अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 4

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अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 4
अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 4

 

अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 4

हे हरि! जब मेरी इन्द्रियाँ और मन एक ओर हो गए हैं और दूसरी ओर मैं अकेला खड़ा हूँ, तब मेरे भीतर संघर्ष की ऐसी खींचतान हो रही है कि आप ही इस कलह को समाप्त कर सकते हैं। इसके अलावा कोई उपाय नहीं है।

 

मेरे दुर्गुण मुझे दिखते हैं, पर मैं कुछ कर नहीं पाता। मेरा मन मेरे वश में नहीं है! अब आप ही, हे नारायण, बीच में आकर अपनी करुणा का प्रमाण दें।

 

मैं जैसा भी हूँ, आपका दास हूँ। मेरे पालनहार! मुझे उदास न करें

 

क्या करूँ इस मन का? यह विषय-वासनाओं से मुक्त नहीं होता, मानने पर भी नहीं मानता। यह मुझे पतन की ओर धकेल रहा है। हे हरि! अब दौड़कर मेरी रक्षा करें, नहीं तो मैं डूब रहा हूँ।

 

कोई नहीं दिखता जो इस मन को नियंत्रित कर सके! यह एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता और बंधनों को तोड़कर भागता है, विषयों के दलदल में कूदने को आतुर है। आशा और तृष्णा की शक्तियाँ मेरा नाश करने पर तुली हैं। हे नारायण! आप सब देख रहे हैं।

 

परमार्थ के पथ पर तीन बड़ी खाइयाँ हैं: धन, स्त्री, और मान। पहले तो परमार्थ के पथ पर चलने वाले ही बहुत कम होते हैं, और उनमें से भी कुछ धन की खाई में गिर जाते हैं। जो इससे बचते हैं, वे आगे बढ़ते हैं। फिर कुछ स्त्री की खाई में गिरते हैं। जो इससे भी बचकर आगे बढ़ते हैं, वे मान की खाई में फँस जाते हैं। जो इन तीनों खाइयों को पार कर लेते हैं, वे ही भगवत्कृपा के पात्र बनते हैं, पर ऐसे लोग बहुत दुर्लभ होते हैं

 

विरक्त व्यक्ति के लिए धन गोमांस के समान है। उसे छूने की बात तो दूर, वह उसकी ओर देखना भी पसंद नहीं करता।

 

जैसे रीछनी गुदगुदाकर प्राण हर लेती है, वैसे ही परमार्थी व्यक्ति यह जान लेता है कि कामिनी का आकर्षण नाशकारी है, और वह उससे दूर रहता है।

 

भले ही प्राण चले जाएं, परंतु एकांत में या लोगों से अलग रहकर भी स्त्रियों से संभाषण न करें।

 

हे नारायण! स्त्रियों का आकर्षण मनुष्य को भगवान् की स्मृति और भजन से दूर कर देता है। उनके नेत्रों के कटाक्ष और हाव-भाव इन्द्रियों के मार्ग से विनाश की ओर ले जाते हैं। उनका सौंदर्य दुःख का मूल है।

 

वैष्णव के लिए परस्त्री रुक्मिणी माता के समान होनी चाहिए।

 

परधन और परस्त्री की इच्छा केवल मूर्खों के मन में उठती है।

 

नाम और मान के पीछे दुनिया बर्बाद हो रही है।

 

परमार्थ साधक को चाहिए कि वह लोगों की परवाह न करे, क्योंकि लोग दोहरे मुख वाले होते हैं—ऐसा भी कहते हैं और वैसा भी। जो अपना हित चाहता है, वह जन-संग से दूर रहकर हरि-भजन का सरल और प्रेममय मार्ग अपनाए।

 

हे मन! मायाजाल में मत फँसो। समय बीतता जा रहा है। आओ, श्री हरि की शरण में आओ।

 

जो इस संसार से रूठ गया, वही सच्चे मार्ग पर चला।

 

घर और बाहर की सारी बाधाओं से मुक्ति के लिए एकांतवास ही सर्वोत्तम उपाय है।

 

एकांत ही आधी समाधि है।

 

भोगों का वास्तविक स्वरूप जान लेने पर उनमें रस समाप्त हो जाएगा। फिर अपने आप उनमें अरुचि हो जाएगी। वे खारे लगने लगेंगे, और जितनी अरुचि बढ़ेगी, उतनी ही भगवान् प्राप्ति की तीव्र इच्छा जागृत होगी।

 

जैसे-जैसे समर्पण की भावना प्रबल होती जाएगी—”मैं कुछ नहीं हूँ, सब कुछ भगवान् का है”—वैसे-वैसे अहंकार की आँधी भी थमती जाएगी।

 

अहंकार, लोकप्रियता और मान—ये सब लोकैषणाओं के बादल होते हैं, जो गहन भक्ति का सूर्योदय होते ही घुलकर समाप्त हो जाते हैं।

 

मैं पाप की गठरी हूँ। हे नारायण! मुझे दंड दो और मेरा मान-अभिमान नष्ट कर दो। मैं न तो तेरा हो सका, न संसार का। दोनों से वंचित रहकर, केवल एक चोर बना रहा।

 

जन-मान साधक को धरती पर पटककर उसके परमार्थ का नाश कर देता है।

 

लोग मेरी बड़ी प्रशंसा करते हैं, लेकिन वह मुझसे सुनी नहीं जाती। मेरा मन छटपटाता रहता है। हे हरि! मुझे बताओ कि तुम किसमें मिलते हो, मुझे मृगतृष्णा में मत उलझाओ। अब मेरा हित करो और इस जलती हुई आग से मुझे बाहर निकालो।

 

जहाँ संतों के चरणों की रज गिरती है, वहाँ वासना के बीज अपने आप जल जाते हैं। फिर राम-नाम में रुचि जाग्रत होती है, और मन आनंद में डूबने लगता है। कंठ प्रेम से भर जाता है, आँखों से आंसू बहने लगते हैं, और हृदय में भगवान के नाम और रूप का दर्शन होता है। यह सरल और सुंदर साधन है, पर यह केवल पूर्वजन्म के पुण्य से प्राप्त होता है।

 

काय, वचन और मन से मैं हरिदासों का दास हूँ।

 

संतों के संग की बड़ी इच्छा थी, और बड़े भाग्य से वह प्राप्त हुआ। इससे मेरे सारे परिश्रम सफल हो गए।

 

हरिभक्त मेरे प्रिय स्वजन हैं, उनके चरणों को मैं अपने हृदय में धारण करूँगा। जिनके कंठ में तुलसी की माला है और जो भगवान के नाम का जप करते हैं, वे ही भवसागर को पार कराने वाले हैं। चाहे आलस्य से, दंभ से, या भक्ति से, जो हरि का नाम लेते हैं, वे मेरे परलोक के साथी हैं।

 

कोई भी कैसा भी हो, यदि वह हरिनाम का जप करता है, तो वह धन्य है।

 

जो हरि-कथा का अमृत पान कराता है, मैं उन दयालु हरिभक्तों का दास हूँ।

 

अखण्ड नाम-स्मरण का आनंद अहर्निश प्राप्त किए बिना चित्त की शुद्धि का अनुभव नहीं हो सकता।

 

नाम-स्मरण की आदत लगना कठिन है, पर एक बार लगने के बाद व्यक्ति कभी भी नाम से विरक्त नहीं होता।

 

नाम-स्मरण का सही अर्थ यह है कि चित्त में भगवान के रूप का ध्यान हो और मुख में उनका नाम। जब चित्त ध्यान में रंगने लगे और तन्मय हो जाए, तो यही नाम के सही रूप से स्थापित होने का लक्षण है।

 

यदि चित्त ध्यान में न डूबे, तो भी मुख में नाम होना चाहिए—यही नाम-स्मरण की पहली सीढ़ी है।

 

हे हरि! तुम्हारे प्रेम-सुख के आगे वैकुंठ की क्या बिसात है?

 

वह समय धन्य है, जो गोविंद का स्मरण करते हुए आनंदमय होकर बह रहा है।

 

गुण गाते हुए और नेत्रों से भगवान के रूप का दर्शन करते हुए तृप्ति नहीं होती। मेरे प्रभु कितने सुंदर हैं—मेघ जैसी श्याम कांति से शोभित, वे सुख और सिद्धियों का भंडार हैं। उनके सौंदर्य और सुख की कोई सीमा नहीं है।

 

यदि मुख में हरिनाम हो, तो मुक्ति अपने आप चरणों में लोटती है। कई लोगों ने इस सत्य का अनुभव किया है।

 

जीभ को हरिनाम की मिठास का स्वाद एक बार लगना चाहिए, फिर चाहे प्राण भी क्यों न चले जाएँ, वह नाम को कभी नहीं छोड़ती। नाम-स्मरण में ऐसा विलक्षण माधुर्य है।

 

जैसे चीनी और उसकी मिठास एक ही हैं, वैसे ही भगवान का नाम और वह स्वयं भी एक हैं। लेकिन यह अनुभव केवल उन्हीं को होता है, जो नाम-स्मरण के आनंद में डूबे होते हैं।

 

नाम-स्मरण से जन्म, बुढ़ापा, भय और रोग मिट जाते हैं। संसार का बंधन छिन्न-भिन्न हो जाता है, और भवसागर से मुक्ति मिल जाती है।

 

जब हरिप्रेम का रस बढ़ता है, तो इन्द्रियों की दौड़ थम जाती है, और अनुपम सुख स्वयं व्यक्ति के पास चला आता है।

 

हरि-प्रेम का रस लगने के बाद संसार की कोई भी चीज नजर नहीं आती, केवल हरि ही सर्वत्र दिखाई देते हैं।

 

हरिनाम का जप करने से मन शांत होता है, जीभ से अमृत झरने लगता है, और अनुकूल शकुन होते हैं।

 

जहाँ भी बैठें, खेलें या भोजन करें, वहाँ तुम्हारे नाम का गान करेंगे। राम और कृष्ण के नाम की माला गूँथकर गले में पहनेंगे।

 

बैठना, सोना, खाना, चलना—हर कार्य में श्रीहरि का स्मरण रहेगा। गोविंद के साथ यह सारा समय मंगलमय हो जाता है।

 

अब भगवान के अलावा कुछ और बोलना नहीं है। मैंने काम और क्रोध को भी भगवान को सौंप दिया है।

 

वही अन्न पवित्र है, जिसका भोग हरिचिंतन में होता है, वही भोजन स्वादिष्ट है, जिसमें श्रीहरि का मिलन है।

 

हे हरि! तुम्हारा यह मुख ऐसा प्रतीत होता है मानो स्वयं सुख का प्रतिरूप हो। इसे देखकर मेरी भूख और प्यास मिट जाती है। तुम्हारे गीत गाते-गाते मेरी रसना मधुर हो गई, और चित्त पूर्ण रूप से तृप्त हो गया।

 

तुम्हारे कोमल चरणों को मैंने अपने हृदय में धारण कर लिया है, और कंठ में तुम्हारे नाम की माला डाल ली है। इससे मेरा शरीर शीतल हो गया, और चित्त अब संसार की ओर वापस नहीं देखता, बल्कि विश्राम पाकर संतुष्ट हो गया है। मेरे सभी संकल्प पूर्ण हो गए, श्रीगोपाल ने मेरी सभी कामनाएँ पूरी कर दीं।

 

नाम जपने से गले में ठंडक और शरीर में शीतलता आती है। इंद्रियाँ अपना काम भूल जाती हैं। यह मधुर नाम अमृत को भी मात देता है, और मेरे चित्त पर इसका पूर्ण अधिकार हो गया है। प्रेमरस से मेरे शरीर की आभा को प्रसन्नता और बल मिला है। यह नाम ऐसा है कि इससे पलभर में ही सभी दुख समाप्त हो जाते हैं।

 

यह नामस्मरण ऐसा है कि श्रीहरि के चरण चित्त में, उनका रूप नेत्रों में, और नाम मुख में स्थापित हो जाते हैं। यह जीव को हरिप्रेम का अमृतपान कराकर उसे जीवन्मुक्त कर देता है, तब केवल हरि ही शेष रह जाते हैं।

 

नामस्मरण से वह अनुभूति होती है, जो पहले अज्ञात थी। वह दृष्टिगत होता है, जो पहले नहीं देखा गया था। वह वाणी प्रकट होती है, जो पहले मौन थी। वह मिलन होता है, जो चिरविरह में छिपा था, और यह सब स्वाभाविक रूप से हो जाता है।

 

जैसे-जैसे चित्त भजन की ओर झुकता है, वैसे-वैसे भगवान के सान्निध्य का अनुभव होता है। यह अनुभव वही पा सकता है, जो इसे स्वयं आजमाता है।

 

श्रीहरि की शपथ है, नाम को छोड़कर उद्धार का और कोई उपाय नहीं है।

 

चारों वेद, छहों शास्त्र और अठारहों पुराणों का सार एक ही है, और वह है श्रीराम का नाम।

 

मानव जीवन का सार भगवान के मिलन में है।

 

भगवान की भक्ति से ही उनका रूप दिखाई देता है।

 

जो भक्ति का मर्म जानता है, उसके द्वार पर अष्ट महा सिद्धियाँ लोटती हैं, और ‘जाओ’ कहने पर भी नहीं जातीं।

 

कलियुग में अन्य सभी मार्ग कठिन हो गए हैं, कोई साधन सफल नहीं होता। भक्ति का पथ सबसे सरल है। इस पथ में सभी कर्म श्रीहरि को समर्पित होते हैं, जिससे पाप-पुण्य का कोई बंधन नहीं होता, और जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है।

 

भक्तिमार्ग पर चलने वाले के सहायक स्वयं भगवान होते हैं।

 

दोनों हाथ उठाकर भगवान पुकारते हैं, “मेरे भक्त कभी नष्ट नहीं होते—’न मे भक्त: प्रणश्यति’।”

 

भक्तिमार्ग ऐसा है कि जब जीव अनन्यभाव से भगवान की शरण में जाता है, तो भगवान उसे अपनी गोद में उठा लेते हैं।

 

जप करो, तप करो, अनुष्ठान करो, यज्ञ-योग करो, और संतों द्वारा बताए सभी मार्गों पर चलो।

 

संतों के वचनों को सत्य मानकर नारायण की शरण में जाओ।

 

चिंता को व्यक्त नहीं किया जा सकता, न ही उसे बताया जा सकता है, न हाथ में उठाकर दिखाया जा सकता है।

 

प्रेम चित्त का अनुभव है, इसे केवल चित्त ही जान सकता है।

 

भगवान का चिंतन करना, उनका नाम लेना, उनके रूप में तन्मय हो जाना ही मेरा तप है, यही मेरा योग, यही मेरा यज्ञ, यही मेरा ज्ञान, यही मेरा जप और ध्यान, यही मेरा कुलाचार और यही मेरा सर्वस्व है।

 

कर्म, ज्ञान, योग में जो कमी रह जाए, उसकी पूर्ति हरिप्रेम से होती है। इसलिए भक्तियोग ही सबसे श्रेष्ठ है। नारायण भक्ति के वश में रहते हैं।

 

भक्ति-प्रेम-सुख का अनुभव अन्य लोग नहीं कर सकते, चाहे वे विद्वान हों, ज्ञानी हों या आत्मनिष्ठ जीवन्मुक्त हों। यह सुख नारायण की कृपा से ही समझा जा सकता है।

 

सगुण और निर्गुण दोनों ही हमारे साथी होते हैं, और वही हमारे साथ खेलते हैं।

 

सगुण स्वरूप को देखते ही भूख-प्यास मिट जाती है, और मन प्रेम से भर जाता है।

 

दीपक हाथ में लेने से जैसे घर में हर कोने में उजाला हो जाता है, वैसे ही जब भगवान की मूर्ति ध्यान में बैठ जाती है, तो समस्त चेतना में वह समा जाती है।

 

भगवान की मूर्ति का दर्शन, स्पर्श, भजन-पूजन, कथा-कीर्तन, और मनन-चिंतन करने से जिस उपास्यदेव की वह मूर्ति होती है, वह उपास्यदेव ध्यान में आकर चित्त में रमण करने लगते हैं। कभी-कभी स्वप्न में आकर आदेश भी देते हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि वह हमारे पीठ के पीछे हैं और उनका प्रेम दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है। तब उनसे मिलने के लिए मन बेचैन होने लगता है, और एक दिन प्रत्यक्ष दर्शन भी होते हैं। तब यह अनुभूति होती है कि वह हर समय हमारे निकट हैं। अन्ततः ऐसी अवस्था आती है कि अन्दर-बाहर केवल वही हैं, और वही सब जीवों के हृदय में स्थित हैं। इस ब्रह्मांड में उनके अलावा और कुछ भी नहीं है—मेरे भीतर वही हैं, और मैं भी वही हूँ।

 

गहरे स्तर पर, भक्ति और भगवान के बीच कोई भेद नहीं है।

 

जैसे आकाश की स्वाभाविकता अपरिवर्तित रहती है, चाहे वह वस्तुओं को छिपाए या प्रकट करे, वैसे ही भक्त का वास्तविक स्वरूप भगवान के समान ही रहता है, भले ही वह शरीर और कर्मों के माध्यम से अलग दिखाई देता हो।

 

सिद्धांत अद्वैत का है और आनंद भक्ति का, यही तो भागवत धर्म का रहस्य है।

 

वसुदेव-सुत देवकीनन्दन ही सर्वरूप और सर्वत्र व्याप्त परमात्मा हैं, जो भक्तों की प्रीतिके वश, अव्यक्त होते हुए भी, सगुण रूप में प्रकट होते हैं।

 

जैसा किसी का भाव होता है, भगवान वैसे ही दिखाई देते हैं।

 

मार्ग की प्रतीक्षा करते-करते मेरी आँखें थक गई हैं। हे प्रभु! अपने चरण-कमल कब दिखाओगे? तुम मेरी माँ हो, दयामयी छाया हो। तुम्हारे दिल में मेरे लिए कठोरता कैसे आ गई? मेरी बाहें, हे मेरे प्राणप्रिय हरि! तुमसे मिलने के लिए तड़प रही हैं।

 

हे हरि! दीनों के तारक, तुम्हारा सुंदर सगुण रूप मेरे लिए सब कुछ है। पतितपावन! तुमने मिलने में बड़ी देर कर दी। क्या तुमने अपना वचन भूल गए हो? मैं अपने सभी सांसारिक बंधनों को त्यागकर तुम्हारे द्वार पर आ बैठा हूँ। क्या तुम्हें इसकी कोई परवाह नहीं?

 

भक्त की यह भावना, कि भगवान के चरणों की ही प्राप्ति से आत्मा को शांति मिल सकती है, उसकी गहन भक्ति और भगवान के प्रति अनन्य प्रेम को दर्शाती है।

 

मैं आत्मस्थिति के बारे में क्या कहूँ? क्या अनुभव प्रकट करूँ? बिना चतुर्भुज भगवान को देखे, मेरा मन शांत नहीं होता। तुम्हारे बिना कोई बात अच्छी नहीं लगती। नाथ! अब मुझे अपने चरणों का दर्शन कराओ।

 

मेरे प्राण! एक बार मिलो और मुझे अपनी छाती से लगाओ।

 

यदि ये आँखें तुम्हें नहीं देख सकतीं, तो इनके फूटने से कोई हानि नहीं होगी। अब तुम्हारे बिना एक क्षण भी जीने की इच्छा नहीं रही।

 

अब अपना मुख दिखाओ ताकि मेरी आँखों की प्यास बुझ सके।

 

अब आकर मुझसे मिलो। पीठ पर हाथ फेरकर मुझे अपनी छाती से लगाओ।

 

तुम मुझसे मिलोगे और दो-चार बातें करोगे तो तुम्हें क्या नुकसान होगा?

 

जो लोग निराकार भगवान की इच्छा रखते हैं, तुम उनके लिए निराकार बन सकते हो, पर मैं तो साकार रूप का प्रेमी हूँ। मैं तुम्हारे सगुण-साकार रूप का प्यासा हूँ।

 

मेरी बुद्धि तुम्हारे चरणों में लगी है। मैं तो अज्ञानी हूँ। क्या एक बच्चा सयानों की तरह तुमसे दूर रहने योग्य बन सकता है?

 

ज्ञानी पुरुषों के साथ तुलना करना मेरे जैसे अज्ञानी के लिए संभव नहीं है। जब बच्चा सयाना हो जाता है, तो माँ उसे दूर रखती है, लेकिन अज्ञानी शिशु को हमेशा माँ की गोद में स्थान मिलता है।

 

जो ब्रह्मज्ञानी हों, उन्हें मोक्ष दे दो, पर मुझे मत छोड़ो। मुझे मोक्ष नहीं चाहिए।

 

तुम्हारे नाम का जो प्रेम जुड़ गया है, वह अब कभी नहीं छूटेगा।

 

मेरी रसना तुम्हारे नाम के रस में डूब चुकी है, मेरी आँखें तुम्हारे चरणों के दर्शन की प्यासी हैं। यह भाव अब कभी नहीं बदलेगा। इसलिए अब मेरे इस प्रेमरस को सूखने मत दो। मुझे अपने से दूर मत करो। मुझे तुम्हारा मोक्ष नहीं चाहिए, मुझे सिर्फ तुम चाहिए।

 

तुम इस मौन में क्यों बैठे हो? मेरी बात का जवाब दो। तुम ही मेरे संचित पुण्य हो, तुम ही मेरे सत्कर्म हो, तुम ही मेरे स्वधर्म हो, और तुम ही मेरे नित्य नियम हो। हे नारायण! मैं तुम्हारे कृपावचनों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

 

हे प्रेमियों के प्रियतम! हे सर्वोत्तम! मुझसे बोलो। महाराज, शरणागत को पीठ मत दिखाओ, यही मेरी विनती है। जो तुम्हें पुकार रहे हैं, उन्हें तुरंत उत्तर दो; जो दुखी हैं, उनकी पुकार सुनो। जो थके हुए हैं, उनके पास दौड़कर आओ और दिलासा दो। हमें मत भूलो, यही मेरी प्रार्थना है।

 

कम से कम एक बार तो यह कह दो, “क्यों तंग कर रहे हो? यहाँ से चले जाओ।” हे हरि! तुम इतने निष्ठुर क्यों हो गए हो?

 

तुमने पहले संतों से मिलन किया है, उनसे बात की है; वे धन्य हैं। क्या मेरा भाग्य इतना भी नहीं? आज तक तुमने किसी को निराश नहीं किया, और मेरी तो एकमात्र लगन है कि तुम्हें पाऊँ। इसके बिना मेरा मन चैन नहीं पाता।

 

अब मैंने केवल तुम्हारी शरण ली है, क्योंकि तुम्हारे किसी भी भक्त का मनोरथ व्यर्थ नहीं जाता।

 

जैसे भूखे व्यक्ति के सामने स्वादिष्ट भोजन परोसा जाए, या जैसे घात में बैठी बिल्ली मक्खन का गोला देख ले, वैसी ही मेरी दशा हो गई है। मेरे मन ने तुम्हारे चरणों में ललचाया है, और मिलने की लालसा से प्राण सूख रहे हैं।

 

तुम्हारे बिना, हे प्राणेश्वर, इस दुनिया में मेरा ख्याल रखने वाला और कोई नहीं है। किससे मैं अपना सुख-दुख कहूँ? कौन मेरी भूख-प्यास बुझाएगा?

 

मेरे दुख को दूर करने वाला और कौन है? मैं अपनी व्यथा किससे कहूँ? कौन मेरी पीठ पर स्नेह से हाथ फेरने वाला है?

 

दौड़कर आओ, हे मेरी माँ! अब और क्या देख रही हो? अब मेरा धैर्य टूट चुका है। वियोग से व्याकुल हो रहा हूँ। अब मेरे मन को ठंडक दो। अब तक केवल रोते-रोते समय बीत गया है। कब यह सिर तुम्हारे चरणों में रखूँगा? यही एक ध्यान है।

 

तुम सोलह हजार रूप धारण कर सकते हो, सोलह हजार नारियों के लिए। पर इस अधम के लिए एक रूप धारण करना भी तुम्हारे लिए कठिन हो गया है?

 

हे भगवन्! मेरी यह विनती है कि मेरे प्रेम का बंधन न टूटे। मैं आपकी कृपा का अभिलाषी हूँ। आपकी कृपा से ही मैं इस दीन-हीन अवस्था से ऊपर उठ सकता हूँ। जैसे पेट भरने पर तृप्ति चेहरे पर दिखती है, उसी प्रकार आपकी कृपा से ही मेरे जीवन में आनंद आएगा।

 

जैसे किसी सती को उसके पति का स्पर्श ही संपूर्ण सुख देता है, वैसे ही मुझे तुम्हारे दर्शन के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता। तुम्हारे बिना सबकुछ सूना है।

 

तुम्हारे बिना संतजन भी मुझ पर हँसेंगे कि भगवान के नाम का आश्रय लेने वाला भी भगवान से दूर है। मेरे मन में यह प्रश्न उठता है कि जिन्होंने तुम्हारा साक्षात् दर्शन नहीं किया, क्या वे सचमुच तुम्हारे भक्त कहला सकते हैं?

 

जिस प्रकार भोजन के बिना तृप्ति नहीं मिलती, वैसे ही तुम्हारे दर्शन के बिना मेरे हृदय को शांति नहीं मिलती। मुझे पूर्ण संतोष तभी मिलेगा जब मैं तुम्हारे श्रीमुख का दर्शन करूंगा, जब तुम अपनी करुणा से मेरे हृदय की प्यास बुझाओगे।

 

तुम्हारे स्नेहिल हाथ मेरे माथे पर हों, और तुम्हारी मधुर दृष्टि मेरे जी को शांति दे—यही मेरी अभिलाषा है। मुझे अपने प्रेम से तृप्त करो, जैसे माँ अपने बच्चे को गोद में लेकर तृप्त करती है।

 

हे विश्वम्भर! तुम मेरे माता-पिता हो। मुझे प्रत्यक्ष दिखाओ, जिससे मेरी आँखें तृप्त हों। मैं तुम्हारे चरणों में सिर झुकाकर खड़ा रहूँगा, तुम्हें अपनी व्यथा कहूँगा, और तुम्हारे साथ एकांत में बैठकर सुख-दुख की बातें करूंगा। यही मेरी सबसे बड़ी आकांक्षा है।

 

तुम्हारे प्रेम का अनुभव पाकर मैं सबकुछ भूल जाना चाहता हूँ। मुझे न कोई मुक्ति चाहिए, न कोई वैभव। मुझे केवल तुम्हारे साथ का सुख चाहिए, बस तुम्हारा प्रेम चाहिए।

 

हे श्रीकृष्ण! अब मैं तुमसे प्रत्यक्ष भेंट करने के लिए तरस रहा हूँ। तुम्हारे बिना यह जीवन व्यर्थ लगता है। गरुड़जी के चरणों में सिर झुकाकर उनसे विनती करता हूँ कि वे तुम्हें शीघ्र मेरे पास लाएँ। लक्ष्मीजी से प्रार्थना करता हूँ कि वे तुम्हारे प्रेम से मेरा हृदय तृप्त करें।

 

हे शेषनाग! तुम हृषीकेश को जगाओ, उन्हें मुझ अनाथ के पास लाओ। मेरा मन उस आनन्द की लालसा कर रहा है जो गोपियों ने तुम्हारे साक्षात्कार से पाया था। मेरे हृदय की यही इच्छा है कि मैं तुम्हारे सुकुमार रूप का दर्शन करूं, तुम्हारे प्रेम में डूब जाऊँ।.

 

तुम्हारे उस मनमोहक श्याम रूप, पीतांबर, मुकुट, कुंडल और वैजयन्ती माला का स्मरण करते ही मेरा मन तुम्हारी ओर खिंच जाता है। गोपियों ने जो सुख तुम्हारे साथ अनुभव किया, वही सुख पाने के लिए मेरा मन भी लालायित है।

 

हे कृष्ण! मेरे हृदय की व्याकुलता अब सहन नहीं हो रही है। मुझे अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन कराओ, जिससे मेरी आँखें तृप्त हों और मेरा हृदय शांत हो जाए। तुम्हारे दर्शन के बिना, यह जीवन निरर्थक प्रतीत हो रहा है।

अब तुम मुझ पर कृपा करो, भगवान!

 

 

 

 

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