रामायण गुरु ब्राम्हण वंदना 

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रामायण गुरु ब्राम्हण वंदना 
रामायण गुरु ब्राम्हण वंदना 
 
रामायण गुरु ब्राम्हण वंदना 

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि। मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ॥ १ ॥
अर्थ – अक्षरों, अर्थसमूहों, रसों, छन्दों और मंगलोंकी करनेवाली सरस्वतीजी और गणेशजीकी मैं वन्दना करता हूँ॥१॥

 

 

भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ । याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥ २॥
अर्थ – श्रद्धा और विश्वासके स्वरूप श्रीपार्वतीजी और श्रीशङ्करजीकी मैं वन्दना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरणमें स्थित ईश्वरको नहीं देख सकते ॥ २

 

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्। यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ॥ ३ ॥
अर्थ – ज्ञानमय, नित्य, शङ्कररूपी गुरुकी मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होनेसे ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है ॥ ३ ॥

 

सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ विशुद्धविज्ञाना वन्दे कवीश्वरकपीश्वरौ॥४॥
अर्थ – श्रीसीतारामजीके गुणसमूहरूपी पवित्र वनमें विहार करनेवाले, विशुद्ध विज्ञानसम्पन्न कवीश्वर श्री वाल्मीकिजी और कपीश्वर श्रीहनुमान्जीकी मैं वन्दना करता हूँ ॥४॥

 

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं क्लेशहारिणीम्। रामवल्लभाम् ॥ ५॥
अर्थ – उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करनेवाली, क्लेशोंकी हरनेवाली तथा सम्पूर्ण कल्याणोंकी करनेवाली श्रीरामचन्द्रजीकी प्रियतमा श्रीसीताजीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ५ ॥

 

 

यन्मायावशवर्त्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः ।यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ॥ ६ ॥
अर्थ – जिनकी मायाके वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्तासे रस्सीमें सर्पके भ्रमकी भाँति यह सारा दृश्य – जगत् सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागरसे तरनेकी इच्छावालोंके लिये एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणोंसे पर ( सब कारणोंके कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहानेवाले भगवान् हरिकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ ६ ॥

 

नानापुराणनिगमागमसम्मतं रामायणे निगदितं यद् क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी
रघुनाथगाथा भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति
अर्थ – अनेक पुराण, वेद और [तन्त्र] शास्त्रसे सम्मत तथा जो रामायणमें वर्णित है और कुछ अन्यत्रसे भी उपलब्ध श्रीरघुनाथजीकी कथाको तुलसीदास अपने अन्तःकरणके सुखके लिये अत्यन्त मनोहर | भाषारचनामें विस्तृत करता है ॥ ७ ॥

सो० – जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन ।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन ॥ १ ॥                                                                                      अर्थ – जिन्हें स्मरण करनेसे सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणोंके स्वामी और सुन्दर हाथीके मुखवाले हैं, वे ही बुद्धिके राशि और शुभ गुणोंके धाम ( श्रीगणेशजी) मुझपर कृपा करें ॥ १ ॥

 

मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन ।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन ॥ २ ॥
अर्थ – जिनकी कृपासे गूँगा बहुत सुन्दर बोलनेवाला हो जाता है और लँगड़ा – लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है, वे कलियुगके सब पापोंको जला डालनेवाले दयालु (भगवान्) मुझपर द्रवित हों ( दया करें), ॥ २ ॥

 

नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन । करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन ॥ ३ ॥
अर्थ – जो नील कमलके समान श्यामवर्ण हैं, पूर्ण खिले हुए लाल कमलके समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागरमें शयन करते हैं, वे भगवान् (नारायण) मेरे हृदयमें निवास करें ॥ ३ ॥

 

कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन । जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन ॥ ४ ॥                             अर्थ – जिनका कुन्दके पुष्प और चन्द्रमाके समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजीके प्रियतम और दयाके धाम हैं और जिनका दीनोंपर स्नेह है, वे कामदेवका मर्दन करनेवाले (शङ्करजी) मुझपर कृपा करें ॥ ४ ॥

 

 

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि ।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर ॥५॥                                                                                       अर्थ -मैं उन गुरु महाराजके चरणकमलकी वन्दना करता हूँ, जो कृपाके समुद्र और नररूपमें श्रीहरि ही हैं और जिनके वचन महामोहरूपी घने अन्धकारके नाश करनेके लिये सूर्य किरणोंके समूह हैं ॥ ५ ॥

 

बंदउँ गुरु पद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥ अमिअ मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू ॥
अर्थ – मैं गुरु महाराजके चरणकमलोंकी रजकी वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि ( सुन्दर स्वाद), सुगन्ध तथा अनुरागरूपी रससे पूर्ण है। वह अमर मूल (सञ्जीवनी जड़ी) का सुन्दर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भवरोगोंके परिवारको नाश करनेवाला है ॥ १ ॥

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती । मंजुल मंगल मोद प्रसूती ॥ जन मन मंजु मुकुर मल हरनी । किएँ तिलक गुन गन बस करनी ॥
अर्थ -वह रज सुकृती (पुण्यवान् पुरुष) रूपी शिवजीके शरीरपर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुन्दर कल्याण और आनन्दकी जननी है, भक्तके मनरूपी सुन्दर दर्पणके मैलको दूर करनेवाली और तिलक करनेसे गुणोंके समूहको वशमें करनेवाली है ॥ २ ॥

 

श्री पद नख मनि गन जोती । सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती ॥ दलन मोह तम सो सप्रकासू । बड़े भाग उर आवइ जासू ॥
अर्थ – श्रीगुरु महाराजके चरण- नखोंकी ज्योति मणियोंके प्रकाशके समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदयमें दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है । वह प्रकाश अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश करनेवाला है; वह जिसके हृदयमें आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं ॥ ३ ॥

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के । मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥ सूझहिं राम चरित मनि मानिक । गुप्त प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥
अर्थ – उसके हृदयमें आते ही हृदयके निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसाररूपी रात्रिके दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्रीरामचरित्ररूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खानमें है, सब दिखायी पड़ने लगते हैं – ॥ ४ ॥

दो० – जथा सुअंजन अंजि दूग साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखत सैल बन भूतल सैल बन भूतल भूरि निधान ॥ १ ॥
अर्थ – जैसे सिद्धाञ्जनको नेत्रोंमें लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वीके अंदर कौतुकसे ही बहुत-सी खानें देखते हैं॥१॥

 

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन । नयन अमिअ दूग दोष बिभंजन ॥ तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन । बरनउँ राम चरित भव मोचन ॥
अर्थ – श्रीगुरु महाराजके चरणोंकी रज कोमल और सुन्दर नयनामृत – अञ्जन है, जो नेत्रोंके दोषोंका नाश करनेवाला है। उस अञ्जनसे विवेकरूपी नेत्रोंको निर्मल करके मैं संसाररूपी बन्धनसे छुड़ानेवाले श्रीरामचरित्रका वर्णन करता हूँ॥१॥

 

बंदउँ प्रथम महीसुर चरना । मोह जनित संसय सब हरना ॥ सुजन समाज सकल गुन खानी । करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ॥
अर्थ – पहले पृथ्वीके देवता ब्राह्मणोंके चरणोंकी वन्दना करता हूँ, जो अज्ञानसे उत्पन्न सब संदेहोंको हरनेवाले हैं। फिर सब गुणोंकी खान संत-समाजको प्रेमसहित सुन्दर वाणीसे प्रणाम करता हूँ ॥ २ ॥

 

 

साधु चरित सुभ चरित कपासू । निरस बिसद गुनमय फल जासू ॥ जो सहि दुख परछिद्र दुरावा ।                     बंदनीय जेहिं जग जस पावा ॥                                                                                                                 अर्थ – संतोंका चरित्र कपासके चरित्र ( जीवन ) – के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपासकी डोडी नीरस होती है, संत चरित्रमें भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है; कपास उज्ज्वल होता है, संतका हृदय भी अज्ञान और पापरूपी अन्धकारसे रहित होता है.

इसलिये वह विशद है, और कपासमें गुण (तन्तु) होते हैं, इसी प्रकार संतका चरित्र भी सद्गुणोंका भण्डार होता है, इसलिये वह गुणमय है। ) [ जैसे कपासका धागा सूईके किये हुए छेदको अपना तन देकर ढक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जानेका कष्ट सहकर भी वस्त्रके रूपमें परिणत होकर दूसरोंके गोपनीय स्थानोंको ढकता है उसी प्रकार ] संत स्वयं दुःख सहकर दूसरोंके छिद्रों (दोषों) को ढकता है, जिसके कारण उसने जगत्में वन्दनीय यश प्राप्त किया है ॥ ३ ॥

 

 

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