अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 5

welcome in surimaa.com अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 5, अनमोल वचन को अलग अलग ब्लॉग पोस्ट में लिखा गया है आप निचे दिए लिंक पर क्लीक करके और ज्यादा अनमोल वचन पढ़ सकते है.

अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 5
अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 5

 

 

अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 5

 

भक्तसमागमसे सब भाव हरिके हो जाते हैं, सब काम बिना
बताये हरि ही करते हैं | हृदयसम्पुटमें समाये रहते हैं और बाहर छोटी-सी
मूर्ति ननकर सामने आते हैं।

 

 श्रीहरि सब भूतोंमें रम रहे हैं, जल, थल, काठ, पत्थर सबमें
विराज रहे हैं; पृथ्वी, जल, अग्नि, समीर, गगन-इन पठ्च महाभूतोंको और
स्थावर-जड्जम सब पदार्थोको व्यापे हुए हैं | उनके सिवा त्रह्माण्डमें दूसरी
कोई वस्तु ही नहीं, यही शाख्त्र-सिद्धान्त है और यही संतोंका अनुभव है।

 

 मनुष्य किसी भी वर्ण या जातिमें पैदा हुआ हो वह यदि
सदाचारी और भगवद्भक्त है तो वही सबके लिये वन्दनीय और श्रेष्ठ है।

 

 मैं अपना दोष और अपराध कहाँतक कहूँ ? मेरी दयामयी
मैया ! मुझे अपने चरणोंमें ले ले। यह संसार अब बस हुआ | अब मेरा
चिन्ता-जाल काट डालो और है हृदयधन ! मेरे हृदयमें आकर अपना
आसन जमाओ |

 

 अपना चित्त शुद्ध हो तो शत्रु भी मित्र हो जाते हैं; सिंह
और साँप भी अपना हिंसाभाव भूल जाते हैं, त्रिष अमृत हो जाता है,
आघात हित होता है, दुःख सर्वसुखस्वरूप फल देनेवाला बनता है, आगकी
लपट ठंडी-ठंडी हवा हो जाती है । जिसका चित्त शुद्ध है, उसकों सब जीव
अपने जीवनके समान प्यार करते हैं | कारण, सबके अन्तरमें एक ही
भाव है।

 

 आधघात करनेवाला लोहा भी पारसके स्पर्शमात्रसे सोना हो
जाता है। दुष्टजन भी संतोंके स्पर्शें आकर संत बन जाते हैं।

 

जो कोई नारायणका प्रिय हो गया, उसका उत्तम या कनिष्ठ
वर्ण क्या? चारों वणोका यह अधिकार है, उसे नमस्कार करनेमें कोई दोष
नहीं।

 

 चित्तकी उलटी चालमें मैं फँस गया था, मृगजलने मुझे भी
धोखा दिया था, पर भगवानने बड़ी कृपा की जो मेरी आँखें खोल दीं । 

 

 प्रभु अपने भक्तको दुःखी नहीं करते, अपने दासकी चिन्ता
अपने ही ऊपर उठा लेते हैं। सुखपूर्वक हरिका कीर्तन करो, हर्षके साथ
हरिके गुण गाओ। कलिकालसे मत डरो, कलिकालका निवारण तो
सुदर्शनचक्र आप ही कर लेगा। भगवान्‌ अपने भक्तोंको कभी छोड़ते ही
नहीं |

 

 हरिका नाम ही बीज है और हरिका नाम ही फल है| यही
सारा पुण्य और सारा धर्म है । सब कलाओंका यही सार मर्म है | निर्लज्ज
नामसंड्रीर्तनमें सब रसोंका आनन्द एक साथ आता है।

 

 सब तीर्थोकी मुकुटमणि यह हरिकथा है–यह ऊर्ध्व-
वाहिनी परमामृतकी धारा भगवानके सामने बहती रहती है । भगवानपर इस
सुधाधाराका अभिषेक होता रहता है |

 

 

 खोल, खोल, आँखें खोल । बोल अभीतक क्या आँख नहीं
खुली ? अरे, अपनी माताकी कोखसे क्या तू पत्थर पैदा हुआ ? तैंने जो यह
नर-तनु पाया है, यह बड़ी भारी निधि है, जिस विधिसे कर सके इसे
सार्थक कर | संत तुझे जगाकर पार उतर जायेगे, तू भी पार उतरना चाहे तो कुछ कर |

 

 

 सुन रे सजन | अपने स्वहितके लक्षण खुन। मनसे
गोबिन्दका सुमिस्न कर, नारायणका गुणगान कर, फिर बन्धन कैसा ?

 

 जो मन करेगा वही पाओगे । अभ्याससे क्या नहीं होता ?

 

 

 दिन-रातका पता नहीं | यहाँ तो अखण्ड ज्योति जगमगा
रही है। इसका आनन्द जैसे हिलोरें मारता है; उसके सुखका वर्णन
कहाँतक करूँगा।

 

 श्रीहरिके प्रसादसे सब दुःख नष्ट हो जाते हैं। यही
भवरोगकी ओषधि है। जन्म, जरा, सब व्याधि और मृत्यु इससे दूर
हो जाती हैं । उस श्यामसुन्दरकी छबिको अपनी आँखों देख लो, कुटिल,
खल कामियोंका स्पर्श अपनेको न होने दो। मुखसे निरन्तर
विष्णुसहस्ननामकी माला फेरते रहो ।

 

बहुत बोलना छोड़ दो और सावधान होकर कुसद्भसे
बचते रहो |

 

 अनुताप करते हुए भगवानूसे यह कहो, मैं तो अनाथ हूँ,
अपराधी हूँ, कर्महीन हूँ, मन्दगति और जडबुद्धि हूँ। हे कृपानिधे ! हे
मेरे माता-पिता ! अपनी वाणीसे कभी मैंने तुम्हें याद नहीं किया । तुम्हारा
गुण-गान भी नःसुना और न गाया। अपना हित छोड़ लोकलाजके पीछे
मरा फिरा। हरिकीर्तन, संतोंका सक्ञ॒ कभी मुझे अच्छा नहीं लगा। तीर्थोकी कभी यात्रा नहीं की, केवल इस पिण्डके पालन करनेमें ही हाथ-पैर मारता रहा । कुसड्रमें पड़कर अनेक अन्याय और अधर्म किये। मैंने अपना-आप ही
सत्यानाश किया, मैं अपना-आप ही बैरी बनां। भगवन्‌ ! तुम दयाके
निधान हो, मुझे इस भवसागरके पार उतारो !

 

 

जो कुछ चाहते हो उसके वही तो दाता हैं। उनके चरणोंमें जाकर लिपट जाओ ! प्रभु जहाँ असन्न हुए तहाँ भुक्ति और मुक्तिकी चिन्ता क्‍या ? वहाँ दैन्य और दारिद्रय कहाँ ?

 

 संसारमें बने रहो, पर हरिको न भूलो | हरिनाम जपते हुए
न्याय-नीतिसे सब काम करते चलो | इससे संसार भी सुखद होता है ।

 

 सुख-यव-बराबर है तो दुःख पहाड़-बराबर। संसारके
विषयमें सबका यही अनुभव है। 

 

 

 संगी-साथी एक-एक करके चले | अब तुम्हारी भी बारी
आवबेगी। क्या गाफिल होकर बैठे हो ? काल सिरपर सवार है, अब भी सावधान हो जाओ, इससे निस्तार पानेका कुछ उपाय करो।

 

 

पर उपकार करो, पर-निन्‍्दा मत करो, परस्त्रियोंको माँ-
बहन समझो प्राणिमान्रमें दया-भाव रखो ।

 

घर-गृहस्थीके प्रपञ्चमें लगे रहते हुए भी एक बात न भूलना-
यह क्षणकालीन द्रव्य, दारा और परिवार तुम्हारा नहीं है । अन्तकालमें जो
तुम्हारा होगा वह तो एक श्रीहरि ही हैं, उसीको जाकर पकड़ो।

 

भगबानको चाहते हो तो चित्तको मलिन क्यों रखते हो ?
अभिमान, अकड़, आलस्य, लोकलज्जा, चज्चलता, असद्व्यवहार,
मनोमालिन्य इत्यादि कूड़ा-करकट किस लिये जमा किये हुए हो ?

 

 

संसारकी सारी आशाओं और अभिलाषाओंका त्याग
किये बिना भगवान्‌ नहीं मिलते ।

 

जो जी-जानसे भगवानकों चाहते हैं, वे अपने प्रेमको
सावधानीसे बचाये रहें, प्रतिष्ठाको शूकरीविष्ठा समझ लें, वुथा वादमें न उलझें अहंकारी तार्किकोंके सड्भसे दूर रहें और कोई ढोंग-पाखण्ड न रचें।

 

स्वाँग बनानेसे भगवान्‌ नहीं मिलते। निर्मल चित्तकी
प्रेमभरी चाह नहीं तो जो कुछ भी करो, अन्त केवल ‘आह’ है।

 

सबके अलग-अलग णग हैं। उनके पीछे अपने मनको
मत बाँटते फियरे । अपने विश्वासको जतनसे रखो, दूसरेके रंगमें न आओ |

 

 

भक्तोंके मेलेका जो आनन्द है, उसका कुछ भी आस्वाद
अविश्वासीको नहीं मिलता । वह सिद्धान्ञमें कंकड़ीकी तरह अलग ही
रहता है।

 

भगवान्‌की पूजा करो तो उत्तम मनसे करो । उसमें बाहरी
दिखावेका क्‍या काम ? जिसको जनाना चाहते हो वह अन्तरकी बात
जानता है। कारण, सच्चोंमें वही सच है।

 

भक्तिकी जाति ऐसी है कि सर्वस्वसे हाथ धोना पड़ता है ।

 

जनेत्रोंमें अश्रु-बिन्दु नहीं, हृदयमें छटपटाहट नहीं तो भक्ति
काहेकी ? बह तो भक्तिकी विडम्बना है, व्यर्थका जन-मन-रंजन है।
जबतंक दृष्टिसे दृष्टि नहीं मिली तबतक मिलन नहीं होता |

 

 

 

भगवानके होकर रहो। ज्ञानलव-दुर्विदग्ध तार्किकोंकी
अपेक्षा अपढ़, अनजान, भोले-भाले लोग ही अच्छे होते हैं। मूर्ख
बल्कि अच्छे हैं, जे विद्वान्‌ तार्किक तो किसी कामके नहीं।

 

 

इस संसास्में आये हो तो अब उठो, जल्दी करो और उन
उदार ग्रभुकी शरणमें जाओ। यह देह तो देवताओंकी है, धन सारा
कुबेरका है, इसमें मनुष्यका क्या है ? देने-दिलानेवाला, ले जाने-लिवा
ले जानेवाला तो कोई और ही है । इसका यहाँ क्‍या धरा है; रे मूरख !
क्यों नाशवान्‌के पीछे भगवान्‌की ओर पीठ फेरता है ?

 

 मुखसे हरिका कीर्तन करो, कानोंसे उनकी कीर्ति सुनो,
नेत्रोंसे उन्हींका रूप देखो । इसीके लिये तो ये इन्द्रियाँ हैं ।

 

संसारका बोझ सिरपर लादे हुए दौड़नेमें बड़े खुश हैं ।
ओरे निर्लज्ज ! अपने संसारीपनपर–बैलकी तरह इस बोझके ढोनेपर
इतना क्‍यों इतराता है ?

 

परद्रव्य और परनारीका अभिलाष जहाँ हुआ बहींसे
भाग्यका हास आरम्भ हुआ।

 

परख्ली और परधन बड़े खोटे हैं । बड़े-बड़े इनके चकरमें
मटियामेट हो गये। इन दोनोंको छोड़ दे, तभी अन्तमें सुख पाय्रेगा |

 

 

पेटमें अन्न न हो तो श्रृंगारकी क्या शोभा। उसी प्रकार
श्रीहरिके प्रेम बिना कोई ज्ञान किसी कामका नहीं।

 

श्रीहरिं-गोविन्द-नामकी धुन जब लग जायगी तब यह
काया भी गोविन्द बन जायगी, भगवानसे कोई दुराब, कोई भेद-भाव
नहीं रह जायगा। मन आनन्दसे उछलने लगेगा, नेत्रोंसे प्रेम बहने
लगेगा। कीट भुड् बनकर जैसे कीटरूपमें फिर अलग नहीं रहता वैसे
तुम भी भगवानसे अलग नहीं रहोगे।

 

सकुचकर ऐसे छोटे क्यों बन गये हो। ब्रह्माण्डका आचमन कर लो। पारण करके संसारसे हाथ धो लो। बहुत देर हुई, अब देर मत करो।

 

शास्त्र जिस चीजको छोड़ देनेकी कहे, उसे, चाहे वह
राज्य ही क्‍यों न हो, तृणवत्‌ त्याग दे। शास्त्र जिसे ग्रहण करनेको
कहे,चाहे वह विष ही क्‍यों न हो, उसे जरूर ग्रहण करे ।

 

 संत महापुरुष भी धर्मका आचरण करके जो अज्ञानी
हैं उन्हें धर्मका तत्त्व बतलाते हैं।

 

संत पहाड़की चोटीपर खड़े होकर पुकार रहे
हैं—भगवानकी शरण लो, प्राणिमात्रमें उसीका भजन करो । गो, खर,
गज, श्वान सबको समानरूपसे वन्दन करो।

 

 

फिर चलो, फिर चलो रे जीव! नहीं तो डूब जाओगे। इस मायानदी की बाढ़ में बहते चले जाओगे। भवसागर का यह पानी, प्यारे! बड़ी तेजी से खींचता है और बड़े-बड़े तैराकों को भी डुबो देता है। संसार क्षणभंगुर है, इसका कोई ठिकाना नहीं। अगर यह दुर्लभ मानव जीवन हाथ से निकल गया, तो बाद में पछताते रह जाओगे।

 

जो गये हुएका स्मरण नहीं करता, मिले हुएकी इच्छा नहीं
रखता, अन्तःकरणमें मेरुक समान अचल रहता है, जिसका अन्तःकरण
मैं-मेरा भूला रहता है वही निरन्तर संन्‍्यासी है।

 

निरन्तर सदभध्यास करो, चित्तको पस्मपुरुषके मार्गमें लगा
दो, फिर शरीर रहे चाहे जाय ।

अपनी पृज्यता अपनी आँखों न देखे, अपनी कीर्ति अपने कानों न सुने, ऐसा न करे जिससे लोग यह पहचान लें कि यह अमुक है। बृहस्पतिके समान सर्वज्ञता प्राप्त हो तो भी महिमाके भयसे
अज्ञानियोंकी भाँति रहे। अपना चातुर्य छिपाने, अपना महत्त्व बिसार दे
और अपना बावलापन लोगोंको दिखावे।

 

दुलत्ती झाड़नेवाली गौ जैसे अपना दूध चुराती है, वेश्या
जैसे अपनी बयस्‌ चुराती है, कुलवधू जैसै अपने अड़ः छिपाती है बैसे
ही अपना सत्कर्म छिपाओ |

कमलपर भौरे जो पैर रखते हैं, बड़े हल्के रहते हैं; इस
भयसे कि कहीं केसर कुचल न जाय । उसी ज्रकार सर्वत्र परमाणुजत्‌
जीव भरे हुए हैं, यह जानकर संत-महात्मा दयावृत्तिसे धरतीपर बहुत ही
हल्के पैर रखता है । वह समस्त प्राणियोंके नीचे अपना जी बिछाता है।

 

 

साधुके लिये अपना-पराया कुछ भी नहीं, सारे विश्वसे ही
उसकी जान-पहचान है, बड़ा पुराना नाता है । हवाका चलना जैसे सीधा
होता है वैसे ही उसका भाव सरल होता है, उसमें श्र या आकांक्षा
नहीं होती ।

 

माँके पास जाते बच्चेको जैसे कोई सोच-संकोच नहीं होता,
वैसे ही संतके लिये लोगोंको अपना मन देते कोई शह्जा नहीं होती । उसके
लिये कोई कोना-अँतरा नहीं हुआ करता । उसकी दृष्टिमें कपट नहीं होता,
बोलनेमें संदेह नहीं होता । दसों इन्द्रियाँ उसकी सरल, निष्प्रपञ्ञ और निर्मल
होती हैं और उसके पद्चप्राणोंके स्तर आठों ग्रहर मुक्त रहते हैं ।

 

भागते हुए मेघोंके साथ आकाश नहीं दौड़ता, वैसे ही संत
पुरुषका मन चलते हुए शरीरके साथ नहीं चला करता, ध्रुव-जैसा स्थिर
रहता है।

 

समुद्रमें गड्भाजल जैसे मिलकर भी मिलता रहता है, बैसे ही
संत पुरुष भगवत्स्वरूप होकर भी भगवानको सर्वस्व देकर भजता रहता है।

 

जो तीर्थोमें, पवित्र जलाशयोंके किनारे, खुन्दर तपोवनोंमें और
गुहाओंमें रहना पसंद करता है, एकान्तसे जिसकी अत्यन्त प्रीति होती और
जनपदसे जिसका जी ऊबा हुआ होता है, उसे ज्ञानकी मनुष्याकार मूर्ति ही जानो |

 

पञ्ञतत्त्वोंकी देह बनी और फिर कमोंके गुणोंसे बैंधकर
जन्म-मृत्युका चक्तर काट रही है। कालानलके कुप्डमें यह मक्खनकी
आहुति है। मक्खीका पह्कः हिलते-न-हिलते इसका काम तमाम हो जाता है।
इस देहकी तो यह दशा है !

 

भगवान्‌ प्रेम, सुख और शान्तिके निकेतन हैं। प्रेम, सुख
और शान्ति उनका स्वरूप ही है।

 

शक्ति, बुद्धि, ख्तनन्‍त्रता रहते दूसरोंकी देखा-देखी
कल्याणकारी धर्ममार्गकी उपेक्षा करके सर्वथा अहितकर अधर्मके मार्गपर
चलना अपनी ही आन्तरिक दुर्बलताका झोतक है।

 

वृक्ष जैसे फूल,’फल,छाया, मूल, पत्र सब कुछ जो कोई पथिक आ जाय उसके सामने
हाजिर करनेमें नहीं चूकता, वैसे ही प्रसड्ानुसार श्रात्त पथिक कोई
आ जाय तो अपने धन-शान्यादिके द्वारा उसके काम आना। इसका नाम
है दान।

 

दान का अर्थ है सम्पूर्ण अर्पण करना, जबकि अपने लिए खर्च करना व्यर्थ गंवाना है। जैसे औषधि दूसरों को लाभ देती है और स्वयं सूख जाती है, उसी प्रकार, हे वीर! आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति के लिए प्राण, इन्द्रियों और शरीर को तपाकर खपाना ही सच्चा तप है।

 

सात्त्िक ज्ञान वही हे जिसमें उस ज्ञानके साथ ज्ञाता और
ज्ञेग हृदयमें एक हो»जाते हैं। सूर्य जैसे अन्धकारको नहीं देखता, नदियाँ
समुद्रको नहीं देखती, अपनी छाया अपनेसे अलग करके पकड़ी नहीं
जाती, वैसे ही जिस ज्ञानको शिवादिसे लेकर तृणपर्यन्त अपनेसे भिन्‍न
नहीं दिखायी देते वह सात्तिक ज्ञान है, वही मोक्ष-लक्ष्मीका भुवन है ।

 

जैसे अदने से राजाके साथ सोने वाली दासी भी राजाकी
बराबरी कस्ती है। फिर मैं तो साक्षात्‌ विश्वेश्वर हूँ। मेरे मिलनेपर भी
जीव-ग्रन्थि न छूटे ऐसा कैसे हो सकता है ? ऐसा निपट झूठ कानमें भी
न पड़ने दो।

 

दोनों दर्पण उठकर एक दूसरेके आमने-सामने आ गये।
अब बताइये कौन किसको देख रहा है।

 

 

फल देकर फूल सूख जाता है, फल रस पकनेपर नष्ट
होता है। रस भी तृप्ति देकर समाप्त होता है। आहुतिको अग्निमें
डालकर हाथ हट जाता है। गीत आनन्द पाकर मौन हो जाता है। वैसे
ही सत्‌-चित्‌-आनन्द-पद द्रष्टाकों दिखाकर मौन हो जाते हैं।

 

भगवानके द्वारपर पलभर तो खड़े रहो ।

 

चारों वेद, छहों शास्त्र, अठारहों पुराण हरिके ही गीत
गाते हैं ।

 

दिन-रात प्रपञ्के लिये इतना कष्ट करते हो, भगवान्‌को
क्यों नहीं भजते ?

 

जप, तप, कर्म, धर्म, हरिके बिना सब श्रम व्यर्थ हैं।

 

शाख्त्रका प्रमाण है, श्रुतिका वचन है कि ‘नारायण’ ही सब
जापोंका सार है।

 

भाव मत छोड़। संदेह छोड़ दे; गला फाड़कर
राम-कृष्णको पुकार |

एक नामका ही तत्त्व मनसे दृढ़ धर ले। हरि तुझपर
करुणा करेंगे ।

 

 राम-कृष्ण-गोविन्द’ नाम सरल है। गदगद होकर
वाणीसे इसका पहले जप कर ।

 

नाम से बढ़कर कोई तत्त्व नहीं है। व्यर्थ और रास्तोंमें
मत भरटक।

 

नाम-मन्ल्-जपसे कोटि पाष नष्ट होगा। कृष्णनामका
संकल्प पकड़े रह ।

 

निरतन्तर हरिका ध्यान करनेसे सब कर्मोके बन्धन कट जाते
हैं। राम-कृष्ण-नाम-उच्चारणसे सब दोष दिगन्तमें भाग जाते हैं ।

 

तन-मन तेरे ही चरणोंमें शरणालड्डूत किये हैं।
रुक्मिणीदेवी-वर मेरे बाप हैं। मैं और कुछ नहीं जानता ।

 

हरि आदियें हैं, हरि अन्तमें हैं, हरि सब भूतोंमें व्यापक
हैं। हरिको जानो, हरिको बखानो, वही मेरे माँ-बाप हैं।

 

हदयमें भगवान्‌क़े निराकार रूपका ध्यान नेत्रोंसे भगवत्‌-
लीलाका दर्शन और जीभसे राम-नामका जप । इतना हो सके तो  फिर और करना ही क्या रहा ?

 

श्रीरामके नामका स्मरण करो | यह संजीवनी ओषधि है।

 

जिसकी कहीं गति नहीं, उसके लिये एकमात्र
अवलम्बन राम-नाम है।

 

अलख-अलख क्‍या बकता फिरता है, एक सीधा
मुक्तिका मार्ग श्रीराम-नाम जप ।

 

अनेक जन्मों की बिगड़ी हुई स्थिति इसी क्षण सुधर सकती है, यदि तू बुरी संगति छोड़कर श्रीराम का होकर, श्रीराम-नाम का जप करना शुरू कर दे।

 

 

नाममें विश्वास हो और आनन्द-मड्गलके साथ मैं श्रीराम-नामका स्मरण करूँ ।
लोक और परलोकका बनानेवाला श्रीराम-नाम ही है।

 

श्रीरामका स्मरण करते ही जो हृदय प्रेमसे पिघल नहीं
उठता, वह फट जाय; जिन नेत्रोंमें आँसू नहीं आते, वे फूट जायेँ और
जो शरीर पुलकित नहीं होता, बह जल जाय ।

 

हरिका सुयश सुनकर जिन नेत्रोंमें प्रेमेके आँसू छलक न
आवें उनमें तो मुट्ठीभर धूल डाल देनी चाहिये।

 

 हैं मन ! सबसे फीका हो, केवल श्रीहरिसे ही सरस रह |

 

अब तुझे पाकर ओरोंके सामने हाथ क्या पसारूँ ? प्रभुका
होकर जगतसे अब क्‍या याचना ?

 

 

अपने निर्वाहके लिये जो चिन्ता अथवा प्रपञध्च नहीं
करता वही सच्चा विश्वासी है।

 

 

जन्मके पहले तू ईश्वरका जितना प्यारा था, उतना ही
मृत्युपर्यन्त बना रहे ऐसा आचरण कर।

 

धन-दौलत कमानेके पीछे क्‍यों पड़े हुए हो? तुम्हारी
जरूरियातोंकों पूर करने और तुम्हारी देखभाल रखनेका सारा भार तो ईश्वरने
ही ले रक्‍्खा है । यदि उसका भरोसा करोगे तो सब तरहसे शान्ति और सुख
पाओगे।

 

जों इस नाशवान्‌ संसारमें आसक्त नहीं है, बही अनुभवसिद्ध
ज्ञानी ऋषि है। तल्‍लीन होकर ईश्वरका गुण गाना, मत्त होकर संगीत सुनना
और प्रभुकी अधीनता मानकर काम करना ही संतका धर्म है।

 

प्रायश्चित्तकी तीन सीढ़ियाँ हैं—आत्मग्लानि, दूसरी बार पाप
न करनेका निश्चय और आत्मशुद्धि।

 

प्रभुके मार्ममें प्राणतक देनेकी तैयारी न हो तो उसके प्रति प्रेम
है, ऐसा मानना ही नहीं चाहिये ।

 

ईश्वस्में निमग्न होनेमें ही अपने मनका नाश है।

 

अन्तःकरणमें उंपजा हुआ ईश्वर-दर्शनका एक कण-जितना
उत्साह भी स्वर्गके लाखों मन्दिरोंमें जानेकी मिठाससे भी अधिक मीठा है ।

 

 

ईश्वरको जानकर भी उससे प्रेम न करना असम्भव है । जो
परिचय प्रेमशून्य है, वह परिचिय ही नहीं।

 

ईश्वर जिसपर खुश होता है, उसे नदीकी-सी दानशीलता,
सूर्यकी-सी उदारता और पृथ्वीकी-सी सहनशीलता प्रदान करता है।

 

ये सब वाद-विवाद शब्दाडम्बर और अहंता-ममता तो
परदेके बाहरकी बातें हैं। परदेके भीतर तो नीरबता; स्थिरता, शान्ति और
आनन्द व्याप्त है।

 

साधनाके लिये जो कुछ करना पड़े सब करना, परन्तु
उसमें भी प्रभुकृपाका प्रताप ही समझना, अपना पुरुषार्थ नहीं।

 

जो अपना परिचय ईश्वर-ज्ञानी कहकर देता है वह मिश्या-
भिमानी है, जो यह कहता है कि मैं उसे नहीं जानता वही बुद्धिमान्‌ है ।

 

 यदि सारी दुनिया तुझे अपना ऐश्वर्य और स्वामित्व सौंप दे, तो अहंकार में मत डूबना, और यदि सारी दुनियाकी गरीबी तेरे हिस्से में आ जाए, तो उससे खिन्न मत होना। चाहे जैसी भी परिस्थिति हो, सदा उस प्रभु का कार्य करने पर ही ध्यान केंद्रित रखना।

 

जो मनुष्य लौकिक लालसाके वशमें होकर
ऋषि-मुनियोंके हृदयस्थ हरिकी आवाजकी अवगणना करता है, उसे तो
ग्लानिका कफन ओढ़कर अपमानकी श्मशान-भूमिमें ही जलना पड़ता
है; और जो इन्द्रियों और भोगेच्छाको दुर्बल बनाकर लौकिक पदार्थोंसे
दूर रहता है, वह सत्य, सुख; शान्तिकी चादर ओढ़कर सम्मानकी भूमिमें
स्वयं श्रीहरिकी गोदमें सो जाता है।

 

ईश्वरको जाननेवालेका हृदय निर्मल काँचकी हाँड़ीमें जलते
हुए दीपकके समान है। उसका ग्रकाश सर्वत्र फैलता है। खुद उसे तो
फिर डर ही कैसा ?

 

इन असंख्य तारों और नभमण्डलके सिरजनहारकी नजर
तू जहाँ कहीं भी होगा वहीं रहेगी–ऐसा विचारकर सदा-सर्वदा,
सावधान और पवित्र रहना | >

 

किन-किन बातोंसे ईश्वर्की प्राप्ति होती है ? गूँगे, बहरे
और असख्धेपनसे | प्रभुके सिवा न कुछ बोलो, न सुनो और न देखो ।

 

मनुष्यका सच्चा कर्तव्य क्‍या है ? ईश्वरके सिवा किसी
दूसरी चीजसे प्रीति न जोड़ना ।

 

 

सभी हालतोंमें प्रभु और प्रभुभक्तोंका दास होकर रहना ही
अनन्य और एकनिष्ठ भक्ति करना है।

 

अपने प्यरेके श्रवण, मनन, कीर्तन आदियें जो बाधाएँ हैं,
उन्हें दूर करना सच्चे ग्रभु-प्रेमका चिह्न है।.

 

 

ईश्वरकी उपासनामें मनुष्य ज्यों-ज्यों डूबता जाता है,
त्यों-त्यों प्रभुदर्शने लिये उसकी आतुरता बढ़ती जाती है। यदि एक
पलके लिये भी उस प्रभुका साक्षात्कार हो जाता है तो वह उस स्थितिकी
अधिकाधिक इच्छामें लीन हो जाता है।

 

 

Read more***

अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 4

 

1 thought on “अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 5”

Leave a Comment