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अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 6
जिस किसी ने साधु पुरुषों के साथ वास किया है, वही
ईश्वरको पा सका है।
जब मेरी जीभ अद्वितीय ईश्वर्की महिमा ओर गुण गाने
लगी, तब मैंने देखा भूलोक और स्वर्गलोक मेरी ग्रदक्षिणा कर रहे हैं।
हाँ, लोग इसे देख नहीं पाये।
ईश्वरको पानेके लिये जिसका हृदय तरस रहा है, उसीका
जन्म धन्य है, उसी की माता धन्य है। कारण, उसका सर्वस्व तो उस
ईश्वरमें समाया हुआ है।
अगर तुम दुनियाकी खोजमें जाओगे तो दुनिया तुमपर
चढ़ बैठेगी, उससे विमुख होओगे तब ही उसे पार कर सकोगे।
फकीर वह है जिसे आज और कल–किसी दिनकी
परवा नहीं, जो अपने और प्रभुके सम्बन्धके आगे लोक और परलोक
दोनोंको तुच्छ समझता है।
बिना ईश्वरका नाम लिये कोई भी बात विचारने अथवा
करनेसे बड़ी विपत्तिका सामना करना पड़ता है।
जो प्रभुकों पाता है, वह अपने रूपमें न रहकर प्रभुके
रूपमें समा जाता है।
मुँह बंद रखो। ईश्वरके सित्रा दूसरी बात ही मत करो।
मनमें भी ईश्वरके सिवा और किसी बातका चिन्तन न करो | इन्द्रियों और
अपने कार्योके द्वारा वैसे ही काम करो जिनसे ईश्वर खुश हो ।
एकान्तमें प्रभुके साथ बैठनेवालेका लक्षण है संसारकी सब
वस्तुओं और दूसरे सब मनुष्योंकी अपेक्षा प्रभुहीकों अधिक प्यार करना।
यदि माता खीझकर बच्चेको अपनी गोदसे उतार भी देती है तो
भी बच्चा उसीमें अपनी लौ लगाये रहता है और उसीको याद करके
रोता-चिल्लाता और छटपटाता है। उसी प्रकार हे नाथ ! तुम चाहे मेरी
कितनी उपेक्षा करो और मेंरे दुःखोंकी ओर ध्यान न भी दो तो भी मैं तुम्हारे
चरणोंको छोड़कर और कहीं नहीं जा सकता। तुम्हारे चरणोंके सिवा मेरे
लिये कोई गति ही नहीं ।
पति अपनी पतित्रता पत्नी का सबके सामने तिरस्कार भी
करे तो भी वह उसका परित्याग नहीं कर सकती । इसी प्रकार चाहे तुम मुझे,
कितना ही दुतकारो, मैं तुम्हारे अभय-चरणोंको छोड़कर अन्यत्र कहीं जानेकी –
बात भी नहीं सोच सकता | तुम चाहे मेरी ओर आँखें उठाकर भी न देखो,
मुझे तो केवल तुम्हारा और तुम्हारी कृपाका ही अवलम्बन है।
तुम्हारे चरणोंको छोड़कर मैं जाऊँ भी कहाँ ? मेंरे लिये औरआश्रय ही क्या है ? तुम चाहे मेरे कष्टोंका निवारण न करो, मेरा हृदय तो
तुम्हारी ही दयासे द्रवीभूत होगा
।
बादल चाहे किसान को भूल जाय, परंतु किसान तो सदा
निर्निमिष दृष्टि से बादलकी ओर ही ताकता रहता है। इसी प्रकार हे नाथ! मेरी अभिलाषाके एकमात्र विषय तुम ही हो। जो तुम्हें चाहता है, उसे
त्रिभुवनकी सम्पत्तिसे कोई मतलब नहीं।
जिसका चित्त अखिल सौन्दर्यके भण्डार भगवान् नारायण-
के चरणकमलोंका चंचरीक बन चुका है, वह क्या एक नारीके रूपपर
आसक्त हो सकता है ? जबतक जगतके किसी भी पदार्थमें आसक्ति है
तबतक प्रभुचरणोंमें प्रीति कहाँ ?
जो आदमी अपना साश संसार और अपने जीवनको
प्रभुके अर्पण नहीं कर देता, वह दुनियाके इस भयानक जंगलको पार
कर ही नहीं सकता।
शरीर, वाणी, मन तीनों मेंरे नहीं । उन्हें तो मैं ईश्वरको सौंप
चुका हूँ। मेश न लोक है, न परलोक | दोनोंकी जगह हैं परमेश्वर |
बस, यही करना है कि हम केवल भगवानपर निर्भर
करना सीख लें; अपना सब कुछ उन्हें सौंपकर उनके हाथकी कठपुतली
बन जायें | वे जब, जो, जैसे करें—उसीमें हमें आनन्दका अनुभव हो ।
भगवदाश्रय और भगवज्नामसे पापोंका समूल नाश हो
जाता है, यह निश्चित है।
मनुष्यके किसी भी प्रयलसे भगवान्की प्राप्ति असम्भव ही
है। प्रभुकी प्राप्तिका एकमात्र मार्ग प्रेम ही है। यह ग्रेम शुद्ध, सात्ततिक
और निष्काम होना चाहिये।
ईश्वर आनन्दमय हैं, वे लीला-रस-विस्तारके लिये ही
सृष्टि-रचना करते हैं। इस सृष्टिमें उसका अपना कोई स्वार्थ नहीं है।
अनादिकालसे बिलग हुए जीजॉपर अनुग्ह करनेके लिये ही उनके द्वारा
सृष्टिलीलाका सूत्रपात होता है।
परमात्माके दर्शनमें लीन होकर उसका स्मरण करना भी
भूल जाओ, यही ऊँचा-से-ऊँचा स्मरण है।
सारे संसारका एक ग्रास बनाकर भी यदि बालकके मुँहमें
दे दिया जाय तो भी वह भूखा ही रहेगा। जिसका मन खान-पान और
गहने-कपड़ेमें ही बसा है, उसकी स्थिति पशुसे भी गयी-बीती है।
दुनियाकी सारी चीजोंसे मुँह मोड़कर एकमात्र प्रभुकी ओर
लग जाओ । इस दुनियाकों आज नहीं तो कल छोड़ना ही है।
ईश्वर अपने भक्तसे बार-बार कहता है कि तू दुनियासे
विमुख हो जा और मेरी ओर आ । और कुछ चाहे जितना करता रह,
पर याद रख, बिना मेरी ओर आये तुझे सच्ची शान्ति और सुख मिलनेका
ही नहीं । इसलिये पूछता हूँ—कबतक तू मुझसे भागता फिरेगा, कबतक
मुझसे विमुख रहेगा ?
पहनने-ओढ़नेमें सादगीका ख्याल रखना। शौकीनी की पोशाक और आडंबरसे परे ही रहना।
भक्त ज्यों ही प्रभुका सर्वभावसे आश्रय लेता हे, त्यों ही
परमेश्वर उसकी रक्षा, योगक्षेमका सारा भार अपने हाथोंमें ले लेते हैं ।
पूरे जागे हुए मनका यही अर्थ है कि ईश्वरके सिवा दूसरी
किसी चीजपर चले ही नहीं | जो मन हरिकी प्रीतिमें डूब गया, फिर उसे
दूसरे किसीकी क्या जरूरत ?
जैसे मलसे थोनेपर मल दूर नहीं होता, वैसे ही
भोग-प्राप्ति-जनित सुखसे भोगकी अप्राप्तिजनित दुःख नहीं मिट
सकता | कीचड़से कीचड़ धुलता नहीं वरे और भी बढ़ता है।
है प्रभो ! मुझे अपनेसे जरा भी अलग न करिये । मेरे सामने
अपने सिवा और किसीको न आमने दें।
मनुष्यका सच्चा कर्तव्य क्या है ? ईश्वरके सित्रा किसी
दूसरी चीजसे प्रीति न जोड़ना ।
विधि-विधानके सारे जालको छिलन्न-भिन्न करके मन,
बुद्धि, चित्त और प्राणको प्रभुमें एकनिष्ठ होकर अर्पित करे।
संसारके समस्त राग-द्वेषको मिटाकर मनुष्य प्रभु-प्रेम और
हृदयकी सच्ची प्रार्थनाकी साधना करे।
किसी भी लोकिक अथवा पारलौकिक पदार्थको प्रभुसे न
जाँचो । बह तुम्हारी आवश्यकताको तुम्हारी अपेक्षा अधिक जानता है
और तुम्हें जब जिस बस्तुकी आवश्यकता होगी, बह दयालु प्रभु पहुँचा
: देगा। तुम्झरा बस, एक काम है, चारें ओरसे चित्तको समेटकर प्रभुके
चरणोंमें बसा दो।
बिना पश्चात्तापके सच्ची साधनाका आरम्भ नहीं होता।
इसीलिये ईश्वरसाधनाका पूर्व अड्ग है पश्चात्ताप | ईश्वर-स्मरणके समय तो
पश्चात्ताषके विचारोंको भी दूर कर देना चाहिये, जिससे सब इष्ट
वस्तुओंका स्थान एक ईश्वर ग्रहण कर ले।
सहनशील ऋषि और कृतज्ञ धनवानमें श्रेष्ठ कौन ?
सहनशील ऋषि। धनवान् चाहे जितना भला हो, पर उसका मन
लक्ष्मीमें लिप्त रहता है; किंतु एक ऋषिका हृदय तो लगा रहता है अपने
प्रभुमें ।
तुम ग्भुको तो जानते हो न ? तो अब तुम और कुछ भी
न जानो तो कोई हानि नहीं। ईश्वर तुम्हें जानता है न; तो अब कोई दूसरा तुम्हें नहीं जाने तो कोई हानि नहीं ।
जबतक ममत्व है तभीतक दुःख है | जहाँ ममत्व दूर हुआ
कि सब अपना-ही-अपना है। आसक्तिको छोड़कर व्यवहार करो, धन,
स्त्री तथा कुटुम्बियोंमें अपनेपनके भावकों भुलाकर व्यवहार करो।
परपुरुषसे सम्बन्ध रखनेवाली स्त्री बाहरसे घरके कार्योमिं
व्यस्त रहकर भी भीतर-ही-भीतर उस नूतन जारसज्भमरूपी रसायनका ही
आस्वादन करती रहती है। इसी प्रकार बाहरसे तो राजकार्योको भले ही
करते रहो; किंतु हृदयसे सदा उन्हीं हृदयरमणके साथ क्रीडा-विहार करो |
जो स्त्रियोंके हाव-भाव और कटाक्षोंसे घायल नहीं होता,
जिसके चित्तको क्रोधरूपी अग्नि संताप नहीं पहुँचा सकतीं और जिसे
प्रचुर विषयलोभरूपी बाण विद्ध नहीं कर सकते, यानी जिसकी दृष्टिमें
संसारी सभी भोग तृणके समान हैं, वह धीर महापुरुष इस सम्पूर्ण
त्रिलोकीको बात-की-बातमें जीत सकता है।
सर्वोत्तम सिद्धान्त तो यह है कि घरका पूर्ण रीतिसे
परित्याग ही कर देना चाहिये; किंतु यदि घरको पूर्णरीत्या त्याग करनेका
सामर्थ्य न हो तो घरमें रहकर सब कार्य श्रीकृष्णके ही निमित्त-उनके
ग्रीत्यर्थ ही करे; क्योंकि श्रीकृष्ण सभी प्रकारके अनर्थोको मोचन
करनेवाले हैं।
संग किसी का करना ही न चाहिये। सभी प्रकारके संगोंका
एकदम परित्याग कर देना चाहिये; किंतु यदि सब प्रकारके संगोंका
परित्याग करनेमें समर्थ न हो सके तो सज्जन और संत-महात्माओंका ही
संग करना चाहिये, क्योंकि संगसे जो काम उत्पन्न होता है, उसकी
ओषधि संत ही हैं।
जिस प्रकार पतिब्रता स्त्रीको इस बातका पूर्ण विश्वास होता
है कि जिसने मेरा एक बार अग्निके सम्मुख पाणिग्रहण किया है वह मेरी
अवश्य रक्षा करेगा, उसी प्रकार श्रीकृष्पपर भरोसा रखना कि वे हमारी
अवश्य ही रक्षा करेंगे।
भगवानको आत्मनिवेदन करनेपर उनके प्रति भारी दीनता
रखना ।
छायाकों छोड़कर असली आननन््दकों खोजो, तुम्हें शान्ति
मिलेगी ।
जब हृदयमें किसीसे कुछ लेनेकी इच्छा ही नहीं तब जैसा
ही धनी जैसा ही गरीब ।
कीर्ति तो पतिब्रता है, पुंअली नहीं | उसने तो एक ही पुरुष
श्रीहरिको वरण कर लिया है, इसलिये तुम उसकी आशाको छोड़ दो,
छोड़ दो, छोड़ दो।
जिसके हृदयमें सच्ची श्रीकृष्णभक्ति है, उससे बढ़कर श्रेष्ठ.
कोई हो ही नहीं सकता। श्रेष्ठपनेकी यही पराकाष्ठा है।
गल्जाकी धाराकी तरह मनकी गति श्रीहरिकी ही ओर बहती रहे । फिर श्रीकृष्ण दूर नहीं रहते वे तो आकर भक्तसे लिपट जाते हैं ।
यही तो उनकी भक्तवत्सलता है।
भजन, कीर्तन, सत्संग, भगवत्-लीलाओंका स्मरण यही
मुख्य धर्म है।
आम्यकथा कभी श्रवण नहीं करनी चाहिये। ग्राम्यकथा
सुननेसे चित्तमें वे ही बातें स्मरण होती हैं जिससे भजनमें चित्त नहीं
लगता ।
विषयी लोगोंकी बातें करनेसे चित्त विषयमय बन
जाता है।
सुस्वादु भोजन और चमकदार वस्त्रों से परहेज करना चाहिए
हंदयमें अभिमान आते ही सभी साधन नष्ट हो जाते हैं ।
सदा-सर्वत्र ओर सब अवस्थाओंमें भगवनन्नामका जप
करते रहना चाहिये । नाम-जपसे श्रीकृष्ण-चरणोमें प्रीति उत्पन्न होती है ।
मानसिक पूजा ही सर्वश्रेष्ठ पूजा है।
जहाँतक हो, विषयी धनिक पुरुषोंके अन्नसे तो बचना
चाहिये । |
आध्यात्मिक शाख्त्रोंके श्रवण, भगवानके नाम-कीर्तन,
मनकी सरलता, सत्पुरुषोंका समागम, देहाभिमानके त्यागका अभ्यास इन
भागवतधमोके आचरणसे मनुष्यका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, फिर
वह अनायास ही भगवानमें आसक्त हो जाता है।
सोच करनेसे कोई लाभ नहीं है, सोच करनेवाला केवल
दुःख ही भोगता है। जो मनुष्य सुख और दुःख दोनोंको त्याग देता है,
जो ज्ञानसे तृप्त है और बुद्धिमान् है, वही सुख पाता है।
सदाचार के पालन से मनुष्य को दीर्घ आयु, मनचाही संतान और अटूट संपत्ति प्राप्त होती है। इसके माध्यम से अल्पमृत्यु और अन्य संकट भी समाप्त हो जाते हैं।
सब प्रकार से अपने हितके कार्य करने चाहिये | जो बहुत बोलते हैं, उनसे कुछ नहीं होता । संसारमें ऐसा कोई उपाय नहीं, जिससे
सब लोग प्रसन्न हो सकें ।
अरे, विषयोंमें इतना क्यों सम रहा है ? कभी उनसे मुख
नहीं मोड़ता, श्रीहरिका भजन कर जिससे यमके फंदेमें न पड़ना पड़े।
जिस गृहस्थमें सत्य, धर्म, धुति और त्याग नामक चार
धर्म होते हैं, उसे मरकर इस लोकसे परलोकको प्राप्त होनेपर सोच नहीं
करना पड़ता ।
जिसके चित्तसे राग-द्वेषका नाश हो गया है, वही ज्ञानी,
गुणी, दानी और ध्यानी है।
रातको सोना और दिनका खाना भूलकर, सारी ब्रकवाद
छोड़कर दिन-रात श्रीहरिका स्मरण करना चाहिये।
जैसे शत्रु हुए बिना मित्रकी कीमत नहीं मालूम होती, वैसे
ही प्रेमकी शक्ति के व्यवहार का स्थान न हो तो प्रेम की शक्तिका भी पता
नहीं लगता |
लोग भाँति-भाँतिकी चर्चा किया करते हैं, परन्तु उन्हें
अपने भीतरी और बाहरी जीवनकी जाँच तथा समालोचना करनी चाहिये;
अपने कार्य तथा स्वभावकी ओरसे सदा सावधान रहना चाहिये और
सन््मार्ग कभी नहीं छोड़ना चाहिये। यही सर्वोत्तम कार्य है।
प्रेमका परिचय केवल स्तुतियोंसे नहीं मिलता, अनेक
दुःख झेलकर, समस्त स्वार्थको तिलाझ्जलि देकर प्रेमको प्रमाणित करना
पड़ता है ।
जो स्वच्छ मनसे ईश्वस्का स्मरण किया करता है, उसके
लिये किसी दूसरे मित्रकी आवश्यकता नहीं है।
जिसके संगसे सत्य, पवित्रता, दया, मौन, बुद्धि, श्री,
लज्ञा, कोर्ति, क्षमा, शम, दम और सोभाग्यका नाश हो, ऐसे अशान्त,
मूर्ख, स्त्रियोंके वशमें रहनेवाले, देहाभिमानी मनुष्योंका संग कभी नहीं
करना चाहिये।
कुसंग बिल्कुल छोड़ देनी चहिये; क्योंकि उसमें काम,
क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश और अन्तमें सर्वनाश हो जाता है।
मूर्खलोग ही असंतोषी होते हैं। असंतोषकी कोई सीमा
नहीं है, परन्तु संतोषसे ही परम सुख मिलता है।
जो तेरे लिये काटे बोबें, तू उनके लिये भी फूल बो।
धन की लालसा में वह ज़मीन और पहाड़ों को खोदता है, समुद्र यात्रा करता है, राजाओं को प्रसन्न करने के लिए बड़े प्रयास करता है, यहाँ तक कि मचान सिद्धि के लिए श्मशान में रातें गुजारता है। फिर भी उसे कुछ भी हासिल नहीं होता। अंत में वह कहता है, “हे तृष्णा! अब तो मेरा पीछा छोड़।”
प्रेम ही प्रभुका ऐश्वर्य है। जिसको प्रेम मिल जाता है, उसे
सब कुछ मिल जाता है।
जिसके संगसे सत्य, पवित्रता, दया, मौन, बुद्धि, श्री,
लज्ञा, कोर्ति, क्षमा, शम, दम और सोभाग्यका नाश हो, ऐसे अशान्त,
मूर्ख, स्त्रियोंके वशमें रहनेवाले, देहाभिमानी मनुष्योंका संग कभी नहीं
करना चाहिये।
कुसंग बिल्कुल छोड़ देनी चहिये; क्योंकि उसमें काम,
क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश और अन्तमें सर्वनाश हो जाता है।
मूर्खलोग ही असंतोषी होते हैं। असंतोषकी कोई सीमा
नहीं है, परन्तु संतोषसे ही परम सुख मिलता है।
जो तेरे लिये काटे बोबें, तू उनके लिये भी फूल बो।
प्रेम ही प्रभुका ऐश्वर्य है। जिसको प्रेम मिल जाता है, उसे
सब कुछ मिल जाता है।
गोबिन्दके गुण नहीं गानेसे जीवन व्यर्थ जा रहा है, रे
मन ! श्रीहरिको जैसे ही भज जैसे मछली जलको भजती है।
दृढ़निश्चयी, कोमलस्वभाव, इच्ध्रियविजयी, क्रूर कर्म
करनेवालोंका संग न करनेबाला अहिंसक पुरुष इन्द्रियदमन और दानके
द्वारा स्वर्गको जीत लेता है।
ब्रहाचर्य, तप, शौच, संतोष, प्राणिमात्रके साथ मैत्री और
भगवानकी उपासना–ये सबके पालन करने योग्य धर्म हैं।
अच्छी हालतमें सभी बच्धु हैं, बुरी हालतके बन्धु दुर्लभ
हैं। जो बिगड़ी हालतका साथी है, वही सच्चा बन्धु है। मित्र वहीं जो
विपत्तिके समय मनुष्यका साथ दे, न कि बीती हुई बातोंके लिये उलाहना
देनेमें ही सिर खपावे |
नीतिको जाननेवालें, प्रारब्धको जाननेवाले, वेदके ज्ञाता
और शाखके ज्ञाता बहुत हैं, ब्रह्मको जाननेवाले भी मिल सकते हैं, परंतु
अपने अज्ञानको जाननेवाले तो बिरले ही होते हैं।
भगवानकी पूजाके लिये सात पुष्प उपयोगी हैं–
१–अहिंसा, २–इन्द्रिसियम, ३–प्राणियोॉपर दया, ४–क्षमा,
५–मनको वशमें करना, ६–ध्यान और ७–सत्य इन्हीं फूलोंसे भगवान् उसन्न होते हैं।
जैसे पक्षी रातको आकर पेड़पर बसेरा करते हैं और दिन
उगते ही उड़ जाते हैं, बैसी ही हालत कुटुम्बकी समझनी चाहिये।
जो असंतोषी है, वही दरिद्र है; जो इन्द्रियोंके वशमें है,
वही कृपण है; जिसकी बुद्धि विषयोंमें फँसी हुई नहीं है, वही स्वतन्त्न है ।
जिंसके घरसे अतिथि निराश लौट जाता है, उसका
सैकड़ों घड़े घीका होम भी व्यर्थ है। अतिथिकी जात-पाँत, विद्या आदि
न पूछकर देवता समझकर उसका सत्कार करना चाहिये; क्योंकि
अतिथिमें सब देवता बसते हैं।
पिता-माताका सम्मान करो, व्यभिचार मत करो। चोरी
मत करो, झूठी गवाही न दो, दूसरेकी चीजपर मन न चलाओ।
भगवानके नाममें रुचि, जीवॉपर दया और भक्तोंका
सेवन—इन तीन साधनोंके समान और कोई साथन नहीं ।
जो दूसरेको बदनाम करके नाम कमाना चाहते हैं, उनके मुँहपर ऐसी कालिख लगेगी जो मरनेपर भी नहीं घुलेगी।
हसिनाम रूपी गोलीके साथ प्रेम, भक्ति, निष्ठा, एकाग्रता
और निष्ठारूप अनुपान रहनेसे इन्द्रियरूप रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।
माया-मोहको छोड़कर श्रीरमका भजन करना चाहिये।
(ऐसे भजनरूपी) पारसका स्पर्श किये बिना (मनुष्य-शरीररूपी) लोहा
दिन-दिन छीज रहा है।
हम यदि अपने आसुरी गुणोंसे ही दूसरेके साथ बर्ताव
करेंगे, तो उसके अंदरसे भी वे आसुरी गुण निकलकर बर्ताव करने
लगेंगे।
नम्नताका कबच पहन लेनेपर कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं
सकता । कपासकी रूई तलवारसे भी नहीं कटती।
वही पूत सपूत है जो मन लगाकर भगवान्की भक्ति करता
है, जिससे जरा-मरणसे छूटकर अजर-अमर हो जाता है।
चराचर सभी दृश्य केवल मनके कारण हैं । जब यह मन
अमन हो जाता है, तब द्वैतका कोई अनुभव ही नहीं रहता।
जो दूसरेसे लैर रखते हैं, परायी स्त्री और पराये धनकी
ओर ताकते हैं तथा परनिन्दा करते हैं, वे पापी पामर मनुष्य देहथारी
राक्षस हैं।
साथ्रुकी जाति न पूछो, उससे तो ज्ञानका उपदेश लो;
तलवारका मोल करो; म्यानसे क्या काम है ?
सदा सच बोलना चाहियें। कलियुगमें सत्यका आश्रय
लेनेके बाद और किसी साधन-भजनकी आवश्यकता नहीं। सत्य ही
कलियुगकी तपस्या है।
जब मिले तभी मित्रका आदर करो, पीछेसे प्रशंसा करो
और जरूरतके वक्त बिना संकोच सहायता करो।
दुर्जन यदि विद्वान हो तो भी उसका सझ्ग नहीं करना
चाहिये; क्योंकि मणिसे सुशोभित साँप क्या भयानक नहीं होता ?
तन, मन और बचनकी एकता रखनी चाहिये |
जिसने कामनाओंका नाश कर मनको जीत लिया और
शान्ति प्राप्त कर ली, वह राजा हो या रंक, संसारमें उसको सुख-ही-
सुख है।
कुमार्गपर चलनेवाला बिना जीता हुआ मन ही परम
शन्नु है। मनको जीतकर समत्वको प्राप्त होना ही भगवानकी मुख्य
आराधना है।
इच्छाको रानी बना लो या दासी, रानी बनाकर उसकी
आज्ञामें चलोगे तो बह दुःखके कुण्डमें डुबो देगी और दासी बनाकर
अपनी आज्ञामें रक्खोगे तो सारे सुखोंकी प्राप्ति होगी।
जरा-सी कामना रहते भगवान् नहीं मिलते । तागेमें अगर
जरा-सा भी खूदा हो तो वह सूईमें नहीं जा सकता।
शान्त, धर्ममय, प्रिय और सत्यवचन ही सुभाषण हैं।
ऐसी बात कहनी चाहिये जो आत्माके विरुद्ध न हो ओर जिससे किसीको
दुःख न पहुँचे ।
सज्जनको झूठ जहर-सा लगता है और दुर्जनको सच
विषके समान लगता है। वे इनसे वैसे ही दूर भागते हैं, जैसे आगसे
पारा ।
जबतक मनुष्य लौकिक जीवनमें रहता है, तबतक वह
अलौकिक सुख-सम्पत्तिका मजा नहीं पा सकता।
सच्ची माता बह है जो अपने बालकोंके क्रोध, द्वेष और
ईर्ष्यरूपी रोगोंकों प्रेमरूपी दवासे नष्ट करना सिखाती है और असली
वैद्य वह जो आनन्दी स्वभाव और शुभ भावना रखने और उत्तम कर्म करनेकी शिक्षा देता है, जिनसे शरीर और हृदयको बल मिलता है।
आनन्दी स्वभाव ही सबसे श्रेष्ठ दबाका काम देता है।
लोभ महापाप की जड़ है। अधर्मी इसका साथी है, और झूठ इसका सहायक। तृष्णा उसकी स्त्री है, जो उसकी आँखों पर पट्टी बाँध देती है। लोभ में फँसा व्यक्ति न उन्नति और पतन का भान कर पाता है, न ही उसे समय और विनाश का डर रहता है।
जैसे माता अपने गर्भको जतनसे रखती है, जिसमें कहीं
ठेस न लग जाय, इसी प्रकार भक्तिको भी जतनसे छिपाकर रखना
चाहिये।
शशीर के द्वारा किये हुए दोषोंसे मनुष्योंको स्थावर (वृक्ष
आदि) योनि मिलती है, वाणीद्वार किये हुए कमकि दोषसे
पशु-पक्षी-योनि मिलती है और मनद्वार किये हुए कमेके दोषसे
चाण्डालकी योनि मिलती है।
पिताके कर्जको चुकानेबाले तो पुत्र आदि भी होते हैं, परंतु
भव-बन्धनको छुड़ानेवाला तो अपने सिवा और कोई नहीं है।
लालच बुरी बला है। जिन्होंने धन पैदा करके उसे अच्छेकामोंमें लगाना नहीं सीखा, उनकी बुरी दशा होती है, इससे तो धन न
होना ही अच्छा है, जो व्यर्थकी चिन्ता तो न हो।
जो लोग सुखकी आशासे विषयोंके पीछे भटकते रहते हैं, .
उनकी दशा मणिको पानेकी आशासे उसकी परछाईको पकड़नेके लिये
व्यर्थ प्रयास करनेवाले मूढ़ मनुष्यकी-सी है।
दुर्बल मस्तिष्कके मनुष्य ही संकटोंसे घबराकर उसके
वशमें हो जाते हैं, मनोबलसे सम्पन्न पुरुष तो संकटोंको पैरों-तले दबाकर
उनपर सवार हो जाता है।
सत्यके पायेपर खड़े रहनेसे जो आनन्द मिलता है, उसकी
तुलना अन्य किसी प्रकारके आनन्दसे नहीं की जा सकती।
जो मनुष्य सदा चिन्तामें डूबे रहते हैं, निरन्तर भयभीत
रहते हैं, मनको सदा क्रोधसे पूर्ण रखते हैं, वे सदा ही प्राय: आधे बीमार
रहते हैं । चिन्तामें डूबे रहनेवालेको अन्न अच्छी तरह कभी नहीं पचता ।
हृदयकी सरलता और निर्मलता ही ईश्वरीय ज्योति है, यह
ज्योति ही ईश्वरके मार्गको दिखलाती है।
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