी सती तपस्या शिवजी से विवाह.

 

 

रामायण शिव पार्वती संवाद

 

जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥

ससिभूषन अस हदयँ बिचारी | हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥

अर्थ- जिसका घर कल्पवृक्षेके नीचे हो, वह भला दरिद्रतासे उत्पन्न दुःखको क्‍यों
सहेगा? हे शशिभूषण! हे नाथ! हृदयमें ऐसा विचारकर मेरी बुद्धिके भारी भ्रमको
दूर कीजिये॥ २॥

 

प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहूँ ब्रह्म अनादी॥

सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥

अर्थ- हे प्रभो! जो परमार्थतत्त्व (ब्रह्म) के ज्ञाता और वक्ता मुनि हैं, वे श्रीरामचन्द्रजीको अनादि ब्रह्म
कहते हैं; और शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सभी श्रीरघुनाथजीका गुण गाते हैं॥ 
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती । सादर जपहु अनँग आराती॥

 

रामु सो अवध नृपति सुत सोईं । की अज अगुन अलखगति कोई॥

अर्थ- और हे कामदेवके शत्रु | आप भी दिन-रात आदरपूर्वक राम-राम जपा करते हैं। ये राम वही
अयोध्याके राजाके पुत्र हैं? या अजन्मा, निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैं ?॥ 

 

दो०–जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
देखि चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥  

अर्थ- यदि वे राजपुत्र हैं तो ब्रह्म कैसे ? [ और यदि ब्रह्म हैं तो] स्त्रीके विरहमें उनकी मति बावली
कैसे हो गयी ? इधर उनके ऐसे चरित्र देखकर और उधर उनकी महिमा सुनकर मेरी बुद्धि अत्यन्त
चकरा रही है॥  

 

 

जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटे सोड करहू॥

अर्थ- यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और है, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर
कहिये। मुझे नादान समझकर मनमें क्रोध न लाइये। जिस तरह मेरा मोह दूर हो,
वही कीजिये॥ 

 

मैं बन दीखि राम प्रभुताईं। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥

तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥

अर्थ- मैंने [पिछले जन्ममें] वनमें श्रीरामचन्द्रजीकी प्रभुता देखी थी, परन्तु अत्यन्त भयभीत होनेके
कारण मैंने वह बात आपको सुनायी नहीं। तो भी मेरे मलिन मनको बोध न हुआ। उसका फल
भी मैंने अच्छी तरह पा लिया॥  

 

अजहूँ कछु संसउ मन मोरें। करहु कृपा बिनव्ँ कर जोरें॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा । नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा ॥

अर्थ- अब भी मेरे मनमें कुछ सन्देह है। आप कृपा कीजिये, मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ।
हे प्रभो! आपने उस समय मुझे बहुत तरहसे समझाया था [फिर भी मेरा सन्देह नहीं गया], हे
नाथ! यह सोचकर मुझपर क्रोध न कीजिये॥  

 

तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥

कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥

अर्थ- मुझे अब पहले-जैसा मोह नहीं है, अब तो मेरे मनमें रामकथा सुननेकी रुचि है। हे शेषनागको
अलंकाररूपमें धारण करनेवाले देवताओंके नाथ! आप श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंकी पवित्र कथा
कहिये॥  

 

 

दो०–बंदर्ऊँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करखँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत नियोरि॥

अर्थ- मैं पृथ्वीपर सिर टेककर आपके चरणोंकी वन्दना करती हूँ और हाथ जोड़कर विनती करती
हूँ। आप वेदोंके सिद्धान्तको निचोड़कर श्रीरघुनाथजीका निर्मल यश वर्णन कीजिये॥  

 

 

जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥

गूढ़ड तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥

अर्थ- यद्यपि स्त्री होनेके कारण मैं उसे सुननेकी अधिकारिणी नहीं हूँ, तथापि मैं मन, वचन और कर्मसे आपकी दासी हूँ। संत लोग जहाँ आर्त अधिकारी पाते हैं, वहाँ गृढ़ तत्त्व भी उससे नहीं छिपाते॥ 

 

 

अति आरति पूछऊँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥

प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥

अर्थ- हे देवताओंके स्वामी! मैं बहुत ही आर्तभाव (दीनता) से पूछती हूँ, आप मुझपर दया करके
श्रीरघुनाथजीकी कथा कहिये। पहले तो वह कारण विचारकर बतलाइये जिससे निर्गुण ब्रह्म सगुण
रूप धारण करता है.

 

 

पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥

अर्थ- फिर हे प्रभु! श्रीरामचन्द्रजीके अवतार (जन्म) की कथा कहिये तथा उनका उदार बालचरित्र
कहिये। फिर जिस प्रकार उन्होंने श्रीजानकीजीसे विवाह किया, वह कथा कहिये और फिर यह
बतलाइये कि उन्होंने जो राज्य छोड़ा सो किस दोषसे॥ 

 

 

बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखसीला॥

अर्थ- है नाथ! फिर उन्होंने वनमें रहकर जो अपार चरित्र किये तथा जिस तरह रावणको मारा, वह कहिये। हे सुखस्वरूप शट्भूर! फिर आप उन सारी लीलाओंको कहिये जो उन्होंने राज्य [सिंहासन]
पर बैठकर की थीं॥

 

 

दो०–बहुरि कहहु करुनायतन कीौन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥  

अर्थ- है कृपाधाम ! फिर वह अद्भुत चरित्र कहिये जो श्रीरामचन्द्रजीने किया–वे रघुकुलशिरोमणि
प्रजासहित किस प्रकार अपने धामकों गये ?॥  

 

 

पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥

अर्थ- हे प्रभु फिफए आप उस तत्त्कको समझाकर कहिये, जिसकी अनुभूतिमें ज्ञानी
मुनिगण सदा मग्र रहते हैं; और फिर भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्यका विभागसहित
वर्णन कीजिये॥  

 

औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
जो प्रभु मैं पूछा नहिं होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥

अर्थ-  [इसके सिवा] श्रीरामचन्द्रजेके और भी जो अनेक रहस्य (छिपे हुए भाव अथवा चरित्र) हैं,
उनको कहिये। हे नाथ! आपका ज्ञान अत्यन्त निर्मल है। हे प्रभो! जो बात मैंने न भी पूछी हो,
हे दयालु! उसे भी आप छिपा न रखियेगा॥  

 

 

तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना । आन जीव पाँवर का जाना॥
प्रसत उमा के सहज सुहाई । छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥

अर्थ-  बेदोंने आपको तीनों लोकोंका गुरु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रहस्यको क्या जानें ! पार्वतीजीके
सहज सुन्दर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनकर शिवजीके मनको बहुत अच्छे लगे॥  

 

 

हर हियेँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥

अर्थ- श्रीमहादेवजीके हृदयमें सारे रामचरित्र आ गये। प्रेमके मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और
नेत्रोंमे जल भर आया। श्रीरघुनाथजीका रूप उनके हृदयमें आ गया, जिससे स्वयं परमानन्दस्वरूप
शिवजीने भी अपार सुख पाया॥ 

 

 

दो०–मगन ध्यान रस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरने लीन्ह॥  

अर्थ-  शिवजी दो घड़ीतक ध्यानके रस (आनन्द) में डूबे रहे; फिर उन्होंने मनको बाहर खींचा और
तब वे प्रसन्न होकर श्रीरघुनाथजीका चरित्र वर्णन करने लगे॥ 

 

 

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें | जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई | जागें जथा सपन भ्रम जाईं॥

अर्थ-  जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सीमें साँपका भ्रम हो
जाता है; और जिसके जान लेनेपर जगत्‌का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागनेपर स्वप्रका
भ्रम जाता रहता है॥ 

 

 

बंदर बालरूप सोइ रामू । सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवठ सो दसरथ अजिर बिहारी॥

अर्थ-  मैं उन्हीं श्रीरामचन्द्रजेके बालरूपकी वन्दना करता हूँ, जिनका नाम जपनेसे सब सिद्धियाँ सहज
ही प्राप्त हो जाती हैं। मड्लके धाम, अमड्जलके हरनेवाले और श्रीदशरथजीके आँगनमें खेलनेवाले
वे (बालरूप) श्रीरामचन्द्रजी मुझपर कृपा करें॥  

 

 

करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोड उपकारी॥

अर्थ-  त्रिपुरासुरका बंध करनेवाले शिवजी श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करके आनन्दमें भरकर अमृतके
समान वाणी बोले–हे गिरिराजकुमारी पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो!! तुम्होरे समान कोई
उपकारी नहीं है॥ 

 

 

पूँछेहू रघुपति कथा प्रसंगा । सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी । कीन्हिहु प्रस्तन जगत हित लागी॥

अर्थ-  जो तुमने श्रीरघुनाथजीकी कथाका प्रसड़ पूछा है, जो कथा समस्त लोकोंके लिये जगत्‌को पवित्र करनेवाली गड्जाजीके समान है। तुमने जगत्‌के कल्याणके लिये ही प्रश्न पूछे हैं। तुम
श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें प्रेम रखनेवाली हो॥  

 

 

दो०–राम कृपा तें पारबति सपनेहुँ तब मन माहिं।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥  

अर्थ-  हे पार्वती! मेरे विचारमें तो श्रीरामजीकी कृपासे तुम्हारे मनमें स्वप्रमें भी शोक, मोह, सन्देह
और भ्रम कुछ भी नहीं है॥ 

 

 

तदपि असंका कीन्हिहु सोईं। कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्हे हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥

अर्थ-  फिर भी तुमने इसीलिये वही (पुरानी) शट्ढा की है कि इस प्रसड्धके कहने-सुननेसे सबका
कल्याण होगा। जिन्होंने अपने कानोंसे भगवान्‌की कथा नहीं सुनी, उनके कानोंके छिद्र साँपके
बिलके समान हैं॥ 

 

नयनन्हि संत दरस नहिं देखा । लोचन मोरपंख कर लेखा॥
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥

अर्थ-  जिन्होंने अपने नेत्रोंसे संतोंके दर्शन नहीं किये, उनके बे नेत्र मोरके पंखोंपर दीखनेवाली
नकली आँखोंकी गिनतीमें हैं | वे सिर कड़वी तूँबीके समान हैं, जो श्रीहरि और गुरुक चरणतलपर
नहीं झुकते॥  

 

 

जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिंआनी । जीवत सव समान ते प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥

अर्थ-  जिन्होंने भगवान्‌की भक्तिको अपने हृदयमें स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्देके समान
हैं। जो जीभ श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंका गान नहीं करती, वह मेढककी जीभके समान है॥ 

 

 

कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥

अर्थ-  वह हृदय वज्ञके समान कड़ा और निष्ठुर है, जो भगवान्‌के चरित्र सुनकर हर्षित नहीं होता। हे पार्वती! श्रीरामचन्द्रजीकी लीला सुनो, यह देवताओंका कल्याण करनेवाली और दैत्योंको
विशेषरूपसे मोहित करनेवाली है॥  

 

 

दो०–रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥  

अर्थ-  श्रीरामचन्द्रजीकी कथा कामधेनुके समान सेवा करनेसे सब सुखोंको देनेवाली है, और
सत्पुरुषोंके समाज ही सब देवताओंके लोक हैं, ऐसा जानकर इसे कौन न सुनेगा!॥  

 

 

रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी । सादर सुनुगिरिराजकुमारी॥

अर्थ-  श्रीरामचन्द्रजीकी कथा हाथकी सुन्दर ताली है, जो सन्देहरूपी पक्षियोंकों उड़ा देती है। फिर
रामकथा कलियुगरूपी वृक्षको काटनेके लिये कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे
आदरपूर्वक सुनो॥  

 

 

राम नाम गुन चरित सुहाएं। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥

जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कौरति गुन नाना॥

अर्थ-  वेदोंने श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं। जिस
प्रकार भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजी अनन्त हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनन्त हैं ॥  

 

 

तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी । कहिहडँ देखि प्रीति अति तोरी॥

उमा प्रस्त तब सहज सुहाई | सुखद संतसंमत मोहि भाई॥

अर्थ-  तो भी तुम्हारी अत्यन्त प्रीति देखकर, जैसा कुछ मैंने सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसीके
अनुसार मैं कहूँगा। हे पार्वती! तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक ही सुन्दर, सुखदायक और संतसम्मत है
और मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा है॥ 

 

 

एक बात नहिं मोहि सोहानी। जद॒पि मोह बस कहेहु भवानी॥
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना । जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥

अर्थ-  परन्तु हे पार्वती ! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि वह तुमने मोहके वश होकर ही कही है।
तुमने जो यह कहा कि वे राम कोई और हैं, जिन्हें वेद गाते और मुनिजन जिनका ध्यान धरते हैं– ॥  

 

दो०–कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥  

अर्थ-  जो मोहरूपी पिशाचके द्वारा ग्रस्त हैं, पाखण्डी हैं, भगवान्‌के चरणोंसे विमुख हैं और जो झूठ-
सच कुछ भी नहीं जानते, ऐसे अधम मनुष्य ही इस तरह कहते-सुनते हैं॥  

 

 

अग्य अकोबिद अंध अभागी। काईं बिषय मुकुर मन लागी॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥

अर्थ-  जो अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और भाग्यहीन हैं और जिनके मनरूपी दर्पणपर विषयरूपी काई जमी
हुई है; जो व्यभिचारी, छली और बड़े कुटिल हैं और जिन्होंने कभी स्वप्रमें भी संत-समाजके
दर्शन नहीं किये;॥  

 

 

कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥

अर्थ-  और जिन्हें अपनी लाभ-हानि नहीं सूझती, वे ही ऐसी वेदविरुद्ध बातें कहा करते हैं। जिनका
हृदयरूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रोंसे हीन हैं, वे बेचारे श्रीरामचन्द्रजीका रूप कैसे देखें !॥  

 

 

जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका । जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
हरिमाया बस जगत अभ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥

अर्थ-  जिनको निर्गुण-सगुणका कुछ भी विवेक नहीं है, जो अनेक मनगढ़ंत बातें बका करते हैं, जो
श्रीहरिकी मायाके वशमें होकर जगत्‌में (जन्म-मृत्युके चक्रमें) भ्रमते फिरते हैं, उनके लिये कुछ
भी कह डालना असम्भव नहीं है॥ 

 

 

बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥

जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना

अर्थ-  जिन्हें वायुका रोग (सन्निपात, उन्‍्माद आदि) हो गया हो, जो भूतके वश हो गये हैं और
जो नशेमें चूर हैं, ऐसे लोग विचारकर वचन नहीं बोलते। जिन्होंने महामोहरूपी मदिरा पी रखी
है, उनके कहनेपर कान न देना चाहिये॥  

 

 

सो०–अस निज हृदय बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥  

अर्थ-  अपने हृदयमें ऐसा विचारकर सन्देह छोड़ दो और श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंको भजो। हे पार्वती !
भ्रमरूपी अन्धकारके नाश करनेके लिये सूर्यकी किरणोंके समान मेरे वचनोंको सुनो!॥ 

 

 

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोईं। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
अर्थ-  सगुण और निर्गुणमें कुछ भी भेद नहीं है–मुनि, पुराण, पण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तोंके प्रेमवश सगुण
हो जाता है॥ 

 

 

जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें । जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा । तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥
अर्थ-  जो निर्गुण है, वही सगुण कैसे है ? जैसे जल और ओलेमें भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।) जिसका नाम भ्रमरूपी अन्धकारके मिटानेके लिये सूर्य है, उसके
लिये मोहका प्रसंग भी कैसे कहा जा सकता है ?॥  

 

 

राम सच्चिदानंद _ दिनेसा । नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
सहज प्रकासरूप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥

अर्थ-  श्रीरामचन्द्रजी सच्चिदानन्दस्वरूप सूर्य हैं। वहाँ मोहरूपी रात्रिका लवलेश भी नहीं है। वे
स्वभावसे ही प्रकाशरूप और ([घषडैश्चर्ययुक्त] भगवान्‌ हैं, वहाँ तो विज्ञानरूपी प्रात:काल भी
नहीं होता। (अज्ञानरूपी रात्रि हो तब तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल हो; भगवान्‌ तो नित्य
ज्ञानस्वरूप हैं ।) ॥  

 

 

हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥

राम ब्रह्म ब्यायक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥
अर्थ-  हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान–ये सब जीवके धर्म हैं। श्रीरामचन्द्रजी तो
व्यापक ब्रह्म, परमानन्दस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराणपुरुष हैं। इस बातको सारा जगत्‌ जानता है॥  

 

 

दो०-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ।
रघुकुलमनि मम स्वामि सोड़ कहि सिव नायउ माथ॥  

अर्थ-  जो [पुराण] पुरुष प्रसिद्ध हैं, प्रकाशके भण्डार हैं, सब रूपोंमें प्रकट हैं, जीव, माया और
जगत्‌ सबके स्वामी हैं, वे ही रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजी मेरे स्वामी हैं–ऐसा कहकर शिवजीने
उनको मस्तक नवाया॥  

 

 

निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेठ भानु कहहिं कुबिचारी॥

अर्थ-  अज्ञानी मनुष्य अपने भ्रमको तो समझते नहीं और वे मूर्ख प्रभु श्रीरामचन्द्रजीपर उसका आरोप
करते हैं, जैसे आकाशमें बादलोंका पर्दा देखकर कुविचारी (अज्ञानी) लोग कहते हैं कि बादलोंने
सूर्यको ढक लिया॥  

 

 

चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
उम्मा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥

अर्थ-  जो मनुष्य आँखमें उँगली लगाकर देखता है, उसके लिये तो दो चन्द्रमा प्रकट (प्रत्यक्ष) हैं।
हे पार्वती ! श्रीरामचन्द्रजीके विषयमें इस प्रकार मोहकी कल्पना करना वैसा ही है जैसा आकाशमें
अन्धकार, धूएँ और धूलका सोहना (दीखना)। [आकाश जैसे निर्मल और निर्लेप है, उसको कोई
मलिन या स्पर्श नहीं कर सकता, इसी प्रकार भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजी नित्य निर्मल और निर्लेप हैं] ॥  

 

 

बिषय करन सुर जीव समेता । सकल एक तें एक सचेता॥
सब कर परम प्रकासक जोई । राम अनादि अवधपति सोई॥

अर्थ-  विषय, इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंके देवता और जीवात्मा–ये सब एककी सहायतासे एक चेतन होते
हैं। (अर्थात्‌ विषयोंका प्रकाश इन्द्रियोंसे, इन्द्रियोंका इन्द्रियोंके देवताओंसे और इन्द्रियदेवताओंका
चेतन जीवात्मासे प्रकाश होता है।) इन सबका जो परम प्रकाशक है (अर्थात्‌ जिससे इन सबका
प्रकाश होता है), वही अनादि ब्रह्म अयोध्यानरेश श्रीरामचन्द्रजी हैं॥ 

 

 

जगत प्रकास्य प्रकासक रामू । मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥

अर्थ-  यह जगत प्रकाश्य है और श्रीरामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं। वे मायाके स्वामी और ज्ञान
तथा गुणोंके धाम हैं। जिनकी सत्तासे, मोहकी सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य-सी भासित
होती है॥ 

 

 

दो०–रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकड् कोउ टारि॥ 

अर्थ-  जैसे सीपमें चाँदीकी और सूर्यकी किरणोंमें पानीकी [बिना हुए भी] प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालोंमें झूठ है, तथापि इस भ्रमको कोई हटा नहीं सकता॥  

 

 

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहईं। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटे कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥

अर्थ-  इसी तरह यह संसार भगवान्‌के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता
ही है; जिस तरह स्वप्रमें कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता॥ 

 

 

जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई । गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥

आदि अंत कोउ जासु न पावा | मति अनुमानि निगम अस गावा॥

अर्थ-  हे पार्वती! जिनकी कृपासे इस प्रकारका भ्रम मिट जाता है, वही कृपालु श्रीरघुनाथजी हैं।
जिनका आदि और अन्त किसीने नहीं [जान] पाया। वेदोंने अपनी बुद्धिसे अनुमान करके इस
प्रकार (नीचे लिखे अनुसार) गाया है–॥  

 

 

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥

अर्थ-  वह (ब्रह्म) बिना ही पैरके चलता है, बिना ही कानके सुनता है, बिना ही हाथके नाना प्रकारके
काम करता है, बिना मुँह (जिह्ा) के ही सारे (छहों) रसोंका आनन्द लेता है और बिना ही
वाणीके बहुत योग्य वक्ता है॥ 

 

 

तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहह प्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥

अर्थ-  वह बिना ही शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखोंके देखता है और बिना ही
नाकके सब गन्धोंको ग्रहण करता है (सूँघता है) | उस ब्रह्मकी करनी सभी प्रकारसे ऐसी अलौकिक
है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती॥  

 

 

दो०–जैहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान।
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥  

अर्थ-  जिसका वेद और पण्डित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान धरते हैं, वही
दशरथनन्दन, भक्तोंके हितकारी, अयोध्याके स्वामी भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजी हैं॥ 

 

 

कारसीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करखँ बिसोकी॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबबर सब उर अंतरजामी॥

अर्थ-  [हे पार्वती !| जिनके नामके बलसे काशीमें मरते हुए प्राणीको देखकर मैं उसे [राममन्त्र देकर]
शोकरहित कर देता हूँ (मुक्त कर देता हूँ), वही मेरे प्रभु रघुश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी जड़-चेतनके स्वामी
और सबके हृदयके भीतरकी जाननेवाले हैं॥ 

 

 

बिबसहूँ जासु नाम नर कहहीं । जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इब तरहीं॥

अर्थ-  विवश होकर (बिना इच्छाके) भी जिनका नाम लेनेसे मनुष्योंके अनेक जन्मोंमें किये हुए पाप
जल जाते हैं। फिर जो मनुष्य आदरपूर्वक उनका स्मरण करते हैं, वे तो संसाररूपी [दुस्तर]
समुद्रको गायके खुरसे बने हुए गड्ढेके समान (अर्थात्‌ बिना किसी परिश्रमके) पार कर जाते हैं॥  

 

 

राम सो परमातमा भवानी | तहँ भ्रम अति अबिहित तब बानी ॥
अस संसय आनत उर माहीं । ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥

अर्थ-  हे पार्वती ! वही परमात्मा श्रीरामचन्द्रजी हैं। उनमें भ्रम [देखनेमें आता] है, तुम्हारा ऐसा कहना
अत्यन्त ही अनुचित है। इस प्रकारका सन्देह मनमें लाते ही मनुष्यके ज्ञान, वैराग्य आदि सारे सदगुण
नष्ट हो जाते हैं॥ 

 

 

सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना । मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारम असंभावना बीती॥

अर्थ-  शिवजीके भ्रमनाशक वचनोंको सुनकर पार्वतीजीके सब कुतर्कोंकी रचना मिट गयी ॥
श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें उनका प्रेम और विश्वास हो गया और कठिन असम्भावना (जिसका होना
सम्भव नहीं, ऐसी मिथ्या कल्पना) जाती रही॥  

 

 

दो०–पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
बोलीं गिरिजा बचन बर मनहूँ प्रेम रस सानि॥ 

अर्थ-  बार-बार स्वामी (शिवजी) के चरणकमलोंको पकड़कर और अपने कमलके समान हाथोंको
जोड़कर पार्वतीजी मानो प्रेमरसमें सानकर सुन्दर वचन बोलीं॥  

 

 

 

ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी । मिटा मोह सरदातप भारी॥
तुम्ह कृपाल सबु संसठ हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ॥

अर्थ-  आपकी चन्द्रमाकी किरणोंके समान शीतल वाणी सुनकर मेरा अज्ञानरूपी शरद्‌ ऋतु (क्वार)
की धूपका भारी ताप मिट गया। हे कृपालु ! आपने मेरा सब सन्देह हर लिया, अब श्रीरामचन्द्रजीका
यथार्थ स्वरूप मेरी समझमें आ गया॥ 

 

 

नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा । सुखी भयडँ प्रभु चरन प्रसादा॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी । जदपि सहज जड़ नारि अयानी॥

अर्थ-  हे नाथ! आपकी कृपासे अब मेरा विषाद जाता रहा और आपके चरणोंके अनुग्रहसे मैं सुखी
हो गयी। यद्यपि मैं स्त्री होनेके कारण स्वभावसे ही मूर्ख और ज्ञानहीन हूँ, तो भी अब आप मुझे
अपनी दासी जानकर–॥  

 

 

 

प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
राम ब्रह्न चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥

अर्थ-  हे प्रभो! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो जो बात मैंने पहले आपसे पूछी थी, वही कहिये।
[यह सत्य है कि ] श्रीरामचन्द्रजी ब्रह्म हैं, चिन्मय (ज्ञानस्वरूप) हैं, अविनाशी हैं, सबसे रहित
और सबके हृदयरूपी नगरीमें निवास करनेवाले हैं॥  

 

 

नाथ धेरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥

अर्थ-  फिर हे नाथ! उन्होंने मनुष्यका शरीर किस कारणसे धारण किया? हे धर्मकी ध्वजा धारण
करनेवाले प्रभो! यह मुझे समझाकर कहिये। पार्वतीके अत्यन्त नम्न वचन सुनकर और
श्रीरामचन्द्रजीकी कथामें उनका विशुद्ध प्रेम देखकर– ॥  

 

 

दो०–हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान।
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥  

अर्थ-  तब कामदेवके शत्रु, स्वाभाविक ही सुजान, कृपानिधान शिवजी मनमें बहुत ही हर्षित हुए. और
बहुत प्रकारसे पार्वतीकी बड़ाई करके फिर बोले–॥  

 

 

सो०–सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़॥  

अर्थ-  हे पार्वती ! निर्मल रामचरितमानसकी वह मड्गनलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुण्डिने विस्तारसे
कहा और पक्षियोंके राजा गरुड़जीने सुना था॥  

 

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