रामायण बालकाण्ड देवी सती तपस्या शिवजी से विवाह

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रामायण बालकाण्ड देवी सती तपस्या शिवजी से विवाह
रामायण बालकाण्ड देवी सती तपस्या शिवजी से विवाह

 

 

रामायण बालकाण्ड देवी सती तपस्या शिवजी से विवाह

जब तें उमा सैल गृह जाईं । सकल सिद्धि संपति तहँ छाईं ॥

जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे । उचित बास हिम भूधर दीन्हे

अर्थ- जबसे उमाजी हिमाचलके घर जन्मीं तबसे वहाँ सारी सिद्धियाँ और सम्पत्तियाँ छा गयीं । मुनियोंने जहाँ-तहाँ सुन्दर आश्रम बना लिये और हिमाचलने उनको उचित स्थान दिये ॥  

 

 

दो० – सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति ।

प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति ॥  

अर्थ- उस सुन्दर पर्वतपर बहुत प्रकारके सब नये-नये वृक्ष सदा पुष्प – फलयुक्त हो गये और वहाँ बहुत तरहकी मणियोंकी खानें प्रकट हो गयीं ॥  

 

 

सरिता सब पुनीत जलु बहहीं । खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं ॥

सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा । गिरि पर सकल करहिं अनुरागा ॥

अर्थ- सारी नदियोंमें पवित्र जल बहता है और पक्षी, पशु, भ्रमर सभी सुखी रहते हैं । सब जीवोंने अपना स्वाभाविक वैर छोड़ दिया और पर्वतपर सभी परस्पर प्रेम करते हैं ॥

 

 

सोह सैल गिरिजा गृह आएँ । जिमि जनु रामभगति के पाएँ ।

 नित नूतन मंगल गृह तासू । ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू ॥

अर्थ- पार्वतीजीके घर आ जानेसे पर्वत ऐसा शोभायमान हो रहा है जैसा रामभक्तिको पाकर भक्त शोभायमान होता है। उस (पर्वतराज) के घर नित्य नये-नये मङ्गलोत्सव होते हैं, जिसका ब्रह्मादि यश गाते हैं ॥  

 

 

नारद समाचार सब पाए । कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए ॥

सैलराज बड़ आदर कीन्हा । पद पखारि बर आसनु दीन्हा ॥

अर्थ- जब नारदजीने ये सब समाचार सुने तो वे कौतुकहीसे हिमाचलके घर पधारे । पर्वतराजने उनका बड़ा आदर किया और चरण धोकर उनको उत्तम आसन दिया ॥  

 

 

 

नारि सहित मुनि पद सिरु नावा । चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा ॥

निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना । सुता बोलि मेली मुनि चरना ॥

अर्थ-  फिर अपनी स्त्रीसहित मुनिके चरणोंमें सिर नवाया और उनके चरणोदकको सारे घरमें छिड़काया । हिमाचलने अपने सौभाग्यका बहुत बखान किया और पुत्रीको बुलाकर मुनिके चरणोंपर डाल दिया ॥  

 

 

दो० – त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि ।

कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि ॥  

अर्थ- [और कहा-] हे मुनिवर ! आप त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ हैं, आपकी सर्वत्र पहुँच है । अत: आप हृदयमें विचारकर कन्याके दोष – गुण कहिये ॥  

 

 

कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी । सुता तुम्हारि सकल गुन खानी ॥

सुंदर सहज सुसील सयानी । नाम उमा अंबिका भवानी ॥

अर्थ- नारद मुनिने हँसकर रहस्ययुक्त कोमल वाणीसे कहा- तुम्हारी कन्या सब गुणोंकी खान है यह स्वभावसे ही सुन्दर, सुशील और समझदार है । उमा, अम्बिका और भवानी इसके नाम हैं ॥

 

 

सब लच्छन संपन्न कुमारी । होइहि संतत पियहि पिआरी ॥

सदा अचल एहि कर अहिवाता । एहि तें जसु पैहहिं पितु माता ॥

अर्थ- कन्या सब सुलक्षणोंसे सम्पन्न है, यह अपने पतिको सदा प्यारी होगी । इसका सुहाग सदा अचल रहेगा और इससे इसके माता-पिता यश पावेंगे ॥  

 

 

होइहि पूज्य सकल जग माहीं । एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं ॥

एहि कर नामु सुमिरि संसारा । त्रिय चढ़िहहिं पतिब्रत असिधारा ॥

अर्थ- यह सारे जगत्में पूज्य होगी और इसकी सेवा करनेसे कुछ भी दुर्लभ न होगा । संसारमें स्त्रियाँ इसका नाम स्मरण करके पतिव्रतरूपी तलवारकी धारपर चढ़ जायँगी ॥  

 

 

सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी | सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी ॥

अगुन अमान मातु पितु हीना । उदासीन सब संसय छीना ॥

अर्थ- हे पर्वतराज! तुम्हारी कन्या सुलच्छनी है। अब इसमें जो दो-चार अवगुण हैं, उन्हें भी सुन लो। गुणहीन, मानहीन, माता – पिता – विहीन, उदासीन, संशयहीन (लापरवाह),॥

 

दो० – जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष |

अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख ॥  

अर्थ- योगी, जटाधारी, निष्कामहृदय, नंगा और अमङ्गल वेषवाला, ऐसा पति इसको मिलेगा । इसके हाथमें ऐसी ही रेखा पड़ी है ॥  

 

 

सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी । दुख दंपतिहि उमा हरषानी ॥

नारदहूँ यह भेदु न जाना । दसा एक समुझब बिलगाना ॥

अर्थ- नारद मुनिकी वाणी सुनकर और उसको हृदयमें सत्य जानकर पति-पत्नी (हिमवान् और मैना) को दुःख हुआ और पार्वतीजी प्रसन्न हुईं । नारदजीने भी इस रहस्यको नहीं जाना, क्योंकि सबकी बाहरी दशा एक – सी होनेपर भी भीतरी समझ भिन्न-भिन्न थी॥

 

 

सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना । पुलक सरीर भरे जल नैना ॥

होइ न मृषा देवरिषि भाषा । उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा ॥

अर्थ- सारी सखियाँ, पार्वती, पर्वतराज हिमवान् और मैना सभीके शरीर पुलकित थे और सभीके नेत्रोंमें जल भरा था। देवर्षिके वचन असत्य नहीं हो सकते, [ यह विचारकर ] पार्वतीने उन वचनोंको हृदयमें धारण कर लिया ॥  

 

 

उपजेउ सिव पद कमल सनेहू । मिलन कठिन मन भा संदेहू ॥

जानि कुअवसरु प्रीति दुराई । सखी उछँग बैठी पुनि जाई ॥

अर्थ- उन्हें शिवजीके चरणकमलोंमें स्नेह उत्पन्न हो आया, परन्तु मनमें यह सन्देह हुआ कि उनका मिलना कठिन है। अवसर ठीक न जानकर उमाने अपने प्रेमको छिपा लिया और फिर वे सखीकी गोदमें जाकर बैठ गयीं ॥  

 

झूठि न होइ देवरिषि बानी । सोचहिं दंपति सखीं सयानी ॥

उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ । कहहु नाथ का करिअ उपाऊ ॥

अर्थ- देवर्षिकी वाणी झूठी न होगी, यह विचारकर हिमवान्, मैना और सारी चतुर सखियाँ चिन्ता करने लगीं। फिर हृदयमें धीरज धरकर पर्वतराजने कहा- हे नाथ ! कहिये, अब क्या उपाय किया जाय ? ॥

 

 

दो० – कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार ।

देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार ॥ ६८ ॥

अर्थ- मुनीश्वरने कहा—हे हिमवान् ! सुनो, विधाताने ललाटपर जो कुछ लिख दिया है, उसको देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि कोई भी नहीं मिटा सकते ॥  

 

 

तदपि एक मैं कहउँ उपाई । होइ करै जौं दैउ सहाई ॥

जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं । मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं ॥

अर्थ- तो भी एक उपाय मैं बताता हूँ । यदि दैव सहायता करें तो वह सिद्ध हो सकता है । उमाको वर तो नि:सन्देह वैसा ही मिलेगा जैसा मैंने तुम्हारे सामने वर्णन किया है॥

 

 

जे जे बर के दोष बखाने । ते सब सिव पहिं मैं अनुमाने ॥

जौं बिबाहु संकर सन होई । दोषउ गुन सम कह सबु कोई ॥

अर्थ-  परन्तु मैंने वरके जो-जो दोष बतलाये हैं, मेरे अनुमानसे वे सभी शिवजीमें हैं । यदि शिवजीके साथ विवाह हो जाय तो दोषोंको भी सब लोग गुणोंके समान ही कहेंगे ॥  

 

 

 

जौं अहि सेज सयन हरि करहीं । बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं ॥

भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं । तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं ॥

अर्थ- जैसे विष्णुभगवान् शेषनागकी शय्यापर सोते हैं, तो भी पण्डित लोग उनको कोई दोष नहीं लगाते। सूर्य और अग्निदेव अच्छे-बुरे सभी रसोंका भक्षण करते हैं, परन्तु उनको कोई बुरा नहीं कहता ॥

 

 

सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई । सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई ॥

समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं । रबि पावक सुरसरि की नाईं ॥

अर्थ- गङ्गाजीमें शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता । सूर्य, अग्नि और गङ्गाजीकी भाँति समर्थको कुछ दोष नहीं लगता॥

 

 

 

दो० – जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान ।

परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान ॥

अर्थ- यदि मूर्ख मनुष्य ज्ञानके अभिमानसे इस प्रकार होड़ करते हैं तो वे कल्पभरके लिये नरकमें पड़ते हैं। भला, कहीं जीव भी ईश्वरके समान (सर्वथा स्वतन्त्र) हो सकता है?॥

 

 

सुरसरि जल कृत बारुनि जाना । कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना ॥

सुरसरि मिलें सो पावन जैसें । ईस अनीसहि अंतरु तैसें ॥ ।

अर्थ- गङ्गाजलसे भी बनायी हुई मदिराको जानकर संत लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गङ्गाजीमें मिल जानेपर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीवमें भी वैसा ही भेद है ॥

 

 

 संभु सहज समरथ भगवाना । एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना ॥

दुराराध्य पै अहहिं महेसू । आसुतोष पुनि किएँ कलेसू ॥

अर्थ- शिवजी सहज ही समर्थ हैं, क्योंकि वे भगवान् हैं। इसलिये इस विवाहमें सब प्रकार कल्याण है । परन्तु महादेवजीकी आराधना बड़ी कठिन है, फिर भी क्लेश ( तप) करनेसे वे बहुत जल्द सन्तुष्ट हो जाते हैं ॥  

 

 

जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी । भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी ॥

जद्यपि बर अनेक जग माहीं । एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं ॥

अर्थ- यदि तुम्हारी कन्या तप करे, तो त्रिपुरारि महादेवजी होनहारको मिटा सकते हैं । यद्यपि संसारमें वर अनेक हैं, पर इसके लिये शिवजीको छोड़कर दूसरा वर नहीं है ॥

 

 

बर दायक प्रनतारति भंजन । कृपासिंधु सेवक मन रंजन ॥

इच्छित फल बिनु सिव अवराधें । लहिअ न कोटि जोग जप साधें ॥

अर्थ- शिवजी वर देनेवाले, शरणागतोंके दुःखोंका नाश करनेवाले, कृपाके समुद्र और सेवकोंके मनको प्रसन्न करनेवाले हैं। शिवजीकी आराधना किये बिना करोड़ों योग और जप करनेपर भी वाञ्छित फल नहीं मिलता ॥

 

 

दो० – अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस ।

होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस ॥

अर्थ- ऐसा कहकर भगवान्‌का स्मरण करके नारदजीने पार्वतीको आशीर्वाद दिया । [ और कहा कि – ] हे पर्वतराज ! तुम सन्देहका त्याग कर दो, अब यह कल्याण ही होगा ॥

 

 

कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ । आगिल चरित सुनहु जस भयऊ ॥

पतिहि एकांत पाइ कह मैना । नाथ न मैं समुझे मुनि बैना ॥

अर्थ- यों कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोकको चले गये । अब आगे जो चरित्र हुआ उसे सुनो। पतिको एकान्तमें पाकर मैनाने कहा – हे नाथ! मैंने मुनिके वचनोंका अर्थ नहीं समझा ॥

 

जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा | करिअ बिबाहु सुता अनुरूपा ॥

न त कन्या बरु रहउ कुआरी । कंत उमा मम प्रानपिआरी ॥

अर्थ- जो हमारी कन्याके अनुकूल घर, वर और कुल उत्तम हो तो विवाह कीजिये । नहीं तो लड़की चाहे कुमारी ही रहे ( मैं अयोग्य वरके साथ उसका विवाह नहीं करना चाहती ) ; क्योंकि हे स्वामिन्! पार्वती मुझको प्राणोंके समान प्यारी है ॥

 

 

जौं न मिलिहि बरु गिरिजहि जोगू । गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू ॥

सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू । जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू ॥

अर्थ- यदि पार्वतीके योग्य वर न मिला तो सब लोग कहेंगे कि पर्वत स्वभावसे ही जड (मूर्ख) होते हैं। हे स्वामी! इस बातको विचारकर ही विवाह कीजियेगा, जिसमें फिर पीछे हृदयमें सन्ताप न हो ॥  

 

 

अस कहि परी चरन धरि सीसा । बोले सहित सनेह गिरीसा ॥

बरु पावक प्रगटै ससि माहीं । नारद बचनु अन्यथा नाहीं ॥

अर्थ- इस प्रकार कहकर मैना पतिके चरणोंपर मस्तक रखकर गिर पड़ीं। तब हिमवान्ने प्रेमसे कहा—चाहे चन्द्रमामें अग्नि प्रकट हो जाय, पर नारदजीके वचन झूठे नहीं हो सकते ॥

 

 

दो० – प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान ।

पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान ॥

अर्थ- हे प्रिये! सब सोच छोड़कर श्रीभगवान्‌का स्मरण करो । जिन्होंने पार्वतीको रचा है, वे ही कल्याण करेंगे ॥

 

 

अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू । तौ अस जाइ सिखावनु देहू ॥

करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू । आन उपायँ न मिटिहि कलेसू ॥

अर्थ- अब यदि तुम्हें कन्यापर प्रेम है तो जाकर उसे यह शिक्षा दो कि वह ऐसा तप करे जिससे शिवजी मिल जायँ। दूसरे उपायसे यह क्लेश नहीं मिटेगा॥

 

 

नारद बचन सगर्भ सहेतू । सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू ॥

अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका । सबहि भाँति संकरु अकलंका ॥

अर्थ- नारदजीके वचन रहस्यसे युक्त और सकारण हैं और शिवजी समस्त सुन्दर गुणोंके भण्डार हैं। यह विचारकर तुम [ मिथ्या ] सन्देहको छोड़ दो। शिवजी सभी तरहसे निष्कलङ्क हैं॥

 

 

सुनि पति बचन हरषि मन माहीं । गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं ॥

उमहि बिलोकि नयन भरे बारी । सहित सनेह गोद बैठारी ॥

अर्थ- पतिके वचन सुन मनमें प्रसन्न होकर मैना उठकर तुरंत पार्वतीके पास गयीं । पार्वतीको देखकर उनकी आँखोंमें आँसू भर आये । उसे स्नेहके साथ गोदमें बैठा लिया॥

 

 

बारहिं बार लेति उर लाई । गदगद कंठ न कछु कहि जाई ॥

जगत मातु सर्बग्य भवानी । मातु सुखद बोलीं मृदु बानी ॥

अर्थ- फिर बार-बार उसे हृदयसे लगाने लगीं । प्रेमसे मैनाका गला भर आया, कुछ कहा नहीं जाता । जगज्जननी भवानीजी तो सर्वज्ञ ठहरीं । [ माताके मनकी दशाको जानकर ] वे माताको सुख देनेवाली कोमल वाणीसे बोलीं- ॥

 

 

दो० – सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि ।

सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि ॥ ७२ ॥

अर्थ- मा ! सुन, मैं तुझे सुनाती हूँ; मैंने ऐसा स्वप्न देखा है कि मुझे एक सुन्दर गौरवर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मणने ऐसा उपदेश दिया है—॥

 

 

करहि जाइ तपु सैलकुमारी । नारद कहा सो सत्य बिचारी ॥

मातु पितहि पुनि यह मत भावा । तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा ॥

अर्थ- हे पार्वती! नारदजीने जो कहा है, उसे सत्य समझकर तू जाकर तप कर । फिर यह बात तेरे माता-पिताको भी अच्छी लगी है । तप सुख देनेवाला और दुःख – दोषका नाश करनेवाला है ॥

 

 

तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता । तपबल बिष्नु सकल जग त्राता ॥

तपबल संभु करहिं संघारा । तपबल सेषु धरइ महिभारा ॥

अर्थ- तपके बलसे ही ब्रह्मा संसारको रचते हैं और तपके बलसे ही विष्णु सारे जगत्का पालन करते हैं । तपके बलसे ही शम्भु [रुद्ररूपसे जगत्का ] संहार करते हैं और तपके बलसे ही शेषजी पृथ्वीका भार धारण करते हैं ॥

 

 

तप अधार सब सृष्टि भवानी । करहि जाइ तपु अस जियँ जानी ॥

सुनत बचन बिसमित महतारी । सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी ॥

अर्थ- हे भवानी ! सारी सृष्टि तपके ही आधारपर है। ऐसा जीमें जानकर तू जाकर तप कर । यह बात सुनकर माताको बड़ा अचरज हुआ और उसने हिमवान्‌को बुलाकर वह स्वप्न सुनाया ॥

 

मातु पितहि बहुबिधि समुझाई । चलीं उमा तप हित हरषाई ॥

प्रिय परिवार पिता अरु माता । भए बिकल मुख आव न बाता ॥

अर्थ- माता-पिताको बहुत तरहसे समझाकर बड़े हर्षके साथ पार्वतीजी तप करनेके लिये चलीं । प्यारे कुटुम्बी, पिता और माता सब व्याकुल हो गये। किसीके मुँहसे बात नहीं निकलती॥

 

 

दो० – बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ ।

पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ ॥

अर्थ- तब वेदशिरा मुनिने आकर सबको समझाकर कहा । पार्वतीजीकी महिमा सुनकर सबको समाधान हो गया॥

 

 

उर धरि उमा प्रानपति चरना । जाइ बिपिन लागीं तपु करना ॥

अति सुकुमार न तनु तप जोगू । पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू ॥

अर्थ- प्राणपति (शिवजी) के चरणोंको हृदयमें धारण करके पार्वतीजी वनमें जाकर तप करने लगीं । पार्वतीजीका अत्यन्त सुकुमार शरीर तपके योग्य नहीं था, तो भी पतिके चरणोंका स्मरण करके उन्होंने सब भोगोंको तज दिया ॥  

 

 

नित नव चरन उपज अनुरागा । बिसरी देह तपहिं मनु लागा ॥

संबत सहस मूल फल खाए । सागु खाइ सत बरष गवाँए ।

अर्थ- स्वामीके चरणोंमें नित्य नया अनुराग उत्पन्न होने लगा और तपमें ऐसा मन लगा कि शरीरकी सारी सुध बिसर गयी। एक हजार वर्षतक उन्होंने मूल और फल खाये, फिर सौ वर्ष साग खाकर बिताये॥

 

 

कछु दिन भोजन बारि बतासा । किए कठिन कछु दिन उपबासा ॥

बेल पाती महि परइ सुखाई । तीनि सहस संबत सोइ खाई ॥

अर्थ- कुछ दिन जल और वायुका भोजन किया और फिर कुछ दिन कठोर उपवास किये। जो बेलपत्र सूखकर पृथ्वीपर गिरते थे, तीन हजार वर्षतक उन्हींको खाया ॥

 

 

पुनि परिहरे सुखानेउ परना । उमहि नामु तब भयउ अपरना ॥

देखि उमहि तप खीन सरीरा । ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा ॥

अर्थ- फिर सूखे पर्ण (पत्ते) भी छोड़ दिये, तभी पार्वतीका नाम अपर्णा हुआ । तपसे उमाका शरीर क्षीण देखकर आकाशसे गम्भीर ब्रह्मवाणी हुई- ॥  

 

 

दो० – भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि ।

परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि ॥  

अर्थ- हे पर्वतराजकी कुमारी ! सुन, तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असह्य क्लेशोंको ( कठिन तपको) त्याग दे। अब तुझे शिवजी मिलेंगे ॥  

 

 

अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी । भए अनेक धीर मुनि ग्यानी ॥

अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी । सत्य सदा संतत सुचि जानी ॥

अर्थ- हे भवानी ! धीर, मुनि और ज्ञानी बहुत हुए हैं, पर ऐसा ( कठोर ) तप किसीने नहीं किया । अब तू इस श्रेष्ठ ब्रह्माकी वाणीको सदा सत्य और निरन्तर पवित्र जानकर अपने हृदयमें धारण कर ॥  

 

 

आवै पिता बोलावन जबहीं । हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं ॥

मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा | जानेहु तब प्रमान बागीसा ॥

अर्थ- जब तेरे पिता बुलानेको आवें, तब हठ छोड़कर घर चली जाना और जब तुम्हें सप्तर्षि मिलें तब इस वाणीको ठीक समझना ॥  

 

 

सुनत गिरा बिधि गगन बखानी । पुलक गात गिरिजा हरषानी ॥

उमा चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा ॥

अर्थ- [इस प्रकार ] आकाशसे कही हुई ब्रह्माकी वाणीको सुनते ही पार्वतीजी प्रसन्न हो गयीं और [हर्षके मारे] उनका शरीर पुलकित हो गया । [ याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजीसे बोले कि ] मैंने पार्वतीका सुन्दर चरित्र सुनाया, अब शिवजीका सुहावना चरित्र सुनो ॥

 

 

जब तें सतीं जाइ तनु त्यागा । तब तें सिव मन भयउ बिरागा ॥

जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा ॥

अर्थ- जबसे सतीने जाकर शरीरत्याग किया, तबसे शिवजीके मनमें वैराग्य हो गया। वे सदा श्रीरघुनाथजीका नाम जपने लगे और जहाँ-तहाँ श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंकी कथाएँ सुनने लगे ॥

 

 

दो० – चिदानंद सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम ।

बिचरहिं हि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम ॥  

अर्थ- चिदानन्द, सुखके धाम, मोह, मद और कामसे रहित शिवजी सम्पूर्ण लोकोंको आनन्द देनेवाले भगवान् श्रीहरि (श्रीरामचन्द्रजी) को हृदयमें धारण कर ( भगवान्‌के ध्यानमें मस्त हुए) पृथ्वीपर विचरने लगे ॥

 

 

कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना । कतहुँ राम गुन करहिं बखाना ॥

जदपि अकाम तदपि भगवाना । भगत बिरह दुख दुखित सुजाना ॥

अर्थ- वे कहीं मुनियोंको ज्ञानका उपदेश करते और कहीं श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंका वर्णन करते थे । यद्यपि सुजान शिवजी निष्काम हैं, तो भी वे भगवान् अपने भक्त (सती) के वियोग दुःखसे दुःखी हैं ॥  

 

 

एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती । नित नै होइ राम पद प्रीती ॥

नेमु प्रेमु संकर कर देखा । अबिचल हृदयँ भगति के रेखा ॥

अर्थ- इस प्रकार बहुत समय बीत गया। श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें नित नयी प्रीति हो रही है। शिवजीके [कठोर ] नियम, [अनन्य] प्रेम और उनके हृदयमें भक्तिकी अटल टेकको [जब श्रीरामचन्द्रजीने] देखा, ॥

 

 

प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला । रूप सील निधि तेज बिसाला ॥

बहु प्रकार संकरहि सराहा । तुम्ह बिनु अस बतु को निरबाहा ॥

अर्थ- तब कृतज्ञ (उपकार माननेवाले), कृपालु, रूप और शीलके भण्डार, महान् तेजपुञ्ज भगवान् श्रीरामचन्द्रजी प्रकट हुए। उन्होंने बहुत तरहसे शिवजीकी सराहना की और कहा कि आपके बिना ऐसा (कठिन) व्रत कौन निबाह सकता है ॥  

 

 

बहुबिधि राम सिवहि समुझावा । पारबती कर जन्मु सुनावा ॥

अति पुनीत गिरिजा कै करनी । बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी ॥

अर्थ- श्रीरामचन्द्रजीने बहुत प्रकारसे शिवजीको समझाया और पार्वतीजीका जन्म सुनाया। कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजीने विस्तारपूर्वक पार्वतीजीकी अत्यन्त पवित्र करनीका वर्णन किया॥  

 

 

दो० – अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु ।

जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु ॥  

अर्थ- [फिर उन्होंने शिवजीसे कहा- ] हे शिवजी ! यदि मुझपर आपका स्नेह है तो अब आप मेरी विनती सुनिये। मुझे यह माँगे दीजिये कि आप जाकर पार्वतीके साथ विवाह कर लें॥  

 

 

कह सिव जदपि उचित अस नाहीं । नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं ॥

सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा । परम धरमु यह नाथ हमारा ॥

अर्थ- शिवजीने कहा – यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामीकी बात भी मेटी नहीं जा सकती । हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञाको सिरपर रखकर उसका पालन करूँ ॥

 

 

 

मातु पिता गुर प्रभु कै बानी । बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी ॥

तुम्ह सब भाँति परम हितकारी । अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी ॥

अर्थ- माता, पिता, गुरु और स्वामीकी बातको बिना ही विचारे शुभ समझकर करना ( मानना) चाहिये । फिर आप तो सब प्रकारसे मेरे परम हितकारी हैं । हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिरपर है ॥

 

 

 

प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना | भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना ॥

कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ । अब उर राखेहु जो हम कहेऊ ॥

अर्थ- शिवजीकी भक्ति, ज्ञान और धर्मसे युक्त वचनरचना सुनकर प्रभु रामचन्द्रजी सन्तुष्ट हो गये । – हे हर ! आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गयी । अब हमने जो कहा है उसे हृदयमें रखना ॥  

 

 

अंतरधान भए अस भाषी । संकर सोइ मूरति उर राखी ॥

तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए । बोले प्रभु अति बचन सुहाए ॥

अर्थ-  प्रभुने कहा- इस प्रकार कहकर श्रीरामचन्द्रजी अन्तर्धान हो गये । शिवजीने उनकी वह मूर्ति अपने हृदयमें रख ली। उसी समय सप्तर्षि शिवजीके पास आये । प्रभु महादेवजीने उनसे अत्यन्त सुहावने वचन कहे—॥

 

 

दो० – पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु ।

गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु ॥  

अर्थ- आपलोग पार्वतीके पास जाकर उनके प्रेमकी परीक्षा लीजिये और हिमाचलको कहकर [उन्हें पार्वतीको लिवा लानेके लिये भेजिये तथा] पार्वतीको घर भिजवाइये और उनके सन्देहको दूर कीजिये ॥

 

 

रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी । मूरतिमंत तपस्या जैसी ॥

 

बोले मुनि सुनु सैलकुमारी । करहु कवन कारन तपु भारी ॥

अर्थ- ऋषियोंने [वहाँ जाकर ] पार्वतीको कैसी देखा, मानो मूर्तिमान् तपस्या ही हो। मुनि बोले— हे शैलकुमारी ! सुनो, तुम किसलिये इतना कठोर तप कर रही हो ? ॥  

 

 

केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू । हम सन सत्य मरमु किन कहहू ॥

कहत बचन मनु अति सकुचाई । हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई ॥

अर्थ- तुम किसकी आराधना करती हो और क्या चाहती हो? हमसे अपना सच्चा भेद क्यों नहीं कहतीं ? [पार्वतीने कहा—] बात कहते मन बहुत सकुचाता है । आपलोग मेरी मूर्खता सुनकर हँसेंगे ॥

 

 

मनु हठ परा न सुनइ सिखावा । चहत बारि पर भीति उठावा ॥

नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना ||

अर्थ- मनने हठ पकड़ लिया है, वह उपदेश नहीं सुनता और जलपर दीवाल उठाना चाहता है । नारदजीने जो कह दिया उसे सत्य जानकर मैं बिना ही पाँखके उड़ना चाहती हूँ ॥

 

 

देखहु मुनि अबिबेकु हमारा । चाहिअ सदा सिवहि भरतारा ॥

अर्थ- हे मुनियो! आप मेरा अज्ञान तो देखिये कि मैं सदा शिवजीको ही पति बनाना चाहती हूँ ॥

 

 

 दो० – सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह ।

नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह ॥  

अर्थ- पार्वतीजीकी बात सुनते ही ऋषिलोग हँस पड़े और बोले – तुम्हारा शरीर पर्वतसे ही तो उत्पन्न हुआ है ! भला, कहो तो नारदका उपदेश सुनकर आजतक किसका घर बसा है?॥

 

 

दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई । तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥

चित्रकेतु कर घरु उन घाला । कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥

अर्थ- उन्होंने जाकर दक्षके पुत्रोंको उपदेश दिया था, जिससे उन्होंने फिर लौटकर घरका मुँह भी नहीं देखा। चित्रकेतुके घरको नारदने ही चौपट किया । फिर यही हाल हिरण्यकशिपुका हुआ॥

 

 

नारद सिख जे सुनहिं नर नारी । अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी ॥

मन कपटी तन सज्जन चीन्हा । आपु सरिस सबही चह कीन्हा ॥

अर्थ- जो स्त्री-पुरुष नारदकी सीख सुनते हैं, वे घर- बार छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं । उनका मन तो कपटी है, शरीरपर सज्जनोंके चिह्न हैं । वे सभीको अपने समान बनाना चाहते हैं.

 

 

तेहि कें बचन मानि बिस्वासा । तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा ॥

निर्गुन निलज कुबेष कपाली । अकुल अगेह दिगंबर ब्याली ॥

अर्थ- उनके वचनोंपर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभावसे ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर – कपालोंकी माला पहननेवाला, कुलहीन, बिना घर – बारका, नंगा और शरीरपर साँपोंको लपेटे रखनेवाला है ॥

 

 

कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ । भल भूलिहु ठग के बौराएँ ॥

पंच कहें सिवँ सती बिबाही । पुनि अवडेर मराएन्हि ताही ॥

अर्थ- ऐसे वरके मिलनेसे कहो, तुम्हें क्या सुख होगा ? तुम उस ठग (नारद) के बहकावे में आकर खूब भूलीं। पहले पंचोंके कहने से शिवने सतीसे विवाह किया था, परन्तु फिर उसे त्यागकर मरवा डाला ॥

 

 

दो० – अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं ।

सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं ॥  

अर्थ- अब शिवको कोई चिन्ता नहीं रही, भीख माँगकर खा लेते हैं और सुखसे सोते हैं । ऐसे स्वभावसे ही अकेले रहनेवालोंके घर भी भला क्या कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं ? ॥  

 

 

 

अजहूँ मानहु कहा हमारा । हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा ॥

अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला । गावहिं बेद जासु जस लीला ॥

अर्थ- अब भी हमारा कहा मानो, हमने तुम्हारे लिये अच्छा वर विचारा है । वह बहुत ही सुन्दर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं ॥

 

दूषन रहित सकल गुन रासी । श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी ॥

अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी । सुनत बिहसि कह बचन भवानी ॥

अर्थ- वह दोषोंसे रहित, सारे सगुणोंकी राशि, लक्ष्मीका स्वामी और वैकुण्ठपुरीका रहनेवाला है हम ऐसे वरको लाकर तुमसे मिला देंगे। यह सुनते ही पार्वतीजी हँसकर बोलीं- ॥

 

 

सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा । हठ न छूट छूटै बरु देहा ॥

कनकउ पुनि पषान तें होई । जारेहुँ सहजु न परिहर सोई ॥

अर्थ- आपने यह सत्य ही कहा कि मेरा यह शरीर पर्वतसे उत्पन्न हुआ है। इसलिये हठ नहीं छूटेगा, शरीर भले ही छूट जाय । सोना भी पत्थरसे ही उत्पन्न होता है, सो वह जलाये जानेपर भी अपने स्वभाव (सुवर्णत्व) को नहीं छोड़ता ॥ 

 

 

नारद बचन न मैं परिहरऊँ । बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ ॥

गुर कें बचन प्रतीति न जेही । सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही ॥

अर्थ- अतः मैं नारदजीके वचनोंको नहीं छोडूंगी; चाहे घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं डरती । जिसको गुरुके वचनोंमें विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्नमें भी सुगम नहीं होती ॥

 

 

 

दो० – महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम ।

जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम ॥

अर्थ- माना कि महादेवजी अवगुणोंके भवन हैं और विष्णु समस्त सद्गुणोंके धाम हैं; पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसीसे काम है ॥  

 

 

जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा । सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा ॥

अब मैं जन्मु संभु हित हारा । को गुन दूषन करै बिचारा ॥

अर्थ- हे मुनीश्वरो ! यदि आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर- माथे रखकर सुनती । परंतु अब तो मैं अपना जन्म शिवजीके लिये हार चुकी । फिर गुण-दोषोंका विचार कौन करे ? ॥

 

 

जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी । रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी ॥

तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं । बर कन्या अनेक जग माहीं ॥

अर्थ- यदि आपके हृदयमें बहुत ही हठ है और विवाहकी बातचीत ( बरेखी) किये बिना आपसे रहा ही नहीं जाता, तो संसारमें वर-कन्या बहुत हैं । खिलवाड़ करनेवालोंको आलस्य तो होता नहीं [ और कहीं जाकर कीजिये ] ॥  

 

 

 

जन्म कोटि लगि रगर हमारी । बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ॥

तजउँ न नारद कर उपदेसू । आपु कहहिं सत बार महेसू ॥

अर्थ- मेरा तो करोड़ जन्मोंतक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजीको वरूँगी, नहीं तो कुमारी ही रहूँगी। स्वयं शिवजी सौ बार कहें, तो भी नारदजीके उपदेशको न छोडूंगी॥

 

 

 

मैं पा परउँ कहइ जगदंबा । तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा ॥

देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी । जय जय जगदंबिके भवानी ॥

अर्थ- जगज्जननी पार्वतीजीने फिर कहा कि मैं आपके पैरों पड़ती हूँ । आप अपने घर जाइये, बहुत देर हो गयी । [शिवजीमें पार्वतीजीका ऐसा] प्रेम देखकर ज्ञानी मुनि बोले – हे जगज्जननी ! हे भवानी! आपकी जय हो ! जय हो !!

 

 

 

दो० – तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु ।

नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु ॥

अर्थ- आप माया हैं और शिवजी भगवान् हैं। आप दोनों समस्त जगत्‌के माता – पिता हैं । [ यह कहकर] मुनि पार्वतीजीके चरणोंमें सिर नवाकर चल दिये। उनके शरीर बार-बार पुलकित हो रहे थे॥  

 

 

जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए । करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए ॥

बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई । कथा उमा कै सकल सुनाई ॥

अर्थ- मुनियोंने जाकर हिमवान्‌को पार्वतीजीके पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आये; फिर सप्तर्षियोंने शिवजीके पास जाकर उनको पार्वतीजीकी सारी कथा सुनायी ॥  

 

 

भए मगन सिव सुनत सनेहा । हरषि सप्तरिषि गवने गेहा ॥

मनु थिर करि तब संभु सुजाना । लगे करन रघुनायक ध्याना ॥

अर्थ- पार्वतीजीका प्रेम सुनते ही शिवजी आनन्दमग्न हो गये। सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने घर (ब्रह्मलोक)को चले गये। तब सुजान शिवजी मनको स्थिर करके श्रीरघुनाथजीका ध्यान करने लगे॥

 

 

 

तारकु असुर भयउ तेहि काला । भुज प्रताप बल तेज बिसाला ॥  

तेहिं सब लोक लोकपति जीते । भए देव सुख संपति रीते ॥

अर्थ- उसी समय तारक नामका असुर हुआ, जिसकी भुजाओंका बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था । उसने सब लोक और लोकपालोंको जीत लिया, सब देवता सुख और सम्पत्तिसे रहित हो गये ॥  

 

 

अजर अमर सो जीति न जाई । हारे सुर करि बिबिध लराई ॥

तब बिरंचि सन जाइ पुकारे । देखे बिधि सब देव दुखारे ॥

अर्थ- वह अजर-अमर था, इसलिये किसीसे जीता नहीं जाता था । देवता उसके साथ बहुत तरहकी लड़ाइयाँ लड़कर हार गये। तब उन्होंने ब्रह्माजीके पास जाकर पुकार मचायी । ब्रह्माजीने सब देवताओंको दुःखी देखा ॥

 

 

 

दो० – सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ ।

संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ ॥  

अर्थ- ब्रह्माजीने सबको समझाकर कहा – इस दैत्यकी मृत्यु तब होगी जब शिवजीके वीर्यसे पुत्र उत्पन्न हो, इसको युद्धमें वही जीतेगा ॥  

 

 

 

मोर कहा सुनि करहु उपाई । होइहि ईस्वर करिहि सहाई ॥

सतीं जो तजी दच्छ मख देहा । जनमी जाइ हिमाचल गेहा ॥

अर्थ- मेरी बात सुनकर उपाय करो । ईश्वर सहायता करेंगे और काम हो जायगा । सतीजीने जो दक्षके यज्ञमें देहका त्याग किया था, उन्होंने अब हिमाचलके घर जाकर जन्म लिया है ॥

 

 

तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी । सिव समाधि बैठे सबु त्यागी ॥

जदपि अह असमंजस भारी । तदपि बात एक सुनहु हमारी ॥

अर्थ- उन्होंने शिवजीको पति बनानेके लिये तप किया है, इधर शिवजी सब छोड़-छाड़कर समाधि लगा बैठे हैं। यद्यपि है तो बड़े असमंजसकी बात; तथापि मेरी एक बात सुनो ॥

 

 

पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं । करै छोभु संकर मन माहीं ॥

तब हम जाइ सिवहि सिर नाई । करवाउब बिबाहु बरिआई ॥

अर्थ- तुम जाकर कामदेवको शिवजीके पास भेजो, वह शिवजीके मनमें क्षोभ उत्पन्न करे ( उनकी समाधि भङ्ग करे) । तब हम जाकर शिवजीके चरणोंमें सिर रख देंगे और जबरदस्ती (उन्हें राजी करके) विवाह करा देंगे ॥  

 

 

एहि बिधि भलेहिं देवहित होई । मत अति नीक कहइ सबु कोई ॥

अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू । प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू ॥

अर्थ- इस प्रकारसे भले ही देवताओंका हित हो [और तो कोई उपाय नहीं है ] सबने कहा- यह सम्मति बहुत अच्छी है । फिर देवताओंने बड़े प्रेमसे स्तुति की, तब विषम (पाँच) बाण धारण करनेवाला और मछलीके चिह्नयुक्त ध्वजावाला कामदेव प्रकट हुआ ॥  

 

 

दो० – सुरन्ह कही निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार ।

संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार ॥  

अर्थ- देवताओंने कामदेवसे अपनी सारी विपत्ति कही । सुनकर कामदेवने मनमें विचार किया और हँसकर देवताओंसे यों कहा कि शिवजीके साथ विरोध करनेमें मेरी कुशल नहीं है॥

 

 

तदपि करब मैं काजु तुम्हारा । श्रुति कह परम धरम उपकारा ॥

पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही ॥

अर्थ- तथापि मैं तुम्हारा काम तो करूँगा, क्योंकि वेद दूसरेके उपकारको परम धर्म कहते हैं । जो दूसरेके हितके लिये अपना शरीर त्याग देता है, संत सदा उसकी बड़ाई करते हैं ॥

 

 

 

अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई । सुमन धनुष कर सहित सहाई ॥

चलत मार अस हृदयँ बिचारा । सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा ॥

अर्थ- यों कह और सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्पके धनुषको हाथमें लेकर [ वसन्तादि ] सहायकोंके साथ चला। चलते समय कामदेवने हृदयमें ऐसा विचार किया कि शिवजीके साथ विरोध करनेसे मेरा मरण निश्चित है ॥  

 

 

तब आपन प्रभाउ बिस्तारा । निज बस कीन्ह सकल संसारा ॥

कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू । छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू ॥

अर्थ- तब उसने अपना प्रभाव फैलाया और समस्त संसारको अपने वशमें कर लिया । जिस समय उस मछलीके चिह्नकी ध्वजावाले कामदेवने कोप किया, उस समय क्षणभरमें ही वेदोंकी सारी मर्यादा मिट गयी ॥

 

 

ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना । धीरज धरम ग्यान बिग्याना ॥

सदाचार जप जोग बिरागा । सभय बिबेक कटकु सबु भागा ॥

अर्थ- ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकारके संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेककी सारी सेना डरकर भाग गयी ॥  

 

 

छं० – भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे ।

सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे ॥

होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।

दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा ॥

अर्थ- विवेक अपने सहायकोंसहित भाग गया, उसके योद्धा रणभूमिसे पीठ दिखा गये । उस समय वे सब सद्ग्रन्थरूपी पर्वतकी कन्दराओंमें जा छिपे (अर्थात् ज्ञान, वैराग्य, संयम, नियम, सदाचारादि ग्रन्थोंमें ही लिखे रह गये; उनका आचरण छूट गया) । सारे जगत् में खलबली मच गयी [और सब कहने लगे – ] हे विधाता ! अब क्या होनेवाला है, हमारी रक्षा कौन करेगा ? ऐसा दो सिरवाला कौन है, जिसके लिये रतिके पति कामदेवने कोप करके हाथमें धनुष – बाण उठाया है?

 

 

दो० – जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम ।

ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम ॥

अर्थ- जगत्में स्त्री-पुरुष संज्ञावाले जितने चर-अचर प्राणी थे, वे सब अपनी- अपनी मर्यादा छोड़कर कामके वश हो गये॥  

 

 

सब के हृदयँ मदन अभिलाषा । लता निहारि नवहिं तरु साखा ॥

नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं । संगम करहिं तलाव तलाईं ॥

अर्थ- सबके हृदयमें कामकी इच्छा हो गयी । लताओं (बेलों) को देखकर वृक्षोंकी डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड़-उमड़कर समुद्रकी ओर दौड़ीं और ताल-तलैयाँ भी आपसमें संगम करने (मिलने-जुलने) लगीं ॥  

 

 

जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी । को कहि सकइ सचेतन करनी ॥

पसु पच्छी नभ जल थल चारी । भए कामबस समय बिसारी ॥

अर्थ- जब जड (वृक्ष, नदी आदि) की यह दशा कही गयी, तब चेतन जीवोंकी करनी कौन कह सकता है? आकाश, जल और पृथ्वीपर विचरनेवाले सारे पशु-पक्षी [अपने संयोगका] समय भुलाकर कामके वश हो गये ॥  

 

 

मदन अंध ब्याकुल सब लोका । निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका ॥

देव दनुज नर किंनर ब्याला । प्रेत पिसाच भूत बेताला ॥

अर्थ- सब लोग कामान्ध होकर व्याकुल हो गये । चकवा – चकवी रात-दिन नहीं देखते। देव, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल— ॥

 

 

इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी । सदा काम के चेरे जानी ॥

सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी । तेपि कामबस भए बियोगी ॥

अर्थ- ये तो सदा ही कामके गुलाम हैं, यह समझकर मैंने इनकी दशाका वर्णन नहीं किया । सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान् योगी भी कामके वश होकर योगरहित या स्त्रीके विरही हो गये॥

 

 

छं०—भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै ।

देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे ॥

अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं ।

दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं ॥

अर्थ- जब योगीश्वर और तपस्वी भी कामके वश हो गये, तब पामर मनुष्योंकी कौन कहे ? जो समस्त चराचर जगत्को ब्रह्ममय देखते थे, वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे । स्त्रियाँ सारे संसारको पुरुषमय देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ीतक सारे ब्रह्माण्डके अंदर कामदेवका रचा हुआ यह कौतुक (तमाशा) रहा।

 

 

 

सो० – धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे ।

जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ ॥  

अर्थ- किसीने भी हृदयमें धैर्य नहीं धारण किया, कामदेवने सबके मन हर लिये । श्रीरघुनाथजीने जिनकी रक्षा की, केवल वे ही उस समय बचे रहे ॥  

 

 

उभय घरी अस कौतुक भयऊ । जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ ॥

सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू । भयउ जथाथिति सबु संसारू ॥

अर्थ- दो घड़ीतक ऐसा तमाशा हुआ, जबतक कामदेव शिवजीके पास पहुँच गया। शिवजीको देखकर कामदेव डर गया, तब सारा संसार फिर जैसा – का – तैसा स्थिर हो गया॥

 

 

भए तुरत सब जीव सुखारे । जिमि मद उतरि गएँ मतवारे ॥

रुद्रहि देखि मदन भय माना । दुराधरष दुर्गम भगवाना॥

अर्थ- तुरंत ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गये जैसे मतवाले (नशा पिये हुए ) लोग मद (नशा) उतर जानेपर सुखी होते हैं । दुराधर्ष (जिनको पराजित करना अत्यन्त ही कठिन है) और दुर्गम (जिनका पार पाना कठिन है) भगवान् (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्यरूप छ: ईश्वरीय गुणोंसे युक्त) रुद्र ( महाभयङ्कर) शिवजीको देखकर कामदेव भयभीत हो गया॥

 

 

फिरत लाज कछु करि नहिं जाई । मरनु ठानि मन रचेसि उपाई ॥

प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा । कुसुमित नव तरु राजि बिराजा ॥

अर्थ- लौट जानेमें लज्जा मालूम होती है और करते कुछ बनता नहीं । आखिर मनमें मरनेका निश्चय करके उसने उपाय रचा। तुरंत ही सुन्दर ऋतुराज वसन्तको प्रकट किया। फूले हुए नये-नये वृक्षोंकी कतारें सुशोभित हो गयीं ॥  

 

 

बन उपबन बापिका तड़ागा । परम सुभग सब दिसा बिभागा ॥

जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा । देखि मुहँ मन मनसिज जागा ॥

अर्थ- वन-उपवन, बावली-तालाब और सब दिशाओंके विभाग परम सुन्दर हो गये । जहाँ-तहाँ मानो प्रेम उमड़ रहा है, जिसे देखकर मरे मनोंमें भी कामदेव जाग उठा ॥

 

 

छं० – जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परे कही ।

सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही ॥

बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा ।

कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा ॥

अर्थ- मरे हुए मनमें भी कामदेव जागने लगा, वनकी सुन्दरता कही नहीं जा सकती । कामरूपी अग्निका सच्चा मित्र शीतल – मन्द – सुगन्धित पवन चलने लगा । सरोवरोंमें अनेकों कमल खिल गये, जिनपर सुन्दर भौंरोंके समूह गुंजार करने लगे । राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे और अप्सराएँ गा-गाकर नाचने लगीं।

 

 

 

दो० – सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत ।

चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत ॥

अर्थ- कामदेव अपनी सेनासमेत करोड़ों प्रकारकी सब कलाएँ ( उपाय) करके हार गया, पर शिवजीकी अचल समाधि न डिगी । तब कामदेव क्रोधित हो उठा ॥

 

 

देखि रसाल बिटप बर साखा । तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा ॥

सुमन चाप निज सर संधाने । अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने ॥

अर्थ- आमके वृक्षकी एक सुन्दर डाली देखकर मनमें क्रोधसे भरा हुआ कामदेव उसपर चढ़ गया । उसने पुष्प-धनुषपर अपने [पाँचों] बाण चढ़ाये और अत्यन्त क्रोधसे [ लक्ष्यकी ओर ] ताककर उन्हें कानतक तान लिया ॥

 

 

छाड़े बिषम बिसिख उर लागे । छूटि समाधि संभु तब जागे ॥

भयउ ईस मन छोभु बिसेषी । नयन उघारि सकल दिसि देखी ॥

अर्थ- कामदेवने तीक्ष्ण पाँच बाण छोड़े, जो शिवजीके हृदयमें लगे। तब उनकी समाधि टूट गयी और वे जाग गये। ईश्वर (शिवजी) के मनमें बहुत क्षोभ हुआ । उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा॥

 

 

सौरभ पल्लव मदनु बिलोका । भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका ॥

तब सिवँ तीसर नयन उघारा । चितवत कामु भयउ जरि छारा ॥

अर्थ- जब आमके पत्तोंमें [छिपे हुए ] कामदेवको देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ, जिससे तीनों लोक काँप उठे। तब शिवजीने तीसरा नेत्र खोला, उनके देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया ॥

 

 

हाहाकार भयउ जग भारी । डरपे सुर भए असुर सुखारी ॥

समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी । भए अकंटक साधक जोगी ॥

अर्थ- जगत्में बड़ा हाहाकार मच गया। देवता डर गये, दैत्य सुखी हुए। भोगी लोग कामसुखको याद करके चिन्ता करने लगे और साधक योगी निष्कंटक हो गये॥  

 

 

छं० – जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई ।

रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई ॥

अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही ।

प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही ॥

अर्थ- योगी निष्कंटक हो गये, कामदेवकी स्त्री रति अपने पतिकी यह दशा सुनते ही मूच्छित हो गयी। रोती-चिल्लाती और भाँति-भाँति करुणा करती हुई वह शिवजीके पास गयी । अत्यन्त प्रेमके साथ अनेकों प्रकारसे विनती करके हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गयी । शीघ्र प्रसन्न होनेवाले कृपालु शिवजी अबला (असहाया स्त्री) को देखकर सुन्दर ( उसको सान्त्वना देनेवाले) वचन बोले-

 

 

 

दो० – अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु ।

बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु ॥  

अर्थ- हे रति! अबसे तेरे स्वामीका नाम अनङ्ग होगा । वह बिना ही शरीरके सबको व्यापेगा । अब तू अपने पतिसे मिलनेकी बात सुन॥

 

 

जब जदुबंस कृष्न अवतारा । होइहि हरन महा महिभारा ॥

कृष्ण तनय होइहि पति तोरा । बचनु अन्यथा होइ न मोरा ॥

अर्थ- जब पृथ्वीके बड़े भारी भारको उतारनेके लिये यदुवंशमें श्रीकृष्णका अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूपमें उत्पन्न होगा । मेरा यह वचन अन्यथा नहीं होगा॥  

 

 

 

रति गवनी सुनि संकर बानी । कथा अपर अब कहउँ बखानी ॥  

देवन्ह समाचार सब पाए । ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए ॥

अर्थ- शिवजीके वचन सुनकर रति चली गयी । अब दूसरी कथा बखानकर (विस्तारसे) कहता हूँ । ब्रह्मादि देवताओंने ये सब समाचार सुने तो वे वैकुण्ठको चले॥

 

 

सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता । गए जहाँ सिव कृपानिकेता ॥

पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा । भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा ॥

अर्थ- फिर वहाँसे विष्णु और ब्रह्मासहित सब देवता वहाँ गये जहाँ कृपाके धाम शिवजी थे । उन सबने शिवजीकी अलग-अलग स्तुति की, तब शशिभूषण शिवजी प्रसन्न हो गये॥

 

 

बोले कृपासिंधु बृषकेतू । कहहु अमर आए केहि हेतू ॥

कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी । तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी ॥

अर्थ- कृपाके समुद्र शिवजी बोले – हे देवताओ ! कहिये, आप किसलिये आये हैं ? ब्रह्माजीने कहा- हे प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं, तथापि हे स्वामी ! भक्तिवश मैं आपसे विनती करता हूँ ॥

 

 

दो० – सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु ।

निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु ॥  

अर्थ- हे शङ्कर! सब देवताओंके मनमें ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ! वे अपनी आँखोंसे आपका विवाह देखना चाहते हैं ॥  

 

 

यह उत्सव देखिअ भरि लोचन । सोइ कछु करहु मदन मद मोचन ॥

कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा । कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा ॥

अर्थ- हे कामदेवके मदको चूर करनेवाले ! आप ऐसा कुछ कीजिये जिससे सब लोग इस उत्सवको नेत्र भरकर देखें। हे कृपाके सागर ! कामदेवको भस्म करके आपने रतिको जो वरदान दिया सो बहुत ही अच्छा किया ॥  

 

 

सासति करि पुनि करहिं पसाऊ । नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ ॥

पारबतीं तपु कीन्ह अपारा । करहु तासु अब अंगीकारा ॥ ।

अर्थ- हे नाथ! श्रेष्ठ स्वामियोंका यह सहज स्वभाव ही है कि वे पहले दण्ड देकर फिर कृपा किया करते हैं। पार्वतीने अपार तप किया है, अब उन्हें अङ्गीकार कीजिये ॥  

 

 

सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभुबानी । ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी ॥

तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं । बरषि सुमन जय जय सुर साईं ॥

अर्थ- ब्रह्माजीकी प्रार्थना सुनकर और प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके वचनोंको याद करके शिवजीने प्रसन्नतापूर्वक कहा—‘ऐसा ही हो   तब देवताओंने नगाड़े बजाये और फूलोंकी वर्षा करके  जय हो ! देवताओंके स्वामीकी जय   ऐसा कहने लगे ॥  

 

 

अवसरु जानि सप्तरिषि आए । तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए ।

प्रथम गए जहँ रहीं भवानी । बोले मधुर बचन छल सानी ॥

अर्थ- उचित अवसर जानकर सप्तर्षि आये और ब्रह्माजीने तुरंत ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया । वे पहले वहाँ गये जहाँ पार्वतीजी थीं और उनसे छलसे भरे मीठे (विनोदयुक्त, आनन्द पहुँचानेवाले) वचन बोले—॥

 

 

दो० – कहा हमार न सुनेहु तब नारद के उपदेस ।

अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस ॥  

अर्थ- नारदजीके उपदेशसे तुमने उस समय हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया, क्योंकि महादेवजीने कामको ही भस्म कर डाला ॥  

 

 

सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी । उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी  

तुम्हरें जान कामु अब जारा । अब लगि संभु रहे सबिकारा ॥

अर्थ- यह सुनकर पार्वतीजी मुसकराकर बोलीं- हे विज्ञानी मुनिवरो ! आपने उचित ही कहा । आपकी समझमें शिवजीने कामदेवको अब जलाया है, अबतक तो वे विकारयुक्त (कामी) ही रहे !

 

 

हमरें जान सदा सिव जोगी । अज अनवद्य अकाम अभोगी ॥

जौं मैं सिव सेये अस जानी । प्रीति समेत कर्म मन बानी ॥

अर्थ- किन्तु हमारी समझसे तो शिवजी सदासे ही योगी, अजन्मा, अनिन्द्य, कामरहित और भोगहीन हैं और यदि मैंने शिवजीको ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्मसे प्रेमसहित उनकी सेवा की है.

 

 

तौ हमार पन सुनहु मुनीसा । करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा ॥

तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा । सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा ॥

अर्थ- तो हे मुनीश्वरो ! सुनिये, वे कृपानिधान भगवान् मेरी प्रतिज्ञाको सत्य करेंगे। आपने जो यह कहा कि शिवजीने कामदेवको भस्म कर दिया, यही आपका बड़ा भारी अविवेक है ॥  

 

 

 

तात अनल कर सहज सुभाऊ । हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ ॥

गएँ समीप सो अवसि नसाई । असि मन्मथ महेस की नाई ॥

अर्थ- हे तात! अग्निका तो यह सहज स्वभाव ही है कि पाला उसके समीप कभी जा ही नहीं सकता और जानेपर वह अवश्य नष्ट हो जायगा । महादेवजी और कामदेवके सम्बन्धमें भी यही न्याय (बात) समझना चाहिये ॥  

 

 

दो० – हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास ।

चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास ॥

अर्थ- पार्वतीके वचन सुनकर और उनका प्रेम तथा विश्वास देखकर मुनि हृदयमें बड़े प्रसन्न हुए । वे भवानीको सिर नवाकर चल दिये और हिमाचल के पास पहुँचे ॥  

 

 

 

सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा । मदन दहन सुनि अति दुखु पावा ॥

बहुरि कहेउ रति कर बरदाना । सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना ॥

अर्थ- उन्होंने पर्वतराज हिमाचलको सब हाल सुनाया । कामदेवका भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दुखी हुए। फिर मुनियोंने रतिके वरदानकी बात कही, उसे सुनकर हिमवान्ने बहुत सुख माना ॥

 

 

हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई । सादर मुनिबर लिए बोलाई ॥

सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई । बेगि बेदबिधि लगन धराई ॥

अर्थ- शिवजीके प्रभावको मनमें विचारकर हिमाचलने श्रेष्ठ मुनियोंको आदरपूर्वक बुला लिया और उनसे शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी शोधवाकर वेदकी विधिके अनुसार शीघ्र ही लग्न निश्चय कराकर लिखवा लिया ॥

 

 

पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही । गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही ॥

जाइ बिधिहि तिन्ह दीन्हि सो पाती । बाचत प्रीति न हृदयँ समाती ॥

अर्थ- फिर हिमाचलने वह लग्नपत्रिका सप्तर्षियोंको दे दी और चरण पकड़कर उनकी विनती की। उन्होंने जाकर वह लग्नपत्रिका ब्रह्माजीको दी । उसको पढ़ते समय उनके हृदयमें प्रेम समाता न था ॥  

 

 

लगन बाचि अज सबहि सुनाई । हरषे मुनि सब सुर समुदाई ॥

सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे । मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे ॥

अर्थ- ब्रह्माजीने लग्न पढ़कर सबको सुनाया, उसे सुनकर सब मुनि और देवताओंका सारा समाज हर्षित हो गया। आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी, बाजे बजने लगे और दसों दिशाओंमें मङ्गल- कलश सजा दिये गये ॥

 

 

दो० – लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान ।

होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान ॥  

अर्थ- सब देवता अपने भाँति-भाँतिके वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मङ्गल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं ॥

 

 

सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा । जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा ॥

कुंडल कंकन पहिरे ब्याला । तन बिभूति पट केहरि छाला ॥

अर्थ- शिवजीके गण शिवजीका शृङ्गार करने लगे । जटाओंका मुकुट बनाकर उसपर साँपोंका मौर सजाया गया। शिवजीने साँपोंके ही कुण्डल और कङ्कण पहने, शरीरपर विभूति रमायी और वस्त्रकी जगह बाघम्बर लपेट लिया ॥  

 

 

ससि ललाट सुंदर सिर गंगा । नयन तीनि उपबीत भुजंगा ॥

गरल कंठ उर नर सिर माला । असिव बेष सिवधाम कृपाला ॥

अर्थ- शिवजीके सुन्दर मस्तकपर चन्द्रमा, सिरपर गङ्गाजी, तीन नेत्र, साँपोंका जनेऊ, गलेमें विष और छातीपर नरमुण्डोंकी माला थी । इस प्रकार उनका वेष अशुभ होनेपर भी वे कल्याणके धाम और कृपालु हैं॥

 

 

 

कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा । चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा |

देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं । बर लायक दुलहिनि जग नाहीं ॥

अर्थ- एक हाथमें त्रिशूल और दूसरेमें डमरू सुशोभित है। शिवजी बैलपर चढ़कर चले । बाजे बज रहे हैं। शिवजीको देखकर देवाङ्गनाएँ मुसकरा रही हैं [ और कहती हैं कि] इस वरके योग्य दुलहिन संसारमें नहीं मिलेगी ॥

 

 

बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता । चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता ॥

सुर समाज सब भाँति अनूपा । नहिं बरात दूलह अनुरूपा ॥

अर्थ- विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओंके समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढ़कर बरातमें चले। देवताओंका समाज सब प्रकारसे अनुपम (परम सुन्दर) था, पर दूल्हेके योग्य बरात न थी ॥  

 

 

दो०-बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज ।

बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज ॥  

अर्थ- तब विष्णुभगवान्ने सब दिक्पालोंको बुलाकर हँसकर ऐसा कहा – सब लोग अपने-अपने दलसमेत अलग-अलग होकर चलो ॥  

 

 

बर अनुहारि बरात न भाई । हँसी करैहहु पर पुर जाई ॥  

बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने । निज निज सेन सहित बिलगाने ॥

अर्थ- हे भाई! हमलोगोंकी यह बरात वरके योग्य नहीं है । क्या पराये नगरमें जाकर हँसी कराओगे ? विष्णुभगवान्‌की बात सुनकर देवता मुसकराये और वे अपनी-अपनी सेनासहित अलग हो गये ॥  

 

 

 

मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं । हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं ॥

अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे । भृंगहि प्रेरि सकल गन टेरे ॥

अर्थ- महादेवजी [यह देखकर ] मन-ही-मन मुसकराते हैं कि विष्णुभगवान्‌के व्यङ्ग्य-वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते। अपने प्यारे (विष्णुभगवान्) के इन अति प्रिय वचनोंको सुनकर शिवजीने भी भृङ्गीको भेजकर अपने सब गणोंको बुलवा लिया ॥  

 

 

 

सिव अनुसासन सुनि सब आए । प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए ।  

नाना बाहन नाना बेषा । बहसे सिव समाज निज देखा ॥

अर्थ- शिवजीकी आज्ञा सुनते ही सब चले आये और उन्होंने स्वामीके चरणकमलोंमें सिर नवाया। तरह – तरहकी सवारियों और तरह – तरहके वेषवाले अपने समाजको देखकर शिवजी हँसे ॥  

 

 

कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू । बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू ॥  

बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना । रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना ॥

अर्थ- कोई बिना मुखका है, किसीके बहुत-से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैरका है तो किसीके कई हाथ-पैर हैं । किसीके बहुत आँखें हैं तो किसीके एक भी आँख नहीं है । कोई बहुत मोटा – ताजा है तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है॥

 

 

छं० – तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धेरें ।

भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें ॥

खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै ।

बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै ॥

अर्थ- कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किये हुए है । भयङ्कर गहने पहने हाथमें कपाल लिये हैं और सब-के-सब शरीरमें ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियारके – से उनके मुख हैं। गणोंके अनगिनत वेषोंको कौन गिने ? बहुत प्रकारके प्रेत, पिशाच और योगिनियोंकी जमातें हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता ।

 

 

सो० – नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब ।

अर्थ- देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि ॥

अर्थ-  भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बड़े मौजी हैं। देखनेमें बहुत ही बेढंगे जान पड़ते हैं और बड़े ही विचित्र ढंगसे बोलते हैं ॥  

 

 

 

जस दूलहु तसि बनी बराता । कौतुक बिबिध होहिं मग जाता ॥

इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना । अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना ॥

अर्थ- जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बरात बन गयी है। मार्गमें चलते हुए भाँति-भाँतिके कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं। इधर हिमाचलने ऐसा विचित्र मण्डप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता ॥

 

 

सैल सकल जहँ लगि जग माहीं । लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं ॥

बन सागर सब नदीं तलावा । हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा ॥

अर्थ- जगत्में जितने छोटे-बड़े पर्वत थे, जिनका वर्णन करके पार नहीं मिलता तथा जितने वन, समुद्र, नदियाँ और तालाब थे, हिमाचलने सबको नेवता भेजा ॥ 

 

 

 

कामरूप सुंदर तन धारी । सहित समाज सहित बर नारी ॥

गए सकल तुहिनाचल गेहा । गावहिं मंगल सहित सनेहा ॥

अर्थ- वे सब अपने इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले सुन्दर शरीर धारणकर सुन्दरी स्त्रियों और समाजोंके साथ हिमाचल के घर गये। सभी स्नेहसहित मङ्गलगीत गाते हैं ॥  

 

 

 

प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए ॥

पुर सोभा अवलोकि सुहाई । लागइ लघु बिरंचि निपुनाई ॥

अर्थ- हिमाचलने पहलेहीसे बहुत-से घर सजवा रखे थे। यथायोग्य उन-उन स्थानोंमें सब लोग उतर गये। नगरकी सुन्दर शोभा देखकर ब्रह्माकी रचना चातुरी भी तुच्छ लगती थी ॥  

 

 

छं० – लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।

बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही ॥

मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं ।

बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं ॥

अर्थ- नगरकी शोभा देखकर ब्रह्माकी निपुणता सचमुच तुच्छ लगती है । वन, बाग, कुएँ, तालाब, नदियाँ सभी सुन्दर हैं; उनका वर्णन कौन कर सकता है ? घर-घर बहुत-से मङ्गलसूचक तोरण और ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं । वहाँके सुन्दर और चतुर स्त्री-पुरुषोंकी छबि देखकर मुनियोंके भी मन मोहित हो जाते हैं।

 

 

 

दो० – जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ ।

रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ ॥  

अर्थ- जिस नगरमें स्वयं जगदम्बाने अवतार लिया, क्या उसका वर्णन हो सकता है ? वहाँ ऋद्धि, सिद्धि, सम्पत्ति और सुख नित नये बढ़ते जाते हैं॥

 

 

 

 

नगर निकट बरात सुनि आई । पुर खरभरु सोभा अधिकाई ॥

करि बनाव सजि बाहन नाना । चले लेन सादर अगवाना ॥

अर्थ- बरातको नगरके निकट आयी सुनकर नगरमें चहल-पहल मच गयी, जिससे उसकी शोभा बढ़ गयी। अगवानी करनेवाले लोग बनाव- शृंगार करके तथा नाना प्रकारकी सवारियोंको सजाकर आदरसहित बरातको लेने चले ॥  

 

 

हियँ हरषे सुर सेन निहारी । हरिहि देखि अति भए सुखारी ॥

सिव समाज जब देखन लागे । बिडरि चले बाहन सब भागे ॥

अर्थ- देवताओंके समाजको देखकर सब मनमें प्रसन्न हुए और विष्णुभगवान्‌को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए। किन्तु जब शिवजीके दलको देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियोंके हाथी, घोड़े, रथके बैल आदि ) डरकर भाग चले ॥  

 

 

धरि धीरजु तहँ रहे सयाने । बालक सब लै जीव पराने ॥

गएँ भवन पूछहिं पितु माता । कहहिं बचन भय कंपित गाता ॥

अर्थ- कुछ बड़ी उम्रके समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे। लड़के तो सब अपने प्राण लेकर भागे। घर पहुँचनेपर जब माता – पिता पूछते हैं, तब वे भयसे काँपते हुए शरीरसे ऐसा वचन कहते हैं—॥

 

 

कहिअ काह कहि जाइ न बाता । जम कर धार किधौं बरिआता ॥

बरु बौराह बसहँ असवारा । ब्याल कपाल बिभूषन छारा ॥

अर्थ- क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती । यह बरात है या यमराजकी सेना ? दूल्हा पागल है और बैलपर सवार है । साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं ॥

 

 

छं०—तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा ।

सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा ॥

जो जित रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही ।

देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही ॥

अर्थ- दूल्हेके शरीरपर राख लगी है, साँप और कपालके गहने हैं; वह नङ्गा, जटाधारी और भयङ्कर है। उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं। जो बरातको देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वतीका विवाह देखेगा । लड़कोंने घर-घर यही बात कही।

 

 

दो०- समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं ।

बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं ॥ ११०

अर्थ- महेश्वर (शिवजी) का समाज समझकर सब लड़कोंके माता-पिता मुसकराते हैं । उन्होंने बहुत तरहसे लड़कोंको समझाया कि निडर हो जाओ, डरकी कोई बात नहीं है ॥  

 

 

लै अगवान बरातहि आए । दिए सबहि जनवास सुहाए ॥

मैनाँ सुभ आरती सँवारी । संग सुमंगल गावहिं नारी ॥

अर्थ- अगवान लोग बरातको लिवा लाये, उन्होंने सबको सुन्दर जनवासे ठहरनेको दिये। मैना (पार्वतीजीकी माता) ने शुभ आरती सजायी और उनके साथकी स्त्रियाँ उत्तम मङ्गलगीत गाने लगीं॥

 

 

कंचन थार सोह बर पानी । परिछन चली हरहि हरषानी ॥

बिकट बेष रुद्रहि जब देखा । अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा ॥

अर्थ- सुन्दर हाथोंमें सोनेका थाल शोभित है, इस प्रकार मैना हर्षके साथ शिवजीका परछन करने चलीं। जब महादेवजीको भयानक वेषमें देखा तब तो स्त्रियोंके मनमें बड़ा भारी भय उत्पन्न हो गया॥२॥

 

 

भागि भवन पैठीं अति त्रासा । गए महेसु जहाँ जनवासा ॥

मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी । लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी ॥

अर्थ- बहुत ही डरके मारे भागकर वे घरमें घुस गयीं और शिवजी जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गये। मैनाके हृदयमें बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने पार्वतीजीको अपने पास बुला लिया ॥

 

 

 

अधिक सनेहँ गोद बैठारी । स्याम सरोज नयन भरे बारी ॥

जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा । तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा ॥

अर्थ- और अत्यन्त स्नेहसे गोदमें बैठाकर अपने नील कमलके समान नेत्रोंमें आँसू भरकर कहा— जिस विधाताने तुमको ऐसा सुन्दर रूप दिया, उस मूर्खने तुम्हारे दूल्हेको बावला कैसे बनाया ? ॥

 

 

  छं० – कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई ।

जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई ॥

तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं ।

घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं ॥

अर्थ- जिस विधाताने तुमको सुन्दरता दी, उसने तुम्हारे लिये वर बावला कैसे बनाया ? जो फल कल्पवृक्षमें लगना चाहिये, वह जबर्दस्ती बबूलमें लग रहा है । मैं तुम्हें लेकर पहाड़से गिर पड़ेंगी, आगमें जल जाऊँगी या समुद्रमें कूद पडूंगी। चाहे घर उजड़ जाय और संसारभरमें अपकीर्ति फैल जाय, पर जीते-जी मैं इस बावले वरसे तुम्हारा विवाह न करूँगी।

 

 

करबला रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि ॥  

अर्थ- हिमाचलकी स्त्री (मैना) को दुःखी देखकर सारी स्त्रियाँ व्याकुल हो गयीं। मैना अपनी कन्याके स्नेहको याद करके विलाप करती, रोती और कहती थीं – ॥  

 

 

नारद कर मैं काह बिगारा । भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा ॥

अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा । बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा ॥

अर्थ- मैंने नारदका क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वती- को ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वरके लिये तप किया ॥

 

 

साचेहुँ उन्ह कें मोह न माया । उदासीन धनु धामु न जाया ॥

पर घर घालक लाज न भीरा । बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा ॥

अर्थ- सचमुच उनके न किसीका मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है और न स्त्री ही है; वे सबसे उदासीन हैं। इसीसे वे दूसरेका घर उजाड़नेवाले हैं। उन्हें न किसीकी लाज है, न डर है। भला, बाँझ स्त्री प्रसवकी पीड़ाको क्या जाने ॥

 

 

जननिहि बिकल बिलोकि भवानी । बोली जुत बिबेक मृदु बानी ॥

 अस बिचारि सोचहि मति माता । सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥

अर्थ- माताको विकल देखकर पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं- हे माता ! जो विधाता रचदेते हैं, वह टलता नहीं; ऐसा विचारकर तुम सोच मत करो ! ॥  

 

 

करम लिखा जौं बाउर नाहू । तौ कत दोसु लगाइअ काहू ॥

तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका । मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका ॥

अर्थ- जो मेरे भाग्यमें बावला ही पति लिखा है तो किसीको क्यों दोष लगाया जाय ? हे माता ! क्या विधाताके अङ्क तुमसे मिट सकते हैं ? वृथा कलङ्कका टीका मत लो॥

 

 

छं० – जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं ।

दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं ॥

सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं ।

भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं ॥

अर्थ- बहु हे माता! कलङ्क मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करनेका नहीं है । मेरे भाग्यमें जो दुःख- सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी, वहीं पाऊँगी ! पार्वतीजीके ऐसे विनयभरे कोमल वचन सुनकर सारी स्त्रियाँ सोच करने लगीं और भाँति-भाँति से विधाताको दोष देकर आँखोंसे आँसू बहाने लगीं ।

 

 

 

दो० – तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत ।

समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत ॥ ९७ ॥

अर्थ- इस समाचारको सुनते ही हिमाचल उसी समय नारदजी और सप्तर्षियोंको साथ लेकर अपने घर गये॥

 

तब नारद सबही समुझावा । पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा ॥   

मयना सत्य सुनहु मम बानी । जगदंबा तव सुता भवानी ॥

अर्थ- तब नारदजीने पूर्वजन्मकी कथा सुनाकर सबको समझाया [ और कहा ] कि हे मैना ! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षात् जगज्जननी भवानी है ॥  

 

 

अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि । सदा संभु अरधंग निवासिनि ॥

जग संभव पालन लय कारिनि । निज इच्छा लीला बपु धारिनि ॥

अर्थ- ये अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शक्ति हैं । सदा शिवजीके अर्द्धाङ्गमें रहती हैं । ये जगत्की उत्पत्ति, पालन और संहार करनेवाली हैं; और अपनी इच्छासे ही लीला – शरीर धारण करती हैं ॥  

 

 

जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई । नामु सती सुंदर तनु पाई ॥

तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं । कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं ॥

अर्थ- पहले ये दक्षके घर जाकर जन्मी थीं, तब इनका सती नाम था, बहुत सुन्दर शरीर पाया था । वहाँ भी सती शङ्करजीसे ही ब्याही गयी थीं । यह कथा सारे जगत्में प्रसिद्ध है॥

 

 

एक बार आवत सिव संगा । देखेउ रघुकुल कमल पतंगा ॥

भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा । भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा ॥

अर्थ- एक बार इन्होंने शिवजीके साथ आते हुए [राहमें ] रघुकुलरूपी कमलके सूर्य श्रीरामचन्द्रजीको देखा, तब इन्हें मोह हो गया और इन्होंने शिवजीका कहना न मानकर भ्रमवश सीताजीका वेष धारण कर लिया ॥  

 

 

छं० – सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहरीं ।

हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं ॥

अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया ।

अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकरप्रिया ॥

अर्थ- सतीजीने जो सीताका वेष धारण किया, उसी अपराधके कारण शङ्करजीने उनको त्याग दिया । फिर शिवजीके वियोगमें ये अपने पिताके यज्ञमें जाकर वहीं योगाग्निसे भस्म हो गयीं । अब इन्होंने तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पतिके लिये कठिन तप किया है ऐसा जानकर सन्देह छोड़ दो, पार्वतीजी तो सदा ही शिवजीकी प्रिया (अर्द्धाङ्गिनी) हैं ।

 

 

सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद ।

छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद ॥  

अर्थ- तब नारदके वचन सुनकर सबका विषाद मिट गया और क्षणभरमें यह समाचार सारे नगरमें घर-घर फैल गया॥

 

 

तब मयना हिमवंतु अनंदे | पुनि पुनि पारबती पद बंदे ॥

नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने । नगर लोग सब अति हरषाने ॥

अर्थ- तब मैना और हिमवान् आनन्दमें मग्न हो गये और उन्होंने बार-बार पार्वतीके चरणोंकी वन्दना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगरके सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए॥

 

 

लगे होन पुर मंगल गाना । सजे सबहिं हाटक घट नाना ॥

भाँति अनेक भई जेवनारा । सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा ॥

अर्थ- नगरमें मङ्गलगीत गाये जाने लगे और सबने भाँति-भाँति के सुवर्णके कलश सजाये । पाकशास्त्रमें जैसी रीति है, उसके अनुसार अनेक भाँतिकी ज्योनार हुई ( रसोई बनी ) ॥

 

सो जेवनार कि जाइ बखानी । बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी ॥

सादर बोले सकल बराती । बिष्नु बिरंचि देव सब जाती ॥

अर्थ- जिस घरमें स्वयं माता भवानी रहती हों, वहाँकी ज्योनार (भोजनसामग्री) का वर्णन कैसे किया जा सकता है? हिमाचलने आदरपूर्वक सब बरातियोंको – विष्णु, ब्रह्मा और सब जातिके देवताओंको बुलवाया ॥

 

 

बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा । लागे परुसन निपुन सुआरा ॥

नारिबृंद सुर जेवँत जानी । लगीं देन गारीं मृदुबानी ॥

अर्थ- भोजन [करनेवालों] की बहुत-सी पङ्गतें बैठीं । चतुर रसोइये परोसने लगे। स्त्रियोंकी मण्डलियाँ देवताओंको भोजन करते जानकर कोमल वाणीसे गालियाँ देने लगीं ॥

 

 

 

छं० – गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।

भोज करहिं सुर अति बिलंबु बिनोद सुनि सचु पावहीं ॥

जेवँत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कहयो ।

अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रयो ॥

अर्थ- सब सुन्दरी स्त्रियाँ मीठे स्वरमें गालियाँ देने लगीं और व्यंग्यभरे वचन सुनाने लगीं । देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिये भोजन करनेमें बड़ी देर लगा रहे हैं। भोजनके समय जो आनन्द बढ़ा, वह करोड़ों मुँह से भी नहीं कहा जा सकता । [ भोजन कर चुकनेपर ] सबके हाथ- -मुँह धुलवाकर पान दिये गये । फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गये।

 

 

दो० – बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ ।

समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ ॥  

अर्थ- फिर मुनियोंने लौटकर हिमवान्‌को लगन (लग्नपत्रिका ) सुनायी और विवाहका समय देखकर देवताओंको बुला भेजा ॥  

 

 

 

बोलि सकल सुर सादर लीन्हे । सबहि जथोचित आसन दीन्हे ॥

बेदी बेद बिधान सँवारी । सुभग सुमंगल गावहिं नारी ॥

अर्थ- सब देवताओंको आदरसहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिये । वेदकी रीतिसे वेदी सजायी गयी और स्त्रियाँ सुन्दर श्रेष्ठ मङ्गलगीत गाने लगीं ॥  

 

 

 

सिंघासनु अति दिब्य सुहावा । जाइ न बरनि बिरंचि बनावा ॥

बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई । हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई ॥

अर्थ- वेदिकापर एक अत्यन्त सुन्दर दिव्य सिंहासन था, जिस [ की सुन्दरता ] का वर्णन नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह स्वयं ब्रह्माजीका बनाया हुआ था। ब्राह्मणोंको सिर नवाकर और हृदयमें अपने स्वामी श्रीरघुनाथजीका स्मरण करके शिवजी उस सिंहासनपर बैठ गये॥

 

 

बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं । करि सिंगारु सखीं लै आईं ॥

देखत रूपु सकल सुर मोहे । बरनै छबि अस जग कबि को है ॥

अर्थ- फिर मुनीश्वरोंने पार्वतीजीको बुलाया । सखियाँ शृङ्गार करके उन्हें ले आयीं। पार्वतीजीके रूपको देखते ही सब देवता मोहित हो गये । संसारमें ऐसा कवि कौन है जो उस सुन्दरताका वर्णन कर सके!॥

 

 

जगदंबिका जानि भव भामा । सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा |

सुंदरता मरजाद भवानी । जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी ॥

अर्थ- पार्वतीजीको जगदम्बा और शिवजीकी पत्नी समझकर देवताओंने मन-ही-मन प्रणाम किया। भवानीजी सुन्दरताकी सीमा हैं। करोड़ों मुखोंसे भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती ॥

 

 

छं० – कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा ।

सकुचहिंकहतश्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा ॥

छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ ।

अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ ॥

अर्थ- जगज्जननी पार्वतीजीकी महान् शोभाका वर्णन करोड़ों मुखोंसे भी करते नहीं बनता । वेद, शेषजी और सरस्वतीजीतक उसे कहते हुए सकुचा जाते हैं, तब मन्दबुद्धि तुलसी किस गिनतीमें है सुन्दरता और शोभाकी खान माता भवानी मण्डपके बीचमें, जहाँ शिवजी थे, वहाँ गयीं। वे संकोचके मारे पति (शिवजी) के चरणकमलोंको देख नहीं सकतीं, परन्तु उनका मनरूपी भौंरा तो वहीं [रस-पान कर रहा] था।

 

 

 

दो० – मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि ।

कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि ॥

अर्थ- मुनियोंकी आज्ञासे शिवजी और पार्वतीजीने गणेशजीका पूजन किया । मनमें देवताओंको अनादि समझकर कोई इस बातको सुनकर शङ्का न करे [ कि गणेशजी तो शिव-पार्वतीकी सन्तान हैं, अभी विवाहसे पूर्व ही वे कहाँसे आ गये ] ॥

 

 

जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई । महामुनिन्ह सो सब करवाई ॥

गहि गिरीस कुस कन्या पानी । भवहि समरपीं जानि भवानी ॥

अर्थ- वेदोंमें विवाहकी जैसी रीति कही गयी है, महामुनियोंने वह सभी रीति करवायी । पर्वतराज हिमाचलने हाथमें कुश लेकर तथा कन्याका हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिवपत्नी) जानकर शिवजीको समर्पण किया ॥

 

 

 

पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा । हियँ हरषे तब सकल सुरेसा ॥

बेदमंत्र मुनिबर उच्चरहीं । जय जय जय संकर सुर करहीं ॥

अर्थ- जब महेश्वर (शिवजी) ने पार्वतीका पाणिग्रहण किया, तब [ इन्द्रादि ] सब देवता हृदयमें बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमन्त्रोंका उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजीका जय-जयकार करने लगे॥

 

 

 

बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना । सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना ॥

हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू | सकल भुवन भरि रहा उछाहू ॥

अर्थ- अनेकों प्रकारके बाजे बजने लगे । आकाशसे नाना प्रकारके फूलोंकी वर्षा हुई। शिव-पार्वतीका विवाह हो गया। सारे ब्रह्माण्डमें आनन्द भर गया॥

 

 

दासीं दास तुरग रथ नागा । धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा ॥

अन्न कनकभाजन भरि जाना । दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ॥

अर्थ- दासी, दास, रथ, घोड़े, हाथी, गायें, वस्त्र और मणि आदि अनेक प्रकारकी चीजें, अन्न तथा सोनेके बर्तन गाड़ियोंमें लदवाकर दहेजमें दिये, जिनका वर्णन नहीं हो सकता॥

 

 

 

छं०– दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो ।

का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो ॥  

सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो ।

पुनि हे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो ॥

अर्थ- बहुत प्रकारका दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचलने कहा – हे शङ्कर ! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ ? [इतना कहकर ] वे शिवजीके चरणकमल पकड़कर रह गये । तब कृपाके सागर शिवजीने अपने ससुरका सभी प्रकारसे समाधान किया। फिर प्रेमसे परिपूर्णहृदय मैनाजीने शिवजीके चरणकमल पकड़े [ और कहा – ]

 

 

दो० – नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु ।

छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु ॥  

अर्थ- हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणोंके समान [प्यारी ] है । आप इसे अपने घरकी टहलनी बनाइयेगा और इसके सब अपराधोंको क्षमा करते रहियेगा । अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिये ॥  

 

 

बहु बिधि संभु सासु समुझाई | गवनी भवन चरन सिरु नाई ॥

जननीं उमा बोलि तब लीन्ही । लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही ॥

अर्थ- शिवजीने बहुत तरहसे अपनी सासको समझाया। तब वे शिवजीके चरणोंमें सिर नवाकर घर गयीं। फिर माताने पार्वतीको बुला लिया और गोदमें बैठाकर यह सुन्दर सीख दी — ॥

 

 

 करेहु सदा संकर पद पूजा । नारिधरमु पति देउ न दूजा ॥

बचन कहत भरे लोचन बारी । बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी ॥

अर्थ- हे पार्वती! तू सदा शिवजीके चरणकी पूजा करना, नारियोंका यही धर्म है । उनके लिये पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है । इस प्रकारकी बातें कहते-कहते उनकी आँखोंमें आँसू भर आये और उन्होंने कन्याको छातीसे चिपटा लिया ॥  

 

 

कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं । पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ॥

भै अति प्रेम बिकल महतारी । धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी ॥

अर्थ- [फिर बोलीं कि] विधाताने जगत् में स्त्रीजातिको क्यों पैदा किया ? पराधीनको सपने में भी सुख नहीं मिलता। यों कहती हुई माता प्रेममें अत्यन्त विकल हो गयी, परन्तु कुसमय जानकर (दुःख करनेका अवसर न जानकर ) उन्होंने धीरज धरा ॥  

 

 

पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना । परम प्रेमु कछु जाइ न बरना ॥ सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी । जाइ जननि उर पुनि लपटानी ॥

अर्थ- मैना बार-बार मिलती हैं और [ पार्वतीके ] चरणोंको पकड़कर गिर पड़ती हैं। बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियोंसे मिल – भेंटकर फिर अपनी माताके हृदयसे जा लिपटीं ॥

 

 

छं० – जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दई ।

फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं ॥

जाचक सकल संतोष संकरु उमा सहित भवन चले।

सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले ॥

अर्थ- पार्वतीजी मातासे फिर मिलकर चलीं, सब किसीने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिये। पार्वतीजी फिर-फिरकर माताकी ओर देखती जाती थीं । तब सखियाँ उन्हें शिवजीके पास ले गयीं । महादेवजी सब याचकोंको सन्तुष्ट कर पार्वतीके साथ घर (कैलास) को चले । सब देवता प्रसन्न होकर फूलोंकी वर्षा करने लगे और आकाशमें सुन्दर नगाड़े बजने लगे ।

 

 

दो० – चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु ।

बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु ॥

अर्थ- तब हिमवान् अत्यन्त प्रेमसे शिवजीको पहुँचानेके लिये साथ चले । वृषकेतु ( शिवजी) ने बहुत तरहसे उन्हें सन्तोष कराकर विदा किया ॥  

 

 

तुरत भवन आए गिरिराई । सकल सैल सर लिए बोलाई ॥

आदर दान बिनय बहुमाना । सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना ॥

अर्थ- पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आये और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरोंको बुलाया । हिमवान्ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की ॥  

 

 

जबहिं संभु कैलासहिं आए । सुर सब निज निज लोक सिधाए ॥

जगत मातु पितु संभु भवानी । तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी ॥

अर्थ- जब शिवजी कैलास पर्वतपर पहुँचे, तब सब देवता अपने – अपने लोकोंको चले गये । [तुलसीदासजी कहते हैं कि] पार्वतीजी और शिवजी जगत् के माता-पिता हैं, इसलिये मैं उनके शृङ्गारका वर्णन नहीं करता ॥

 

 

 

करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा । गनन्ह समेत बसहिं कैलासा ॥

हर गिरिजा बिहार नित नयऊ । एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ ॥

अर्थ- शिव-पार्वती विविध प्रकारके भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलासपर रहने लगे। वे नित्य नये विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया॥

 

 

तब जनमेउ षटबदन कुमारा । तारकु असुरु समर जेहिं मारा ॥

आगम निगम प्रसिद्ध पुराना । षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ॥

अर्थ- तब छः मुखवाले पुत्र ( स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने [बड़े होनेपर ] युद्धमें तारकासुरको मारा। वेद, शास्त्र और पुराणोंमें स्वामिकार्तिकके जन्मकी कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत् उसे जानता है॥

 

छं० – जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा ।

तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा ॥

यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।

कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं ॥

अर्थ- षडानन (स्वामिकार्तिक) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान् पुरुषार्थको सारा जगत् जानता है । इसलिये मैंने वृषकेतु (शिवजी) के पुत्रका चरित्र संक्षेपसे ही कहा है । शिव-पार्वतीके विवाहकी इस कथाको जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गायेंगे, वे कल्याणके कार्यों और विवाहादि मङ्गलोंमें सदा सुख पावेंगे।

 

 

 

दो० – चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु ।

बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु ॥

अर्थ- गिरिजापति महादेवजीका चरित्र समुद्रके समान (अपार) है, उसका पार वेद भी नहीं पाते तब अत्यन्त मन्दबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है !॥

 

 

 संभु चरित सुनि सरस सुहावा । भरद्वाज मुनि अति सुख पावा ॥

बहु लालसा कथा पर बाढ़ी । नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी ॥

अर्थ- शिवजीके रसीले और सुहावने चरित्रको सुनकर मुनि भरद्वाजजीने बहुत ही सुख पाया । कथा सुननेकी उनकी लालसा बहुत बढ़ गयी । नेत्रोंमें जल भर आया तथा रोमावली खड़ी हो गयी ॥  

 

 

प्रेम बिबस मुख आव न बानी । दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी ॥  

अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा । तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥

अर्थ- वे प्रेममें मुग्ध हो गये, मुखसे वाणी नहीं निकलती । उनकी यह दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत प्रसन्न हुए [ और बोले— ] हे मुनीश ! अहा हा! तुम्हारा जन्म धन्य है; तुमको गौरीपति शिवजी प्राणोंके समान प्रिय हैं ॥

 

 

सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं । रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं ॥

बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू । राम भगत कर लच्छन एहू ॥

अर्थ- शिवजीके चरणकमलोंमें जिनकी प्रीति नहीं है, वे श्रीरामचन्द्रजीको स्वप्नमें भी अच्छे नहीं लगते । विश्वनाथ श्रीशिवजीके चरणोंमें निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्तका लक्षण है.

 

 

सिव सम को रघुपति ब्रतधारी । बिनु अघ तजी सती असि नारी ॥

पनु करि रघुपति भगति देखाई । को सिव सम रामहि प्रिय भाई ॥

अर्थ- शिवजीके समान रघुनाथजी [ की भक्ति ] का व्रत धारण करनेवाला कौन है ? जिन्होंने बिना ही पापके सती-जैसी स्त्रीको त्याग दिया और प्रतिज्ञा करके श्रीरघुनाथजीकी भक्तिको दिखा दिया। हे भाई! श्रीरामचन्द्रजीको शिवजीके समान और कौन प्यारा है ? ॥

 

 

दो० – प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार ।

सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार ॥  

अर्थ- मैंने पहले ही शिवजीका चरित्र कहकर तुम्हारा भेद समझ लिया । तुम श्रीरामचन्द्रजीके पवित्र सेवक हो और समस्त दोषोंसे रहित हो॥

 

 

 

मैं जाना तुम्हार गुन सीला । कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला ॥

सुनु मुनि आजु समागम तोरें । कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें ॥

अर्थ- मैंने तुम्हारा गुण और शील जान लिया। अब मैं श्रीरघुनाथजीकी लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि! सुनो, आज तुम्हारे मिलनेसे मेरे मनमें जो आनन्द हुआ है, वह कहा नहीं जा सकता ॥

 

 

राम चरित अति अमित मुनीसा । कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा ॥

तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी । सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी ॥

अर्थ- हे मुनीश्वर! रामचरित्र अत्यन्त अपार है । सौ करोड़ शेषजी भी उसे नहीं कह सकते । तथापि जैसा मैंने सुना है, वैसा वाणीके स्वामी (प्रेरक) और हाथमें धनुष लिये हुए प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके कहता हूँ ॥   

 

 

सारद दारुनारि सम स्वामी । रामु सूत्रधर अंतरजामी ॥

जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी । कबि उर अजिर नचावहिं बानी ॥

अर्थ- सरस्वतीजी कठपुतलीके समान हैं और अन्तर्यामी स्वामी श्रीरामचन्द्रजी [ सूत पकड़कर कठपुतलीको नचानेवाले] सूत्रधार हैं। अपना भक्त जानकर जिस कविपर वे कृपा करते हैं, उसके हृदयरूपी आँगनमें सरस्वतीको वे नचाया करते हैं ॥  

 

 

 

प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा । बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा ॥

परम रम्य गिरिबरु कैलासू । सदा जहाँ सिव उमा निवासू ॥

अर्थ- उन्हीं कृपालु श्रीरघुनाथजीको मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हींके निर्मल गुणोंकी कथा कहता हूँ । कैलास पर्वतोंमें श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वतीजी सदा निवास करते हैं ॥

 

 

 

दो० – सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किंनर मुनिबृंद |

बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकंद ॥  

अर्थ- सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनियोंके समूह उस पर्वतपर रहते हैं । वे सब बड़े पुण्यात्मा हैं और आनन्दकन्द श्रीमहादेवजीकी सेवा करते हैं ॥  

 

 

 

हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं । ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं ॥

तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला । नित नूतन सुंदर सब काला ॥

अर्थ- जो भगवान् विष्णु और महादेवजीसे विमुख हैं और जिनकी धर्ममें प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्नमें भी वहाँ नहीं जा सकते। उस पर्वतपर एक विशाल बरगदका पेड़ है, जो नित्य नवीन और सब काल (छहों ऋतुओं) में सुन्दर रहता है ॥  

 

 

त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया । सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया ||

एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ । तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ ॥

अर्थ- वहाँ तीनों प्रकारकी (शीतल, मन्द और सुगन्ध ) वायु बहती रहती है और उसकी छाया बड़ी ठंडी रहती है। वह शिवजीके विश्राम करनेका वृक्ष है, जिसे वेदोंने गाया है। एक बार प्रभु श्रीशिवजी उस वृक्षके नीचे गये और उसे देखकर उनके हृदयमें बहुत आनन्द हुआ॥

 

 

निज कर डासि नागरिपु छाला | बैठे कुंद इंदु दर गौर सरीरा ।

भुज सहजहिं संभु कृपाला ॥ प्रलंब परिधन मुनिचीरा ॥

अर्थ- अपने हाथसे बाघम्बर बिछाकर कृपालु शिवजी स्वभावसे ही (बिना किसी खास प्रयोजनके) वहाँ बैठ गये। कुन्दके पुष्प, चन्द्रमा और शंखके समान उनका गौर शरीर था । बड़ी लंबी भुजाएँ थीं और वे मुनियोंके – से ( वल्कल) वस्त्र धारण किये हुए थे ॥  

 

 

तरुन अरुन अंबुज सम चरना । नख दुति भगत हृदय तम हरना ॥

भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी । आननु सरद चंद छबि हारी ॥

अर्थ- उनके चरण नये (पूर्णरूपसे खिले हुए) लाल कमलके समान थे, नखोंकी ज्योति भक्तोंके हृदयका अन्धकार हरनेवाली थी । साँप और भस्म ही उनके भूषण थे और उन त्रिपुरासुरके शत्रु शिवजीका मुख शरद् (पूर्णिमा) के चन्द्रमाकी शोभाको भी हरनेवाला (फीकी करनेवाला ) था ॥

 

 

दो० – जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल ।

नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल ॥

अर्थ- उनके सिरपर जटाओंका मुकुट और गङ्गाजी [ शोभायमान ] थीं । कमलके समान बड़े-बड़े नेत्र थे । उनका नील कण्ठ था और वे सुन्दरताके भण्डार थे। उनके मस्तकपर द्वितीयाका चन्द्रमा शोभित था ॥  

 

 

 

बैठे सोह कामरिपु कैसें । धरें सरीरु सांतरसु जैसें ॥

पारबती भल अवसरु जानी । गईं संभु पहिं मातु भवानी ॥

अर्थ- कामदेवके शत्रु शिवजी वहाँ बैठे हुए ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो शान्तरस ही शरीर धारण किये बैठा हो। अच्छा मौका जानकर शिवपत्नी माता पार्वतीजी उनके पास गयीं ॥

 

 

जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा । बाम भाग आसनु हर दीन्हा ॥

बैठीं सिव समीप हरषाई । पूरुब जन्म कथा चित आई ॥

अर्थ- अपनी प्यारी पत्नी जानकर शिवजीने उनका बहुत आदर-सत्कार किया और अपनी बायीं ओर बैठनेके लिये आसन दिया। पार्वतीजी प्रसन्न होकर शिवजीके पास बैठ गयीं। उन्हें पिछले जन्मकी कथा स्मरण हो आयी ॥

 

 

 

पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी । बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी ॥

कथा जो सकल लोक हितकारी । सोइ पूछन चह सैलकुमारी ॥

अर्थ- स्वामीके हृदयमें [अपने ऊपर पहलेकी अपेक्षा ] अधिक प्रेम समझकर पार्वतीजी हँसकर प्रिय वचन बोलीं। [याज्ञवल्क्यजी कहते हैं कि ] जो कथा सब लोगोंका हित करनेवाली है, उसे ही पार्वतीजी पूछना चाहती हैं ॥  

 

 

बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी । त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी ॥

चर अरु अचर नाग नर देवा । सकल करहिं पद पंकज सेवा ॥

अर्थ- [पार्वतीजीने कहा—] हे संसारके स्वामी! हे मेरे नाथ ! हे त्रिपुरासुरका वध करनेवाले ! आपकी महिमा तीनों लोकोंमें विख्यात है । चर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता सभी आपके चरणकमलोंकी सेवा करते हैं॥

 

 

दो० – प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम ।

जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम ॥  

अर्थ- हे प्रभो! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप हैं । सब कलाओं और गुणोंके निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्यके भण्डार हैं । आपका नाम शरणागतोंके लिये कल्पवृक्ष है.

 

 

जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी । जानिअ सत्य मोहि निज दासी ॥

तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना । कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना ॥

अर्थ- हे सुखकी राशि ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और सचमुच मुझे अपनी दासी [या अपनी सच्ची दासी] जानते हैं, तो हे प्रभो ! आप श्रीरघुनाथजीकी नाना प्रकारकी कथा कहकर मेरा अज्ञान दूर कीजिये ॥

 

 

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रामायण बालकाण्ड देवी सती कथा

  

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