अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 3

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अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 3
अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 3

 

 

अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 3

 

संसार दुःखमय है, यही शास्त्रों का सिद्धांत है और यही जीव मात्र का अंतिम अनुभव भी है।

 

भगवान की इच्छा के अनुसार ही सृष्टि के समस्त कार्य संपन्न होते हैं। सामान्य जीव सांसारिक दुखों की चक्की में पिसते हैं, लेकिन वही दुःख भाग्यवान पुरुषों के उद्धार का कारण बनते हैं।

 

सच्चा प्रेम कभी नहीं मरता, यहां तक कि काल भी उसे समाप्त नहीं कर सकता।

 

प्रेम तो निष्काम और निर्विषय होता है, और उसका एकमात्र पात्र परमात्मा है। ऐसा प्रेम केवल भक्तों के ही भाग्य में होता है।

 

भक्तों में सच्चाई होती है। जब वैराग्य के ज्ञान से उनकी आँखें खुल जाती हैं, तो वे नश्वर संसार के भेद-भावों से ऊपर उठकर अपने प्रेम को एकत्र करते हुए उसे परमात्मा को अर्पित कर देते हैं। इसके बाद प्रेम की अमृत धारा भगवान की ओर प्रवाहित होने लगती है।

 

सभी के परम सखा भगवान जो कुछ करते हैं, वही हमारे लिए परम हितकर होता है

 

भगवान अपने भक्तों को संसार के बंधनों में फँसने नहीं देते, बल्कि उन्हें सभी झंझटों से मुक्त रखते हैं।

 

कई बार जीवन में इधर-उधर भटकना पड़ा, लुट गया, और तड़पते हुए ही दिन बीतते रहे। हे दीनानाथ! संसार में अपनी कृपा करो।

 

यह संसार निःसार है, यहाँ केवल भगवान ही सार हैं।

 

संसार कालग्रस्त, नश्वर और दुःखमय है। इसका समस्त आकर्षण व्यर्थ है। भगवान मिल जाएँ, तभी जीवन सफल है।

 

यह सब नाशवान है। गोपाल का स्मरण कर, वही सच्चा लाभ है।

 

संसार में सुख तो राई के बराबर है और दुःख पर्वत के समान है।

 

यह संसार दुःखमय है, यहाँ सुख की कोई संभावना नहीं है।

 

शरीर नश्वर है, यह मृत्यु की दिशा में जा रहा है। संसार दुःखमय है और यहाँ सब भाई-बंधु केवल सुख के साथी हैं।

 

संसार मिथ्या है। जब यह ज्ञान प्राप्त होता है और आँखें खुलती हैं, तो दुःख भी अनुग्रह प्रतीत होने लगता है।

 

जैसे खटमल से भरी खाट पर मीठी नींद आना असंभव है, वैसे ही अनित्य संसार में सुख मिलना भी असंभव है।

 

वैराग्य ही परमार्थ की नींव है।

 

वैराग्य के बिना ज्ञान स्थिर नहीं हो सकता। जब तक देह सहित सम्पूर्ण दृश्य संसार के नश्वरत्व का बोध चित्त पर गहराई से अंकित नहीं हो जाता, तब तक वहाँ ज्ञान स्थिर नहीं हो सकता।

 

यह समस्त संसार अनित्य है, और जब इस अनित्यता का बोध हो जाता है, तब वैराग्य स्थिर हो जाता है। ऐसा दृढ़ वैराग्य उत्पन्न होना ही भगवान की कृपा है।

 

वैराग्य कोई खेल नहीं है, यह केवल भगवान की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है।

 

भगवान जब किसी पर अनुग्रह करना चाहते हैं, तो उसे पहले वैराग्य का दान देते हैं।

 

जब तक चित्त से संसार की माया पूरी तरह से मिट नहीं जाती, तब तक परमार्थ का बोध नहीं होता, न ही वह रास आता है। जब मन वैराग्य से शुद्ध हो जाता है, तब उसमें बोया गया ज्ञान का बीज अंकुरित होता है।

 

सतत सत्संग, शास्त्र का अध्ययन, गुरु की कृपा, और आत्मा का साक्षात्कार ही वह प्रक्रिया है जिससे जीव संसार के कोलाहल से मुक्त होता है।

 

जिस जाति में हम जन्म लेते हैं, वहीं रहकर उसी जाति के कर्म करते हुए प्रेम से नारायण का भजन करना और मुक्ति पाना ही हमारा कर्तव्य है।

 

भगवान का भजन ही जीवन का सच्चा फल है।.

 

सुगम मार्ग पर चलो और राम-कृष्ण-हरि का नाम लेकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करो। यही बैकुण्ठ का सरल और निकट का मार्ग है।

 

वही संग सच्चा संग है जिससे भागवत प्रेम जाग्रत होता है, बाकी सब संग नरक समान हैं।

 

संतों के द्वार पर श्वान बनकर पड़े रहना भी बड़ा सौभाग्य है, क्योंकि वहाँ भगवान का प्रसाद मिलता है और उनके गुणगान को सुनने का अवसर प्राप्त होता है।

 

कीर्तन का अधिकार सबको है, इसमें किसी प्रकार का जाति या आश्रम का भेदभाव नहीं है।

 

कीर्तन से शरीर हरिरूप हो जाता है। प्रेम की लय में नाचो और झूमो, इससे देहभाव मिट जाएगा।

 

हरिकीर्तन में भगवान, भक्त और नाम का त्रिवेणी संगम होता है।

 

जहाँ प्रेमी भक्त प्रेम से हरिगुण का गान करते हैं, भगवान वहीं रहते हैं।

 

कीर्तन से संसार का दुःख दूर होता है। कीर्तन संसार के चारों ओर आनंद की दीवार खड़ी कर देता है और समस्त संसार को महासुख से भर देता है। कीर्तन से संसार पवित्र हो जाता है और वैकुण्ठ पृथ्वी पर उतर आता है।

 

भगवान के वचन हैं: “मेरे भक्त जहाँ प्रेम से मेरा नाम-संकीर्तन करते हैं, वहाँ मैं निवास करता हूँ—यदि मुझे कहीं न मिले, तो वहीं मुझे ढूँढ़ो।”

 

“कीर्तन का व्यापार एक महान मूर्खता है।”

 

वाणी ऐसी हो कि हरिकी मूर्ति और प्रेम चित्त में स्थिर हो जाएं। केवल भक्ति और प्रेम की बातें करें, अन्य व्यर्थ की बातों से बचें।”

 

“कीर्तन करते समय दिल से कीर्तन करें, कुछ भी छिपाएं या चुराएं नहीं। जो कोई खड़े होकर अपनी देह चुराए, वह सबसे बड़ा मूर्ख होगा।”

 

“स्वाँग से हृदयस्थ नारायण नहीं ठगते। निर्मल भाव ही साधन और साध्य है।”

 

“भगवान भावुकों के हाथ में प्रकट होते हैं, लेकिन जो अपने आप को बुद्धिमान मानते हैं, वे मरने के बाद भी भगवान का पता नहीं पाते।”

 

“जहाँ भाव के नेत्र खुलते हैं, वहाँ सारा विश्व निराला दिखने लगता है।”

 

“यदि चित्त भगवच्चिन्तन में रंग जाए, तो वही चित्त चैतन्य हो जाता है; पर चित्त शुद्ध भाव से रंग जाए तब।”

 

“जल जल नहीं है, बड़-पीपल वृक्ष नहीं हैं, तुलसी और रुद्राक्ष माला नहीं हैं—ये सब भगवान के श्रेष्ठ रूप हैं।”

 

“भाव न हो तो साधन का कोई विशेष मूल्य नहीं है।”

 

“यदि तुम भगवान को चाहते हो, तो भाव से उनके गीत गाओ। दूसरों के गुण-दोष न सुनो, न मन में लाओ। संतों की सेवा करो, सबके साथ विनम्र रहो, और जो कुछ भी बन पड़े उपकार करो। यही सरल उपाय है।”

 

“भगवान हृदय के भाव को जानते हैं; उन्हें इसका पता नहीं लगाना पड़ता।”

 

“छोटे-बड़े सबका शरीर नारायण का ही शरीर है।”

 

“चित्त में भगवान को बैठाया, तो पर-द्रव्य और पर-नारी विषवत हो गए।”

 

“जनर्लज्ज नाम-स्मरण ही मेरा सारा धन है और यही मेरा सम्पूर्ण साधन है।”

 

“मेरा चित्त, वित्त, पुण्य, पुरुषार्थ सब कुछ श्रीहरि हैं।”

 

“मेरे माता-पिता, भाई-बहन सब हरि ही हैं। हरि को छोड़ कुल-गोत्र से मुझे क्या काम? हरि ही मेरे सर्वस्व हैं। उनके सिवा ब्रह्मांड में कोई नहीं।”

 

“संसार में भटकते-भटकते मैं थक गया। ‘नाम’ से काया शीतल हुई।”

 

“निराश मत हो, यह मत कहो कि हम पतित हैं, हमारा उद्धार क्या होगा। और कहीं मत देखो, श्रीहरि का गीत गाओ। प्रभु के चरण पकड़ लो, उनके नाम का आश्रय न छोड़ो।”

 

“हरि-कथा सुख की समाधि है।”

 

“राम, कृष्ण, हरि, नारायण—बस, इससे बढ़कर और क्या चाहिए?”

“लोभ, मोह, आशा, तृष्णा, माया सब हरि-गुणगान से समाप्त हो जाते हैं।”

 

प्रेमियों का संग करो। धन-लोभादि मायाके मोहपाश हैं। इस फंदे से अपना गला छुड़ाओ।”

 

“ज्ञानी बनने वालों के फेर में मत पड़ो, क्योंकि वे निंदा, अहंकार और विवाद में अटककर भगवान से बिछुड़ जाते हैं।”

 

“साधुओं का संग करो। संत-संग से प्रेम-सुख प्राप्त करो।”

 

“साधक की अवस्था उदास रहनी चाहिए। ‘उदास’ से तात्पर्य है, जिसे अंदर-बाहर कोई उपाधि न हो, जिसकी जीभ लोलुप न हो, भोजन और निद्रा नियमित हों, स्त्री-विषय में फिसलने वाला न हो।”

 

“एकांत में या लोकांत में प्राणों पर बीत जाए, तो भी विषय-वासनाओं और उनके उद्दीपनों से दूर रहे।”

 

“सज्जनों का संग, नाम का उच्चारण और कीर्तन का घोष अहर्निश किया करें। इस प्रकार हरि-भजन में रम जाएं।”

 

“सदाचार में ढीला रहकर भगवद्धक्तों के मेले में केवल भजन करना कोई लाभ नहीं देगा। वैसे ही यदि कोई सदाचार में पक्का है, पर भजन नहीं करता, तो भी अधूरा ही है।”

 

“सदाचार से रहो और हरि को भजो, तभी गुरुकृपा से ज्ञान-लाभ होगा।”

 

“एकांतवास, स्नान, देवपूजन, तुलसी परिक्रमा नियमपूर्वक करते हुए हरिचिंतन में समय व्यतीत करें।”

 

“देह भगवान को अर्पण करें। परमार्थ-लाभ ही महाधन है, इसे जानकर भगवान के चरण प्राप्त करें।”

 

“निंदा और विवाद को पूरी तरह से त्याग दें।”

 

“जिस घर के द्वार पर तुलसी का पेड़ न हो, उसे श्मशान समझो।”

 

“पर-नारी को माताओं के समान जानो। परधन और परनिंदा को तज दो। राम-नाम का चिंतन करो। संतवचनों पर विश्वास रखो। सच बोलो। इन्हीं साधनों से भगवान मिलते हैं और प्रयास करने की आवश्यकता नहीं।”

 

“मस्तक को झुका दो, संतों के चरणों में लग जाओ, दूसरों के गुण-दोष न सुनो, न मन में लाओ। शक्तिभर उपकार भी किए चलो। यह सरल उपाय है।”

“जहाँ कोई आशा न रहे, वहीं भगवान निवास करते हैं। आशा को जड़ से उखाड़कर फेंक दो।”

 

“चित्त को शुद्ध करके भाव से भगवान का गीत गाओ।”

 

“लोगों के लिए, लोग अच्छा कहें इसलिये परमार्थ करना चाहते हो, तो मत करो। भगवान को चाहते हो, तो भगवान को भजो।”

 

“भगवान की लगन हो, तो देहभाव को शून्य करके भगवान को भजो।”

 

“प्रभु जिसके लिए जो मार्ग ठीक समझते हैं, वह दिखा देते हैं। वे बड़े दयालु हैं।”

 

“नेत्रों से सांवरे प्यारे को देखो। उन्हें देखो जिनमें छहों शास्त्र, चारों वेद और अठारह पुराण एकीकृत हैं। एक क्षण भी दुष्परिणाम का संग न करो। विष्णुसहस्त्रनाम जपते रहो।”

 

“अपना हृदय श्रीहरि को दे दो। चित्त हरि को देने से वह नवनीत के समान मृदु हो जाता है।”

 

“भाव-शुद्धि होने पर हृदय में जो श्रीहरि हैं, उनकी मूर्ति प्रकट हो जाती है।”

 

“श्रीहरि के सगुण रूप की भक्ति करना जीवों के लिए मुख्य उपासना है। इस सगुण-साक्षात्कार का मुख्य साधन है हरिनाम-स्मरण, और सगुण-साक्षात्कार के बाद भी नाम-स्मरण ही आश्रय है।”

 

“नाम-स्मरण से ही हरि को प्राप्त करो। हरि को प्राप्त होने पर भी नाम-स्मरण करते रहो। बीज और फल दोनों एक ही हरिनाम हैं।”

 

“सारा ग्रंथ प्रारब्ध के सिर पर छोड़ दो और श्रीहरि को खोजने में लग जाओ।”

 

“सच्चा पंडित वही है जो नित्य हरि को भजता है और देखता है कि सब चराचर जगत में श्रीहरि ही निवास कर रहे हैं।”

 

“वेदों का अर्थ, शास्त्रों का प्रमाण और पुराणों का सिद्धांत एक ही है: परमात्मा की शरण में जाओ और निष्ठापूर्वक

 

कोई कितना भी सोच-विचार कर ले, चीनी को फिर से ऊख में नहीं बदल सकता। ठीक उसी तरह, भगवान को प्राप्त कर लेने पर कोई जन्म और मृत्यु के फेर में नहीं पड़ता।

 

यह जीवात्मा ही अपना उद्धारक है। तू ही अपने तारक और मारक है। हे नित्यमुक्त आत्मा! जरा सोच, तू कहाँ अटका हुआ है।

 

व्यक्त और अव्यक्त निःसंदेह तू ही एक है। भक्ति से व्यक्त और योग से अव्यक्त मिलते हैं।

 

जैसे कोई ध्यान करता है, भगवान वैसे बन जाते हैं।

 

यदि मैं स्तुति करूँ तो वेदों से भी जो काम नहीं बनता, वह मैं कर सकता हूँ। लेकिन क्या करें, रसना को दूसरे सुख का चसका लग गया है।

 

मैं वही करता हूँ जो मेरे हिस्से का है, पर मेरा भाव तेरे ही अंदर रहे। शरीर अपना धर्म निभाता है, पर भीतर की बात, हे मन, तू मत भूल।

 

किसी अन्य प्रयोजन की आवश्यकता नहीं। हर जगह मेरे लिए तू-ही-तू है। तन, वाणी और मन को तेरे चरणों पर रखता हूँ। अब, हे भगवान! और कुछ नहीं दिखाई देता।

 

आत्मबोध के लिए वैसी छटपटाहट होनी चाहिए जैसी जल के बिना मछली की होती है।

 

चौपड़ के खेल में गोटी का मारना और जीतना जैसे है, ज्ञानी की दृष्टि में जीवों का बंधन और मोक्ष भी ऐसा ही है।

 

मुख में अखंड नारायण-नाम ही मुक्ति की उच्च भक्ति है।

 

शरीर न तो बुरा है और न अच्छा है, इसे जल्दी हरि भजन में लगाओ।

 

श्रीराम के बिना जो मुख है, वह केवल चर्मकुण्ड है। भीतर की जिह्वा केवल चमड़े का टुकड़ा है।

 

एक श्रीहरि की महिमा गाया कर, मनुष्य के गीत न गाओ।

 

चिंतन के लिए कोई समय नहीं लगता, इसके लिए कुछ मूल्य नहीं देना पड़ता, सभी समय ‘राम-कृष्ण-हरि-गोविंद’ का नाम जिव्हा पर बना रहे। यही एक सत्य-सार है—व्युत्पत्तिका भार केवल व्यर्थ है।

 

जब तक जीवन है, तब तक नाम-स्मरण करो, गीता-भागवत श्रवण करो और हरि-हर मूर्तिका ध्यान करो।

 

कर्म और अकर्म के फेर में मत पड़ो। मैं भीतर की बात बताता हूँ, सुनो। श्रीराम का नाम अट्टहास के साथ उचारो।

 

काम-वासनाओं के अधीन जिसका जीवन होता है, उस अधम को देखने से भी अशुभ होता है।

 

विषय-तृष्णाओं के अधीन जो नाचता है, वह मदारी का बंदर जैसा है।

 

हरि-हर में कोई भेद नहीं है, झूठ-मूठ की बहस मत करो। दोनों एक-दूसरे के हृदय में हैं, जैसे मिठास चीनी में और चीनी मिठास में।

 

भगवान आगे-पीछे खड़े संसार के संकटों को निवारण करते हैं। दो अक्षरों का काम—श्रीराम-नाम उचारो।

 

भौंरा चाहे कितनी कठिन लकड़ी को मौज के साथ भेद दे, परन्तु कोमल कली में आकर फंस जाता है। वह प्राणों का उत्सर्ग कर देगा, परन्तु कमल दल को नहीं छोड़ेगा। स्नेह कोमल होने से यह कठिन है।

 

जब बच्चा पिता का पल्ला पकड़ लेता है, तब पिता वहीं खड़ा रह जाता है। यह इसलिए नहीं कि पिता इतना दुर्बल है, बल्कि इस कारण से कि वह स्नेह में फंसा हुआ होता है। प्रेम की यही निराली रीति है।

 

जो श्रीहरि को प्रिय नहीं है, वह ज्ञान भी झूठा है और वह ध्यान भी झूठा है।

 

हे भगवान! मेरा मन अपने अधीन करके बिना दान दिए स्वामित्व क्यों नहीं भोगते!

 

बड़े बेटे को यदि दीन-दुखी दिखाया जाए, तो हे भगवान! लोग किसको हँसेंगे? बेटा गुणी न हो, स्वच्छता से रहना भी न जानता हो, तो भी उसका पालन करना ही होगा। वैसे ही मैं भी एक पतित हूँ, पर आपका मुद्रा लित हूँ।

 

संत का लक्षण क्या है? प्राणिमात्र पर दया।

 

भगवान भक्त के उपकार मानते हैं, भक्त के ऋणी हो जाते हैं।

 

हरि भक्तों की कोई निंदा न करे, गोविंद उसे सह नहीं सकते। भक्तों के लिए भगवान का हृदय इतना कोमल होता है कि वह अपनी निंदा सह लेते हैं, परंतु भक्त की निंदा सह नहीं सकते।

 

भक्त की पुकार की देर है, भगवान के आने की नहीं। इसलिए, हे मन, जल्दी कर।

 

उठते-बैठते भगवान को पुकारो। पुकार सुनने पर भगवान से फिर नहीं रहा जाता।

 

भगवान भक्त के आगे-पीछे उसे संभालते रहते हैं, उस पर जो आघात होते हैं, उनका निवारण करते रहते हैं, उसके योगक्षेम का सारा भार स्वयं उठाते हैं और हाथ पकड़कर उसे रास्ता दिखाते हैं।

 

भगवान ने जिन्हें स्वीकार किया, वे यदि निंदित भी थे, तो भी बंद्य हो गए।

 

भगवत-भक्ति के बिना जो जीना है, उसमें आग लगे। अंतर में यदि हरि प्रेम नहीं समाया तो कुल, जाति, वर्ण, रूप, विद्या इनका होना किस काम का? इनसे उलटे दंभ ही बढ़ता है।

 

भगवान को जो पसंद हो वही शुभ है, वही वंद्य है और वही उत्तम है। भगवान की मुहर जिस पर लगेगी, वही सिक्का दुनिया में चलेगा।

 

हरि शरणागति ही सब शुभाशुभ कर्म बंधनों से मुक्त होने का एकमात्र मार्ग है। जो शरणागत हुए, वे ही तर गए। भगवान ने उन्हें तारा, उन्हें तारते हुए भगवान ने उनके अपराध नहीं देखे, उनकी जाति या कुल का विचार नहीं किया। भगवान केवल भाव की अनन्यता देखते हैं।

 

अनन्य प्रेम की गझल में सभी शुभाशुभ कर्म शुभ हो जाते हैं।

 

तेरे नाम ने प्रह्लाद की अग्नि में रक्षा की, जल में रक्षा की, विष को अमृत बना दिया। इस अनाथ के नाथ तुम हो, यह सुनकर मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ।

 

भगवान यदि भक्त पर दुख के पहाड़ डाल दें, उनकी गृहस्थी का सत्यानाश कर डालें, तो भी भक्त और भी उत्सुकता, उमंग और भक्ति पूर्वक उनका भजन करेंगे।

 

जिससे भगवान मिलें, वह लोकदृष्टि में हेय कर्म हो तो भी करें; जिससे भगवान छूट जाए, वह शुभ दिखने वाला कर्म भी न करें।

 

भगवत् प्राप्ति का मुख्य साधन नाम-स्मरण है। नाम-स्मरण से असंख्य भक्त तर गए।

 

भक्तों के लिए हे भगवान! आपके हृदय में बड़ी करुणा है, यह बात अब मेरी समझ में आ गई है। हे कोमल हृदय हरि! आपकी दया असीम है।

 

प्रेम में जो तड़प, व्यथा, विकलता और रुदन होते हैं, वे सभी रति-प्रगाढ़ प्रेम के अनुभाव हैं। प्रेम के आँसू वरदान हैं और शोक के आँसू अभिशाप।

 

भगवान कल्पवृक्ष हैं, चिन्तामणि हैं। चित्त जो-जो चिंतन करे, उसे पूरा करने वाले हैं।

 

जिसे गुरु का अनुग्रह मिला हो, गुरु से परम आनंद का भोग किया हो, वही उसकी माधुरी जान सकता है।

गुरु कृपा के बिना कोई साधक कभी कृतकृत्य नहीं हुआ। श्रीगुरु के चरण-धूलि में लोटे बिना कोई भी कृतकृत्य नहीं हुआ। श्रीगुरु बोलते-चालते ब्रह्म हैं।

 

सदगुरु शिष्यों की आंखों में ज्ञान की ज्योति डालकर उन्हें दृष्टि देते हैं। जब ऐसे सदगुरु बड़े भाव से मिलें, तो अत्यंत नम्रता, विमल सद्भाव और दृढ़ विश्वास के साथ उनकी शरण लो; अपना सम्पूर्ण हृदय उन्हें अर्पण करो, उनके प्रति परम प्रेम धारण करो, उन्हें अज्ञेय परमेश्वर समझो; इससे भक्तिज्ञान का समुद्र प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाओगे।

 

महात्मा सिद्धपुरुष ईश्वर के रूप होते हैं। वे केवल स्पर्श से, एक कृपा-कटाक्ष से, केवल संकल्प मात्र से भी श्रद्धासम्पन्न साधक को कृतार्थ कर देते हैं। पर्वतप्राय पापों का बोझ ढोने वाले भ्रष्ट जीव को भी अपनी दया से क्षणभर में पुण्यात्मा बना देते हैं।

 

भगवान से मिलने की इच्छा करने वाले मुमुक्षु की आँखें श्रीगुरु ही खोलते हैं।

 

गुरु और शिष्य का संबंध पूर्वज और वंशज के संबंध जैसा ही है। श्रद्धा, नम्रता, शरणागति और आदरभाव से शिष्य गुरु का मन मोह लेता है तो भी उसकी आध्यात्मिक उन्नति हो सकती है।

 

स्वानुभूति ज्ञान की परम सीमा है। यह स्वानुभूति अंधों से नहीं प्राप्त होती, पृथ्वी पर भ्रमण करने से नहीं मिलती। स्वान

 

 

 

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