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रामायण बालकाण्ड देवी सती कथा
तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा ॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा । कहहिं परसपर हरि गुन गाहा ॥
अर्थ- तीर्थराज प्रयागमें जो स्नान करने जाते हैं उन ऋषि-मुनियोंका समाज वहाँ (भरद्वाजके आश्रममें) जुटता । प्रात:काल सब उत्साहपूर्वक स्नान करते हैं और फिर परस्पर भगवान्के गुणोंकी कथाएँ कहते हैं॥
दो० – ब्रह्मनिरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग ।
कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग ॥
अर्थ- ब्रह्मका निरूपण, धर्मका विधान और तत्त्वोंके विभागका वर्णन करते हैं तथा ज्ञान-वैराग्यसे युक्त भगवान्की भक्तिका कथन करते हैं ॥
एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं । पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं ॥
प्रति संबत अति होइ अनंदा । मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा ॥
अर्थ- इसी प्रकार माघके महीनेभर स्नान करते हैं और फिर सब अपने-अपने आश्रमोंको चले जाते हैं। हर साल वहाँ इसी तरह बड़ा आनन्द होता है। मकरमें स्नान करके मुनिगण चले जाते हैं ॥
एक बार भरि मकर नहाए । सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए ॥
जागबलिक मुनि परम बिबेकी । भरद्वाज राखे पद टेकी॥
अर्थ- एक बार पूरे मकरभर स्नान करके सब मुनीश्वर अपने-अपने आश्रमोंको लौट गये । परम ज्ञानी याज्ञवल्क्य मुनिको चरण पकड़कर भरद्वाजजीने रख लिया॥
सादर चरन सरोज पखारे । अति पुनीत आसन बैठारे ॥
करि पूजा मुनि सुजसु बखानी । बोले अति पुनीत मृदु बानी ॥
अर्थ- आदरपूर्वक उनके चरणकमल धोये और बड़े ही पवित्र आसनपर उन्हें बैठाया । पूजा करके मुनि याज्ञवल्क्यजीके सुयशका वर्णन किया और फिर अत्यन्त पवित्र और कोमल वाणीसे बोले—॥
नाथ एक संसउ बड़ मोरें । करगत बेदतत्त्व सबु तोरें ॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा । जौं न कहउँ बड़ होइ अकाजा ॥
अर्थ- हे नाथ! मेरे मनमें एक बड़ा सन्देह है; वेदोंका तत्त्व सब आपकी मुट्ठीमें है (अर्थात् आप ही वेदका तत्त्व जाननेवाले होनेके कारण मेरा सन्देह निवारण कर सकते हैं) पर उस सन्देहको कहते मुझे भय और लाज आती है [ भय इसलिये कि कहीं आप यह न समझें कि मेरी परीक्षा ले रहा है, लाज इसलिये कि इतनी आयु बीत गयी, अबतक ज्ञान न हुआ] और यदि नहीं कहता तो बड़ी हानि होती है [ क्योंकि अज्ञानी बना रहता हूँ]॥
दो०—संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव ।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव ॥
अर्थ- हे प्रभो! संतलोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरुके साथ छिपाव करनेसे हृदयमें निर्मल ज्ञान नहीं होता ॥
अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू । हरहु नाथ करि जन पर छोहू ॥
राम नाम कर अमित प्रभावा । संत पुरान उपनिषद गावा ॥
अर्थ- यही सोचकर मैं अपना अज्ञान प्रकट करता हूँ । हे नाथ! सेवकपर कृपा करके इस अज्ञानका नाश कीजिये। संतों, पुराणों और उपनिषदोंने रामनामके असीम प्रभावका गान किया है॥
संतत जपत संभु अबिनासी । सिव भगवान ग्यान गुन रासी ॥
आकर चारि जीव जग अहहीं । कासीं मरत परम पद लहहीं ॥
अर्थ- कल्याणस्वरूप, ज्ञान और गुणोंकी राशि, अविनाशी भगवान् शम्भु निरन्तर रामनामका जप करते रहते हैं । संसारमें चार जातिके जीव हैं, काशीमें मरनेसे सभी परमपदको प्राप्त करते हैं॥
सोपि राम महिमा मुनिराया । सिव उपदेसु करत करि दाया ॥
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही । कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही ॥
अर्थ- हे मुनिराज ! वह भी राम [नाम] की ही महिमा है, क्योंकि शिवजी महाराज दया करके [काशीमें मरनेवाले जीवको ] रामनामका ही उपदेश करते हैं [ इसीसे उनको परमपद मिलता है]। हे प्रभो! मैं आपसे पूछता हूँ कि वे राम कौन हैं ? हे कृपानिधान ! मुझे समझाकर कहिये ॥
एक राम अवधेस कुमारा । तिन्ह कर चरित बिदित संसारा ॥
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयउ रोषु रन रावनु मारा ॥
अर्थ- एक राम तो अवधनरेश दशरथजीके कुमार हैं, उनका चरित्र सारा संसार जानता है। उन्होंने स्त्रीके विरहमें अपार दुःख उठाया और क्रोध आनेपर युद्धमें रावणको मार डाला॥
दो० – प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि ।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि ॥
अर्थ- हे प्रभो! वही राम हैं या और कोई दूसरे हैं, जिनको शिवजी जपते हैं ? आप सत्यके धाम हैं और सब कुछ जानते हैं, ज्ञान विचारकर कहिये ॥
जैसें मिटै मोर भ्रम भारी । कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी ॥
जागबलिक बोले मुसुकाई । तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई ॥
अर्थ- हे नाथ! जिस प्रकारसे मेरा यह भारी भ्रम मिट जाय, आप वही कथा विस्तारपूर्वक कहिये । इसपर याज्ञवल्क्यजी मुसकराकर बोले, श्रीरघुनाथजीकी प्रभुताको तुम जानते हो॥१॥
रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी । चतुराई तुम्हारि मैं जानी ॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा । कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा ॥
अर्थ- तुम मन, वचन और कर्मसे श्रीरामजीके भक्त हो । तुम्हारी चतुराईको मैं जान गया । तुम श्रीरामजीके रहस्यमय गुणोंको सुनना चाहते हो; इसीसे तुमने ऐसा प्रश्न किया है मानो बड़े ही मूढ़ हो ॥
तात सुनहु सादर मनु लाई । कहउँ राम कै कथा सुहाई ॥
महामोहु महिषेसु महिषेसु बिसाला | रामकथा कालिका कराला ॥
अर्थ- हे तात! तुम आदरपूर्वक मन लगाकर सुनो; मैं श्रीरामजीकी सुन्दर कथा कहता हूँ । बड़ा भारी अज्ञान विशाल महिषासुर है और श्रीरामजीकी कथा [ उसे नष्ट कर देनेवाली ] भयंकर कालीजी हैं॥
रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना ॥
ऐसेड़ संसय कीन्ह भवानी | महादेव तब कहा बखानी ॥
अर्थ- श्रीरामजीकी कथा चन्द्रमाकी किरणोंके समान है, जिसे संतरूपी चकोर सदा पान करते हैं। ऐसा ही सन्देह पार्वतीजीने किया था, तब महादेवजीने विस्तारसे उसका उत्तर दिया था॥
दो० – कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद ।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद ॥
अर्थ- अब मैं अपनी बुद्धिके अनुसार वही उमा और शिवजीका संवाद कहता हूँ । वह जिस समय और जिस हेतुसे हुआ, उसे हे मुनि ! तुम सुनो, तुम्हारा विषाद मिट जायगा ॥
एक बार त्रेता जुग माहीं । संभु गए कुंभज रिषि पाहीं ॥
संग सती जगजननि भवानी । पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी ॥
अर्थ- एक बार त्रेतायुगमें शिवजी अगस्त्य ऋषिके पास गये । उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषिने सम्पूर्ण जगत्के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया ॥
रामकथा मुनिबर्ज बखानी । सुनी महेस परम सुखु मानी ॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई । कही संभु अधिकारी पाई ॥*
अर्थ- मुनिवर अगस्त्यजीने रामकथा विस्तारसे कही, जिसको महेश्वरने परम सुख मानकर सुना । फिर ऋषिने शिवजीसे सुन्दर हरिभक्ति पूछी और शिवजीने उनको अधिकारी पाकर [ रहस्यसहित ] भक्तिका निरूपण किया ॥
कहत सुनत रघुपति गुन गाथा । कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा ॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी । चले भवन सँग दच्छकुमारी ॥
अर्थ- श्रीरघुनाथजीके गुणोंकी कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनोंतक शिवजी वहाँ रहे । फिर मुनिसे विदा माँगकर शिवजी दक्षकुमारी सतीजीके साथ घर ( कैलास ) को चले ॥
तेहि अवसर भंजन महिभारा । हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा ॥
पिता बचन तजि राजु उदासी । दंडक बन बिचरत अबिनासी ॥
अर्थ- उन्हीं दिनों पृथ्वीका भार उतारनेके लिये श्रीहरिने रघुवंशमें अवतार लिया था । वे अविनाशी भगवान् उस समय पिताके वचनसे राज्यका त्याग करके तपस्वी या साधुवेशमें दण्डकवनमें विचर रहे थे॥
दो० – हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ ।
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ ॥
अर्थ- शिवजी हृदयमें विचारते जा रहे थे कि भगवान्के दर्शन मुझे किस प्रकार हों । प्रभुने गुप्तरूपसे अवतार लिया है, मेरे जानेसे सब लोग जान जायँगे ॥
सो० – संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ ।
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची ॥
अर्थ- श्रीशङ्करजीके हृदयमें इस बातको लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गयी, परन्तु सतीजी इस भेदको नहीं जानती थीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजीके मनमें [ भेद खुलनेका] डर था, परन्तु दर्शनके लोभसे उनके नेत्र ललचा रहे थे ॥
रावन मरन मनुज कर जाचा । प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा ॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा । करत बिचारु न बनत बनावा ॥
अर्थ- रावणने [ब्रह्माजीसे] अपनी मृत्यु मनुष्यके हाथसे माँगी थी। ब्रह्माजीके वचनोंको प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह जायगा । इस प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती थी ॥
एहि बिधि भए सोचबस ईसा । तेही समय जाइ दससीसा ॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा । भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा ॥
अर्थ- इस प्रकार महादेवजी चिन्ताके वश हो गये । उसी समय नीच रावणने जाकर मारीचको साथ लिया और वह ( मारीच) तुरंत कपटमृग बन गया॥
करि छलु मूढ़ हरी बैदेही । प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही ॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए । आश्रमु देखि नयन जल छाए ॥
अर्थ- मूर्ख (रावण) ने छल करके सीताजीको हर लिया । उसे श्रीरामचन्द्रजीके वास्तविक प्रभावका कुछ भी पता न था । मृगको मारकर भाई लक्ष्मणसहित श्रीहरि आश्रममें आये और उसे खाली देखकर (अर्थात् वहाँ सीताजीको न पाकर ) उनके नेत्रोंमें आँसू भर आये ॥
बिरह बिकल नर इव रघुराई । खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई ॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें । देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें ॥
अर्थ- श्रीरघुनाथजी मनुष्योंकी भाँति विरहसे व्याकुल हैं और दोनों भाई वनमें सीताको खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरहका दुःख देखा गया ॥
दो०—अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन ॥
अर्थ- श्रीरघुनाथजीका चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं । जो मन्दबुद्धि हैं, वे तो विशेषरूपसे मोहके वश होकर हृदयमें कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं ॥
संभु समय तेहि रामहि देखा । उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी । कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी ॥
अर्थ- श्रीशिवजीने उसी अवसरपर श्रीरामजीको देखा और उनके हृदयमें बहुत भारी आनन्द उत्पन्न हुआ। उन शोभाके समुद्र ( श्रीरामचन्द्रजी) को शिवजीने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया ॥
जय सच्चिदानंद जग पावन । अस कहि चलेउ मनोज नसावन ॥
चले जात सिव सती समेता । पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता ॥
अर्थ- जगत्के पवित्र करनेवाले सच्चिदानन्दकी जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेवका नाश करनेवाले श्रीशिवजी चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार- बार आनन्दसे पुलकित होते हुए सतीजीके साथ चले जा रहे थे॥
सतीं सो दसा संभु कै देखी । उर उपजा संदेहु बिसेषी ॥
संकरु जगतबंध जगदीसा । सुर नर मुनि सब नावत सीसा ॥
अर्थ- सतीजीने शङ्करजीकी वह दशा देखी तो उनके मनमें बड़ा सन्देह उत्पन्न हो गया । [वे मन-ही-मन कहने लगीं कि ] शङ्करजीकी सारा जगत् वन्दना करता है, वे जगत्के ईश्वर हैं; देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं ॥
तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा । कहि सच्चिदानंद परधामा ॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी । अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥
अर्थ- उन्होंने एक राजपुत्रको सच्चिदानन्द परमधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गये कि अबतक उनके हृदयमें प्रीति रोकनेसे भी नहीं रुकती॥
दो० – ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद ।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद ॥
अर्थ- जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है, और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है ? ॥
बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी । सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी ॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी । ग्यानधामश्रीपति असुरारी ॥
अर्थ- देवताओंके हितके लिये मनुष्यशरीर धारण करनेवाले जो विष्णुभगवान् हैं, वे भी शिवजीकी ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञानके भण्डार, लक्ष्मीपति और असुरोंके शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानीकी तरह स्त्रीको खोजेंगे ? ॥
संभुगिरा पुनि मृषा न होई । सिव सर्बग्य जान सबु कोई ॥
अस संसय मन भयउ अपारा । होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा ॥
अर्थ- फिर शिवजीके वचन भी झूठे नहीं हो सकते । सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं । सतीके मनमें इस प्रकारका अपार सन्देह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदयमें ज्ञानका प्रादुर्भाव नहीं होता था॥
जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी ॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ । संसय अस न धरिअ उर काऊ ॥
अर्थ- यद्यपि भवानीजीने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गये । वे बोले- हे सती ! सुनो, तुम्हारा स्त्रीस्वभाव है । ऐसा सन्देह मनमें कभी न रखना चाहिये॥
जासु कथा कुंभज रिषि गाई । भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई ॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा । सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ॥
अर्थ- जिनकी कथाका अगस्त्य ऋषिने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनिको सुनायी, ये वही मेरे इष्टदेव श्रीरघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं॥
छं० – मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं ॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी ।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी ॥
अर्थ- ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरन्तर निर्मल चित्तसे जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, और शास्त्र;नेति-नेति कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्माण्डोंके स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतन्त्र ब्रह्मरूप भगवान् श्रीरामजीने अपने भक्तोंके हितके लिये [अपनी इच्छासे] रघुकुलके मणिरूपमें अवतार लिया है।
सो० – लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु ।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ ॥
अर्थ- यद्यपि शिवजीने बहुत बार समझाया, फिर भी सतीजीके हृदयमें उनका उपदेश नहीं बैठा । तब महादेवजी मनमें भगवान्की मायाका बल जानकर मुसकराते हुए बोले – ॥
जौं तुम्हरें मन अति संदेहू । तौ किन जाइ परीछा लेहू ॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं । जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं ॥
अर्थ- जो तुम्हारे मनमें बहुत सन्देह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती ? जबतक तुम मेरे पास लौट आओगी तबतक मैं इसी बड़की छाँहमें बैठा हूँ ॥
जैसें जाइ मोह भ्रम भारी । करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी ॥
चलीं सती सिव आयसु पाई । करहिं बिचारु करौं का भाई ॥
अर्थ- जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, [ भलीभाँति ] विवेकके द्वारा सोच – समझकर तुम वही करना । शिवजीकी आज्ञा पाकर सती चलीं और मनमें सोचने लगीं कि भाई ! क्या करूँ (कैसे परीक्षा लूँ) ? ॥
इहाँ संभु अस मन अनुमाना । दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना ॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं । बिधि बिपरीत भलाई नाहीं ॥
अर्थ- इधर शिवजीने मनमें ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सतीका कल्याण नहीं है । जब मेरे समझानेसे भी सन्देह दूर नहीं होता तब [ मालूम होता है ] विधाता ही उलटे हैं, अब सतीका कुशल नहीं है॥
होइहि सोइ जो राम रचि राखा । को करि तर्क बढ़ावै साखा ॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा । गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा ॥
अर्थ- जो कुछ रामने रच रखा है, वही होगा । तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे । [ मनमें] ऐसा कहकर शिवजी भगवान् श्रीहरिका नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गयीं जहाँ सुखके धाम प्रभु श्रीरामचन्द्रजी थे॥
दो० – पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप ।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप ॥
अर्थ- सती बार-बार मनमें विचारकर सीताजीका रूप धारण करके उस मार्गकी ओर आगे होकर चलीं, जिससे [सतीजीके विचारानुसार ] मनुष्योंके राजा रामचन्द्रजी आ रहे थे॥
लछिमन दीख उमाकृत बेषा । चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा ॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा । प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा ॥
अर्थ- सतीजीके बनावटी वेषको देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गये और उनके हृदयमें बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गम्भीर हो गये, कुछ कह नहीं सके। धीरबुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजीके प्रभावको जानते थे॥
सती कपटु जानेउ सुरस्वामी । सबदरसी सब अंतरजामी ॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना । सोइ सरबग्य रामु भगवाना ॥
अर्थ- सब कुछ देखनेवाले और सबके हृदयकी जाननेवाले देवताओंके स्वामी श्रीरामचन्द्रजी सतीके कपटको जान गये; जिनके स्मरणमात्रसे अज्ञानका नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी हैं ॥
सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ । देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी । बोले बिहसि रामु मृदु बानी ||
अर्थ- स्त्रीस्वभावका असर तो देखो कि वहाँ (उन सर्वज्ञ भगवान्के सामने) भी सतीजी छिपाव करना चाहती हैं। अपनी मायाके बलको हृदयमें बखानकर, श्रीरामचन्द्रजी हँसकर कोमल वाणीसे बोले ॥
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू । पिता समेत लीन्ह निज नामू ॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू । बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू ॥
अर्थ- पहले प्रभुने हाथ जोड़कर सतीको प्रणाम किया और पितासहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं ? आप यहाँ वनमें अकेली किसलिये फिर रही हैं ? ॥
दो० – राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु ।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु ॥
अर्थ- श्रीरामचन्द्रजीके कोमल और रहस्यभरे वचन सुनकर सतीजीको बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई (चुपचाप ) शिवजीके पास चलीं, उनके हृदयमें बड़ी चिन्ता हो गयी — ॥
मैं संकर कर कहा न माना । निज अग्यानु राम पर आना ॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा । उर उपजा अति दारुन दाहा ॥
अर्थ- कि मैंने शङ्करजीका कहना न माना और अपने अज्ञानका श्रीरामचन्द्रजीपर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजीको क्या उत्तर दूँगी ? [यों सोचते-सोचते ] सतीजीके हृदयमें अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गयी ॥
जाना राम सतीं दुखु पावा । निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा ॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता ॥
अर्थ- श्रीरामचन्द्रजीने जान लिया कि सतीजीको दुःख हुआ; तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजीने मार्गमें जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्रीरामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजीसहित आगे चले जा रहे हैं । [ इस अवसरपर सीताजीको इसलिये दिखाया कि सतीजी श्रीरामके सच्चिदानन्दमय रूपको देखें, वियोग और दुःखकी कल्पना जो उन्हें हुई थी वह दूर हो जाय तथा वे प्रकृतिस्थ हों ]
फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा । सहित बंधु सिय सुंदर बेषा ॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना । सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना ॥
अर्थ- [तब उन्होंने] पीछेकी ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजीके साथ श्रीरामचन्द्रजी सुन्दर वेषमें दिखायी दिये। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्रीरामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं ॥
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका ॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा । बिबिध बेष देखे सब देवा ॥
अर्थ- सतीजीने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक-से-एक बढ़कर असीम प्रभाववाले थे। [उन्होंने देखा कि] भाँति-भाँतिके वेष धारण किये सभी देवता श्रीरामचन्द्रजीकी चरणवन्दना और सेवा कर रहे हैं ॥
दो० – सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप ।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप ॥
अर्थ- उन्होंने अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूपमें ब्रह्मा आदि देवता थे, उसीके अनुकूल रूपमें [उनकी] ये सब [ शक्तियाँ ] भी थीं ॥
देखे जहँ तहँ रघुपति जेते । सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते ॥
जीव चराचर जो संसारा । देखे सकल अनेक प्रकारा ॥
अर्थ- सतीजीने जहाँ-तहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियोंसहित वहाँ उतने ही सारे देवताओंको भी देखा। संसारमें जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकारसे सब देखे॥
पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा । राम रूप दूसर नहिं देखा ॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे । सीता सहित नबेष घनेरे ॥
अर्थ- [उन्होंने देखा कि] अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्रीरामचन्द्रजीकी पूजा कर रहे हैं । परन्तु श्रीरामचन्द्रजीका दूसरा रूप कहीं नहीं देखा । सीतासहित श्रीरघुनाथजी बहुत-से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे ॥
सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता । देखि सती अति भईं सभीता ॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं । नयन मूदि बैठीं मग माहीं ॥
अर्थ- [सब जगह] वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी – सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गयीं। उनका हृदय काँपने लगा और देहकी सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गयीं ॥
बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी । कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी ॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा । चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा ॥
अर्थ- फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी ) को कुछ भी न दीख पड़ा। तब वे बार-बार श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें सिर नवाकर वहाँ चलीं जहाँ श्रीशिवजी थे॥
दो० – गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात ।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात ॥
अर्थ- जब पास पहुँचीं, तब श्रीशिवजीने हँसकर कुशल – प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजीकी किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच – सच कहो ॥
सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ । भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं । कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं ॥
अर्थ- सतीजीने श्रीरघुनाथजीके प्रभावको समझकर डरके मारे शिवजीसे छिपाव किया और कहा— हे स्वामिन्! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, [वहाँ जाकर] आपकी ही तरह प्रणाम किया ॥
जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई । मोरें मन प्रतीति अति सोई ॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना । सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना ॥
अर्थ- आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मनमें यह बड़ा ( पूरा ) विश्वास है । तब शिवजीने ध्यान करके देखा और सतीजीने जो चरित्र किया था, सब जान लिया ॥
बहुरि राममायहि सिरु नावा । प्रेरि सतिहि जेहिं झूठ कहावा ॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना ॥
अर्थ- फिर श्रीरामचन्द्रजीकी मायाको सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सतीके मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान शिवजीने मनमें विचार किया कि हरिकी इच्छारूपी भावी प्रबल है॥
सतीं कीन्ह सीता कर बेषा । सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा ॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती । मिटइ भगति पथु होइ अनीती ॥
अर्थ- सतीजीने सीताजीका वेष धारण किया, यह जानकर शिवजीके हृदयमें बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सतीसे प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है॥
दो० – परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु ।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु ॥ ५६ ॥
अर्थ- सती परम पवित्र हैं, इसलिये इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करनेमें बड़ा पाप है । प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदयमें बड़ा सन्ताप है ॥
तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा ॥
एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं । सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं ॥
अर्थ- तब शिवजीने प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंमें सिर नवाया और श्रीरामजीका स्मरण करते ही उनके मनमें यह आया कि सतीके इस शरीरसे मेरी [ पति – पत्नीरूपमें] भेंट नहीं हो सकती और शिवजीने अपने मनमें यह सङ्कल्प कर लिया ॥
अस बिचारि संकरु मतिधीरा । चले भवन सुमिरत रघुबीरा ॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई । जय महेस भलि भगति दृढ़ाई ॥
अर्थ- स्थिरबुद्धि शङ्करजी ऐसा विचारकर श्रीरघुनाथजीका स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय सुन्दर आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो । आपने भक्तिकी अच्छी दृढ़ता की ॥
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना ॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा ॥
अर्थ- आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है ? आप श्रीरामचन्द्रजीके भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान् हैं। इस आकाशवाणीको सुनकर सतीजी के मनमें चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजीसे पूछा-॥
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला । सत्यधाम प्रभु दीनदयाला ॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती । तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती ॥
अर्थ- हे कृपालु! कहिये, आपने कौन – सी प्रतिज्ञा की है ? हे प्रभो ! आप सत्यके धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजीने बहुत प्रकारसे पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजीने कुछ न कहा॥
दो० – सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य ।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य ॥
अर्थ- सतीजीने हृदयमें अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गये। मैंने शिवजीसे कपट किया, स्त्री स्वभावसे ही मूर्ख और बेसमझ होती हैं ॥
सो० – जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि ।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि ॥
अर्थ- प्रीतिकी सुन्दर रीति देखिये कि जल भी [ दूधके साथ मिलकर ] दूधके समान भाव बिकता है; परन्तु फिर कपटरूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद [प्रेम] जाता रहता है ॥
हृदयँ सोचु समुझत निज करनी । चिंता अमित जाइ नहिं बरनी ॥
कृपासिंधु सिव परम अगाधा । प्रगट न कहेउ मोर अपराधा ॥
अर्थ- अपनी करनीको याद करके सतीजीके हृदयमें इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। [उन्होंने समझ लिया कि ] शिवजी कृपाके परम अथाह सागर हैं, इससे प्रकटमें उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा॥
संकर रुख अवलोकि भवानी । प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी ॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई । तपइ अवाँ इव उर अधिकाई ॥
अर्थ- शिवजीका रुख देखकर सतीजीने जान लिया कि स्वामीने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदयमें व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परन्तु हृदय [ भीतर-ही-भीतर ] कुम्हारके आँवेके समान अत्यन्त जलने लगा ॥
सतिहि ससोच जानि बृषकेतू । कहीं कथा सुंदर सुखहेतू ॥
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा | बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा ॥
अर्थ- वृषकेतु शिवजीने सतीको चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देनेके लिये सुन्दर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्गमें विविध प्रकारके इतिहासोंको कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे॥
तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन | बैठे बटतर करि कमलासन ॥
संकर सहज सरूपु सम्हारा । लागि समाधि अखंड अपारा ॥
अर्थ- वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञाको याद करके बड़के पेड़के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गये । शिवजीने अपना स्वाभाविक रूप सँभाला। उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गयी ॥
दो० – सती बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं ।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं ॥
अर्थ- तब सतीजी कैलासपर रहने लगीं। उनके मनमें बड़ा दुःख था । इस रहस्यको कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युगके समान बीत रहा था ॥
नित नव सोचु सती उर भारा । कब जैहउँ दुख सागर पारा ॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना । पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना ॥
अर्थ- सतीजीके हृदयमें नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख – समुद्रके पार कब जाऊँगी। मैंने जो श्रीरघुनाथजीका अपमान किया और फिर पतिके वचनोंको झूठ जाना – ॥
सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा । जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा ॥
अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही । संकर बिमुख जिआवसि मोही ॥
अर्थ- उसका फल विधाताने मुझको दिया, जो उचित था वही किया; परन्तु हे विधाता ! अब तुझे यह उचित नहीं है जो शङ्करसे विमुख होनेपर भी मुझे जिला रहा है ॥
कहि न जाइ कछु हृदय गलानी । मन महुँ रामहि सुमिर सयानी ॥
जौं प्रभु दीनदयालु कहावा । आरति हरन बेद जसु गावा ॥
अर्थ- सतीजीके हृदयकी ग्लानि कुछ कही नहीं जाती । बुद्धिमती सतीजीने मनमें श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण किया और कहा- हे प्रभो ! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदोंने आपका यह यश गाया है कि आप दुःखको हरनेवाले हैं,॥
तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेग देह यह मोरी ॥
जौं मोरें सिव चरन सनेहू । मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू ॥
अर्थ- तो मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाय । यदि मेरा शिवजीके चरणोंमें प्रेम है और मेरा यह [ प्रेमका ] व्रत मन, वचन और कर्म (आचरण) से सत्य है, ॥
दो० – तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ ।
होइ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ ॥
अर्थ- तो हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनिये और शीघ्र वह उपाय कीजिये जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम यह [ पति-परित्यागरूपी ] असह्य विपत्ति दूर हो जाय ॥
एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी । अकथनीय दारुन दुखु भारी ॥
बीतें संबत सहस सतासी । तजी समाधि संभु अबिनासी ॥
अर्थ- दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दु:खित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जानेपर अविनाशी शिवजीने समाधि खोली ॥
राम नाम सिव सुमिरन लागे । जानेउ सतीं जगतपति जागे ॥
जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा । सनमुख संकर आसनु दीन्हा ॥
अर्थ- शिवजी रामनामका स्मरण करने लगे, तब सतीजीने जाना कि अब जगत्के स्वामी ( शिवजी) जागे । उन्होंने जाकर शिवजीके चरणोंमें प्रणाम किया। शिवजीने उनको बैठनेके लिये सामने आसन दिया॥
लगे कहन हरिकथा रसाला । दच्छ प्रजेस भए तेहि काला ॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक । दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक ॥
अर्थ- शिवजी भगवान् हरिकी रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए । ब्रह्माजीने सब प्रकारसे योग्य देख-समझकर दक्षको प्रजापतियोंका नायक बना दिया॥
बड़ अधिकार दच्छ जब पावा । अति अभिमानु हृदयँ तब आवा ॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं । प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ॥
अर्थ- जब दक्षने इतना बड़ा अधिकार पाया तब उनके हृदयमें अत्यन्त अभिमान आ गया। जगत्में ऐसा कोई नहीं पैदा हुआ जिसको प्रभुता पाकर मद न हो ॥
दो० – दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग ।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग ॥
अर्थ- दक्षने सब मुनियोंको बुला लिया और वे बड़ा यज्ञ करने लगे । जो देवता यज्ञका भाग पाते हैं, दक्षने उन सबको आदरसहित निमन्त्रित किया॥
किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा । बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा ॥
बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई । चले सकल सुर जान बनाई ॥
अर्थ- [दक्षका निमन्त्रण पाकर ] किन्नर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व और सब देवता अपनी-अपनी स्त्रियोंसहित चले। विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजीको छोड़कर सभी देवता अपना-अपना विमान सजाकर चले ॥
सतीं बिलोके ब्योम बिमाना । जात चले सुंदर बिधि नाना ॥
सुर सुंदरी करहिं कल गाना । सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना ॥
अर्थ- सतीजीने देखा अनेकों प्रकारके सुन्दर विमान आकाशमें चले जा रहे हैं। देव – सुन्दरियाँ मधुर गान कर रही हैं, जिन्हें सुनकर मुनियोंका ध्यान छूट जाता है ॥
पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी । पिता जग्य सुनि कछु हरषानी ॥
जौं महेसु मोहि आयसु देहीं । कछु दिन जाइ रहौं मिस एहीं ॥
अर्थ- सतीजीने [विमानोंमें देवताओंके जानेका कारण ] पूछा, तब शिवजीने सब बातें बतलायीं । पिताके यज्ञकी बात सुनकर सती कुछ प्रसन्न हुईं और सोचने लगीं कि यदि महादेवजी मुझे आज्ञा दें, तो इसी बहाने कुछ दिन पिताके घर जाकर रहूँ ॥
पति परित्याग हृदयँ दुखु भारी । कहइ न निज अपराध बिचारी ॥
बोली सती मनोहर बानी । भय संकोच प्रेम रस सानी ॥
अर्थ- क्योंकि उनके हृदयमें पतिद्वारा त्यागी जानेका बड़ा भारी दुःख था, पर अपना अपराध समझकर वे कुछ कहती न थीं । आखिर सतीजी भय, संकोच और प्रेमरसमें सनी हुई मनोहर वाणी बोलीं- ॥
दो० – पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ ।
तौ मैं जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ ॥
अर्थ- हे प्रभो! मेरे पिताके घर बहुत बड़ा उत्सव है। यदि आपकी आज्ञा हो तो हे कृपाधाम ! मैं आदरसहित उसे देखने जाऊँ ॥
कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा । यह अनुचित नहिं नेवत पठावा ॥
दच्छ सकल निज सुता बोलाईं । हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं ॥
अर्थ- शिवजीने कहा—तुमने बात तो अच्छी कही, यह मेरे मनको भी पसंद आयी । पर उन्होंने न्योता नहीं भेजा, यह अनुचित है । दक्षने अपनी सब लड़कियोंको बुलाया है; किन्तु हमारे वैरके कारण उन्होंने तुमको भी भुला दिया ॥
ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना । तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना ॥
जौं बिनु बोलें जाहु भवानी । रहइ न सीलु सनेहु न कानी ॥
अर्थ- एक बार ब्रह्माकी सभामें हमसे अप्रसन्न हो गये थे, उसीसे वे अब भी हमारा अपमान करते हैं । हे भवानी! जो तुम बिना बुलाये जाओगी तो न शील- स्नेह ही रहेगा और न मान-मर्यादा ही रहेगी ॥
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा । जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा ॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई । तहाँ गएँ कल्यानु न होई ॥
अर्थ- यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरुके घर बिना बुलाये भी जाना चाहिये तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जानेसे कल्याण नहीं होता॥
भाँति अनेक संभु समुझावा । भावी बस न ग्यानु उर आवा ॥
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ । नहिं भलि बात हमारे भाएँ ॥
अर्थ- शिवजीने बहुत प्रकारसे समझाया, पर होनहारवश सतीके हृदयमें बोध नहीं हुआ। फिर शिवजीने कहा कि यदि बिना बुलाये जाओगी, तो हमारी समझमें अच्छी बात न होगी॥
दो० – कहि देखा हर जतन बहु रहड़ न दच्छकुमारि ।
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि ॥
अर्थ- शिवजीने बहुत प्रकारसे कहकर देख लिया, किन्तु जब सती किसी प्रकार भी नहीं रुकीं, तब त्रिपुरारि महादेवजीने अपने मुख्य गणोंको साथ देकर उनको विदा कर दिया॥
पिता भवन जब गईं भवानी । दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी ॥
सादर भलेहिं मिली एक माता । भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता ॥
अर्थ- भवानी जब पिता (दक्ष) के घर पहुँचीं, तब दक्षके डरके मारे किसीने उनकी आवभगत नहीं की, केवल एक माता भले ही आदरसे मिली । बहिनें बहुत मुसकराती हुई मिलीं ॥
दच्छ न कछु पूछी कुसलाता । सतिहि बिलोकि जरे सब गाता ॥
सतीं जाइ देखेउ तब जागा । कतहुँ न दीख संभु कर भागा ॥
अर्थ- दक्षने तो उनकी कुछ कुशलतक नहीं पूछी, सतीजीको देखकर उलटे उनके सारे अङ्ग जल उठे। तब सतीने जाकर यज्ञ देखा तो वहाँ कहीं शिवजीका भाग दिखायी नहीं दिया ॥
तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ । प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ ॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा । जस यह भयउ महा परितापा ॥
अर्थ- तब शिवजीने जो कहा था वह उनकी समझमें आया। स्वामीका अपमान समझकर सतीका हृदय जल उठा। पिछला (पतिपरित्यागका) दुःख उनके हृदयमें उतना नहीं व्यापा था, जितना महान् दु:ख इस समय (पति – अपमानके कारण ) हुआ ॥
जद्यपि जग दारुन दुख नाना । सब तें कठिन जाति अवमाना ॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा । बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा ॥
अर्थ- यद्यपि जगत्में अनेक प्रकारके दारुण दुःख हैं, तथापि जाति – अपमान सबसे बढ़कर कठिन है। यह समझकर सतीजीको बड़ा क्रोध हो आया । माताने उन्हें बहुत प्रकारसे समझाया- बुझाया॥
दो० – सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध ।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध ॥
अर्थ- परन्तु उनसे शिवजीका अपमान सहा नहीं गया, इससे उनके हृदयमें कुछ भी प्रबोध नहीं हुआ । तब वे सारी सभाको हठपूर्वक डाँटकर क्रोधभरे वचन बोलीं- ॥
सुनहु सभासद सकल मुनिंदा । कही सुनी जिन्ह संकर निंदा ॥
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ । भली भाँति पछिताब पिताहूँ ॥
अर्थ- हे सभासदो और सब मुनीश्वरो ! सुनो। जिन लोगोंने यहाँ शिवजीकी निन्दा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरंत ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी भलीभाँति पछतायँगे॥
संत संभु श्रीपति अपबादा । सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा ॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई । श्रवन मूदि न त चलिअ पराई ॥
अर्थ- जहाँ संत, शिवजी और लक्ष्मीपति विष्णुभगवान्की निन्दा सुनी जाय वहाँ ऐसी मर्यादा है कि यदि अपना वश चले तो उस ( निन्दा करनेवाले) की जीभ काट ले और नहीं तो कान मूँदकर वहाँसे भाग जाय॥
जगदातमा महेसु पुरारी । जगत जनक सब के हितकारी ॥
पिता मंदमति निंदत तेही । दच्छ सुक्र संभव यह देही ॥
अर्थ- त्रिपुर दैत्यको मारनेवाले भगवान् महेश्वर सम्पूर्ण जगत्के आत्मा हैं, वे जगत्पिता और सबका हित करनेवाले हैं। मेरा मन्दबुद्धि पिता उनकी निन्दा करता है; और मेरा यह शरीर दक्षहीके वीर्यसे उत्पन्न है॥
तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू । उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू ॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा । भयउ सकल मख हाहाकारा ॥
अर्थ- इसलिये चन्द्रमाको ललाटपर धारण करनेवाले वृषकेतु शिवजीको हृदयमें धारण करके मैं इस शरीरको तुरंत ही त्याग दूँगी । ऐसा कहकर सतीजीने योगाग्निमें अपना शरीर भस्म कर डाला । सारी यज्ञशालामें हाहाकार मच गया॥
दो० – सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस ।
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस ॥ ६४ ॥
अर्थ- सतीका मरण सुनकर शिवजीके गण यज्ञ विध्वंस करने लगे । यज्ञ विध्वंस होते देखकर मुनीश्वर भृगुजीने उसकी रक्षा की॥
समाचार सब संकर पाए । बीरभद्रु करि कोप पठाए ॥
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा । सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा ॥
अर्थ- ये सब समाचार शिवजीको मिले, तब उन्होंने क्रोध करके वीरभद्रको भेजा । उन्होंने वहाँ जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला और सब देवताओंको यथोचित फल (दण्ड) दिया॥
भै जगबिदित दच्छ गति सोई । जसि कछु संभु बिमुख कै होई ॥
यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संछेप बखानी ॥
अर्थ- दक्षकी जगत्प्रसिद्ध वही गति हुई जो शिवद्रोहीकी हुआ करती है। यह इतिहास सारा संसार जानता है, इसलिये मैंने संक्षेपमें वर्णन किया ॥
सतीं मरत हरि सन बरु मागा । जनम जनम सिव पद अनुरागा ॥
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई । जनमीं पारबती तनु पाई ॥
अर्थ- सतीने मरते समय भगवान् हरिसे यह वर माँगा कि मेरा जन्म – जन्ममें शिवजीके चरणोंमें अनुराग रहे। इसी कारण उन्होंने हिमाचलके घर जाकर पार्वतीके शरीरसे जन्म लिया॥
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बालकाण्ड सीताराम शिव पार्वती वंदना
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