विवेकानंद के विचार-3

pathgyan.com में आपका स्वागत है, विवेकानंद जिनको आधुनिक शंकराचार्य भी कहा गया है उनके विचार। (विवेकानंद के विचार-3)

 

विवेकानंद के विचार-3
विवेकानंद के विचार-3

 

ईश्वर और धर्म

प्रत्येक जीव ही अव्यक्त ब्रह्म हैं। बाह्म एवं अन्तः प्रकृति, दोनों का नियमन कर, इस अन्तर्निहित ब्रह्म स्वरुप को अभिव्यक्त करना ही जीवन का ध्येय हैं। कर्म, भक्ति, योग या ज्ञान के द्वारा, इनमें से किसी एक के द्वारा, या एक से अधिक के द्वारा, या सब के सम्मिलन के द्वारा, यह ध्येय प्राप्त कर लो और मुक्त हो जाओ। यही धर्म का सर्वस्व हैं। मतमतान्तर, विधि या अनुष्ठान, ग्रन्थ, मन्दिर – ये सब गौण हैं

 

यदि ईश्वर हैं, तो हमें उसे देखना चाहिए; अन्यथा उन पर विश्वास न करना ही अच्छा हैं। ढोंगी बनने की अपेक्षा स्पष्ट रूप से नास्तिक बनना अच्छा है। अभ्यास अत्यावश्यक हैं। तुम प्रतिदिन घण्टों बैठकर मेरा उपदेश सुनते, रहो, पर यदि तुम उसका अभ्यास नहीं करते, तो एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकते। यह सब तो अभ्यास पर ही निर्भर हैं। जब तक हम इन बातों का अनुभव नहीं करते, तब तक इन्हें नहीं समझ सकते। हमें इन्हें देखना और अनुभव करना पड़ेगा।

 

सिद्धान्तों और उनकी व्याख्याओं को केवल सुनने से कुछ न होगा। एक विचार ले लो उसी एक विचार के अनुसार अपने जीवन को बनाओ; उसी को सोचो, उसी का स्वप्न देखो और उसी पर अवलम्बित रहो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, स्नायुओं और शरीर के प्रत्येक भाग को उसी विचार से ओतप्रोत होने दो और दूसरे सब विचारों को अपने से दूर रखो। यही सफलता का रास्ता हैं और यही वह मार्ग हैं, जिसने महान् धार्मिक पुरुषों का निर्माण किया है।

 

ये महामानव असामान्य नहीं थे; वे तुम्हारे और हमारे समान ही मनुष्य थे। पर वे महान् योगी थे। उन्होंने यही ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर ली थी; हम और तुम भी इसे प्राप्त कर सकते हैं। वे कोई निशेष व्यक्ति नहीं थे। एक मनुष्य का उस स्थिति में पहुँचना ही इस बात का प्रमाण हैं कि उसकी प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्भव हैं। सम्भव ही नहीं, बल्कि प्रत्येक मनुष्य अन्त में उस स्थिति को प्राप्त करेगा ही, और यही हैं धर्म ।

 

ईश्वर मुक्तिस्वरूप हैं, प्रकृति का नियन्ता हैं। तुम उसे मानने से इन्कार नहीं कर सकते। नहीं, क्योंकि तुम स्वतन्त्रता के भाव के बिना न कोई कार्य कर सकते हो, न जी सकते हो।

 

कोई भी जीवन असफल नहीं हो सकता; संसार में असफल कही जानेवाली कोई वस्तु हैं ही नहीं। सैकड़ों बार मनुष्य को चोट पहुँच सकती हैं, हजारों बार वह पछाड़ खा सकता हैं, पर अन्त में वह यही अनुभव करेगा कि वह स्वयं ही ईश्वर है।

धर्म मतवाद या बैद्धिक तर्क में नहीं हैं, वरन् आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तद्रूप हो जाना उसका साक्षात्कार, यही धर्म है।

ईसा के इन शब्दों को स्मरण रखो – “माँगो, वह तुम्हें मिलेगा; खटखटाओ और वह तुम्हारे लिए खुल जाएगा ।” ये शब्द पूर्ण रूप से सत्य हैं, न आलंकारिक हैं, न काल्पनिक |

बाह्मप्रकृति पर विजय प्राप्त करना बहुत अच्छी और बहुत बड़ी बात हैं, पर अन्तः प्रकृति को जीत लेना इससे भी बडी बात हैं…… अपने भीतर के ‘मनुष्य’ को वश में कर लो, मानव मन के सूक्ष्म कार्यों के रहस्य को समझ लो और उसके आश्चर्यजनक गुप्त भेद को अच्छी तरह जान लो ये बातें धर्म के साथ अच्छेद्य भाव से सम्बद्ध हैं।

जीवन और मृत्यु में, सुख और दुःख में ईश्वर समान रूप से विद्यमान हैं। समस्त विश्व ईश्वर से पूर्ण हैं। अपने नेत्र खोलो और उसे देखो।

ईश्वर की पूजा करना अन्तर्निहित आत्मा की ही उपासना है।

धर्म की प्रत्यक्ष अनुभूति हो सकती हैं क्या तुम इसके लिए तैयार हो ? यदि हाँ, तो तुम उसे अवश्य प्राप्त कर सकते हो, और तभी तुम यथार्थ धार्मिक होंगे। जब तक तुम इसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं कर लेते, तुममें और नास्तिकों में कोई अन्तर नहीं। नास्तिक ईमानदार हैं, पर वह मनुष्य जो कहता है कि वह धर्म में विश्वास रखता हैं, पर कभी उसे प्रत्यक्ष करने का प्रयत्न नहीं करता, ईमानदार नहीं हैं।

मैं अभी तक के सभी धर्मों को स्वीकार करता हूँ और उन सब की पूजा करता हूँ, मैं उनमें से प्रत्येक के साथ ईश्वर की उपासना करता हूँ: वे स्वयं चाहे किसी भी रूप में उपासना करते हों। मैं मुसलमानों की मसजिद में जाऊँगा, मैं ईसाइयों के गिरजा में क्रास के सामने घुटने टेककर प्रार्थना करूँगा, मैं बौद्ध- मन्दिरों में जाकर बुद्ध और उनकी शिक्षा की शरण लूँगा। जंगल में जाकर हिन्दुओं के साथ ध्यान करूँगा, जो हृदयस्थ ज्योतिस्वरूप परमात्मा को प्रत्यक्ष करने में लगे हुए हैं।

यह धर्म उसके द्वारा प्राप्त किया जाता है, जिसे हम भारत में ‘योग’ या ‘एकत्व’ कहते हैं। यह योग कर्मयोगी के लिए मनुष्य और मनुष्य जाति के एकत्व के रूप में, राजयोगी के लिए जीव तथा ब्रह्म के एकत्व के रूप में, भक्त के लिए प्रेमस्वरुप भगवान् तथा उसके स्वयं के एकत्व के रूप में और ज्ञानयोगी के लिए बहुत्व में एकत्व के रूप प्रकट होता है। यही हैं योग का अर्थ |

अब प्रश्न यह हैं कि क्या वास्तव में धर्म का कोई उपयोग हैं? हाँ, वह मनुष्य को अमर बना देता है, उसने मनुष्य के निकट उसके यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित किया हैं और वह मनुष्य को ईश्वर बनाएगा। यह हैं धर्म की उपयोगिता | मानव समाज से धर्म पृथक् कर लो, तो क्या रह जाएगा? कुछ नहीं, केवल पशुओं का समूह।

तुम्हारी सहायता कौन करेगा? तुम स्वयं ही विश्व के सहायता स्वरूप हो। इस विश्व की कौनसी वस्तु तुम्हारी सहायता कर सकती हैं। तुम्हारी सहायता करनेवाला मनुष्य, ईश्वर या प्रेतात्मा कहाँ हैं? तुम्हें कौन पराजित कर सकता है? तुम स्वयं ही विश्वखष्टा भगवान् हो, तुम किससे सहायता लोगे? सहायता और कहीं से नहीं, पर अपने आप से ही मिली है और मिलेगी। अपनी अज्ञानता की स्थिति में तुमने जितनी प्रार्थना की और उसका तुम्हें जो उत्तर मिला, तुम समझते रहे कि वह उत्तर किसी अन्य व्यक्ति ने दिया हैं, पर वास्तव में तुम्हीं ने अनजाने उन प्रार्थनाओं का उत्तर दिया हैं।

ग्रन्थों के अध्ययन से कभी कभी हम भ्रम में पड़ जाते हैं कि उनसे हमें आध्यात्मिक सहायता मिलती हैं; पर यदि हम अपने ऊपर उन ग्रन्थों के अध्ययन से पड़नेवाले प्रभाव का विश्लेषण करें, तो ज्ञात होगा कि अधिक से अधिक हमारी बुद्धि पर ही उसका प्रभाव पडा हैं, न कि हमारे अन्तरात्मा पर आध्यात्मिक विकास के लिए प्रेरक शक्ति के रूप में ग्रन्थों का अध्ययन अपर्याप्त हैं, क्योंकि यद्यपि हममें से प्रायः सभी आध्यात्मिक विषयों पर अत्यन्त आश्चर्यजनक भाषण दे सकते हैं, पर जब प्रत्यक्ष कार्य तथा वास्तविक आध्यात्मिक जीवन बिताने की बात आती हैं, तब अपने को बुरी तरह अयोग्य पाते हैं। आध्यात्मिक जागृति के लिए ब्रह्मनिष्ठ गुरु से प्रेरक शक्ति प्राप्त होनी चाहिए।

एकमात्र ईश्वर, आत्मा और आध्यात्मिकता ही सत्य हैं- शक्ति – स्वरूप हैं। केवल उन्हीं का आश्रय लो।

संसार में अनेक धर्म हैं, यद्यपि उनकी उपासना के नियम भित्र हैं, तथापि वे वास्तव में एक ही हैं।

ध्यान ही महत्त्वपूर्ण बात है। ध्यान लगाओ। ध्यान सब से बड़ी बात है । आध्यात्मिक जीवन की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठतम निकटतम उपाय हैं। हमारे दैनिक जीवन में यही एक क्षण हैं, जब हम सांसारिकता से पृथक् रह पाते हैं; इसी क्षण में आत्मा अपने आप में ही लीन रहती हैं, अन्य सब विचारों से मुक्त रहती हैं-यही हैं आत्मा का आश्चर्यजनक प्रभाव |

जो अपने आपको ईश्वर को समर्पित कर देते हैं, वे तथाकथित कर्मियों की अपेक्षा संसार का अधिक हित करते हैं। जिस व्यक्ति ने अपने को पूर्णत: शुद्ध कर लिया हैं, वह उपदेशकों के समूह की अपेक्षा अधिक सफलतापूर्वक कार्य करता है । चित्तशुद्धि और मौंन से ही शब्द में शक्ति आती हैं।

हमें आज जिस बात को जानने की आवश्यकता है वह हैं ईश्वर – हम उसे सर्वत्र देख और अनुभव कर सकते हैं।

‘भोजन, भोजन’ चिल्लाने और उसे खाने तथा ‘पानी, पानी’ कहने और उसे पीने में बहुत अन्तर हैं। इसी प्रकार केवल ‘ईश्वर, ईश्वर’ रटने से हम उसका अनुभव करने की आशा नहीं कर सकते। हमें उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए, साधना करनी चाहिए।

बुराईयों के बीच भी कहो- ‘मेरे प्रभु, मेरे प्रियतम।’ मृत्यु की यन्त्रणा में भी कहो-‘मेरे प्रभु, मेरे प्रियतमा’ संसार की समस्त विपत्तियों में भी कहो- ‘मेरे प्रभु, मेरे प्रियतम! तू यहाँ हैं, मैं तुझे देखता हूँ। तू मेरे साथ हैं, मैं तुझे अनुभव करता हूँ मैं तेरा हूँ, मुझे सहारा दे। मैं संसार का नहीं, पर केवल तेरा हूँ, तू मुझे मत त्याग|’ हीरों की खान को छोड़कर काँच की मणियों के पीछे मत दौंड़ो। यह जीवन एक अमूल्य सुयोग है। क्या तुम सांसरिक सुखों की खोज करते हो?- प्रभु ही समस्त सुख के श्रोत हैं। उसी उच्चतम को खोजो, उसी को अपना लक्ष्य बनाओ और तुम अवश्य उसे प्राप्त करोगे ।

 

भारत

समस्त संसार हमारी मातृभूमि का महान् ऋणी हैं। किसी भी देश को ले लीजिए, इस जगत् में एक भी जाति ऐसी नहीं है, जिसका संसार उतना ऋणी हो, जितना कि वह यहाँ के धैर्यशील और विनम्र हिन्दुओं का हैं।

 

अनेकों के लिए भारतीय विचार, भारतीय रीति-रिवाज, भारतीय दर्शन, भारतीय साहित्य प्रथम दृष्टि में ही घृणास्पद प्रतीत होते हैं, पर यदि वे सतत प्रयत्न करें, पढ़ें तथा इन विचारों में निहित महान् तत्त्वों से परिचित हो जाएँ, तो परिणामस्वरूप उनमें से निन्यानबे प्रतिशत आनन्द से विभोर होकर उन पर मुग्ध हो जाएँगे।

पर जैसे जैसे मैं बड़ा होता हूँ, मैं इन प्राचीन भारतीय संस्थाओं को अधिक अच्छी तरह समझता जा रहा हूँ। एक समय था, जब मैं सोचता था कि उनमें से अनेक संस्थाएँ निरुपयोगी और व्यर्थ हैं, पर जैसे जैसे मैं बड़ा होता जा रहा हूँ, मुझे इनकी निन्दा करने में अधिकाधिक संकोच मालूम पड़ता हैं, क्योंकि इनमें से प्रत्येक, शताब्दियों के अनुभव का साकार स्वरूप हैं।

मेरी बात पर विश्वास कीजिए। दूसरे देशों में धर्म की केवल चर्चा ही होती हैं, पर ऐसे धार्मिक पुरुष, जिन्होंने धर्म को अपने जीवन में परिणत किया हैं, जो स्वयं साधक हैं, केवल भारत में ही हैं।

मैंने कहा कि अभी भी हमारे पास कुछ ऐसी बातें हैं, जिनकी शिक्षा हम संसार को दे सकते हैं। यही कारण हैं कि सैंकड़ों वर्ष तक अत्याचारों को सहने, लगभग हजार वर्ष तक विदेशी शासन में रहने और विदेशियों द्वारा पीड़ित होने पर भी यह देश आज तक जीवित रहा हैं। उसके अभी भी अस्तित्व में रहने का कारण यही हैं कि वह सदैव और अभी भी ईश्वर का आश्रय लिये हुए हैं, तथा धर्म एवं आध्यात्मिकता के अमूल्य भण्डार का अनुसरण करता आया हैं।

हमारे इस देश में अभी भी धर्म और आध्यात्मिकता विद्यमान हैं, जो मानो ऐसे स्रोत हैं, जिन्हें अबाध गति से बढ़ते हुए समस्त विश्व को अपनी बाढ़ से आप्लावित कर पाश्चात्य तथा अन्य देशों को नवजीवन तथा नवशक्ति प्रदान करनी होगी। राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं और सामाजिक कपटों के कारण ये सब देश आज अर्धमृत हो गये हैं, पतन की चरम सीमा पर पहुँच चुके हैं, उनमें अराजकता छा गयी हैं।

पर ध्यान रखो, यदि तुम इस आध्यात्मिकता का त्याग कर दोगे और इसे एक ओर रखकर पश्चिम की जड़वादपूर्ण सभ्यता के पीछे दौड़ोगे, तो परिणाम यह होगा कि तीन पीढियों में तुम एक मृत जाति बन जाओगे; क्योंकि इससे राष्ट्र की रीढ़ टूट जाएगी, राष्ट्र की वह नींव जिस पर इसका निर्माण हुआ है, नीचे धँस जाएगी और इसका फल सर्वांगीण विनाश होगा |

भौतिक शक्ति का प्रत्यक्ष केन्द्र यूरोप, यदि आज अपनी स्थिति में परिवर्तन करने में सतर्क नहीं होता, यदि वह अपना आदर्श नहीं बदलता और अपने जीवन को आध्यात्मिकता पर आधारित नहीं करता, तो पचास वर्ष के भीतर वह नष्ट-भ्रष्ट होकर धूल में मिल जाएगा और इस स्थिति में इसे बचानेवाला यदि कोई हैं तो वह हैं उपनिषदों का धर्म।

हमारे घमण्डी रईस-पूर्वज हमारे देश की सर्वसाधारण जनता को अपने पैरों से तब तक कुचलते रहे, जब तक कि वे निस्सहाय नहीं हो गये जब तक कि वे बेचारे गरीब प्राय: वह तक भूल नहीं गये कि वे मनुष्य हैं। वे शताब्दियों तक केवल लकड़ी काटने और पानी भरने को इस तरह विवश किये गये कि उनका विश्वास हो गया कि वे गुलाम के रूप में ही जन्मे हुए हैं, लकड़ी काटने और पानी भरने के लिए ही पैदा हुए हैं।

उपनिषदों के सत्य तुम्हारे सामने हैं। उन्हें स्वीकार करो, उनके अनुसार अपना जीवन बनाओ, और इसी से शीघ्र ही भारत का उद्धार होगा |

क्या तुम्हें खेद होता हैं? क्या तुम्हें इस बात पर कभी खेद होता हैं कि देवताओं और ऋषियों के लाखों वंशज आज पशुवत् हो गये हैं? क्या तुम्हें इस बात पर दुःख होता है कि लाखों मनुष्य आज भूख की ज्वाला से तड़प रहे हैं और सदियों से तड़पते रहे हैं? क्या तुम अनुभव करते हो कि अज्ञानता सघन मेघों की तरह इस देश पर छा गयी हैं? क्या इससे तुम छटपटाते हो? क्या इससे तुम्हारी नींद उचट जाती है? क्या यह भावना मानो तुम्हारी शिराओं में से बहती हुई, तुम्हारे हृदय की धड़कन के साथ एकरूप होती हुई तुम्हारे रक्त में भिट गयी है? क्या इसने तुम्हें लगभग पागल सा बना दिया है? सर्वनाश के दु:ख की इस भावना से क्या तुम बेचैन हो ? और क्या इससे तुम अपने नाम, यश, स्त्री- बच्चे, सम्पत्ति और यहाँ तक कि अपने शरीर की सुध-बुध भूल गये हो? क्या तुम्हें ऐसा हुआ हैं? – देशभक्त होने की यही हैं प्रथम सीढ़ी केवल प्रथम सीढ़ी।

आओ, मनुष्य बनो। अपनी संकीर्णता से बाहर आओ और अपना दृष्टिकोण व्यापक बनाओ। देखो, दूसरे देश किस तरह आगे बढ़ रहे हैं। क्या तुम मनुष्य से प्रेम करते हो? क्या तुम अपने देश को प्यार करते हो? तो आओ, हम उच्चतर तथा श्रेष्ठतर वस्तुओं के लिए प्राणपण से यत्न करे। पीछे मत देखो; यदि तुम अपने प्रियतमों तथा निकटतम सम्बन्धियों को भी रोते देखो तो भी नहीं पीछे मत देखो, आगे बढो ।

भारत के प्रति पूर्ण प्रेम, देशभक्ति और पूर्वजों के प्रति पूर्ण सम्मान रखते हुए भी मैं यह सोचे बिना नहीं रह सकता कि हमें अभी बहुतसी बातें दूसरे देशों से सीखनी हैं। हम भारतेतर देशों के बिना कुछ नहीं कर सकते, यह हमारी मूर्खता थी कि हमने सोचा, हम कर सकेंगे, और परिणाम यह हुआ कि हमें लगभग एक हजार वर्ष की दासता दण्ड़ के रूप में स्वीकार करनी पड़ी। हमने बाहर जाकर दूसरे देशों से अपने देश की बातों की तुलना नहीं की और जो सब कार्य हो रहे हैं, उन पर ध्यान नहीं दिया- यही भारत के पतन का एक प्रधान कारण हैं। हम इसका दण्ड पा चुके, अब हम यही और आगे न करें।

दक्षिण भारत के ये कुछ प्राचीन मन्दिर और गुजरात के सोमनाथ के समान अन्य मन्दिर आपको सैकड़ों पुस्तकों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रचुर ज्ञान प्रदान करेंगे तथा जातीय इतिहास की भीतरी बातें समझने के लिए सूक्ष्म दृष्टि देंगे| देखो, इन मन्दिरों पर किस प्रकार सैकड़ों आक्रमणों और सैकड़ों पुनरुद्धारों के चिह्न विद्यमान हैं। इन मन्दिरों का भग्नावशेषों में से सदैव उद्धार होता रहा और वे हमेशा की तरह नये और सुदृढ़ बने रहे। यही हैं हमारे राष्ट्रीय जीवन प्रवाह का स्वरूप |

आगामी पचास वर्षों के लिए हमारा केवल एक ही विचार – केन्द्र होगा और वह हैं हमारी महान् मातृभूमि भारत। दूसरे सब व्यर्थ के देवताओं को उस समय तक के लिए हमारे मन से लुप्त हो जाने दो। हमारा भारत, हमारा राष्ट्र-केवल यही एक देवता हैं जो जाग रहा है, जिसके हर जगह हाथ हैं, हर जगह पैर हैं, हर जगह कान हैं- जो सब वस्तुओं में व्याप्त हैं। दूसरे सब देवता सो रहे हैं। हम क्यों इन व्यर्थ के देवताओं के पीछे दौंडे, और उस देवता की उस विराट् की- पूजा क्यों न करें, जिसे हम अपने चारों ओर देख रहे हैं? जब हम उसकी पूजा कर लेंगे, तभी हम सभी देवताओं की पूजा करने योग्य बनेंगे।

देश की आध्यात्मिक और लौकिक शिक्षा पर हमारा अधिकार अवश्य हो। क्या तुम्हारे ध्यान में यह बात आयी ?….तुम्हें इस समय जो शिक्षा मिल रही हैं, उसमें कुछ अच्छाइयाँ अवश्य हैं, पर उसमें एक भयंकर दोष हैं जिससे ये सब अच्छी बातें दब गयी हैं। सब से पहली बात यह है कि उसमें मनुष्य बनाने की शक्ति नहीं हैं, वह शिक्षा नितान्त अभावात्मक हैं। अभावात्मक शिक्षा मृत्यु से भी बुरी हैं।

भारत को छोड़ने के पहले मैंने उससे प्यार किया, और अब तो उसकी धूलि भी मेरे लिए पवित्र हो गयी हैं, उसकी हवा भी मेरे लिए पावन हो गयी हैं। वह अब एक पवित्र भूमि हैं, यात्रा का स्थान हैं, पवित्र तीर्थक्षेत्र हैं।

यदि तुम अंग्रेजों या अमेरिकनों के बराबर होना चाहते हो, तो तुम्हें उनको शिक्षा देनी पडेगी और साथ ही साथ शिक्षा ग्रहण भी करनी पड़ेगी, और तुम्हारे पास अभी भी बहुतसी ऐसी बातें हैं जो तुम भविष्य में सैकड़ों वर्षो तक संसार को सिखा सकते हो। यह कार्य तुम्हें करना ही होगा।

भारत का पतन इसलिए नहीं हुआ कि हमारे प्राचीन नियम और रीति-रिवाज खराब थे, वरन् इसलिए कि उनका जो उचित लक्ष्य हैं, उस पर पहुँचने के लिए जिन अनुकूल वातावरण एवं साधनों की आवश्यकता थी, उनका निर्माण नहीं होने दिया गया।

जब आपको ऐसे लोग मिलेंगे, जो देश के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने को तैयार हैं और जो हृदय के सच्चे हैं- जब ऐसे लोग उत्पन्न होंगे, तभी भारत प्रत्येक दृष्टि से महान् होगा। मनुष्य ही तो देश के भाग्यविधाता हैं। मेरी राय में सर्वसाधारण जनता की उपेक्षा ही एक बड़ा राष्ट्रीय पाप हैं और वही एक कारण हैं, जिससे हमारा पतन हुआ । कितना भी राजकारण उस

समय तक उपयोगी नहीं हो सकता जब तक कि भारतीय जनता फिर से अच्छी तरह सुशिक्षित न हो जाए, उसे अच्छा भोजन फिर न प्राप्त हो और उसकी अच्छी देखभाल न हो।

धार्मिक भावना को बिना ठेस पहुँचाये जनता की उन्नति – यही ध्येयवाक्य अपने सामने रखो।

शिक्षा, शिक्षा केवल शिक्षा । यूरोप के अनेक शहरों का भ्रमण करते समय वहाँ के गरीबों के भी आराम और शिक्षा का जब मैंने निरीक्षण किया, तो उसने मेरे देश के गरीबों की स्थिति की याद जगा दी और मेरी आँखों से आँसू गिर पड़े। इस अन्तर का कारण क्या हैं? उत्तर मिला, ‘शिक्षा’। शिक्षा के द्वारा उनमें आत्मविश्वास उत्पत्र हुआ और आत्मविश्वास के द्वारा मूल स्वाभाविक ब्रह्मभाव उनमें जागृत हो रहा हैं। मेरे जीवन की केवल एक महत्त्वाकांक्षा यह हैं कि मैं एक ऐसी संस्था एवं कार्यप्रणाली का संचालन करूँ, जो प्रत्येक घर तक श्रेष्ठ विचार ले जा सके और फिर स्त्री तथा पुरुष अपने भाग्य का निर्णय कर लें। वे जान लें कि उनके पूर्वजों तथा दूसरे देशों ने जीवन के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या सोचा हैं। विशेषकर वे देखें कि दूसरे लोग अब क्या कर रहे हैं, और फिर वे निर्णय करें। हमारा काम रासायनिक हव्यों को एक साथ रखना हैं, वे बनाने का कार्य प्रकृति अपने नियमों के अनुसार करेगी ही।

भविष्य में क्या होनेवाला हैं यह मैं नहीं देखता, और न मुझे देखने की परवाह ही हैं। पर जिस प्रकार अपने सामने मैं जीवन प्रत्यक्ष रूप से देख रहा हूँ, उस प्रकार अपने मनचक्षु के सम्मुख मुझे एक दृश्य स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा हैं और वह हैं – मेरी यह प्राचीन मातृभूमि फिर से जग गयी हैं, वह सिंहासन पर बैठी हैं, उसमें नवशक्ति का संचार हुआ हैं, और वह पहले से अधिक गौरवान्वित हो गयी है। संसार के सम्मुख शान्ति एवं कल्याण की मंगलमय वाणी से उसके गौरव की घोषणा करो।

स्फुट

शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं हैं, जो तुम्हारे मस्तिष्क में ठूंस दिया गया हैं और जो आत्मसात हुए बिना वहाँ आजन्म पडा रहकर गड़बड़ मचाया करता है। हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेने की आवश्यकता हैं, जो जीवन-निर्माण, ‘मनुष्य ‘निर्माण तथा चरित्र-निर्माण में सहायक हों। यदि आप केवल पाँच ही परखे हुए विचार आत्मसात् कर उनके अनुसार अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हैं, तो आप पूरे ग्रन्थालय को कण्ठस्थ करनेवाले की अपेक्षा अधिक शिक्षित हैं।

जब तक सभ्यता नाम से पहचानी जानेवाली बीमारी अस्तित्व में हैं, तब तक दरिद्रता अवश्य रहेगी और इसलिए उसके दूर करने की आवश्यकता भी बनी रहेगी।

‘शाइलाक्स’ अर्थात् निर्दयी महाजनों के अत्याचारों के कारण पाश्चात्य देश कराह रहे हैं और पुरोहितों के अत्याचारों के कारण प्राच्य सारा पश्चिम एक ज्वालामुखी के मुख पर बैठा हैं, जो कल ही छूट सकता हैं और टूक-टूक हो जा सकता है।

एशिया ने सभ्यता की नींव डाली, यूरोप ने पुरुष का विकास किया और अमेरिका स्त्रियों तथा सर्वसाधारण जनता का विकास कर रहा हैं।

प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक राष्ट्र को महान् होने के लिए निम्नलिखित तीन बातों की आवश्यकता हैं-
अच्छाई की शक्तियों पर दृढ़ विश्वास,
ईर्ष्या और सन्देह का अभाव
उन सभी की सहायता करना, जो अच्छे बनने तथा अच्छा कार्य करने का प्रयत्न करते हैं।

अपने भाइयों का नेतृत्व करने का नहीं, वरन् उनकी सेवा करने का प्रयत्न करो। नेता बनने की इस क्रूर उन्मत्तता ने बड़े बड़े जहाजों को इस जीवनरूपी समुद्र में डुबो दिया हैं।

हमारे स्वभाव में संगठन का सर्वथा अभाव हैं, पर इसे हमें अपने स्वभाव में लाना है। इसका महान् रहस्य हैं ईर्ष्या का अभाव। अपने भाइयों के मत से सहमत होने को सर्दैव तैयार रहो और हमेशा समझौता करने का प्रयत्न करो। यही हैं संगठन का पूरा रहस्य |

मैं तुम सब से यही चाहता हूँ कि तुम आत्मप्रतिष्ठा, दलबंदी और ईर्ष्या को सदा के लिए छोड़ दो। तुम्हें पृथ्वी- – माता की तरह सहनशील होना चाहिए। यदि तुम ये गुण प्राप्त कर सको, तो संसार तुम्हारे पैरों पर लोटेगा।

स्त्रियों की स्थिति में सुधार हुए बिना संसार के कल्याण की कोई सम्भावना नहीं हैं। एक पक्षी का केवल एक ही पंख के सहारे उड़ सकना असम्भव है। स्त्रियों में अवश्य ही यह क्षमता होनी चाहिए कि वे अपनी समस्याएँ अपने ढंग
से हल कर सकें। उनका यह कार्य न कोई दूसरा कर सकता हैं, और न किसी दूसरे को करना ही चाहिए। हमारी भारतीय महिलाएँ संसार की किन्हीं भी अन्य महिलाओं की तरह यह कार्य करने के योग्य हैं।

मैं जानता हूँ कि वह जाति जिसने सीता को जन्म दिया यह चाहे उनका स्वप्न ही क्यों न हो – स्त्रियों के लिए वह सम्मान रखती हैं, जो पृथ्वीतल पर अतुलनीय हैं।

जब प्रत्येक बात में सफलता निश्चित रहती है, तब मूर्ख भी अपनी प्रशंसा पाने के लिए उठ खड़ा हो जाता है और कायर भी वीर की सी वृत्ति धारण कर लेते हैं, पर सच्चा वीर बिना एक शब्द मुँह से बोले कार्य करता जाता है। एक बुद्ध का आविर्भाव होने से पहले न जाने कितने बुद्ध हो चुके हैं।

पश्चिमी राष्ट्रों ने राष्ट्रीय जीवन का जो आश्चर्यजनक ढाँचा तैयार किया है, उसे चरित्र के दृढ़ स्तम्भों का ही आधार हैं, और हम जब तक ऐसे स्तम्भों का निर्माण नहीं कर लेते, तब तक हमारा किसी भी शक्ति के विरुद्ध आवाज उठाना व्यर्थ हैं।
काम इस प्रकार करते रहो, मानो पूरा कार्य तुममें से प्रत्येक पर निर्भर हैं। पचास शताब्दियाँ तुम्हारी ओर ताक रही हैं, भारत का भविष्य तुम पर अवलम्बित है। कार्य करते रहो।

जो दूसरों का सहारा ढूँढ़ता हैं, वह सत्यस्वरूप भगवान् की सेवा नहीं कर सकता।

मैं एक ऐसे नये मानव समाज का संगठन करना चाहता हूँ जो ईश्वर पर हृदय से विश्वास रखता हैं और जो संसार की कोई परवाह नहीं करता |

उपहास, विरोध और फिर स्वीकृति प्रत्येक कार्य को इन तीन अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। जो व्यक्ति अपने समय ने आगे की बात सोचता है, उसके सम्बन्ध में लोगों की गलत धारणा होना निश्चित हैं।

जीवन संघर्ष तथा निराशाओं का अविराम प्रवाह हैं…..। जीवन का रहस्य भोग में नहीं, पर अनुभवजनित शिक्षा में हैं। पर खेद हैं, जब हम वास्तव में सीखने लगते हैं, तभी हमें इस संसार से चल बसना पड़ता है।

भलाई का मार्ग संसार में सब से अधिक ऊबड़-खाबड़ तथा कठिनाइयों से पूर्ण हैं। इस मार्ग से चलनेवालों की सफलता आश्चर्यजनक हैं, पर गिर पड़ना कोई आश्चर्यजनक नहीं हजारों ठोकरे खाते हमें चरित्र को दृढ़ बनाना हैं। जीवन और मृत्यु, शुभ और अशुभ, ज्ञान और अज्ञान का यह मिश्रण ही माया अथवा जगत्-प्रपंच कहलाता है। तुम इस जाल के भीतर अनन्त काल तक सुख ढूँढ़ते रहो। तुम्हें उसमें सुख के साथ बहुत दु:ख तथा अशुभ भी मिलेगा। यह कहना कि मैं केवल शुभ ही लूँगा, अशुभ नहीं, निरा लड़कपन हैं – यह असम्भव हैं।

यदि दिल में लगा हो, तो एक महामूर्ख भी किसी काम को पूर्ण कर सकता हैं। पर बुद्धिमान मनुष्य वह हैं, जो प्रत्येक कार्य को अपनी रुचि के कार्य में परिणत कर सकता हैं। कोई भी काम छोटा नहीं हैं।

केवल वे ही कार्य करते हैं, जिनका विश्वास हैं कि प्रत्यक्ष कार्यक्षेत्र में कार्य आरम्भ करते ही सहायता अवश्य मिलेगी।

दृढ़ संकल्प कर लो कि तुम किसी दूसरे को नहीं कोसोगे, किसी दूसरे को दोष नहीं दोगे, पर तुम ‘मनुष्य’ बन जाओ, खड़े होओ और अपने आपको दोष दो, स्वयं की ओर ही ध्यान दो, – यही जीवन का पहला पाठ हैं, यह सच्ची बात हैं।

ध्यान रखो, संघर्ष ही इस जीवन में सब से बड़ा लाभ हैं। इसी में से हमें गुजरना पड़ता है- यदि स्वर्ग का कोई रास्ता हैं, तो वह नरक होकर जाता हैं। नरक से स्वर्ग – यही सदैव का मार्ग हैं। जब जीवात्मा परिस्थिति से लड़ता हैं और उसकी मृत्यु होती हैं, जब मार्ग में हजारों बार उसकी मृत्यु होने पर भी वह निडर होकर बार बार संघर्ष करता हुआ आगे बढ़ता है, तभी वह महान् शक्तिशाली बन जाता हैं और उस आदर्श पर हँसता है जिसके लिए उसने संघर्ष किया था क्योंकि वह देखता हैं कि वह उस आदर्श से कहीं श्रेष्ठ हैं। मैं – मेरी आत्मा स्वयं ही – अन्तिम लक्ष्य स्वरूप हैं, और कोई नहीं। इस संसार में ऐसी कौन सी वस्तु हैं जिसकी तुलना मेरी आत्मा के साथ की जा सके।

 

Read more***

विवेकानंद के विचार-1

विवेकानंद के विचार-2

स्वामी विवेकानंद की जीवनी

 

 

 

 

 

7 thoughts on “विवेकानंद के विचार-3”

  1. I was curious if you ever thought of changing the layout of your blog?
    Its very well written; I love what youve got to say. But maybe you could a little more in the way of content so
    people could connect with it better. Youve got an awful lot of text for
    only having one or two images. Maybe you could space it out better?

    my webpage … 온라인슬롯

    Reply

Leave a Comment