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बालकाण्ड सीताराम शिव पार्वती वंदना
दो० – अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं ।
चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं ॥ १३ ॥
अर्थ- जो अत्यन्त बड़ी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उनपर पुल बँधा देता है तो अत्यन्त छोटी चींटियाँ भी उनपर चढ़कर बिना ही परिश्रमके पार चली जाती हैं [ इसी प्रकार मुनियोंके वर्णनके सहारे मैं भी श्रीरामचरित्रका वर्णन सहज ही कर सकूँगा]॥
एहि प्रकार बल मनहि देखाई । करिहउँ रघुपति कथा सुहाई ॥
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना । जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना ॥
अर्थ- इस प्रकार मनको बल दिखलाकर मैं श्रीरघुनाथजीकी सुहावनी कथाकी रचना करूँगा । व्यास आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गये हैं, जिन्होंने बड़े आदरसे श्रीहरिका सुयश वर्णन किया है ॥
चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे । पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे ॥
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा । जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा ॥
अर्थ- मैं उन सब (श्रेष्ठ कवियों) के चरणकमलोंमें प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथोंको पूरा करें। कलियुगके भी उन कवियोंको मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने श्रीरघुनाथजीके गुणसमूहोंका वर्णन किया है ॥ २ ॥
जे प्राकृत कबि परम सयाने । भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने ॥
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें । प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें ॥
अर्थ- जो बड़े बुद्धिमान् प्राकृत कवि हैं, जिन्होंने भाषामें हरिचरित्रोंका वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सबको मैं सारा कपट त्याग – कर प्रणाम करता हूँ॥
होहु प्रसन्न देहु बरदानू । साधु समाज भनिति सनमानू ॥
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं । सो श्रम बादि बाल कबि करहीं ॥
अर्थ- आप सब प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिये कि साधु-समाजमें मेरी कविताका सम्मान हो; क्योंकि बुद्धिमान् लोग जिस कविताका आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही उसकी रचनाका व्यर्थ परिश्रम करते हैं ॥
कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई ॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा | असमंजस अस मोहि अँदेसा ॥
अर्थ- कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है जो गङ्गाजीकी तरह सबका हित करनेवाली हो । श्रीरामचन्द्रजीकी कीर्ति तो बड़ी सुन्दर ( सबका अनन्त कल्याण करनेवाली ही) है, परन्तु मेरी कविता भद्दी है। यह असामञ्जस्य है (अर्थात् इन दोनोंका मेल नहीं मिलता), इसीकी मुझे चिन्ता है॥५॥
तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे । सिअनि सुहावनि टाट पटोरे ॥
अर्थ- परन्तु हे कवियो! आपकी कृपासे यह बात भी मेरे लिये सुलभ हो सकती है । रेशमकी सिलाई टाटपर भी सुहावनी लगती है ॥
दो० – सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान ॥
अर्थ- चतुर पुरुष उसी कविताका आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्रका वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक वैरको भूलकर सराहना करने लगें ॥
सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर ।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर ॥
अर्थ- ऐसी कविता बिना निर्मल बुद्धिके होती नहीं और मेरे बुद्धिका बल बहुत ही थोड़ा है। इसलिये बार-बार निहोरा करता हूँ कि हे कवियो ! आप कृपा करें, जिससे मैं हरियशका वर्णन कर सकूँ॥
कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल ।
बालबिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल ॥
अर्थ- कवि और पण्डितगण ! आप जो रामचरित्ररूपी मानसरोवरके सुन्दर हंस हैं, विनती सुनकर और सुन्दर रुचि देखकर मुझपर कृपा करें ॥
सो० – बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ ।
मुझ बालककी सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित ॥ १४ (घ ) ॥
अर्थ- मैं उन वाल्मीकि मुनिके चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ, जिन्होंने रामायणकी रचना की है, जो खर (राक्षस) सहित होनेपर भी खर (कठोर) से विपरीत बड़ी कोमल और सुन्दर है तथा जो दूषण (राक्षस) सहित होनेपर भी दूषण अर्थात् दोषसे रहित है ॥
बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस ।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु ॥
अर्थ- मैं चारों वेदोंकी वन्दना करता हूँ, जो संसारसमुद्रके पार होनेके लिये जहाजके समान हैं तथा जिन्हें श्रीरघुनाथजीका निर्मल यश वर्णन करते स्वप्नमें भी खेद (थकावट ) नहीं होता ॥
बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ ।
संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी ॥
अर्थ- मैं ब्रह्माजीके चरण-रजकी वन्दना करता हूँ जिन्होंने भवसागर बनाया है, जहाँसे एक ओर संतरूपी अमृत, चन्द्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्यरूपी विष और मदिरा उत्पन्न हुए॥ १४ (च) ॥ दो० – बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि ।
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि ॥
अर्थ- देवता, ब्राह्मण, पण्डित, ग्रह – इन सबके चरणोंकी वन्दना करके हाथ जोड़कर कहता हूँ कि आप प्रसन्न होकर मेरे सारे सुन्दर मनोरथोंको पूरा करें ॥
पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता । जुगल पुनीत मनोहर चरिता ॥
मज्जन पान पाप हर एका । कहत सुनत एक हर अबिबेका ॥
अर्थ- फिर मैं सरस्वतीजी और देवनदी गङ्गाजीकी वन्दना करता हूँ। दोनों पवित्र और मनोहर चरित्रवाली हैं। एक (गङ्गाजी) स्नान करने और जल पीनेसे पापोंको हरती हैं और दूसरी (सरस्वतीजी) गुण और यश कहने और सुननेसे अज्ञानका नाश कर देती हैं॥
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी ॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के । हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के ॥
अर्थ- श्रीमहेश और पार्वतीको मैं प्रणाम करता हूँ, जो मेरे गुरु और माता – पिता हैं, जो दीनबन्धु और नित्य दान करनेवाले हैं, जो सीतापति श्रीरामचन्द्रजीके सेवक, स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदासका सब प्रकारसे कपटरहित (सच्चा) हित करनेवाले हैं॥२॥
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा । साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा ॥
प्रभाउ महेस प्रतापू ॥
अर्थ- जिन शिव-पार्वतीने कलियुगको देखकर, जगत् के हितके लिये, शाबर मन्त्रसमूहकी रचना की, जिन मन्त्रोंके अक्षर बेमेल हैं, जिनका न कोई ठीक अर्थ होता है और न जप ही होता है, तथापि श्रीशिवजीके प्रतापसे जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष है ॥
अनमिल आखर अरथ न जापू । प्रगट सो उमेस मोहि पर अनुकूला ।
करिहिं कथा मुद मंगल मूला ॥ सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ । बरनउँ रामचरित चित चाऊ ॥
अर्थ- वे उमापति शिवजी मुझपर प्रसन्न होकर [ श्रीरामजीकी] इस कथाको आनन्द और मङ्गलकी मूल (उत्पन्न करनेवाली) बनायेंगे। इस प्रकार पार्वतीजी और शिवजी दोनोंका स्मरण करके और उनका प्रसाद पाकर मैं चावभरे चित्तसे श्रीरामचरित्रका वर्णन करता हूँ ॥
भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती । ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती ॥ जे एहि कथहि सनेह समेता । कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता ॥ होइहहिं राम चरन अनुरागी । कलि मल रहित सुमंगल भागी ॥
अर्थ- मेरी कविता श्रीशिवजीकी कृपासे ऐसी सुशोभित होगी, जैसी तारागणोंके सहित चन्द्रमाके साथ रात्रि शोभित होती है । जो इस कथाको प्रेमसहित एवं सावधानीके साथ समझ-बूझकर कहें – सुनेंगे, वे कलियुगके पापोंसे रहित और सुन्दर कल्याणके भागी होकर श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंके प्रेमी बन जायँगे॥
दो० – सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ ।
तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ ॥
अर्थ- यदि मुझपर श्रीशिवजी और पार्वतीजीकी स्वप्न में भी सचमुच प्रसन्नता हो, तो मैंने इस भाषा, कविताका जो प्रभाव कहा है, वह सब सच हो ॥
बंदउँ अवध पुरी अति पावनि । सरजू सरि कलि कलुष नसावनि ॥
प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी | ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी ॥
अर्थ- मैं अति पवित्र श्रीअयोध्यापुरी और कलियुगके पापोंका नाश करनेवाली श्रीसरयू नदीकी वन्दना करता हूँ। फिर अवधपुरीके उन नर-नारियोंको प्रणाम करता हूँ जिनपर प्रभु श्रीरामचन्द्रजीकी ममता थोड़ी नहीं है ( अर्थात् बहुत है ) ॥
सिय निंदक अघ ओघ नसाए । लोक बिसोक बनाइ बसाए ॥
बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची । कीरति जासु सकल जग माची ॥
अर्थ- उन्होंने [अपनी पुरीमें रहनेवाले] सीताजीकी निन्दा करनेवाले (धोबी और उसके समर्थक पुर-नर-नारियों) के पापसमूहको नाश कर उनको शोकरहित बनाकर अपने लोक ( धाम) में बसा दिया। मैं कौसल्यारूपी पूर्व दिशाकी वन्दना करता हूँ, जिसकी कीर्ति समस्त संसारमें फैल रही है॥
प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू । बिस्व सुखद खल कमल तुसारू ॥ दसरथ राउ सहित सब रानी । सुकृत सुमंगल मूरति मानी ॥ करउँ प्रनाम करम मन बानी । करहु कृपा सुत सेवक जानी ॥ जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता । महिमा अवधि राम पितु माता ॥
अर्थ- जहाँ (कौसल्यारूपी पूर्व दिशा) से विश्वको सुख देनेवाले और दुष्टरूपी कमलोंके लिये पालेके समान श्रीरामचन्द्रजीरूपी सुन्दर चन्द्रमा प्रकट हुए। सब रानियोंसहित राजा दशरथजीको पुण्य और सुन्दर कल्याणकी मूर्ति मानकर मैं मन, वचन और कर्मसे प्रणाम करता हूँ। अपने पुत्रका सेवक जानकर वे मुझपर कृपा करें, जिनको रचकर ब्रह्माजीने भी बड़ाई पायी तथा जो श्रीरामजीके माता और पिता होनेके कारण महिमाकी सीमा हैं ॥
सो० – बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद ।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ ॥
अर्थ- मैं अवधके राजा श्रीदशरथजीकी वन्दना करता हूँ, जिनका श्रीरामजीके चरणोंमें सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु प्रभुके बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीरको मामूली तिनकेकी तरह त्याग दिया ॥
प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू । जाहि राम पद गूढ़ जोग भोग महँ राखेउ गोई ।
राम बिलोकत प्रगटेउ सनेहू सोई ॥
अर्थ- मैं परिवारसहित राजा जनकजीको प्रणाम करता हूँ, जिनका श्रीरामजीके चरणोंमें गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोगमें छिपा रखा था, परन्तु श्रीरामचन्द्रजीको देखते ही वह प्रकट हो गया॥१॥
प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना । जासु नेम ब्रत जाइ न बरना ॥
राम चरन पंकज मन जासू । लुबुध मधुप इव तजइ न पासू ॥
अर्थ- [भाइयोंमें] सबसे पहले मैं श्रीभरतजीके चरणोंको प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता तथा जिनका मन श्रीरामजीके चरणकमलोंमें भौरेकी तरह लुभाया हुआ है, कभी उनका पास नहीं छोड़ता ॥
बंदउँ लछिमन पद जलजाता । सीतल सुभग भगत सुखदाता ॥
रघुपति कीरति बिमल पताका । दंड समान भयउ जस जाका ॥
अर्थ- मैं श्रीलक्ष्मणजीके चरणकमलोंको प्रणाम करता हूँ, जो शीतल, सुन्दर और भक्तोंको सुख देनेवाले हैं । श्रीरघुनाथजीकी कीर्तिरूपी विमल पताकामें जिनका ( लक्ष्मणजीका ) यश [ पताकाको ऊँचा करके फहरानेवाले] दंडके समान हुआ ॥
सेष सहस्त्रसीस जग कारन । जो अवतरेउ भूमि भय टारन ॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर । कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर ॥
अर्थ- जो हजार सिरवाले और जगत् के कारण ( हजार सिरोंपर जगत्को धारण कर रखनेवाले) शेषजी हैं, जिन्होंने पृथ्वीका भय दूर करनेके लिये अवतार लिया, वे गुणोंकी खानि कृपासिन्धु सुमित्रानन्दन श्रीलक्ष्मणजी मुझपर सदा प्रसन्न रहें॥
रिपुसूदन पद कमल नमामी | सूर सुसील भरत अनुगामी ॥
महाबीर बिनवउँ हनुमाना । राम जासु जस आप बखाना ॥
अर्थ- मैं श्रीशत्रुघ्नजीके चरणकमलोंको प्रणाम करता हूँ, जो बड़े वीर, सुशील और श्रीभरतजीके पीछे चलनेवाले हैं। मैं महावीर श्रीहनुमान्जीकी विनती करता हूँ, जिनके यशका श्रीरामचन्द्रजीने स्वयं (अपने श्रीमुखसे) वर्णन किया है॥५॥
सो० – प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन ।
अर्थ- जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥ मैं पवनकुमार श्रीहनुमान्जीको प्रणाम करता हूँ, जो दुष्टरूपी वनको भस्म करनेके लिये अग्निरूप हैं, जो ज्ञानकी घनमूर्ति हैं और जिनके हृदयरूपी भवनमें धनुष-बाण धारण किये श्रीरामजी निवास करते हैं ॥
कपिपति रीछ निसाचर राजा । अंगदादि जे कीस समाजा ॥
बंदउँ सब के चरन सुहाए । अधम सरीर राम जिन्ह पाए ||
अर्थ- वानरोंके राजा सुग्रीवजी, रीछोंके राजा जाम्बवान्जी, राक्षसोंके राजा विभीषणजी और अंगदजी आदि जितना वानरोंका समाज है, सबके सुन्दर चरणोंकी मैं वन्दना करता हूँ, जिन्होंने अधम (पशु और राक्षस आदि ) शरीरमें भी श्रीरामचन्द्रजीको प्राप्त कर लिया ॥
रघुपति चरन उपासक जेते । खग मृग सुर नर असुर समेते ॥
बंदउँ पद सरोज सब केरे । जे बिनु काम राम के चेरे ॥
अर्थ- पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुरसमेत जितने श्रीरामजीके चरणोंके उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ, जो श्रीरामजीके निष्काम सेवक हैं ॥
सुक सनकादि भगत मुनि नारद । जे मुनिबर बिग्यान बिसारद ॥
प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा । करहु कृपा जन जानि मुनीसा ॥
अर्थ- शुकदेवजी, सनकादि, नारदमुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं धरतीपर सिर टेककर उन सबको प्रणाम करता हूँ; हे मुनीश्वरो ! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा कीजिये ॥
जनकसुता जग जननि जानकी । अतिसय प्रिय करुनानिधान की ॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ ।
अर्थ- राजा जनककी पुत्री, जगत् की माता और करुणानिधान श्रीरामचन्द्रजीकी प्रियतमा श्रीजानकीजीके दोनों चरणकमलोंको मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपासे निर्मल बुद्धि पाऊँ॥
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक । चरन कमल बंदउँ सब लायक ॥
राजिवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक ॥
अर्थ- फिर मैं मन, वचन और कर्मसे कमलनयन, धनुष-बाणधारी, भक्तोंकी विपत्तिका नाश करने और उन्हें सुख देनेवाले भगवान् श्रीरघुनाथजीके सर्वसमर्थ चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ ॥
दो० – गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न ।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ॥
अर्थ- जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जलकी लहरके समान कहनेमें अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तवमें अभिन्न (एक) हैं, उन श्रीसीतारामजीके चरणोंकी मैं वन्दना करता हूँ, जिन्हें दीन- दुखी बहुत ही प्रिय हैं ॥
बंदउँ नाम राम रघुबर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को ॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो । अगुन अनूपम गुन निधान सो ॥
अर्थ- मैं श्रीरघुनाथजीके नाम राम की वन्दना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात् र आ और म रूपसे बीज है । वह राम नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदोंका प्राण है; निर्गुण, उपमारहित और गुणोंका भण्डार है ॥
महामंत्र जोइ जपत महेसू । कासीं महिमा जासु जान गनराऊ । प्रथम
मुकुति हेतु पूजिअत नाम उपदेसू प्रभाऊ ॥
अर्थ- जो महामन्त्र है, जिसे महेश्वर श्रीशिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशीमें मुक्तिका कारण है, तथा जिसकी महिमाको गणेशजी जानते हैं, जो इस राम नामके प्रभावसे ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥
जान आदिकबि नाम प्रतापू । भयउ सुद्ध करि उलटा जापू ॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी । जपि जेईं पिय संग भवानी ॥
अर्थ- आदिकवि श्रीवाल्मीकिजी रामनामके प्रतापको जानते हैं, जो उलटा नाम मरा मरा जपकर पवित्र हो गये । श्रीशिवजीके इस वचनको सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नामके समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति (श्रीशिवजी) के साथ रामनामका जप करती रहती हैं॥
हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को ॥
नाम प्रभाउ जान सिव नीको । कालकूट फलु दीन्ह अमी को ||
अर्थ- नामके प्रति पार्वतीजीके हृदयकी ऐसी प्रीति देखकर श्रीशिवजी हर्षित हो गये और उन्होंने स्त्रियोंमें भूषणरूप (पतिव्रताओंमें शिरोमणि) पार्वतीजीको अपना भूषण बना लिया (अर्थात् उन्हें अपने अङ्गमें धारण करके अर्द्धाङ्गिनी बना लिया ) । नामके प्रभावको श्रीशिवजी भलीभाँति जानते हैं, जिस (प्रभाव) के कारण कालकूट जहरने उनको अमृतका फल दिया॥
दो० – बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास ।
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥१९॥
अर्थ- श्रीरघुनाथजीकी भक्ति वर्षा ऋतु है, तुलसीदासजी कहते हैं कि उत्तम सेवकगण धान हैं और राम नामके दो सुन्दर अक्षर सावन-भादोंके महीने हैं॥
आखर मधुर मनोहर दोऊ । बरन बिलोचन जन जिय जोऊ ॥
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू । लोक लाहु परलोक निबाहू ॥
अर्थ- दोनों अक्षर मधुर और मनोहर हैं, जो वर्णमालारूपी शरीरके नेत्र हैं, भक्तोंके जीवन हैं तथा स्मरण करनेमें सबके लिये सुलभ और सुख देनेवाले हैं, और जो इस लोकमें लाभ और परलोकमें निर्वाह करते हैं (अर्थात् भगवान्के दिव्य धाममें दिव्य देहसे सदा भगवत्सेवामें नियुक्त रखते हैं) ॥
कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके । राम लखन सम प्रिय तुलसी के ॥
बरनत बरन प्रीति बिलगाती । ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती ॥
अर्थ- ये कहने, सुनने और स्मरण करनेमें बहुत ही अच्छे ( सुन्दर और मधुर) हैं; तुलसीदासको तो श्रीराम-लक्ष्मणके समान प्यारे हैं । इनका अलग-अलग वर्णन करनेमें प्रीति बिलगाती है (अर्थात् बीजमन्त्रकी दृष्टिसे इनके उच्चारण, अर्थ और फलमें भिन्नता दीख पड़ती है) परन्तु हैं ये जीव और ब्रह्मके समान स्वभावसे ही साथ रहनेवाले (सदा एकरूप और एकरस ) ॥
नर नारायन सरिस सुभ्राता । जग पालक बिसेषि जन त्राता ॥
भगति सुतिय कल करन बिभूषन । जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन ॥
अर्थ- ये दोनों अक्षर नर-नारायणके समान सुन्दर भाई हैं, ये जगत्का पालन और विशेषरूपसे भक्तोंकी रक्षा करनेवाले हैं । ये भक्तिरूपिणी सुन्दर स्त्रीके कानोंके सुन्दर आभूषण ( कर्णफूल) हैं और जगत्के हितके लिये निर्मल चन्द्रमा और सूर्य हैं ॥
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के । कमठ सेष सम धर बसुधा के ||
जन मन मंजु कंज मधुकर से । जीह जसोमति हरि हलधर से ॥
अर्थ- ये सुन्दर गति (मोक्ष) रूपी अमृतके स्वाद और तृप्तिके समान हैं, कच्छप और शेषजीके समान पृथ्वीके धारण करनेवाले हैं, भक्तोंके मनरूपी सुन्दर कमलमें विहार करनेवाले भौरेके समान हैं और जीभरूपी यशोदाजीके लिये श्रीकृष्ण और बलरामजीके समान ( आनन्द देनेवाले) हैं॥
दो० – एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ ॥
अर्थ- तुलसीदासजी कहते हैं – श्रीरघुनाथजीके नामके दोनों अक्षर बड़ी शोभा देते हैं, जिनमेंसे एक (रकार) छत्ररूप (रेफ) से और दूसरा (मकार) मुकुटमणि (अनुस्वार) रूपसे सब अक्षरोंके ऊपर हैं॥
समुझत सरिस नाम अरु नामी । प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी ॥
रूप दुइ ईस उपाधी । अकथ अनादि सुसामुझि साधी ॥
अर्थ- समझनेमें नाम और नामी दोनों एक-से हैं, किन्तु दोनोंमें परस्पर स्वामी और सेवकके समान प्रीति है (अर्थात् नाम और नामीमें पूर्ण एकता होनेपर भी जैसे स्वामीके पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नामके पीछे नामी चलते हैं । प्रभु श्रीरामजी अपने नाम का ही अनुगमन करते हैं, नाम लेते ही वहाँ आ जाते हैं) । नाम और रूप दोनों ईश्वरकी उपाधि हैं; ये (भगवान्के नाम और रूप) दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि हैं और सुन्दर ( शुद्ध भक्तियुक्त) बुद्धिसे ही इनका [दिव्य अविनाशी] स्वरूप जाननेमें आता है ॥
को बड़ छोट कहत अपराधू । सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू ॥
देखिअहिं रूप नाम आधीना । रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना ॥
अर्थ- इन (नाम और रूप) में कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है । इनके गुणोंका तारतम्य (कमी-बेशी) सुनकर साधु पुरुष स्वयं ही समझ लेंगे । रूप नामके अधीन देखे जाते हैं, नामके बिना रूपका ज्ञान नहीं हो सकता ॥
रूप बिसेष नाम बिनु जानें । करतल गत न परहिं पहिचानें ॥
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें । आवत हृदयँ सनेह
अर्थ- बिसेषें ॥ कोई-सा विशेष रूप बिना उसका नाम जाने हथेलीपर रखा हुआ भी पहचाना नहीं जा सकता और रूपके बिना देखे भी नामका स्मरण किया जाय तो विशेष प्रेमके साथ वह रूप हृदयमें आ जाता है॥
नाम रूप गति अकथ कहानी । समुझत सुखद न परति बखानी ॥
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी । उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी ॥
अर्थ- नाम और रूपकी गतिकी कहानी (विशेषताकी कथा) अकथनीय है । वह समझनेमें सुखदायक है, परन्तु उसका वर्णन नहीं किया जा सकता । निर्गुण और सगुणके बीचमें नाम सुन्दर साक्षी है और दोनोंका यथार्थ ज्ञान करानेवाला चतुर दुभाषिया है ॥
दो० – राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार ।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर ॥
अर्थ- तुलसीदासजी कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है तो मुखरूपी द्वारकी जीभरूपी देहलीपर रामनामरूपी मणि – दीपकको रख ॥
नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी । बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी ॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा ॥
अर्थ- ब्रह्माके बनाये हुए इस प्रपञ्च (दृश्य जगत्) से भलीभाँति छूटे हुए वैराग्यवान् मुक्त योगी पुरुष इस नामको ही जीभसे जपते हुए [तत्त्वज्ञानरूपी दिनमें] जागते हैं और नाम तथा रूपसे रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुखका अनुभव करते हैं॥
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ । नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ ॥
साधक नाम जपहिं लय लाएँ । होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ ।
अर्थ- जो परमात्माके गूढ़ रहस्यको (यथार्थ महिमाको ) जानना चाहते हैं, वे ( जिज्ञासु) भी नामको जीभसे जपकर उसे जान लेते हैं । [ लौकिक सिद्धियोंके चाहनेवाले अर्थार्थी ] साधक लौ लगाकर नामका जप करते हैं और अणिमादि [आठों] सिद्धियोंको पाकर सिद्ध हो जाते हैं॥
जपहिं नामु जन आरत भारी । मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ॥
राम भगत जग चारि प्रकारा । सुकृती चारिउ अनघ उदारा ॥
अर्थ- [संकटसे घबराये हुए] आर्त भक्त नामजप करते हैं तो उनके बड़े भारी बुरे – बुरे संकट मिट जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं । जगत्में चार प्रकारके (१-अर्थार्थी- धनादिकी चाह से भजनेवाले, २-आर्त—संकटकी निवृत्तिके लिये भजनेवाले, ३- जिज्ञासु – भगवान्को जाननेकी इच्छासे भजनेवाले, ४- -ज्ञानी—भगवान्को तत्त्वसे जानकर स्वाभाविक ही प्रेमसे भजनेवाले ) रामभक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं.
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा । ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा ॥
चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ । कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ ॥
अर्थ- चारों ही चतुर भक्तोंको नामका ही आधार है; इनमें ज्ञानी भक्त प्रभुको विशेषरूपसे प्रिय है । यों तो चारों युगोंमें और चारों ही वेदोंमें नामका प्रभाव है, परन्तु कलियुगमें विशेषरूपसे है । इसमें तो [नामको छोड़कर ] दूसरा कोई उपाय ही नहीं है ॥
दो० – सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन ।
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन ॥
अर्थ- जो सब प्रकारकी (भोग और मोक्षकी भी) कामनाओंसे रहित और श्रीरामभक्तिके रसमें लीन हैं, उन्होंने भी नामके सुन्दर प्रेमरूपी अमृतके सरोवरमें अपने मनको मछली बना रखा है (अर्थात् वे नामरूपी सुधाका निरन्तर आस्वादन करते रहते हैं, क्षणभर भी उससे अलग होना नहीं चाहते) ॥
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा ॥
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें । किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें ॥
अर्थ- निर्गुण और सगुण – ब्रह्मके दो स्वरूप हैं । ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मतिमें नाम इन दोनोंसे बड़ा है, जिसने अपने बलसे दोनोंको अपने वशमें कर रखा है॥
प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की । कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की ॥
एकु दारुगत देखिअ एकू । पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू ॥
उभय अगम जुग सुगम नाम तें । कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें ॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी । सत चेतन घन आनँद रासी ॥
अर्थ- सज्जनगण इस बातको मुझ दासकी ढिठाई या केवल काव्योक्ति न समझें। मैं अपने मनके विश्वास, प्रेम और रुचिकी बात कहता हूँ । [ निर्गुण और सगुण] दोनों प्रकारके ब्रह्मका ज्ञान अग्निके समान है। निर्गुण उस अप्रकट अग्निके समान है जो काठके अंदर है, परन्तु दीखती नहीं; और सगुण उस प्रकट अग्निके समान है.
जो प्रत्यक्ष दीखती है । [ तत्त्वतः दोनों एक ही हैं; केवल प्रकट- अप्रकटके भेदसे भिन्न मालूम होती हैं । इसी प्रकार निर्गुण और सगुण तत्त्वतः एक ही हैं । इतना होनेपर भी] दोनों ही जाननेमें बड़े कठिन हैं, परन्तु नामसे दोनों सुगम हो जाते हैं । इसीसे मैंने नामको [निर्गुण] ब्रह्मसे और [ सगुण] रामसे बड़ा कहा है, ब्रह्म व्यापक है, एक है, अविनाशी है; सत्ता, चैतन्य और आनन्दकी घनराशि है ॥
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी । सकल जीव जग दीन दुखारी ॥
नाम निरूपन नाम जतन तें । सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें ॥
अर्थ- ऐसे विकाररहित प्रभुके हृदयमें रहते भी जगत् के सब जीव दीन और दुखी हैं । नामका निरूपण करके (नामके यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभावको जानकर ) नामका जतन करनेसे (श्रद्धापूर्वक नामजपरूपी साधन करनेसे) वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है जैसे रत्नके जाननेसे उसका मूल्य॥
दो० – निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार ।
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार ॥ २३ ॥
अर्थ- इस प्रकार निर्गुणसे नामका प्रभाव अत्यन्त बड़ा है। अब अपने विचारके अनुसार कहता हूँ कि नाम [सगुण] रामसे भी बड़ा है॥२३॥
राम भगत हित नर तनु धारी । सहि संकट किए साधु सुखारी ॥
नामु सप्रेम जपत अनयासा । भगत होहिं मुद मंगल बासा ॥४६
अर्थ- श्रीरामचन्द्रजीने भक्तोंके हितके लिये मनुष्य – शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधुओंको सुखी किया; परन्तु भक्तगण प्रेमके साथ नामका जप करते हुए सहजहीमें आनन्द और कल्याणके घर हो जाते हैं ॥
राम एक तापस तिय तारी । नाम कोटि खल कुमति सुधारी ॥ रिषि हित राम सुकेतुसुता की । सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी ॥ सहित दोष दुख दास दुरासा । दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा ॥ भंजेउ राम आपु भव चापू । भव भय भंजन नाम प्रतापू ॥
अर्थ- श्रीरामजीने एक तपस्वीकी स्त्री ( अहल्या ) को ही तारा, परन्तु नामने करोड़ों दुष्टोंकी बिगड़ी बुद्धिको सुधार दिया। श्रीरामजीने ऋषि विश्वामित्रके हितके लिये एक सुकेतु यक्षकी कन्या ताड़काकी सेना और पुत्र ( सुबाहु ) सहित समाप्ति की; परन्तु नाम अपने भक्तोंके दोष, दुःख और दुराशाओंका इस तरह नाश कर देता है जैसे सूर्य रात्रिका । श्रीरामजीने तो स्वयं शिवजीके धनुषको तोड़ा, परन्तु नामका प्रताप ही संसारके सब भयोंका नाश करनेवाला है ॥
दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन । जन मन अमित नाम किए पावन ॥
निसिचर निकर दले रघुनंदन । नामु सकल कलि कलुष निकंदन ॥
अर्थ- प्रभु श्रीरामजीने [भयानक ] दण्डक वनको सुहावना बनाया, परन्तु नामने असंख्य मनुष्योंके मनोंको पवित्र कर दिया। श्रीरघुनाथजीने राक्षसोंके समूहको मारा, परन्तु नाम तो कलियुगके सारे पापोंकी जड़ उखाड़नेवाला है ॥
दो० – सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ ॥
अर्थ- श्रीरघुनाथजीने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकोंको ही मुक्ति दी; परन्तु नामने अगनित दुष्टोंका उद्धार किया। नामके गुणोंकी कथा वेदोंमें प्रसिद्ध है॥
राम सुकंठ बिभीषन दोऊ । राखे सरन जान सबु कोऊ ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे । लोक बेद बर बिरिद बिराजे ॥
अर्थ- श्रीरामजीने सुग्रीव और विभीषण दोको ही अपने शरणमें रखा, यह सब कोई जानते हैं; परंतु नामने अनेक गरीबोंपर कृपा की है। नामका यह सुन्दर विरद लोक और वेदमें विशेषरूपसे प्रकाशित है॥
राम भालु कपि कटकु बटोरा । सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा ॥
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं । करहु बिचारु सुजन मन माहीं ॥
अर्थ- श्रीरामजीने तो भालू और बन्दरोंकी सेना बटोरी और समुद्रपर पुल बाँधनेके लिये थोड़ा परिश्रम नहीं किया; परंतु नाम लेते ही संसार – समुद्र सूख जाता है। सज्जनगण ! मनमें विचार कीजिये [ कि दोनोंमें कौन बड़ा है]॥
राम सकुल रन रावनु मारा । सीय सहित निज पुर पगु धारा ॥
राजा रामु अवध रजधानी । गावत गुन सुर मुनि बर बानी ॥
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती । बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती ॥
फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें । नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें ॥
अर्थ- श्रीरामचन्द्रजीने कुटुम्बसहित रावणको युद्धमें मारा, तब सीतासहित उन्होंने अपने नगर (अयोध्या)में प्रवेश किया । राम राजा हुए, अवध उनकी राजधानी हुई, देवता और मुनि सुन्दर वाणीसे जिनके गुण गाते हैं ।
परंतु सेवक (भक्त) प्रेमपूर्वक नामके स्मरणमात्रसे बिना परिश्रम मोहकी प्रबल सेनाको जीतकर प्रेममें मग्न हुए अपने ही सुखमें विचरते हैं, नामके प्रसादसे उन्हें सपने में भी कोई चिन्ता नहीं सताती ॥
दो० – ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि ।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि ॥
अर्थ- इस प्रकार नाम [निर्गुण] ब्रह्म और [ सगुण] राम दोनोंसे बड़ा है । यह वरदान देनेवालोंको भी वर देनेवाला है। श्रीशिवजीने अपने हृदयमें यह जानकर ही सौ करोड़ रामचरित्रमेंसे इस राम नामको [साररूपसे चुनकर ] ग्रहण किया है॥ २५ ॥
नाम प्रसाद संभु अबिनासी । साजु अमंगल मंगल रासी ॥
भोगी सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी ।
अर्थ- नाम प्रसाद ब्रह्मसुख नामहीके प्रसादसे शिवजी अविनाशी हैं और अमङ्गल वेषवाले होनेपर भी मङ्गलकी राशि हैं शुकदेवजी और सनकादि सिद्ध, मुनि, योगीगण नामके ही प्रसादसे ब्रह्मानन्दको भोगते हैं ॥
नारद जानेउ नाम प्रतापू । जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू ॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू । भगत सिरोमनि भे प्रहलादू ॥
अर्थ- नारदजीने नामके प्रतापको जाना है । हरि सारे संसारको प्यारे हैं, [हरिको हर प्यारे हैं ] और आप (श्रीनारदजी) हरि और हर दोनोंको प्रिय हैं । नामके जपनेसे प्रभुने कृपा की, जिससे प्रह्लाद भक्तशिरोमणि हो गये ॥
ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ । पायउ अचल अनूपम ठाऊँ ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू । अपने बस करि राखे रामू ॥
अर्थ- ध्रुवजीने ग्लानिसे (विमाताके वचनोंसे दुखी होकर सकामभावसे) हरिनामको जपा और उसके प्रतापसे अचल अनुपम स्थान (ध्रुवलोक) प्राप्त किया । हनुमानजीने पवित्र नामका स्मरण करके श्रीरामजीको अपने वशमें कर रखा है ॥
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ । भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ ॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई । रामु न सकहिं नाम गुन गाई ॥
अर्थ- नीच अजामिल, गज और गणिका (वेश्या) भी श्रीहरिके नामके प्रभावसे मुक्त हो गये। मैं नामकी बड़ाई कहाँतक कहूँ, राम भी नामके गुणोंको नहीं गा सकते ॥
दो० – नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु ।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु ॥ २६ ॥
अर्थ- कलियुगमें रामका नाम कल्पतरु (मनचाहा पदार्थ देनेवाला) और कल्याणका निवास ( मुक्तिका घर) है, जिसको स्मरण करनेसे भाँग – – सा ( निकृष्ट) तुलसीदास तुलसीके समान [पवित्र] हो गया॥
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका । भए नाम जपि जीव बिसोका ॥
बेद पुरान संत मत एहू । सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥
अर्थ- [केवल कलियुगकी ही बात नहीं है, ] चारों युगोंमें, तीनों कालोंमें और तीनों लोकोंमें नामको जपकर जीव शोकरहित हुए हैं । वेद, पुराण और संतोंका मत यही है कि समस्त पुण्योंका फल श्रीरामजीमें [या रामनाममें] प्रेम होना है ॥
ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें । द्वापर परितोषत प्रभु पूजें ॥
कलि केवल मल मूल मलीना । पाप पयोनिधि जन मन मीना ॥
अर्थ- पहले (सत्य) युगमें ध्यानसे, दूसरे ( त्रेता युगमें यज्ञसे और द्वापरमें पूजनसे भगवान् प्रसन्न होते हैं; परंतु कलियुग केवल पापकी जड़ और मलिन है, इसमें मनुष्योंका मन पापरूपी समुद्रमें मछली बना हुआ है (अर्थात् पापसे कभी अलग होना ही नहीं चाहता; इससे ध्यान, यज्ञ और पूजन नहीं बन सकते) ॥
नाम कामतरु काल कराला । सुमिरत समन सकल जग जाला ॥
राम नाम कलि अभिमत दाता । हित परलोक लोक पितु माता ॥
अर्थ- ऐसे कराल (कलियुगके) कालमें तो नाम ही कल्पवृक्ष है, जो स्मरण करते ही संसारके सब जंजालोंको नाश कर देनेवाला है। कलियुगमें यह रामनाम मनोवाञ्छित फल देनेवाला है.
परलोकका परम हितैषी और इस लोकका माता – पिता है (अर्थात् परलोकमें भगवान्का परमधाम देता है और इस लोकमें माता – पिताके समान सब प्रकारसे पालन और रक्षण करता है ) ॥
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू । राम नाम अवलंबन एकू ॥
राम कालनेमि कलि कपट निधानू । सुमति समरथ हनुमानू ॥
अर्थ- कलियुगमें न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है; रामनाम ही एक आधार है । कपटकी खान कलियुगरूपी कालनेमिके [ मारनेके ] लिये रामनाम ही बुद्धिमान् और समर्थ श्रीहनुमान्जी हैं ॥
राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल ।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ॥
अर्थ- रामनाम श्रीनृसिंह भगवान् है, कलियुग हिरण्यकशिपु है और जप करनेवाले जन प्रह्लादके समान हैं; यह रामनाम देवताओंके शत्रु (कलियुगरूपी दैत्य) को मारकर जप करनेवालोंकी रक्षा करेगा ॥
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ । नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा | करउँ नाइ रघुनाथहि माथा ॥
अर्थ- अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (वैर ) से, क्रोधसे या आलस्यसे, किसी तरहसे भी नाम जपनेसे दसों दिशाओंमें कल्याण होता है । उसी (परम कल्याणकारी) रामनामका स्मरण करके और श्रीरघुनाथजीको मस्तक नवाकर मैं रामजीके गुणोंका वर्णन करता हूँ ॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती । जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती ॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो । निज दिसि देखि दयानिधि पोसो ॥
अर्थ- वे (श्रीरामजी) मेरी [ बिगड़ी] सब तरहसे सुधार लेंगे; जिनकी कृपा कृपा करनेसे नहीं अघाती। राम-से उत्तम स्वामी और मुझ – सरीखा बुरा सेवक ! इतनेपर भी उन दयानिधिने अपनी ओर देखकर मेरा पालन किया है ॥
लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती । बिनय सुनत पहिचानत प्रीती ॥
गनी गरीब ग्राम नर नागर | पंडित मूढ़ मलीन उजागर ॥
अर्थ- लोक और वेदमें भी अच्छे स्वामीकी यही रीति प्रसिद्ध है कि वह विनय सुनते ही प्रेमको पहचान लेता है। अमीर-गरीब, गँवार – नगरनिवासी, पण्डित – मूर्ख, बदनाम-यशस्वी,॥
सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी । नृपहि सराहत सब नर नारी ॥
साधु सुजान सुसील नृपाला । ईस अंस भव परम कृपाला ॥
अर्थ- सुकवि-कुकवि, सभी नर-नारी अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार राजाकी सराहना करते हैं । और साधु, बुद्धिमान्, सुशील, ईश्वरके अंशसे उत्पन्न कृपालु राजा—॥
सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी । भनिति भगति नति गति पहिचानी ॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ । जान सिरोमनि कोसलराऊ ॥
अर्थ- सबकी सुनकर और उनकी वाणी, भक्ति, विनय और चालको पहचानकर सुन्दर (मीठी) वाणीसे सबका यथायोग्य सम्मान करते हैं । यह स्वभाव तो संसारी राजाओंका है, कोसलनाथ श्रीरामचन्द्रजी तो चतुरशिरोमणि हैं ॥
रीझत राम सनेह निसोतें । को जग मंद मलिनमति मोतें ॥
अर्थ- श्रीरामजी तो विशुद्ध प्रेमसे ही रीझते हैं, पर जगत् में मुझसे बढ़कर मूर्ख और मलिनबुद्धि और कौन होगा? ॥
दो० – सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु ।
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु ॥
अर्थ- तथापि कृपालु श्रीरामचन्द्रजी मुझ दुष्ट सेवककी प्रीति और रुचिको अवश्य रखेंगे, जिन्होंने पत्थरोंको जहाज और बन्दर – भालुओंको बुद्धिमान् मन्त्री बना लिया ॥
हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास ॥
अर्थ- सब लोग मुझे श्रीरामजीका सेवक कहते हैं और मैं भी [ बिना लज्जा -संकोचके] कहलाता हूँ ( कहनेवालोंका विरोध नहीं करता); कृपालु श्रीरामजी इस निन्दाको सहते हैं कि श्रीसीतानाथजी-जैसे स्वामीका तुलसीदास – सा सेवक है ॥
अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी । सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी ॥
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें । सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें ॥
अर्थ- यह मेरी बहुत बड़ी ढिठाई और दोष है, मेरे पापको सुनकर नरकने भी नाक सिकोड़ ली है (अर्थात् नरकमें भी मेरे लिये ठौर नहीं है ) । यह समझकर मुझे अपने ही कल्पित डरसे डर हो रहा है, किंतु भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने तो स्वप्नमें भी इसपर ( मेरी इस ढिठाई और दोषपर) ध्यान नहीं दिया ॥
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही । भगति मोरि मति स्वामि सराही ॥
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी । रीझत राम जानि जन जी की ॥
अर्थ- वरं मेरे प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने तो इस बातको सुनकर, देखकर और अपने सुचित्तरूपी चक्षुसे निरीक्षण कर मेरी भक्ति और बुद्धिकी [ उलटे ] सराहना की।
क्योंकि कहनेमें चाहे बिगड़ जाय (अर्थात् मैं चाहे अपनेको भगवान्का सेवक कहता- कहलाता रहूँ ), परंतु हृदयमें अच्छापन होना चाहिये। (हृदयमें तो अपनेको उनका सेवक बनने योग्य नहीं मानकर पापी और दीन ही मानता हूँ, यह अच्छापन है ।) श्रीरामचन्द्रजी भी दासके हृदयकी [अच्छी] स्थिति जानकर रीझ जाते हैं॥
रहति न प्रभु चित चूक किए की । करत सुरति सय बार हिए की ॥
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली । फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली ॥
अर्थ- प्रभुके चित्तमें अपने भक्तोंकी की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती (वे उसे भूल जाते हैं) और उनके हृदय [की अच्छाई – नीकी ] को सौ-सौ बार याद करते रहते हैं । जिस पापके कारण उन्होंने बालिको व्याधकी तरह मारा था, वैसी ही कुचाल फिर सुग्रीवने चली ॥
सोइ करतूति बिभीषन केरी । सपनेहुँ सो
ते भरतहि भेंटत सनमाने । राजसभाँ
न राम हियँ हेरी ॥ रघुबीर बखाने ॥
अर्थ- वही करनी विभीषणकी थी, परन्तु श्रीरामचन्द्रजीने स्वप्न में भी उसका मनमें विचार नहीं किया । उलटे भरतजीसे मिलनेके समय श्रीरघुनाथजीने उनका सम्मान किया और राजसभामें भी उनके का बखान किया॥
दो० – प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आप समान ।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान ॥
अर्थ- प्रभु (श्रीरामचन्द्रजी) तो वृक्षके नीचे और बंदर डालीपर (अर्थात् कहाँ मर्यादापुरुषोत्तम सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्रीरामजी और कहाँ पेड़ोंकी शाखाओंपर कूदनेवाले बंदर) । परन्तु ऐसे बंदरोंको भी उन्होंने अपने समान बना लिया । तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी – सरीखे शीलनिधान स्वामी कहीं भी नहीं हैं ॥
राम निकाईं रावरी है सबही को नीक ।
जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक ॥
अर्थ- हे श्रीरामजी ! आपकी अच्छाईसे सभीका भला है (अर्थात् आपका कल्याणमय स्वभाव सभीका कल्याण करनेवाला है) । यदि यह बात सच है तो तुलसीदासका भी सदा कल्याण ही होगा ॥
एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ ।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ ॥
अर्थ- इस प्रकार अपने गुण-दोषोंको कहकर और सबको फिर सिर नवाकर मैं श्रीरघुनाथजीका निर्मल यश वर्णन करता हूँ जिसके सुननेसे कलियुगके पाप नष्ट हो जाते हैं॥
जागबलिक जो कथा सुहाई । भरद्वाज मुनिबरहि मुनिबरहि सुनाई ॥
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी । सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी ॥
अर्थ- मुनि याज्ञवल्क्यजीने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजीको सुनायी थी, उसी संवादको मैं बखानकर कहूँगा; सब सज्जन सुखका अनुभव करते हुए उसे सुनें ॥
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा । बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा ॥
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा । राम भगत अधिकारी चीन्हा ॥
अर्थ- शिवजीने पहले इस सुहावने चरित्रको रचा, फिर कृपा करके पार्वतीजीको सुनाया । वही चरित्र शिवजीने काकभुशुण्डिजीको रामभक्त और अधिकारी पहचानकर दिया ॥
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा । तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा ॥
ते श्रोता बकता समसीला । सवँदरसी जानहिं हरिलीला ॥
अर्थ- उन काकभुशुण्डिजीसे फिर याज्ञवल्क्यजीने पाया और उन्होंने फिर उसे भरद्वाजजीको गाकर सुनाया। वे दोनों वक्ता और श्रोता ( याज्ञवल्क्य और भरद्वाज) समान शीलवाले और समदर्शी हैं। और श्रीहरिकी लीलाको जानते हैं ॥
जानहिं तीनि काल निज ग्याना । करतल गत आमलक समाना ॥
औरउ जे हरिभगत सुजाना । कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना ॥
अर्थ- वे अपने ज्ञानसे तीनों कालोंकी बातोंको हथेलीपर रखे हुए आँवलेके समान (प्रत्यक्ष ) जानते हैं। और भी जो सुजान ( भगवान्की लीलाओंका रहस्य जाननेवाले) हरिभक्त हैं, वे इस चरित्रको नाना प्रकारसे कहते, सुनते और समझते हैं ॥
दो० – मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत ।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत ॥
अर्थ- फिर वही कथा मैंने वाराह – क्षेत्रमें अपने गुरुजीसे सुनी; परन्तु उस समय मैं लड़कपनके कारण बहुत बेसमझ था, इससे उसको उस प्रकार ( अच्छी तरह) समझा नहीं॥
श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़ ।
किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़ ॥
अर्थ- श्रीरामजीकी गूढ़ कथाके वक्ता ( कहनेवाले) और श्रोता ( सुननेवाले) दोनों ज्ञानके खजाने (पूरे ज्ञानी) होते हैं। मैं कलियुगके पापोंसे ग्रसा हुआ महामूढ़ जड़ जीव भला उसको कैसे समझ सकता था ? ॥
तदपि कही गुर बारहिं बारा । समुझि परी कछु मति अनुसारा ॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई । मोरें मन प्रबोध जेहिं होई ॥
अर्थ- तो भी गुरुजीने जब बार – बार कथा कही, तब बुद्धिके अनुसार कुछ समझमें आयी । वही अब मेरे द्वारा भाषामें रची जायगी, जिससे मेरे मनको सन्तोष हो॥
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें । तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें ॥
निज संदेह मोह भ्रम हरनी । करउँ कथा भव सरिता तरनी ॥
अर्थ- जैसा कुछ मुझमें बुद्धि और विवेकका बल है, मैं हृदयमें हरिकी प्रेरणासे उसीके अनुसार कहूँगा। मैं अपने सन्देह, अज्ञान और भ्रमको हरनेवाली कथा रचता हूँ, जो संसाररूपी नदीके पार करनेके लिये नाव है॥
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि । रामकथा कलि कलुष बिभंजनि ॥
रामकथा कलि पंनग भरनी । पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी ॥
अर्थ- रामकथा पण्डितोंको विश्राम देनेवाली, सब मनुष्योंको प्रसन्न करनेवाली और कलियुगके पापोंका नाश करनेवाली है । रामकथा कलियुगरूपी साँपके लिये मोरनी है और विवेकरूपी अग्निके प्रकट करनेके लिये अरणि ( मन्थन की जानेवाली लकड़ी) है, (अर्थात् इस कथासे ज्ञानकी प्राप्ति होती है)॥
रामकथा कलि कामद गाई । सुजन सजीवनि मूरि सुहाई ॥
सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि । भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि ॥
अर्थ- रामकथा कलियुगमें सब मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली कामधेनु गौ है और सज्जनोंके लिये सुन्दर सञ्जीवनी जड़ी है। पृथ्वीपर यही अमृतकी नदी है, जन्म-मरणरूपी भयका नाश करनेवाली और भ्रमरूपी मेढकोंको खानेके लिये सर्पिणी है ॥
असुर सेन सम नरक निकंदिनि । साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि ॥
संत समाज पयोधि रमा सी । बिस्व भार भर अचल छमा सी ॥
अर्थ- यह रामकथा असुरोंकी सेनाके समान नरकोंका नाश करनेवाली और साधुरूप देवताओंके कुलका हित करनेवाली पार्वती (दुर्गा) है। यह संत – समाजरूपी क्षीरसमुद्रके लिये लक्ष्मीजीके समान है और सम्पूर्ण विश्वका भार उठानेमें अचल पृथ्वीके समान है ॥
जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी । जीवन मुकुति हेतु जनु कासी ॥
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी । तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी ॥
अर्थ- यमदूतोंके मुखपर कालिख लगानेके लिये यह जगत् में यमुनाजीके समान है और जीवोंको मुक्ति देनेके लिये मानो काशी ही है। यह श्रीरामजीको पवित्र तुलसीके समान प्रिय है और तुलसीदासके लिये हुलसी (तुलसीदासजीकी माता) के समान हृदयसे हित करनेवाली है॥
सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी । सकल सिद्धि सुख संपति रासी ॥
सदगुन सुरगन अंब अदिति सी । रघुबर भगति प्रेम परमिति सी ॥
अर्थ- यह रामकथा शिवजीको नर्मदाजीके समान प्यारी है, यह सब सिद्धियोंकी तथा सुख-सम्पत्तिकी राशि है। सद्गुणरूपी देवताओंके उत्पन्न और पालन-पोषण करनेके लिये माता अदितिके समान है । श्रीरघुनाथजीकी भक्ति और प्रेमकी परम सीमा – सी है ॥
दो० – रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु ।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु ॥ ३१ ॥
अर्थ- तुलसीदासजी कहते हैं कि रामकथा मन्दाकिनी नदी है, सुन्दर ( निर्मल) चित्त चित्रकूट है, और सुन्दर स्नेह ही वन है, जिसमें श्रीसीतारामजी विहार करते हैं ॥
रामचरित चिंतामनि चारू । संत सुमति तय सुभग सिंगारू ॥
जग मंगल गुनग्राम राम के । दानि मुकुति धन धरम धाम के ॥
अर्थ- श्रीरामचन्द्रजीका चरित्र सुन्दर चिन्तामणि है और संतोंकी सुबुद्धिरूपी स्त्रीका सुन्दर शृङ्गार है । श्रीरामचन्द्रजीके गुणसमूह जगत्का कल्याण करनेवाले और मुक्ति, धन, धर्म और परमधामके देनेवाले हैं ॥
सदगुर ग्यान बिराग जोग के । बिबुध बैद भव भीम रोग के ॥
जननि जनक सिय राम प्रेम के । बीज सकल ब्रत धरम नेम के ॥
अर्थ- ज्ञान, वैराग्य और योगके लिये सद्गुरु हैं और संसाररूपी भयंकर रोगका नाश करनेके लिये देवताओंके वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्रीसीतारामजीके प्रेमके उत्पन्न करनेके लिये माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमोंके बीज हैं॥
समन पाप संताप सोक के । प्रिय पालक परलोक लोक के ॥
सचिव सुभट भूपति बिचार के । कुंभज लोभ उदधि अपार के ॥
अर्थ- पाप, सन्ताप और शोकका नाश करनेवाले तथा इस लोक और परलोकके प्रिय पालन करनेवाले हैं। विचार (ज्ञान) रूपी राजाके शूरवीर मन्त्री और लोभरूपी अपार समुद्रके सोखनेके लिये अगस्त्य मुनि हैं ॥
काम कोह कलिमल करिगन के । केहरि सावक जन मन बन के ॥
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद घन दारिद दवारि के ॥
अर्थ- भक्तोंके मनरूपी वनमें बसनेवाले काम, क्रोध और कलियुगके पापरूपी हाथियोंके मारनेके लिये सिंहके बच्चे हैं। शिवजीके पूज्य और प्रियतम अतिथि हैं और दरिद्रतारूपी दावानलके बुझानेके लिये कामना पूर्ण करनेवाले मेघ हैं॥
मंत्र महामनि बिषय ब्याल के । मेटत कठिन कुअंक भाल के ॥
हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से ॥
अर्थ- विषयरूपी साँपका जहर उतारनेके लिये मन्त्र और महामणि हैं । ये ललाटपर लिखे हुए कठिनतासे मिटनेवाले बुरे लेखों (मन्द प्रारब्ध) को मिटा देनेवाले हैं । अज्ञानरूपी अन्धकारके हरण करनेके लिये सूर्यकिरणोंके समान और सेवकरूपी धानके पालन करनेमें मेघके समान हैं ॥
अभिमत दानि देवतरु बर से । सेवत सुलभ सुखद हरि हर से ॥
सुकबि सरद नभ मन उडगन से । रामभगत जन जीवन धन से ॥
अर्थ- मनोवाञ्छित वस्तु देनेमें श्रेष्ठ कल्पवृक्षके समान हैं और सेवा करनेमें हरि-हरके समान सुलभ और सुख देनेवाले हैं। सुकविरूपी शरद् ऋतुके मनरूपी आकाशको सुशोभित करनेके लिये तारागणके समान और श्रीरामजीके भक्तोंके तो जीवनधन ही हैं ॥
सकल सुकृत फल भूरि भोग से । जग हित निरुपधि साधु लोग से ॥
सेवक मन मानस मराल से । पावन गंग तरंग माल से ॥
अर्थ- सम्पूर्ण पुण्योंके फल महान् भोगोंके समान हैं । जगत्का छलरहित ( यथार्थ) हित करनेमें साधु- संतोंके समान हैं। सेवकोंके मनरूपी मानसरोवरके लिये हंसके समान और पवित्र करनेमें गङ्गाजीकी तरङ्गमालाओंके समान हैं ॥
दो० – कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड ।
दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड ॥
अर्थ- श्रीरामजीके गुणोंके समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल और कलियुगके कपट, दम्भ और पाखण्डके जलानेके लिये वैसे ही हैं जैसे ईंधनके लिये प्रचण्ड अग्नि ॥
रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु ।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु ॥
अर्थ- रामचरित्र पूर्णिमाके चन्द्रमाकी किरणोंके समान सभीको सुख देनेवाले हैं, परन्तु सज्जनरूपी कुमुदिनी और चकोरके चित्तके लिये तो विशेष हितकारी और महान् लाभदायक हैं ॥
कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी । जेहि बिधि संकर कहा बखानी ॥
सो सब हेतु कहब मैं गाई । कथा प्रबंध बिचित्र बनाई ||
अर्थ- जिस प्रकार श्रीपार्वतीजीने श्रीशिवजीसे प्रश्न किया और जिस प्रकारसे श्रीशिवजीने विस्तारसे उसका उत्तर कहा, वह सब कारण मैं विचित्र कथाकी रचना करके गाकर कहूँगा ॥
जेहिं यह कथा सुनी नहिं होई । जनि आचरजु करै सुनि सोई ॥
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी । नहिं आचरजु करहिं अस जानी ॥
रामकथा कै मिति जग नाहीं । असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं ॥
नाना भाँति राम अवतारा । रामायन सत कोटि अपारा ॥
अर्थ- जिसने यह कथा पहले न सुनी हो, वह इसे सुनकर आश्चर्य न करे । जो ज्ञानी इस विचित्र कथाको सुनते हैं, वे यह जानकर आश्चर्य नहीं करते कि संसारमें रामकथाकी कोई सीमा नहीं है (रामकथा अनन्त है)। उनके मनमें ऐसा विश्वास रहता है । नाना प्रकारसे श्रीरामचन्द्रजीके अवतार हुए हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायण हैं ॥
कलपभेद हरिचरित सुहाए ।
भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए ॥
करिअ न संसय अस उर आनी ।
सुनिअ कथा सादर रति मानी ॥
अर्थ- कल्पभेदके अनुसार श्रीहरिके सुन्दर चरित्रोंको मुनीश्वरोंने अनेकों प्रकारसे गाया है। हृदयमें ऐसा विचारकर संदेह न कीजिये और आदरसहित प्रेमसे इस कथाको सुनिये ॥
दो० – राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार ।
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह के बिमल बिचार ॥
अर्थ- श्रीरामचन्द्रजी अनन्त हैं, उनके गुण भी अनन्त हैं और उनकी कथाओंका विस्तार भी असीम है। अतएव जिनके विचार निर्मल हैं, वे इस कथाको सुनकर आश्चर्य नहीं मानेंगे॥
एहि बिधि सब संसय करि दूरी । सिर धरि गुर पद पंकज धूरी ॥
पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी ॥
अर्थ- इस प्रकार सब संदेहोंको दूर करके और श्रीगुरुजीके चरणकमलोंकी रजको सिरपर धारण करके मैं पुनः हाथ जोड़कर सबकी विनती करता हूँ, जिससे कथाकी रचनामें कोई दोष स्पर्श न करने पावे ॥
सादर सिवहि नाइ अब माथा । बरनउँ बिसद राम गुन गाथा ॥
संबत सोरह सै एकतीसा । करउँ कथा हरि पद धरि सीसा ॥
अर्थ- अब मैं आदरपूर्वक श्रीशिवजीको सिर नवाकर श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंकी निर्मल कथा कहता हूँ। श्रीहरिके चरणोंपर सिर रखकर संवत् १६३१ में इस कथाका आरम्भ करता हूँ ॥
नौमी भौम बार मधुमासा । अवधपुरीं यह चरित प्रकासा ॥
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं । तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं ॥
अर्थ- चैत्र मासकी नवमी तिथि मंगलवारको श्रीअयोध्याजीमें यह चरित्र प्रकाशित हुआ। जिस दिन श्रीरामजीका जन्म होता है, वेद कहते हैं कि उस दिन सारे तीर्थ वहाँ (श्रीअयोध्याजी में ) चले आते हैं ॥
असुर नाग खग नर मुनि देवा । आइ करहिं रघुनायक सेवा ॥
जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना । करहिं राम कल कीरति गाना ॥
अर्थ- असुर, नाग, पक्षी, मनुष्य, मुनि और देवता सब अयोध्याजीमें आकर श्रीरघुनाथजीकी सेवा करते हैं। बुद्धिमान् लोग जन्मका महोत्सव मनाते हैं और श्रीरामजीकी सुन्दर कीर्तिका गान करते हैं ॥
दो० – मज्जहिं सज्जन बूंद बहु पावन सरजू नीर ।
जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर ॥
अर्थ- सज्जनोंके बहुत-से समूह उस दिन श्रीसरयूजीके पवित्र जलमें स्नान करते हैं और हृदयमें सुन्दर श्यामशरीर श्रीरघुनाथजीका ध्यान करके उनके नामका जप करते हैं ॥
दरस परस मज्जन अरु पाना । हरइ पाप कह बेद पुराना ॥
नदी पुनीत अमित महिमा अति । कहि न सकइ सारदा बिमल मति ॥
अर्थ- वेद-पुराण कहते हैं कि श्रीसरयूजीका दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापोंको हरता है । यह नदी बड़ी ही पवित्र है, इसकी महिमा अनन्त है, जिसे विमल बुद्धिवाली सरस्वतीजी भी नहीं कह सकतीं ॥
राम धामदा पुरी सुहावनि । लोक समस्त बिदित अति पावनि ॥
चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजें तनु नहिं संसारा ॥
अर्थ- यह शोभायमान अयोध्यापुरी श्रीरामचन्द्रजीके परमधामकी देनेवाली है, सब लोकोंमें प्रसिद्ध है और अत्यन्त पवित्र है । जगत्में [अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज और जरायुज] चार खानि (प्रकार) के अनन्त जीव हैं, इनमें से जो कोई भी अयोध्याजीमें शरीर छोड़ते हैं वे फिर संसारमें नहीं आते (जन्म-मृत्युके चक्करसे छूटकर भगवान्के परमधाममें निवास करते हैं ) ॥
सब बिधि पुरी मनोहर जानी । सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी ॥
बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा । सुनत नसाहिं काम मद दंभा ॥
अर्थ- इस अयोध्यापुरीको सब प्रकारसे मनोहर, सब सिद्धियोंकी देनेवाली और कल्याणकी खान समझकर मैंने इस निर्मल कथाका आरम्भ किया, जिसके सुननेसे काम, मद और दम्भ नष्ट हो जाते हैं ॥
रामचरितमानस एहि नामा | सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा ॥
मन करि बिषय अनल बन जरई । होइ सुखी जौं एहिं सर परई ॥
अर्थ- इसका नाम रामचरितमानस है, जिसके कानोंसे सुनते ही शान्ति मिलती है। मनरूपी हाथी विषय – रूपी दावानलमें जल रहा है, वह यदि इस रामचरितमानसरूपी सरोवरमें आ पड़े तो सुखी हो जाय ॥
रामचरितमानस मुनि भावन । बिरचेउ संभु सुहावन पावन ॥
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन | कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन ॥
अर्थ- यह रामचरितमानस मुनियोंका प्रिय है, इस सुहावने और पवित्र मानसकी शिवजीने रचना की । यह तीनों प्रकारके दोषों, दुःखों और दरिद्रताको तथा कलियुगकी कुचालों और सब पापोंका नाश करनेवाला है॥
रचि महेस निज मानस राखा । पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा ॥
तातें रामचरितमानस बर । धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर ॥
अर्थ- श्रीमहादेवजीने इसको रचकर अपने मनमें रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा । इसीसे शिवजीने इसको अपने हृदयमें देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुन्दर रामचरितमानस नाम रखा ॥
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई । सादर सुनहु सुजन मन लाई ॥
अर्थ- मैं उसी सुख देनेवाली सुहावनी रामकथाको कहता हूँ, हे सज्जनो ! आदरपूर्वक मन लगाकर इसे सुनिये॥
दो० – जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु ।
अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु ॥
अर्थ- यह रामचरितमानस जैसा है, जिस प्रकार बना है और जिस हेतुसे जगत् में इसका प्रचार हुआ, अब वही सब कथा मैं श्रीउमा-महेश्वरका स्मरण करके कहता हूँ ॥
संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी । रामचरितमानस कबि तुलसी ॥
करइ मनोहर मति अनुहारी । सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी ॥
अर्थ- श्रीशिवजीकी कृपासे उसके हृदयमें सुन्दर बुद्धिका विकास हुआ, जिससे यह तुलसीदास श्रीरामचरितमानसका कवि हुआ । अपनी बुद्धिके अनुसार तो वह इसे मनोहर ही बनाता है । किंतु फिर भी हे सज्जनो ! सुन्दर चित्तसे सुनकर इसे आप सुधार लीजिये ॥
सुमति भूमि थल हृदय अगाधू । बेद पुरान उदधि घन साधू ॥
बरषहिं राम सुजस बर बारी । मधुर मनोहर मंगलकारी ॥
अर्थ- सुन्दर (सात्त्विकी) बुद्धि भूमि है, हृदय ही उसमें गहरा स्थान है, वेद-पुराण समुद्र हैं और साधु-संत मेघ हैं। वे (साधुरूपी मेघ) श्रीरामजीके सुयशरूपी सुन्दर, मधुर, मनोहर और मङ्गलकारी जलकी वर्षा करते हैं॥
लीला सगुन जो कहहिं बखानी । सोइ स्वच्छता करइ मल हानी ॥
प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई ॥ ।
अर्थ- सगुण लीलाका जो विस्तारसे वर्णन करते हैं, वही राम – सुयशरूपी जलकी निर्मलता है, जो मलका नाश करती है; और जिस प्रेमाभक्तिका वर्णन नहीं किया जा सकता, वही इस जलकी मधुरता और सुन्दर शीतलता है ॥
सो जल सुकृत सालि हित होई । राम भगत जन जीवन सोई ॥
मेधा महि गत सो जल पावन । सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन ॥
भरेउ सुमानस सुथल थिराना । सुखद सीत रुचि चारु चिराना ॥
अर्थ- वह (राम-सुयशरूपी) जल सत्कर्मरूपी धानके लिये हितकर है और श्रीरामजीके भक्तोंका तो जीवन ही है। वह पवित्र जल बुद्धिरूपी पृथ्वीपर गिरा और सिमटकर सुहावने कानरूपी मार्गसे चला और मानस (हृदय) रूपी श्रेष्ठ स्थानमें भरकर वहीं स्थिर हो गया । वही पुराना होकर सुन्दर, रुचिकर, शीतल और सुखदायी हो गया ॥
दो० – सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि ।
तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि ॥
अर्थ- इस कथामें बुद्धिसे विचारकर जो चार अत्यन्त सुन्दर और उत्तम संवाद (भुशुण्डि – गरुड़, शिव- पार्वती, याज्ञवल्क्य-भरद्वाज और तुलसीदास और संत) रचे हैं, वही इस पवित्र और सुन्दर सरोवर के चार मनोहर घाट हैं ॥
सप्त प्रबंध सुभग सोपाना । ग्यान नयन निरखत मन माना ॥
रघुपति महिमा अगुन अबाधा । बरनब सोइ बर बारि अगाधा ॥
अर्थ- सात काण्ड ही इस मानस सरोवरकी सुन्दर सात सीढ़ियाँ हैं, जिनको ज्ञानरूपी नेत्रोंसे देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है । श्रीरघुनाथजीकी निर्गुण (प्राकृतिक गुणोंसे अतीत ) और निर्बाध (एकरस) महिमाका जो वर्णन किया जायगा, वही इस सुन्दर जलकी अथाह गहराई है॥
राम सीय जस सलिल सुधासम । उपमा बीचि बिलास मनोरम ॥
पुरइनि सघन चारु चौपाई | जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई ॥
अर्थ- श्रीरामचन्द्रजी और सीताजीका यश अमृतके समान जल है। इसमें जो उपमाएँ दी गयी हैं वही तरङ्गोंका मनोहर विलास है । सुन्दर चौपाइयाँ ही इसमें घनी फैली हुई पुरइन (कमलिनी) हैं और कविताकी युक्तियाँ सुन्दर मणि (मोती) उत्पन्न करनेवाली सुहावनी सीपियाँ हैं ॥
छंद सोरठा सुंदर दोहा । सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा ॥
अरथ अनूप सुभाव सुभासा । सोइ पराग मकरंद सुबासा ॥
अर्थ- जो सुन्दर छन्द, सोरठे और दोहे हैं, वही इसमें बहुरंगे कमलोंके समूह सुशोभित हैं । अनुपम अर्थ, ऊँचे भाव और सुन्दर भाषा ही पराग (पुष्परज), मकरन्द (पुष्परस ) और सुगन्ध हैं ॥
सुकृत पुंज मंजुल अलि माला । ग्यान बिराग बिचार मराला ॥
धुनि अवरेब कबित गुन जाती । मीन मनोहर ते बहुभाँती ॥
अर्थ- सत्कर्मों (पुण्यों) के पुञ्ज भौंरोंकी सुन्दर पंक्तियाँ हैं, ज्ञान, वैराग्य और विचार हंस हैं । कविताकी ध्वनि वक्रोक्ति, गुण और जाति ही अनेकों प्रकारकी मनोहर मछलियाँ हैं ॥
अरथ धरम कामादिक चारी । कहब ग्यान बिग्यान बिचारी ॥
नव रस जप तप जोग बिरागा । ते सब जलचर चारु तड़ागा ॥
अर्थ- अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष – ये चारों, ज्ञान-विज्ञानका विचारके कहना, काव्यके नौ रस, जप, तप, योग और वैराग्यके प्रसंग – ये सब इस सरोवरके सुन्दर जलचर जीव हैं ॥
सुकृती साधु नाम गुन गाना । ते बिचित्र जलबिहग समाना ॥
संतसभा चहुँ दिसि अवँराई । श्रद्धा रितु बसंत सम गाई ॥
अर्थ- सुकृती (पुण्यात्मा) जनोंके, साधुओंके और श्रीरामनामके गुणोंका गान ही विचित्र जल – पक्षियोंके समान है। संतोंकी सभा ही इस सरोवरके चारों ओरकी अमराई ( आमकी बगीचियाँ) हैं और श्रद्धा वसन्त ऋतुके समान कही गयी है॥
भगति निरूपन बिबिध बिधाना । छमा दया दम लता बिताना ॥
सम जम नियम फूल फल ग्याना । हरि पद रति रस बेद बखाना ॥
अर्थ- नाना प्रकारसे भक्तिका निरूपण और क्षमा, दया तथा दम (इन्द्रियनिग्रह) लताओंके मण्डप हैं। मनका निग्रह, यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह), नियम ( शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान) ही उनके फूल हैं, ज्ञान फल है और श्रीहरिके चरणोंमें प्रेम ही इस ज्ञानरूपी फलका रस है । ऐसा वेदोंने कहा है॥
औरउ कथा अनेक प्रसंगा । तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा ॥
अर्थ- इस (रामचरितमानस) में और भी जो अनेक प्रसङ्गोंकी कथाएँ हैं, वे ही इसमें तोते, कोयल आदि रंग-बिरंगे पक्षी हैं ॥
दो० – पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु ।
माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु ॥
अर्थ- कथामें जो रोमाञ्च होता है वही वाटिका, बाग और वन हैं; और जो सुख होता है, वही सुन्दर पक्षियोंका विहार है। निर्मल मन ही माली है जो प्रेमरूपी जलसे सुन्दर नेत्रोंद्वारा उनको सींचता है ॥
जे गावहिं यह चरित सँभारे । तेइ एहि ताल चतुर रखवारे ॥
सदा सुनहिं सादर नर नारी । तेइ सुरबर मानस अधिकारी ॥
अर्थ- जो लोग इस चरित्रको सावधानीसे गाते हैं, वे ही इस तालाबके चतुर रखवाले हैं और जो स्त्री-पुरुष सदा आदरपूर्वक इसे सुनते हैं, वे ही इस सुन्दर मानसके अधिकारी उत्तम देवता हैं ॥
अति खल जे बिषई बग कागा । एहि सर निकट न जाहिं अभागा ॥
संबुक भेक सेवार समाना । इहाँ न बिषय कथा रस नाना ।।
अर्थ- जो अति दुष्ट और विषयी हैं वे अभागे बगुले और कौवे हैं, जो इस सरोवरके समीप नहीं जाते। क्योंकि यहाँ (इस मानस सरोवरमें) घोंघे, मेढक और सेवारके समान विषय – रसकी नाना कथाएँ नहीं हैं॥
तेहि कारन आवत हियँ हारे । कामी काक बलाक बिचारे ॥
आवत एहिं सर अति कठिनाई | राम कृपा बिनु आइ न जाई ॥
अर्थ- इसी कारण बेचारे कौवे और बगुलेरूपी विषयी लोग यहाँ आते हुए हृदयमें हार मान जाते हैं। क्योंकि इस सरोवरतक आनेमें कठिनाइयाँ बहुत हैं । श्रीरामजीकी कृपा बिना यहाँ नहीं आया जाता ॥
कठिन कुसंग कुपंथ कराला । तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला ॥
गृह कारज नाना जंजाला । ते अति दुर्गम सैल बिसाला ॥
अर्थ- घोर कुसंग ही भयानक बुरा रास्ता है; उन कुसंगियोंके वचन ही बाघ, सिंह और साँप हैं । घरके काम-काज और गृहस्थीके भाँति-भाँतिके जंजाल ही अत्यन्त दुर्गम बड़े-बड़े पहाड़ हैं ॥
बन बहु बिषम मोह मद माना । नदीं कुतर्क भयंकर नाना ॥
अर्थ- मोह, मद और मान ही बहुत-से बीहड़ वन हैं और नाना प्रकारके कुतर्क ही भयानक नदियाँ हैं॥
दो० – जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ ॥
अर्थ- जिनके पास श्रद्धारूपी राह – खर्च नहीं है और संतोंका साथ नहीं है और जिनको श्रीरघुनाथजी प्रिय नहीं हैं, उनके लिये यह मानस अत्यन्त ही अगम है। (अर्थात् श्रद्धा, सत्संग और भगवत्प्रेमके बिना कोई इसको नहीं पा सकता ) ॥
जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई । जातहिं नीद जुड़ाई होई ॥
जड़ता जाड़ बिषम उर लागा । गएहुँ न मज्जन पाव अभागा ॥
अर्थ- यदि कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँतक पहुँच भी जाय, तो वहाँ जाते ही उसे नींदरूपी जूड़ी आ जाती है। हृदयमें मूर्खतारूपी बड़ा कड़ा जाड़ा लगने लगता है, जिससे वहाँ जाकर भी वह अभागा स्नान नहीं कर पाता ॥
करि न जाइ सर मज्जन पाना । फिरि आवइ समेत अभिमाना ॥
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा । सर निंदा करि ताहि बुझावा ॥
अर्थ- उससे उस सरोवरमें स्नान और उसका जलपान तो किया नहीं जाता, वह अभिमानसहित लौट आता है। फिर यदि कोई उससे [ वहाँका हाल ] पूछने आता है, तो वह [ अपने अभाग्यकी बात न कहकर] सरोवरकी निन्दा करके उसे समझाता है॥
सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही । राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही ॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई । महा घोर त्रयताप न जरई ॥
अर्थ- ये सारे विघ्न उसको नहीं व्यापते ( बाधा नहीं देते) जिसे श्रीरामचन्द्रजी सुन्दर कृपाकी दृष्टिसे देखते हैं। वही आदरपूर्वक इस सरोवरमें स्नान करता है और महान् भयानक त्रितापसे (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तापोंसे) नहीं जलता ॥
ते नर यह सर तजहिं न काऊ । जिन्ह कें राम चरन भल भाऊ ॥
जो नहाइ चह एहिं सर भाई । सो सतसंग करउ मन लाई ॥
अर्थ- जिनके मनमें श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें सुन्दर प्रेम है, वे इस सरोवरको कभी नहीं छोड़ते । हे भाई ! जो इस सरोवरमें स्नान करना चाहे वह मन लगाकर सत्संग करे॥
अस मानस मानस चख चाही । भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही ॥
भयउ हृदयँ आनंद उछाहू । उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू ॥
अर्थ- ऐसे मानस-सरोवरको हृदयके नेत्रोंसे देखकर और उसमें गोता लगाकर कविकी बुद्धि निर्मल हो गयी, हृदयमें आनन्द और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनन्दका प्रवाह उमड़ आया ॥
चली सुभग कबिता सरिता सो । राम बिमल जस जल भरिता सो ॥
सरजू नाम सुमंगल मूला । लोक बेद मत मंजुल कूला ॥
अर्थ- उससे वह सुन्दर कवितारूपी नदी बह निकली, जिसमें श्रीरामजीका निर्मल यशरूपी जल भरा है। इस(कवितारूपिणी नदी) का नाम सरयू है, जो सम्पूर्ण सुन्दर मङ्गलोंकी जड़ है । लोकमत और वेदमत इसके दो सुन्दर किनारे हैं ॥
नदी पुनीत सुमानस नंदिनि । कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि ॥
अर्थ- यह सुन्दर मानस-सरोवरकी कन्या सरयू नदी बड़ी पवित्र है और कलियुगके [छोटे-बड़े] पापरूपी तिनकों और वृक्षोंको जड़से उखाड़ फेंकनेवाली है॥
दो० – श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल ।
संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल ॥
अर्थ- तीनों प्रकारके श्रोताओंका समाज ही इस नदीके दोनों किनारोंपर बसे हुए पुरवे, गाँव और नगर हैं; और संतोंकी सभा ही सब सुन्दर मङ्गलोंकी जड़ अनुपम अयोध्याजी है॥
रामभगति सुरसरितहि जाई । मिली सुकीरति सरजु सुहाई ॥
सानुज राम समर जसु पावन । मिलेउ महानदु सोन सुहावन ॥
अर्थ- सुन्दर कीर्तिरूपी सुहावनी सरयूजी रामभक्तिरूपी गङ्गाजीमें जा मिलीं। छोटे भाई लक्ष्मणसहित श्रीरामजीके युद्धका पवित्र यशरूपी सुहावना महानद सोन उसमें आ मिला॥
जुग बिच भगति देवधुनि धारा । सोहति सहित सुबिरति बिचारा ॥
त्रिविध ताप त्रासक तिमुहानी | राम सरूप सिंधु समुहानी ॥
अर्थ- दोनोंके बीचमें भक्तिरूपी गङ्गाजीकी धारा ज्ञान और वैराग्यके सहित शोभित हो रही है । ऐसी तीनों तापोंको डरानेवाली यह तिमुहानी नदी रामस्वरूपरूपी समुद्रकी ओर जा रही है॥
मानस मूल मिली सुरसरिही । सुनत सुजन मन पावन करिही ॥
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा । जनु सरि तीर तीर बन बागा ॥
अर्थ- इस (कीर्तिरूपी सरयू) का मूल मानस ( श्रीरामचरित ) है और यह [ रामभक्तिरूपी ] गङ्गाजीमें मिली है, इसलिये यह सुननेवाले सज्जनोंके मनको पवित्र कर देगी। इसके बीच-बीचमें जो भिन्न-भिन्न प्रकारकी विचित्र कथाएँ हैं वे ही मानो नदीतटके आस-पासके वन और बाग हैं॥
उमा महेस बिबाह बराती । ते जलचर अगनित बहुभाँती ॥
रघुबर जनम अनंद बधाई । भवँर तरंग मनोहरताई ॥
अर्थ- उमा महेस बिबाह श्रीपार्वतीजी और शिवजीके विवाहके बराती इस नदीमें बहुत प्रकारके असंख्य जलचर जीव हैं। श्रीरघुनाथजीके जन्मकी आनन्द – बधाइयाँ ही इस नदीके भँवर और तरंगोंकी मनोहरता है ॥
दो० – बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग ।
नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारि बिहंग ॥
अर्थ- चारों भाइयोंके जो बालचरित हैं, वे ही इसमें खिले हुए रंग-बिरंगे बहुत-से कमल हैं। महाराज श्रीदशरथजी तथा उनकी रानियों और कुटुम्बियोंके सत्कर्म (पुण्य) ही भ्रमर और जल – पक्षी हैं ॥
सीय स्वयंबर कथा सुहाई । सरित सुहावनि सो छबि छाई ॥
नदी नाव पटु प्रस्न अनेका । केवट कुसल उतर सबिबेका ॥
अर्थ- श्रीसीताजीके स्वयंवरकी जो सुन्दर कथा है, वही इस नदीमें सुहावनी छबि छा रही है । अनेकों सुन्दर विचारपूर्ण प्रश्न ही इस नदीकी नावें हैं और उनके विवेकयुक्त उत्तर ही चतुर केवट हैं ॥
सुनि अनुकथन परस्पर होई । पथिक समाज सोह सरि सोई ॥
घोर धार भृगुनाथ रिसानी । घाट सुबद्ध राम बर बानी ॥
अर्थ- इस कथाको सुनकर पीछे जो आपसमें चर्चा होती है, वही इस नदीके सहारे – सहारे चलनेवाले यात्रियोंका समाज शोभा पा रहा है। परशुरामजीका क्रोध इस नदीकी भयानक धारा है और श्रीरामचन्द्रजीके श्रेष्ठ वचन ही सुन्दर बँधे हुए घाट ॥
सानुज राम बिबाह उछाहू । सो सुभ उमग सुखद सब काहू ॥
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं । ते सुकृती मन मुदित नहाहीं ॥
अर्थ- भाइयोंसहित श्रीरामचन्द्रजीके विवाहका उत्साह ही इस कथा – नदीकी कल्याणकारिणी बाढ़ है, जो सभीको सुख देनेवाली है । इसके कहने-सुननेमें जो हर्षित और पुलकित होते हैं, वे ही पुण्यात्मा पुरुष हैं, जो प्रसन्न मनसे इस नदीमें नहाते हैं ॥
राम तिलक हित मंगल साजा । परब जोग जनु जुरे समाजा ॥
काई कुमति केकई केरी । परी जासु फल बिपति घनेरी ॥
अर्थ- श्रीरामचन्द्रजीके राजतिलकके लिये जो मङ्गल – साज सजाया गया, वही मानो पर्वके समय इस नदीपर यात्रियोंके समूह इकट्ठे हुए हैं। कैकेयीकी कुबुद्धि ही इस नदीमें काई है, जिसके फलस्वरूप बड़ी भारी विपत्ति आ पड़ी ॥
दो० – समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग।
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग ॥
अर्थ- सम्पूर्ण अनगिनत उत्पातोंको शान्त करनेवाला भरतजीका चरित्र नदी – तटपर किया जानेवाला जपयज्ञ है। कलियुगके पापों और दुष्टोंके अवगुणोंके जो वर्णन हैं वे ही इस नदीके जलका कीचड़ और बगुले – कौए हैं ॥
कीरति सरित छहूँ रितु रूरी । समय सुहावनि पावनि भूरी ॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू । सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू ॥
अर्थ- यह कीर्तिरूपिणी नदी छहों ऋतुओंमें सुन्दर है । सभी समय यह परम सुहावनी और अत्यन्त पवित्र है। इसमें शिव-पार्वतीका विवाह हेमन्त ऋतु है । श्रीरामचन्द्रजीके जन्मका उत्सव सुखदायी शिशिर ऋतु है॥
बरनब राम बिबाह समाजू । सो मुद मंगलमय रितुराजू ॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू । पंथकथा खर आतप पवनू ॥
अर्थ- श्रीरामचन्द्रजीके विवाह -समाजका वर्णन ही आनन्द – मङ्गलमय ऋतुराज वसंत है । श्रीरामजीका वनगमन दुःसह ग्रीष्म-ऋतु है और मार्गकी कथा ही कड़ी धूप और लू है ॥
बरषा घोर निसाचर रारी । सुरकुल सालि सुमंगलकारी ॥
राम राज सुख बिनय बड़ाई । बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई ॥
अर्थ- राक्षसोंके साथ घोर युद्ध ही वर्षा ऋतु है, जो देवकुलरूपी धानके लिये सुन्दर कल्याण करनेवाली है। रामचन्द्रजीके राज्यकालका जो सुख, विनम्रता और बड़ाई है वही निर्मल सुख देनेवाली सुहावनी शरद् ऋतु है.
सती सिरोमनि सिय गुन गाथा । सोइ गुन अमल अनूपम पाथा ॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई । सदा एकरस बरनि न जाई ॥
अर्थ- सती-शिरोमणि श्रीसीताजीके गुणोंकी जो कथा है, वही इस जलका निर्मल और अनुपम गुण है। श्रीभरतजीका स्वभाव इस नदीकी सुन्दर शीतलता है, जो सदा एक – सी रहती है और जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता॥
दो० – अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास ।
भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास ॥ ४२ ॥
अर्थ- चारों भाइयोंका परस्पर देखना, बोलना, मिलना, एक-दूसरेसे प्रेम करना, हँसना और सुन्दर भाईपन इस जलकी मधुरता और सुगन्ध हैं ॥
आरति बिनय दीनता मोरी । लघुता ललित सुबारि न थोरी ॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी । आस पिआस मनोमल हारी ।
अर्थ- मेरा आर्तभाव, विनय और दीनता इस सुन्दर और निर्मल जलका कम हलकापन नहीं है। (अर्थात् अत्यन्त हलकापन है ) । यह जल बड़ा ही अनोखा है, जो सुननेसे ही गुण करता है और आशारूपी प्यासको और मनके मैलको दूर कर देता है॥
राम सुप्रेमहि पोषत पानी । हरत सकल कलि कलुष गलानी ॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा । समन दुरित दुख दारिद दोषा ॥
अर्थ- यह जल श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर प्रेमको पुष्ट करता है, कलियुगके समस्त पापों और उनसे होनेवाली ग्लानिको हर लेता है । संसारके (जन्म – मृत्युरूप) श्रमको सोख लेता है, सन्तोषको भी सन्तुष्ट करता है और पाप, ताप, दरिद्रता और दोषोंको नष्ट कर देता है ॥
काम कोह मद मोह नसावन । बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन ॥
सादर मज्जन पान किए तें । मिटहिं पाप परिताप हिए तें ॥
अर्थ- यह जल काम, क्रोध, मद और मोहका नाश करनेवाला और निर्मल ज्ञान और वैराग्यका बढ़ानेवाला है। इसमें आदरपूर्वक स्नान करनेसे और इसे पीनेसे हृदयमें रहनेवाले सब पाप-ताप मिट जाते हैं॥
जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए । ते कायर कलिकाल बिगोए ॥
तृषित निरखि रब कर भव बारी । फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी ॥
अर्थ- जिन्होंने इस (राम-सुयशरूपी) जलसे अपने हृदयको नहीं धोया, वे कायर कलिकालके द्वारा ठगे गये। जैसे प्यासा हिरन सूर्यकी किरणोंके रेतपर पड़नेसे उत्पन्न हुए जलके भ्रमको वास्तविक जल समझकर पीनेको दौड़ता है और जल न पाकर दुखी होता है, वैसे ही वे (कलियुगसे ठगे हुए) जीव भी [विषयोंके पीछे भटककर ] दुःखी होंगे ॥
दो० – मति अनुहारि सुबारि गुन गन गनि मन अन्हवाइ ।
सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाई ॥
अर्थ- अपनी बुद्धिके अनुसार इस सुन्दर जलके गुणोंको विचारकर, उसमें अपने मनको स्नान कराकर और श्रीभवानी-शङ्करको स्मरण करके कवि (तुलसीदास) सुन्दर कथा कहता है ॥
अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद।
कहउँ जुगल मुनिबर्य कर मिलन सुभग संबाद ॥
अर्थ- मैं अब श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंको हृदयमें धारणकर और उनका प्रसाद पाकर दोनों श्रेष्ठ मुनियोंके मिलनका सुन्दर संवाद वर्णन करता हूँ ॥
भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा । तिन्हहि राम पद अति अनुरागा ॥
तापस सम दम दया निधाना । परमारथ पथ परम सुजाना ॥
अर्थ- भरद्वाज मुनि प्रयागमें बसते हैं, उनका श्रीरामजीके चरणोंमें अत्यन्त प्रेम है । वे तपस्वी, निगृहीतचित्त, जितेन्द्रिय, दयाके निधान और परमार्थके मार्गमें बड़े ही चतुर हैं ॥
माघ मकरगत रबि जब होई । तीरथपतिहिं आव सब कोई ॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं । सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं ॥
अर्थ- माघमें जब सूर्य मकर राशिपर जाते हैं तब सब लोग तीर्थराज प्रयागको आते हैं । देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्योंके समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणीमें स्नान करते हैं ॥
पूजहिं माधव पद जलजाता । परसि अखय बटु हरषहिं गाता ॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन । परम रम्य मुनिबर मन भावन ॥
अर्थ- श्रीवेणीमाधवजीके चरणकमलोंको पूजते हैं और अक्षयवटका स्पर्शकर उनके शरीर पुलकित होते हैं । भरद्वाजजीका आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और श्रेष्ठ मुनियोंके मनको भानेवाला है॥
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