मन का वशीकरण 

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मन का वशीकरण 
मन का वशीकरण

 

मन का वशीकरण

मनुष्य ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में पैर रखता है तो सबसे कठिन बात जो इस शिष्य को मालूम होती है वह मन का अपने वश में रखना है ।

इसका केवल वे ही मनुष्य अनुभव कर सकते हैं जिन्हो ने इसके लिए कुछ परिश्रम किया है । जब हम विचारों को अपने अधीन रखने के सम्बंध में सोचते हैं तब हमें कुछ अनुभव होता है कि मन सदैव कितना उदंड और प्रशासित अवस्था में रहता रहा है और वह कैसे हर प्रकार विचार करता है.

हर विषय की विचार मन में तरंग की तरह होती है, और कैसे सब प्रकार के संकल्प विकल्पों का द्वार रहा है। इस बात को देखकर हमें बड़ा विस्मय होता है और साथ ही साथ लज्जा भी आती है कि हम ने कितना अमूल्य समय व्यर्थ चंचल विचारों में नष्ट कर दिया है।

वह समय जिसको यदि हम उचित रीति से उपयोग में लाते और उसको किसी अभीष्ट के सिद्ध करने में लगाते तो निस्संदेह हम शक्तिशाली और दृढ़ चारित्रवान बन जाते । ऐसा समय यदि हम शुभ विचारों और शुभ भावनाओं में लगाते तो हमारा जीवन सुधर जाता, हमारी अंतरात्मा पवित्र हो जाती।

हम प्रभावशाली बन जाते और हम में आत्मिक शक्ति का महत्व आ जाता।
हमारे विचार में किसी मनुष्य के जीवन का वह वड़ा दिन है जिस दिन कि उपरोकबात की सत्यता उसके हृदय में बैठे।

पहिले पहिल मन वश में नहीं होना चाहता । यह घोड़े के नए बछड़े के समान है जो लगाम लगाते समय बड़ी उछल कूद मचाता है और भागने की कोशिश करता है । यदि हम विचार को अपने मार्ग की ओर चलाना चाहते हैं तो हमारा मुख्य कर्त्तव्य यह है कि हम धैर्य धारण करें और अपने चंचल और अस्थिर विचारों को निरन्तर अपनी ओर खींचते रहे।

बार बार हमें कुछ निराशा तथा अधीरता तो अवश्य होगी और हमारा चित्त चाहेगा कि निराश होकर छोड़ दें, परन्तु ऐसा करना सर्वदा अपने को हानि पहुंचाना है। सबसे पहली बात जो मनमें बैठानी चाहिए, धैर्य है।जल्दी करने से कुछ नहीं मिल पाता।

शीघ्रता करने से काम खराब हो जाता है और काम खराब करने से तो यही अच्छा है कि काम को धीरे धीरे करो और सफलता पूर्वक करो। इसलिए पहले पहल अधिक करने को कभी कोशिश मत करो और न विचार ही विचार में समय नष्ट करो नहीं तो मन उसको ओर न लगाने से थक जाएगा और फिर वह उस उत्तम कार्य के योग्य भी न रहेगा जो तुम्हारे सामने उपस्थित है।

जिस मनुष्य ने अपनी मानसिक शक्तियों को अपने आधीन नहीं कर लिया है यह वास्तव में मनुष्य कहलाने योग्य नहीं ।
इसके अभ्यास करने का सबसे अच्छा ढंग यह है कि यदि हो सके तो प्रातःकाल कुछ समय नियत करलो और उसी समय मन को स्थिर करना प्रारम्भ करो पहले पहल केवल दस ही मिनट सही तत्पश्चात बीस मिनट तक। जब एक या दो सप्ताह हो जायें तो समय को बढ़ा तो और प्राध बन्टे तक ध्यान किया करो और इसी प्रकार मन एकाथ करने का अभ्यास बढ़ाते जाओ।

मैं समझता हूँ कि यह बहुत चच्छा होगा कि एक शब्द लो और उसी पर मन स्थिर करो । उदाहरणार्थ ‘सहानुभूति’ शब्द लीजिए। ‘सहानुभूति’ की सुन्दरता पर विचार करें, इसमें दूसरों को सुखी करने को कितनी शक्ति अव्यक्त है। किस प्रकार और कब वह दूसरों के साथ की जा सकती है। इसके भेद प्रभेद पर सब प्रकार से विचार करो। सम्भव है कि ऐसा करते समय तुम्हारा मन किसी अन्य बात को सोचे।

तुम समझो यह तो बड़ा मनोरंजक है अब मैं इसपर विचार करूंगा, परन्तु ऐसी भूल कभी न करना ।
अपने मन को उसी तरफ फेर ली और उसी शब्द पर बराबर विचार करते रहो जिस पर पहले करते थे। यदि चाहो तो दूसरे सबेरे कोई दूसरा शब्द लीजिए और फिर वह शब्द जीवन और स्वभाव से क्या सम्बन्ध रखता है, इसको सोचो।

जब तक उस शब्द के गुण तुम्हारे जीवन में प्रवेश न कर जायें तब तक उसको न छोड़ो ।

शनैः शनैःशब्दों से सिद्धान्तों तक पहुंच सकते हो और तुमको बहुत जल्दी मालूम हो जाएगा कि तुम अपने प्रातःकाल के ध्यान के विचार का अर्थ दैनिक व्यवहार में प्रयोग कर रहे हो,  यह प्रयोग होता रहेगा और तुम ‘जानोगे भी नहीं। ऐसा अवश्य होना ही चाहिए, क्योंकि जब गम्भीर विचार हम किसी बात पर करते हैं तो वह खराब हो जाता है ।

मैंने एक बार एक युवती को देखा था जोकि बड़ी मुश्किल से लिख पाती थी। बुरे लेख के कारण स्कूल में उसका सदैव निरादर हुआ करता था और उसके शिक्षकों को पूर्ण विश्वास हो गया था कि इसका लेख नहीं सुधर सकता और लड़की स्वयं भी निराश हो गई और बड़ी दुःखित थी।

अब वह किसी छुट्टी के दिन अपनी सखी के यहां गई जिसने उसके दुःख को सुनकर पूछा कि बताओ तुम किस प्रकार लिखना चाहती हो। लड़की ने दुखी मन से उत्तर दिया,  मैं इसको नहीं जानती

उसकी सहेली ने कहा अच्छा कापियों को जाने दो । अब तुम यह बताओ कि किसका लिखना सुन्दर है। लड़की ने जल्दी से जवाब दिया कि मेरे विचार से एक लड़की बहुत ही सुंदर लिखती है। यदि मैं उसके समान लिख सकूं तो अच्छा हो परन्तु यह असम्भव है.

क्योंकि मेरे शिक्षक मुझ से कहा करते हैं कि तुम कभी भी सुन्दर नहीं लिख सकती। उसकी सखी ने कहा कि अब तुम अपने शिक्षकों की बात को बिलकुल छोड़ दो, सब कापियों की सुध विसार दो सब दुःखों को भूल जाओ और काम अपने मन को उस सुन्दर लेख की तरफ़ लगाओ जिसकी कि तुम इतनी प्रशंसा करती हो।

उसके अक्षरों को बार बार पढ़ो और प्रत्येक अक्षर के झुकाव पर भली प्रकार विचार करो । देखो उसमें क्या गुण है, अक्षर कैसा सुडौल और सुन्दर है । जब तुम लिखने को अपना कलम उठाओ तो मन में यह विचारो कि यही मेरा आदर्श है, इसी के सदश में लिखना चाहती हूँ।

दिन में कई बार उसकी बाबत विचार करो । यह सोचा कि तुम उसके अनुसार लिख रही हो और अब सोचो कि कैसी खुशी तुम्हे होगी जब तुम ऐसा लिख सकोगी।

लड़की ने प्रतिज्ञा की कि मैं अवश्य ही ऐसा करूँगी, क्योंकि यह बात उसके हृदय में बैठ गई थी और उसको उससे अत्यन्त प्रेम हो गया था। गर्मियों की छुट्टी के बाद वह स्कूल आई, उस समय उसका लिखना उसके शिक्षकों से अच्छा था। उस आदर्श ने वास्तव में उसको आदर्श का ही काम किया । यह बारम्बार किसी विषय पर विचारने को शक्ति और एक स्थिर आदर्श के प्रभाव का स्पष्ट उदाहरण है ।

कहानी का कथन है कि मनुष्य अपने उच्च नीच विचारों के अनुसार अपनी उच्चनीच अवस्था में रहते हैं । उनका संसार इतना संकीर्ण और अन्धकार मय है जैसे कि उनके संकीर्ण और गन्दे विचार होते हैं । परंतु यदि विचार उदार और उत्तम हैं तो उनका कार्य्यं भी बड़ा और सुन्दर है । उनके चारों ओर की वस्तु उन विचारों के रंग से रंग जाती है।

जिस प्रकार लड़की पहले अच्छा नहीं लिख सकती थी, परंतु ज्योंही आदर्श लेख को उसने अपने सामने रक्खा त्यौहीं वह सुन्दर लिखना सीख गई, उसी प्रकार आत्मा के सामने भी कोई आदर्श चरित्र होना चाहिए जिसकी ओर बढ़ने का वह यज्ञ करे, यदि वह कुछ उन्नति करना चाहता है। पहले हमको अपने आत्म बल की परीक्षा करनी चाहिए जिससे हम अपने आप को जान जाँए ।

मनुष्य का मन बहुत ही गम्भीर है और अपने आपको ज्ञान करना ऐसा सरल नहीं है जैसा कि पहले पहल दिखता है । यदि हम विचार अधिकार के बाबत थोड़ा भी जानना चाहते हैं तो पहले हमको अपना ज्ञान होना चाहिए । हम अपने विचारों के टुकड़े करें, अपनो इच्छाओं की संभाल करें और अपने से पंछे कि हमने यह और यह क्यों किया ?

हम फिर से गत दिन और घंटे को याद करें और अपने प्रत्येक कार्य को तराजू में तौलें । क्या हम ऐसा करने के लिए तैयार हैं ? यदि हैं तो हमें प्रतिदिन आत्म-परीक्षा के लिए थोड़ा बहुत समय खर्च करना चाहिए जिससे हमें यह ज्ञान हो जाए कि हम क्या हैं और कहाँ हैं ? अपनी आत्मा पर सत्यता का पूर्ण प्रकाश डालने से मत डरो, जो कुछ तुम्हें उस समय प्राप्त हो उसे स्वीकार

याद रक्खा आदर्श तक पहुंचना अपने आपको मालूम करना है जो कुछ कि हम हैं इस अवस्था से उस दर्जे पर जाना है जैसे कि हम होना चाहते हैं। आत्मा में किसी वस्तु के प्राप्त करने की इच्छा को अभिलाषा कहते हैं।

हाथों का फैलाना किसी उत्तम और उच्च वस्तु के प्राप्त करने की इच्छा को दर्शाता है। क्योंकि जब दृष्टि आदर्श पर नहीं होती है तो मनुष्य नाश को प्राप्त होता है ।जब हमें आम परीक्षा से यह बात ज्ञात हो जाए कि हम क्या हैं और कहां हैं.

फिर हमें अपने आदर्श को स्थिर कर लेना चाहिए और उसको अपने सामने रखकर एकाय मन से उसकी ओर ध्यान लगाना चाहिए । यदि हम इस प्रकार नित्य प्रति करते रहेंगे तो अवश्य ही अपने आदर्श के स हो जाएँगे, यही हमारी कोशिशों का प्रतिफल होगा।

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रामायण गुरु ब्राम्हण वंदना 

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