रामायण बालकाण्ड वंदना महिमा

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रामायण बालकाण्ड वंदना महिमा
रामायण बालकाण्ड वंदना महिमा

 

रामायण बालकाण्ड वंदना महिमा

मुद मंगलमय संत समाजू । जो जग जंगम तीरथराजू ॥

राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा । सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा ॥
अर्थ- संतोंका समाज आनन्द और कल्याणमय है, जो जगत्में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है । जहाँ (उस संतसमाजरूपी प्रयागराजमें) रामभक्तिरूपी गङ्गाजीकी धारा है और ब्रह्मविचारका प्रचार सरस्वतीजी हैं ॥

 

बिधि निषेधमय कलिमल हरनी । करम कथा रबिनंदनि बरनी ॥

हरि हर कथा बिराजति बेनी । सुनत सकल मुद मंगल देनी ॥
अर्थ- विधि और निषेध (यह करो और यह न करो ) रूपी कर्मोंकी कथा कलियुगके पापोंको हरनेवाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान् विष्णु और शङ्करजीकी कथाएँ त्रिवेणीरूपसे सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनन्द और कल्याणोंकी देनेवाली हैं॥ ५॥

 

बटु बिस्वास अचल निज धरमा । तीरथराज
समाजसुकरमा ॥ सबहि सुलभ सब दिन सब देसा । सेवत सादर समन कलेसा ॥
अर्थ- [उस संतसमाजरूपी प्रयागमें] अपने धर्ममें जो अटल विश्वास है वह अक्षयवट है, और शुभकर्म ही उस तीर्थराजका समाज (परिकर) है। वह ( संतसमाजरूपी प्रयागराज ) सब देशोंमें, सब समय सभीको सहजहीमें प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करनेसे क्लेशोंको नष्ट करनेवाला है॥६॥

 

अकथ अलौकिक तीरथराऊ । देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ॥

अर्थ-  वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है, एवं तत्काल फल देनेवाला है; उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है

 

 सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग ।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ॥ २ ॥
अर्थ- जो मनुष्य इस संत-समाजरूपी तीर्थराजका प्रभाव प्रसन्न मनसे सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीरके रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों फल पा जाते हैं ॥ 

 

मज्जन फल पेखिअ ततकाला । काक होहिं पिक बकउ मराला॥

सुनि आचरज करै जनि कोई । सतसंगति महिमा नहिं गोई ॥
अर्थ- इस तीर्थराजमें स्नानका फल तत्काल ऐसा देखनेमें आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं। और बगुले हंस । यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संगकी महिमा छिपी नहीं है ॥ १ ॥

 

बालमीक नारद घटजोनी । निज निज मुखनि कही निज होनी ॥                                                                    जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना ॥                                                                                अर्थ- वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजीने अपने – अपने मुखोंसे अपनी होनी ( जीवनका वृत्तान्त) कही है। जलमें रहनेवाले, जमीनपर चलनेवाले और आकाशमें विचरनेवाले नाना प्रकारके जड़- चेतन जितने जीव इस जगत्‌में हैं,॥

 

मति कीरति गति भूति भलाई । जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ॥

सो जानब सतसंग प्रभाऊ । लोकहुँ बेद न आन उपाऊ ॥
अर्थ- उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्नसे बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पायी है, सो सब सत्संगका ही प्रभाव समझना चाहिये । वेदोंमें और लोकमें इनकी प्राप्तिका दूसरा कोई उपाय नहीं है ॥ 

 

बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥

सतसंगत मुद मंगल मूला । सोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥
अर्थ- सत्संगके बिना विवेक नहीं होता और श्रीरामजीकी कृपाके बिना वह सत्संग सहजमें मिलता नहीं। सत्संगति आनन्द और कल्याणकी जड़ है । सत्संगकी सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल हैं ॥

 

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पारस परस कुधात सुहाई ॥

बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं । फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ॥
अर्थ- दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारसके स्पर्शसे लोहा सुहावना हो जाता है (सुन्दर सोना बन जाता है)। किन्तु दैवयोगसे यदि कभी सज्जन कुसंगतिमें पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँपकी मणिके समान अपने गुणोंका ही अनुसरण करते हैं (अर्थात् जिस प्रकार साँपका संसर्ग पाकर भी मणि उसके विषको ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाशको नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टोंके संगमें रहकर भी दूसरोंको प्रकाश ही देते हैं, दुष्टोंका उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ) ॥ 

 

बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी । कहत साधु महिमा सकुचानी ॥

सो मो सन कहि जात न कैसें । साक बनिक मनि गुन गन जैसें ॥
अर्थ- ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितोंकी वाणी भी संत- महिमाका वर्णन करनेमें सकुचाती है; वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग – तरकारी बेचनेवालेसे मणियोंके गुणसमूह नहीं कहे जा सकते ॥  

 

दो० – बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ ॥  

अर्थ- मैं संतोंको प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्तमें समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु ! जैसे अञ्जलिमें रखे हुए सुन्दर फूल [ जिस हाथने फूलोंको तोड़ा और जिसने उनको रखा उन ] दोनों ही हाथोंको समानरूपसे सुगन्धित करते हैं [ वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनोंका ही समानरूपसे कल्याण करते हैं ] ॥  

 

 

संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु |

बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु ॥  

अर्थ- संत सरलहृदय और जगत् के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेहको जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनयको सुनकर कृपा करके श्रीरामजीके चरणोंमें मुझे प्रीति दें ॥ 

 

 

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ । जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ ॥

पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें । उजरें हरष बिषाद बसेरें ॥

अर्थ- अब मैं सच्चे भावसे दुष्टोंको प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करनेवालेके भी प्रतिकूल आचरण करते हैं । दूसरोंके हितकी हानि ही जिनकी दृष्टिमें लाभ है, जिनको दूसरोंके उजड़नेमें हर्ष और बसनेमें विषाद होता है ॥ 

 

 

हरि हर जस राकेस राहु से । पर अकाज भट सहसबाहु से ||

जे पर दोष लखहिं सहसाखी । पर हित घृत जिन्ह के मन माखी ॥

अर्थ- जो हरि और हरके यशरूपी पूर्णिमाके चन्द्रमाके लिये राहुके समान हैं (अर्थात् जहाँ कहीं भगवान् विष्णु या शङ्करके यशका वर्णन होता है, उसीमें वे बाधा देते हैं) और दूसरोंकी बुराई करनेमें सहस्रबाहुके समान वीर हैं । जो दूसरोंके दोषोंको हजार आँखोंसे देखते हैं और दूसरोंके हितरूपी घीके लिये जिनका मन मक्खीके समान है ( अर्थात् जिस प्रकार मक्खी घीमें गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरोंके बने-बनाये कामको अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं ) ॥ २ ॥

 

 

तेज कृसानु रोष महिषेसा । अघ अवगुन धन धनी धनेसा ॥

उदय केत सम हित सब ही के । कुंभकरन सम सोवत नीके ॥

अर्थ- जो तेज (दूसरोंको जलानेवाले ताप) में अग्नि और क्रोधमें यमराजके समान हैं, पाप और अवगुणरूपी धनमें कुबेरके समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभीके हितका नाश करनेके लिये केतु (पुच्छल तारे) के समान है, और जिनके कुम्भकर्णकी तरह सोते रहनेमें ही भलाई है॥३॥

 

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं । जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं ॥

बंदउँ खल जस सेष सरोषा । सहस बदन बरनइ पर दोषा ॥

अर्थ- जैसे ओले खेतीका नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरोंका काम बिगाड़नेके लिये अपना शरीरतक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टोंको [ हजार मुखवाले] शेषजीके समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराये दोषोंका हजार मुखोंसे बड़े रोषके साथ वर्णन करते हैं॥४॥

 

पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना । पर अघ सुनइ सहस दस काना ॥

बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही । संतत सुरानीक हित जेही ॥

अर्थ- पुनः उनको राजा पृथु (जिन्होंने भगवान्‌का यश सुननेके लिये दस हजार कान माँगे थे) के समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानोंसे दूसरोंके पापोंको सुनते हैं । फिर इन्द्रके समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा (मदिरा) नीकी और हितकारी मालूम देती है [इन्द्रके लिये भी सुरानीक अर्थात् देवताओंकी सेना हितकारी है ]॥ 

बचन बज्र जेहि सदा पिआरा । सहस नयन पर दोष निहारा ॥

अर्थ- जिनको कठोर वचनरूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखोंसे दूसरोंके दोषोंको देखते हैं॥६॥

 

उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति ।

जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति ॥  

अर्थ- दुष्टोंकी यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसीका भी हित सुनकर जलते हैं । यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है ॥

 

  मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा । तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा ॥

बायस पलिअहिं अति अनुरागा । होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा ॥

अर्थ- मैंने अपनी ओरसे विनती की है, परन्तु वे अपनी ओरसे कभी नहीं चूकेंगे । कौओंको बड़े प्रेमसे पालिये; परन्तु वे क्या कभी मांसके त्यागी हो सकते हैं ? ॥  

 

बंदउँ संत असज्जन चरना । दुखप्रद उभय बीच कछु बरना ॥

बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं । मिलत एक दुख दारुन देहीं ॥

अर्थ- अब मैं संत और असंत दोनोंके चरणोंकी वन्दना करता हूँ; दोनों ही दुःख देनेवाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है । वह अन्तर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं तब दारुण दुःख देते हैं । (अर्थात् संतोंका बिछुड़ना मरनेके समान दुःखदायी होता है और असंतोंका मिलना) ॥ २ ॥

 

उपजहिं एक संग जग माहीं । जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं ॥

सुधा सुरा सम साधु असाधू । जनक एक जग जलधि अगाधू ॥

अर्थ-  दोनों (संत और असंत) जगत्में एक साथ पैदा होते हैं; पर [ एक साथ पैदा होनेवाले ] कमल और जोंककी तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं । (कमल दर्शन और स्पर्शसे सुख देता है, किन्तु जोंक शरीरका स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है ।) साधु अमृतके समान (मृत्युरूपी संसारसे उबारनेवाला) और असाधु मदिराके समान ( मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करनेवाला) है, दोनोंको उत्पन्न करनेवाला जगद्रूपी अगाध समुद्र एक ही है । [शास्त्रोंमें समुद्रमन्थनसे ही अमृत और मदिरा दोनोंकी उत्पत्ति बतायी गयी है ] ॥ ३ ॥

 

भल अनभल निज निज करतूती । लहत सुजस अपलोक बिभूती ॥ सुधा सुधाकर सुरसरि साधू ।

गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू ॥ गुन अवगुन जानत सब कोई । जो जेहि भाव नीक तेहि सोई ॥

अर्थ- भले और बुरे अपनी-अपनी करनीके अनुसार सुन्दर यश और अपयशकी सम्पत्ति पाते हैं । अमृत, चन्द्रमा, गङ्गाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुगके पापोंकी नदी अर्थात् कर्मनाशा और हिंसा करनेवाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं; किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है॥४-५॥

 

दो०—भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु ।

सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु ॥  

अर्थ- भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचताको ही ग्रहण किये रहता है । अमृतकी सराहना अमर करनेमें होती है और विषकी मारनेमें ॥  

 

खल अघ अगुन साधु गुन गाहा । उभय अपार उदधि अवगाहा ॥

तेहि तें कछु गुन दोष बखाने । संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ॥

अर्थ- दुष्टोंके पापों और अवगुणोंकी और साधुओंके गुणोंकी कथाएँ — दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं । इसीसे कुछ गुण और दोषोंका वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता ॥  

 

भलेउ पोच सब बिधि उपजाए । गनि गुन दोष बेद बिलगाए ॥

कहहिं बेद इतिहास पुराना । बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना ॥

अर्थ- भले, बुरे सभी ब्रह्माके पैदा किये हुए हैं, पर गुण और दोषोंको विचारकर वेदोंने उनको अलग-अलग कर दिया है । वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्माकी यह सृष्टि गुण – अवगुणोंसे सनी हुई है॥ 

 

दुख सुख पाप पुन्य दिन राती । साधु असाधु सुजाति कुजाती ॥

दानव देव ऊँच अरु नीचू । अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू ॥

माया ब्रह्म जीव जगदीसा । लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा ॥ कासी मग सुरसरि क्रमनासा । मरु मारव महिदेव गवासा ॥ सरग नरक अनुराग बिरागा । निगमागम गुन दोष बिभागा ॥

अर्थ- दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु – असाधु, सुजाति – कुजाति, दानव – देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन ( सुन्दर जीवन) – मृत्यु, माया – ब्रह्म, जीव- ईश्वर, सम्पत्ति – दरिद्रता, रंक – राजा, काशी-मगध, गङ्गा-कर्मनाशा, मारवाड़ – मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य, [ये सभी पदार्थ ब्रह्माकी सृष्टिमें हैं ।] वेद-शास्त्रोंने उनके गुण-दोषोंका विभाग कर दिया है ॥  

 

 जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार ।

संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ॥ ६ ॥

अर्थ- विधाताने इस जड-चेतन विश्वको गुण-दोषमय रचा है; किन्तु संतरूपी हंस दोषरूपी जलको छोड़कर गुणरूपी दूधको ही ग्रहण करते हैं ॥ 

 

अस बिबेक जब देइ बिधाता । तब तजि दोष गुनहिं मनु राता ॥

काल सुभाउ करम बरिआईं । भलेउ प्रकृति बस चुकड़ भलाईं ॥

अर्थ- विधाता जब इस प्रकारका (हंसका-सा ) विवेक देते हैं, तब दोषोंको छोड़कर मन गुणोंमें अनुरक्त होता है । काल- स्वभाव और कर्मकी प्रबलतासे भले लोग (साधु) भी मायाके वशमें होकर कभी-कभी भलाईसे चूक जाते हैं ॥ 

 

सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं । दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं ॥

खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू । मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू ॥

अर्थ- भगवान्के भक्त जैसे उस चूकको सुधार लेते हैं और दुःख – दोषोंको मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी – कभी उत्तम सङ्ग पाकर भलाई करते हैं; परन्तु उनका कभी भंग न होनेवाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता ॥ २ ॥

 

लखि सुबेष जग बंचक जेऊ । बेष प्रताप पूजिअहिं उघरहिं अंत न होइ निबाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू ॥

अर्थ- जो [वेषधारी] ठग हैं, उन्हें भी अच्छा (साधुका – सा) वेष बनाये देखकर वेषके प्रतापसे जगत् पूजता है; परन्तु एक-न- एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं, अन्ततक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहुका हाल हुआ ॥ ३॥

 

किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू । जिमि जग जामवंत हनुमानू ॥

हानि कुसंग सुसंगति लाहू । लोकहुँ बेद बिदित सब काहू ॥

अर्थ- बुरा वेष बना लेनेपर भी साधुका सम्मान ही होता है, जैसे जगत्में जाम्बवान् और हनुमान्जीका हुआ । बुरे संगसे हानि और अच्छे संगसे लाभ होता है, यह बात लोक और वेदमें है और सभी लोग इसको जानते हैं ॥ 

 

गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलइ नीच जल संगा ॥

साधु असाधु सदन सुक सारीं । सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं ॥

अर्थ- पवनके संगसे धूल आकाशपर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचेकी ओर बहनेवाले) जलके संगसे कीचड़ में मिल जाती है । साधुके घरके तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधुके घरके तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं ॥  

 

धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई ॥

सोइ जल अनल अनिल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता ॥

अर्थ- कुसंगके कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ [सुसंगसे] सुन्दर स्याही होकर पुराण लिखनेके काममें आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवनके संगसे बादल होकर जगत्को जीवन देनेवाला बन जाता है॥ 

 

ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग ।

होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ॥ ७(क)॥

अर्थ- ग्रह, ओषधि, जल, वायु और वस्त्र – ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसारमें बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बातको जान पाते हैं॥

 

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह ।

ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ॥  

अर्थ- महीनेके दोनों पखवाड़ोंमें उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाताने इनके नाममें भेद कर दिया है ( एकका नाम शुक्ल और दूसरेका नाम कृष्ण रख दिया) । एकको चन्द्रमाका बढ़ानेवाला और दूसरेको उसका घटानेवाला समझकर जगत्ने एकको सुयश और दूसरेको अपयश दे दिया॥  

 

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।

अर्थ- बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥ ७ ( ग ) ॥ जगत्में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलोंकी सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ ॥  

 

देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब ।

बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब ॥  

अर्थ- देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गन्धर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ । अब सब मुझपर कृपा कीजिये ॥  

 

आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ बासी ॥

सीय राममय सब जग जानी । करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥

अर्थ- चौरासी लाख योनियोंमें चार प्रकारके ( स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाशमें रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत्‌को श्रीसीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ ॥  

 

जानि कृपाकर किंकर मोहू । सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू ॥

निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं । तातें बिनय करउँ सब पाहीं ॥

अर्थ- मुझको अपना दास जानकर कृपाकी खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिये । मुझे अपने बुद्धि – बलका भरोसा नहीं है, इसीलिये मैं सबसे विनती करता हूँ ॥

 

करन चहउँ रघुपति गुन गाहा । लघु मति मोरि चरित अवगाहा ॥

सूझ न एकउ अंग उपाऊ । मन मति रंक मनोरथ राऊ ॥

अर्थ- मैं श्रीरघुनाथजीके गुणोंका वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और श्रीरामजीका चरित्र अथाह है। इसके लिये मुझे उपायका एक भी अंग अर्थात् कुछ ( लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता । मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है॥ 

 

मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी । चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी ॥

छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई । सुनिहहिं बालबचन मन लाई ॥

अर्थ- मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है; चाह तो अमृत पानेकी है, पर जगत्में जुड़ती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाईको क्षमा करेंगे और मेरे बालवचनोंको मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे ॥  

 

जौं बालक कह तोतरि बाता । सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता ॥

हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी । जे पर

अर्थ- दूषन भूषनधारी ॥ जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मनसे सुनते हैं । किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचारवाले लोग जो दूसरोंके दोषोंको ही भूषणरूपसे धारण किये रहते हैं (अर्थात् जिन्हें पराये दोष ही प्यारे लगते हैं), हँसेंगे ॥  

 

 

निज कबित्त केहि लाग न नीका । सरस होउ अथवा अति फीका ॥

जे पर भनिति सुनत हरषाहीं । ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं ॥

अर्थ-  रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती ? किन्तु जो दूसरेकी रचनाको सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत्में बहुत नहीं हैं, ॥  

 

 

जग बहु नर सर सरि सम भाई । जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई ||

सज्जन सकृत सिंधु सम कोई । देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई ॥

अर्थ- हे भाई! जगत्में तालाबों और नदियोंके समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़से बढ़ते हैं (अर्थात् अपनी ही उन्नतिसे प्रसन्न होते हैं ) । समुद्र – सा तो कोई एक विरला ही सज्जन होता है जो चन्द्रमाको पूर्ण देखकर ( दूसरोंका उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है॥

 

भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास ।

पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास ॥ 

अर्थ- मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सज्जन सभी सुख पावेंगे और दुष्ट हँसी उड़ावेंगे ॥ 

 

खल परिहास होइ हित मोरा । काक कहहिं कलकंठ कठोरा ॥

हंसहि बक दादुर चातकही । हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही ॥

अर्थ- किन्तु दुष्टोंके हँसनेसे मेरा हित ही होगा । मधुर कण्ठवाली कोयलको कौए तो कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंसको और मेढक पपीहेको हँसते हैं, वैसे ही मलिन मनवाले दुष्ट निर्मल वाणीको हँसते हैं॥  

 

कबित रसिक न राम पद नेहू । तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू ॥

भाषा भनिति भोरि मति मोरी । हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी ॥

अर्थ- जो न तो कविताके रसिक हैं और न जिनका श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रेम है, उनके लिये भी यह कविता सुखद हास्यरसका काम देगी। प्रथम तो यह भाषाकी रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है; इससे यह हँसनेके योग्य ही है, हँसनेमें उन्हें कोई दोष नहीं ॥ २ ॥

 

प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी । तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी ॥

हरि हर पद रति मति न कुतरकी । तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की ॥

अर्थ- जिन्हें न तो प्रभुके चरणोंमें प्रेम है और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुननेमें फीकी लगेगी। जिनकी श्रीहरि ( भगवान् विष्णु) और श्रीहर (भगवान् शिव) के चरणोंमें प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करनेवाली नहीं है [ जो श्रीहरि – हरमें भेदकी या ऊँच-नीचकी कल्पना नहीं करते], उन्हें श्रीरघुनाथजीकी यह कथा मीठी लगेगी ॥ 

 

राम भगति भूषित जियँ जानी । सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी ॥

कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू । सकल कला सब बिद्या हीनू ॥

अर्थ- सज्जनगण इस कथाको अपने जीमें श्रीरामजीकी भक्तिसे भूषित जानकर सुन्दर वाणीसे सराहना करते हुए सुनेंगे। मैं न तो कवि हूँ, न वाक्यरचनामें ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओंसे रहित हूँ॥  

 

आखर अरथ अलंकृति नाना । छंद प्रबंध अनेक बिधाना ॥

भाव भेद रस भेद अपारा । कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा ॥

अर्थ- नाना प्रकारके अक्षर, अर्थ और अलङ्कार, अनेक प्रकारकी छन्दरचना, भावों और रसोंके अपार भेद और कविताके भाँति-भाँतिके गुण-दोष होते हैं ॥ 

 

कबित बिबेक एक नहिं मोरें । सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें ॥

अर्थ- इनमेंसे काव्यसम्बन्धी एक भी बातका ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागजपर लिखकर [शपथपूर्वक] सत्य-सत्य कहता हूँ॥ 

 

भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक ।

सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक ॥  

अर्थ- मेरी रचना सब गुणोंसे रहित है; इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है । उसे विचारकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे ॥  

 

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा ॥

मंगल भवन अमंगल हारी । उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥

अर्थ- इसमें श्रीरघुनाथजीका उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणोंका सार है, कल्याणका भवन है और अमङ्गलोंको हरनेवाला है, जिसे पार्वतीजीसहित भगवान् शिवजी सदा जपा करते हैं॥ 

 

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ ॥

बिधुबदनी सब भाँति सँवारी । सोह न बसन बिना बर नारी ॥

अर्थ- जो अच्छे कविके द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी रामनामके बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमाके समान मुखवाली सुन्दर स्त्री सब प्रकारसे सुसज्जित होनेपर भी वस्त्र के बिना शोभा नहीं देती ॥ 

 

 

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी । राम नाम जस अंकित जानी ॥

सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही । मधुकर सरिस संत गुनग्राही ॥

अर्थ- इसके विपरीत, कुकविकी रची हुई सब गुणोंसे रहित कविताको भी, रामके नाम एवं यशसे अंकित जानकर, बुद्धिमान् लोग आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं; क्योंकि संतजन भौरेकी भाँति गुणहीको ग्रहण करनेवाले होते हैं ॥  

 

जदपि कबित रस एकउ नाहीं । राम प्रताप प्रगट एहि माहीं ॥

सोइ भरोस मोरें मन आवा । केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा ॥

अर्थ-यद्यपि मेरी इस रचनामें कविताका एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्रीरामजीका प्रताप प्रकट है । मेरे मनमें यही एक भरोसा है । भले संगसे भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया ?॥

 

धूमउ तजइ सहज करुआई । अगरु प्रसंग सुगंध बसाई ॥

भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी । राम कथा जग मंगल करनी ॥

अर्थ-धुआँ भी अगरके संगसे सुगन्धित होकर अपने स्वाभाविक कडुवेपनको छोड़ देता है । मेरी कविता अवश्य भद्दी है, परन्तु इसमें जगत्का कल्याण करनेवाली रामकथारूपी उत्तम वस्तुका वर्णन किया गया है। [इससे यह भी अच्छी ही समझी जायगी ] ॥ 

 

छं० – मंगल करनि कलिमलहरनि तुलसी कथा रघुनाथ की ।

अर्थ-गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की ॥ प्रभुसुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी । भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी ॥तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरघुनाथजीकी कथा कल्याण करनेवाली और कलियुगके पापोंको हरनेवाली है।

मेरी इस भद्दी कवितारूपी नदीकी चाल पवित्र जलवाली नदी (गङ्गाजी) की चालकी भाँति टेढ़ी है। प्रभु श्रीरघुनाथजीके सुन्दर यशके संगसे यह कविता सुन्दर तथा सज्जनोंके मनको भानेवाली हो जायगी। श्मशानकी अपवित्र राख भी श्रीमहादेवजीके अंगके संगसे सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करनेवाली होती है।

 

दो० – प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति रामजस संग ।

दारु बिचारु कि कर कोड बंदिअ मलय प्रसंग ॥  

अर्थ-श्रीरामजीके यशके संगसे मेरी कविता सभीको अत्यन्त प्रिय लगेगी, जैसे मलय पर्वतके संगसे काष्ठमात्र [चन्दन बनकर ] वन्दनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ [ की तुच्छता ] का विचार करता है ?॥  

 

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान ।

गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥  

अर्थ-श्यामा गौ काली होनेपर भी उसका दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी होता है । यही समझकर सब लोग उसे पीते हैं । इसी तरह गँवारू भाषामें होनेपर भी श्रीसीता – रामजीके यशको बुद्धिमान् लोग बड़े चावसे गाते और सुनते हैं ॥

 

मनि मानिक मुकुता छबि जैसी । अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी ॥

नृप किरीट तरुनी तनु पाई । लहहिं सकल सोभा अधिकाई ॥

अर्थ-मणि, माणिक और मोतीकी जैसी सुन्दर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथीके मस्तकपर वैसी शोभा नहीं पाती । राजाके मुकुट और नवयुवती स्त्रीके शरीरको पाकर ही ये सब अधिक शोभाको प्राप्त होते हैं ॥  

 

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं । उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं ॥

भगति हेतु बिधि भवन बिहाई । सुमिरत सारद आवति धाई ॥

अर्थ-इसी तरह, बुद्धिमान् लोग कहते हैं कि सुकविकी कविता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात् कविकी वाणीसे उत्पन्न हुई कविता वहाँ शोभा पाती है जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्शका ग्रहण और अनुसरण होता है) । कविके स्मरण करते ही उसकी भक्तिके कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोकको छोड़कर दौड़ी आती हैं ॥  

 

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ । सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ ॥

कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी | गावहिं हरि जस कलि मल हारी ।

अर्थ-सरस्वतीजीकी दौड़ी आनेकी वह थकावट रामचरितरूपी सरोवरमें उन्हें नहलाये बिना दूसरे करोड़ों उपायोंसे भी दूर नहीं होती । कवि और पण्डित अपने हृदयमें ऐसा विचारकर कलियुगके पापोंको हरनेवाले श्रीहरिके यशका ही गान करते हैं ॥३॥

 

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना । सिर धुनि गिरा लगत पछिताना |

हृदय सिंधु मति सीप समाना । स्वाति सारदा कहहिं सुजाना ॥

अर्थ-संसारी मनुष्योंका गुणगान करनेसे सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं [ कि मैं क्यों इसके बुलानेपर आयी]। बुद्धिमान् लोग हृदयको समुद्र, बुद्धिको सीप और सरस्वतीको स्वाति नक्षत्रके समान कहते हैं॥ 

 

जौं बरषइ बर बारि बिचारू । होहिं कबित मुकुतामनि चारू ॥

अर्थ- इसमें यदि श्रेष्ठ विचाररूपी जल बरसता है तो मुक्तामणिके समान सुन्दर कविता होती है ॥  

 

दो० – जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग ।

पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग ॥ ११ ॥

अर्थ-उन कवितारूपी मुक्तामणियोंको युक्तिसे बेधकर फिर रामचरित्ररूपी सुन्दर तागेमें पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदयमें धारण करते हैं, जिससे अत्यन्त अनुरागरूपी शोभा होती है (वे आत्यन्तिक प्रेमको प्राप्त होते हैं ) ॥ 

 

जे जनमे कलिकाल कराला । करतब बायस बेष मराला ॥ चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े । कपट कलेवर कलि मल भाँड़े ॥

अर्थ-जो कराल कलियुगमें जन्मे हैं, जिनकी करनी कौएके समान है और वेष हंसका – सा है, जो वेदमार्गको छोड़कर कुमार्गपर चलते हैं, जो कपटकी मूर्ति और कलियुगके पापोंके भाँड़े हैं ॥ १ ॥ बंचक भगत कहाइ राम के । किंकर कंचन कोह काम के ॥ तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी । धींग धरमध्वज धंधक धोरी ॥

 श्रीरामजीके भक्त कहलाकर लोगोंको ठगते हैं, जो धन (लोभ), क्रोध और कामके गुलाम हैं और जो धींगाधींगी करनेवाले, धर्मध्वजी ( धर्मकी झूठी ध्वजा फहरानेवाले – दम्भी ) और कपटके धन्धोंका बोझ ढोनेवाले हैं, संसारके ऐसे लोगोंमें सबसे पहले मेरी गिनती है ॥२॥

 

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ । बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ॥

ताते मैं अति अलप बखाने । थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥

अर्थ- यदि मैं अपने सब अवगुणोंको कहने लगूँ तो कथा बहुत बढ़ जायगी और मैं पार नहीं पाऊँगा । इससे मैंने बहुत कम अवगुणोंका वर्णन किया है । बुद्धिमान् लोग थोड़ेहीमें समझ लेंगे ॥ ३॥

 

समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी । कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी ॥

एतेहु पर करिहहिं जे असंका । मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका ॥

अर्थ-मेरी अनेकों प्रकारकी विनतीको समझकर, कोई भी इस कथाको सुनकर दोष नहीं देगा । इतनेपर भी जो शंका करेंगे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धिके कंगाल हैं॥ 

 

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ । मति अनुरूप राम गुन गावउँ ॥

कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा ॥

अर्थ- मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ; अपनी बुद्धिके अनुसार श्रीरामजीके गुण गाता हूँ । कहाँ तो श्रीरघुनाथजीके अपार चरित्र, कहाँ संसारमें आसक्त मेरी बुद्धि ! ॥ 

 

 जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं । कहहु तूल केहि लेखे माहीं ॥

समुझत अमित राम प्रभुताई । करत कथा मन अति कदराई

अर्थ- जिस हवासे सुमेरु-जैसे पहाड़ उड़ जाते हैं, कहिये तो, उसके सामने रूई किस गिनतीमें है । श्रीरामजीकी असीम प्रभुताको समझकर कथा रचनेमें मेरा मन बहुत हिचकता है-॥ 

 

दो० – सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान ।

नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान ॥ १२ ॥

अर्थ- सरस्वतीजी, शेषजी, शिवजी, ब्रह्माजी, शास्त्र, वेद और पुराण – ये सब नेति नेति कहकर (पार नहीं पाकर ऐसा नहीं ऐसा नहीं कहते हुए) सदा जिनका गुणगान किया करते हैं ॥ १२॥

 

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई । तदपि कहें बिनु रहा न कोई ॥

तहाँ बेद अस कारन राखा । भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा ॥

अर्थ- यद्यपि प्रभु श्रीरामचन्द्रजीकी प्रभुताको सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते हैं तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वेदने ऐसा कारण बताया है कि भजनका प्रभाव बहुत तरहसे कहा गया है। (अर्थात् भगवान्की महिमाका पूरा वर्णन तो कोई कर नहीं सकता; परन्तु जिससे जितना बन पड़े उतना भगवान्‌का गुणगान करना चाहिये। क्योंकि भगवान्‌ के गुणगानरूपी भजनका प्रभाव बहुत ही अनोखा है, उसका नाना प्रकारसे शास्त्रोंमें वर्णन है । थोड़ा-सा भी भगवान्‌का भजन मनुष्यको सहज ही भवसागरसे तार देता है ) ॥ १ ॥

 

एक अनीह अरूप अनामा । अज सच्चिदानंद पर धामा ॥

ब्यापक बिस्वरूप भगवाना । तेहिं धरि देह चरित कृत नाना ॥

अर्थ- जो परमेश्वर एक हैं, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानन्द और परमधाम हैं और जो सबमें व्यापक एवं विश्वरूप हैं, उन्हीं भगवान्ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकारकी लीला की है 

 

 

सो केवल भगतन हित लागी । परम कृपाल प्रनत अनुरागी ॥

जेहि जन पर ममता अति छोहू । जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू ॥

अर्थ- वह लीला केवल भक्तोंके हितके लिये ही है; क्योंकि भगवान् परम कृपालु हैं और शरणागतके बड़े प्रेमी हैं। जिनकी भक्तोंपर बड़ी ममता और कृपा है, जिन्होंने एक बार जिसपर कृपा कर दी, उसपर फिर कभी क्रोध नहीं किया॥ 

 

गई बहोर गरीब नेवाजू । सरल सबल साहिब रघुराजू ॥

बुध बरनहिं हरि जस अस जानी । करहिं पुनीत सुफल निज बानी ॥

अर्थ- वे प्रभु श्रीरघुनाथजी गयी हुई वस्तुको फिर प्राप्त करानेवाले, गरीबनिवाज ( दीनबन्धु), सरलस्वभाव, सर्वशक्तिमान् और सबके स्वामी हैं । यही समझकर बुद्धिमान् लोग उन श्रीहरिका यश वर्णन करके अपनी वाणीको पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम) देनेवाली बनाते हैं॥ 

 

तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा । कहिहउँ नाइ राम पद माथा ॥

मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई । तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई ॥

अर्थ- उसी बलसे (महिमाका यथार्थ वर्णन नहीं, परन्तु महान् फल देनेवाला भजन समझकर भगवत्कृपाके बलपर ही) मैं श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें सिर नवाकर श्रीरघुनाथजीके गुणोंकी कथा कहूँगा। इसी विचारसे [वाल्मीकि, व्यास आदि ] मुनियोंने पहले हरिकी कीर्ति गायी है, भाई ! उसी मार्गपर चलना मेरे लिये सुगम होगा ॥  

 

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रामायण गुरु ब्राम्हण वंदना 

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