welcome in surimaa.com अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 1. अनमोल वचन को अलग अलग ब्लॉग पोस्ट में लिखा गया है आप निचे दिए लिंक पर क्लीक करके और ज्यादा अनमोल वचन पढ़ सकते है.
अनमोल वचन सुविचार संतों की वाणी जो जीवन बदल दे part 1
सच्चिदानंद प्रभु के अनेकों रूप होते हैं, और साधक उस रूप को ही जानता है जिसे उसने अनुभव किया है। ये सभी रूप उसी एक बहुरूपिया हरि के हैं।
जैसे आँख-मिचौनी के खेल में ‘गोल’ छू लेने के बाद चोर नहीं बनना पड़ता, वैसे ही ईश्वर को छूने के बाद सांसारिक बंधनों की परवाह नहीं करनी होती।
ईश्वर को प्राप्त करने के बाद मनुष्य का आकार वही रहता है, लेकिन उससे अशुभ कर्म नहीं होते। ईश्वर को देखने के बाद मनुष्य फिर संसार के जंजाल में नहीं पड़ता, और ईश्वर को छोड़कर उसे शांति नहीं मिलती। ईश्वर की उपस्थिति के बिना एक क्षण भी शांति नहीं मिलती और मृत्यु के समय ईश्वर को छोड़ने में कष्ट होता है।
ईश्वर को पाने के कई उपाय हैं और सभी धर्म इन्हीं उपायों को दर्शाते हैं। हे मानव! तुम संसार की वस्तुओं में भटके हुए हो। जब तुम ईश्वर के लिए रोओगे, तब प्रभु तुरंत तुम्हें अपनी गोद में ले लेंगे।
ईश्वर को देखना चाहते हो तो मायाको हटाना पड़ेगा। यह सत्य मानो कि भगवान न पराए हैं, न तुमसे दूर हैं, और न दुर्लभ हैं।
जिसने तुम्हें इस संसार में भेजा है, उसने तुम्हारे भोजन का प्रबंध पहले से ही कर रखा है। जिनके पास साधना करने की तीव्र इच्छा होती है, भगवान उनके पास सदगुरु भेज देते हैं। गुरु के लिए साधकों को चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है।
मनुष्य देखने में भिन्न-भिन्न रूपों में नजर आते हैं – कोई रूपवान, कोई कुरूप, कोई साधु, कोई असाधु – लेकिन सबके भीतर एक ही ईश्वर विराजमान हैं।
दुष्ट मनुष्यों में भी ईश्वर का निवास होता है, लेकिन उनका संग करना उचित नहीं। साधना की अवस्था में, ऐसे लोगों से जो उपासनाओं का मजाक उड़ाते हैं और धार्मिकों की निंदा करते हैं, दूर रहना चाहिए।.
जब मायाको पहचान लेते हैं, तो वह तुरंत भाग जाती है। दूध में मक्खन होता है, लेकिन उसे मथने से ही मिलता है। इसी प्रकार, जो ईश्वर को जानना चाहते हैं, उन्हें साधना और भजन करना चाहिए।
ज्ञान की मात्रा महत्वपूर्ण नहीं है; एक ज्ञान, बहुत ज्ञान, या अज्ञान, केवल सही साधना से ही सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है।
ईश्वर साकार, निराकार और अन्य रूपों में होते हैं, लेकिन हमें जो अच्छा लगे उसी में विश्वास करना चाहिए और उसे पुकारना चाहिए। मिसरी की डली चाहे जिस दिशा से, किसी भी तरीके से तोड़ी जाए, मीठी ही लगेगी।
मन सफेद कपड़े के समान है; इसे जिस रंग में डुबोओगे, वही रंग चढ़ जाएगा।
व्याकुल प्राण से जो ईश्वर को पुकारते हैं, उन्हें गुरु की आवश्यकता नहीं होती। सच्चा शिष्य गुरु के बाहरी कामों पर ध्यान नहीं देता, बल्कि केवल गुरु की आज्ञाओं का पालन करता है।
पतंग एक बार रोशनी देख लेने के बाद अंधकार में नहीं जाता, और चींटियाँ गुड़ में प्राण दे देती हैं लेकिन वहां से लौटती नहीं। इसी प्रकार, भक्त जब एक बार प्रभु-दर्शन का रसास्वादन कर लेते हैं, तो उसके लिए प्राण दे देते हैं, लेकिन लौटते नहीं।
संसार में रहकर साधना करने वाले ही वास्तव में वीर पुरुष हैं।
संसार में रहकर सभी कार्य करो, लेकिन ध्यान रखो कि कहीं ईश्वर की ओर से मन हटा न जाए। कुलटा स्त्रियाँ माता-पिता और परिवार के साथ रहकर संसार के सभी कार्य करती हैं, लेकिन उनका मन हमेशा अपने प्रिय में लगा रहता है। इसी तरह, तुम्हें भी मन को ईश्वर में लगाकर माता-पिता और परिवार के कार्य करने चाहिए।
ईश्वर के दर्शन की इच्छा रखने वालों को नाम में विश्वास और सत्य का विचार करते रहना चाहिए। मन को स्वतंत्र छोड़ने पर वह विभिन्न संकल्प और विकल्प करने लगता है, लेकिन विचार रूपी अंकुश से नियंत्रित करने पर वह स्थिर हो जाता है।
हरिनाम सुनते ही जिनकी आँखों से सच्चे प्रेमाश्रु बहने लगते हैं, वही नाम-प्रेमी हैं।
धैर्यपूर्वक साधना करते रहो, रत्न अवश्य मिलेगा। समय पर ईश्वर की कृपा निश्चित ही तुम्हारे ऊपर होगी।
साधुसंग को धर्म का सबसे महत्वपूर्ण साधन मानना चाहिए।
मृत्यु के समय मन में जो भाव होता है, वैसा ही अगले जन्म में अनुभव होता है, इसलिए जीवनभर भगवान का स्मरण करना आवश्यक है, ताकि मृत्यु के समय केवल भगवान ही याद आएं।
बालक की तरह रोना ही साधक की एकमात्र शक्ति है। फल के बड़े होने पर फूल स्वाभाविक रूप से गिर जाता है; इसी प्रकार, देवत्व के बढ़ने से नरत्व समाप्त हो जाता है।
मनुष्य तब तक धर्म के विषय में तर्क-वितर्क करता है जब तक उसे धर्म का वास्तविक अनुभव नहीं होता। अनुभव प्राप्त होने पर वह चुपचाप साधना करने लगता है।
जब साधक गदगद होकर पुकारता है, तब प्रभु को विलम्ब नहीं करना पड़ता। ईश्वर के अनन्त नाम, रूप और भाव हैं; उन्हें किसी भी नाम, रूप या भाव से पुकारा जाए, वह सभी की पुकार सुन सकते हैं और सभी की मनोकामनाएं पूरी कर सकते हैं। परमात्मा एक ही हैं, लेकिन उन्हें अनेक भावों से पूजा जाता है।
जिस हृदय में ईश्वर का प्रेम प्रकट हो जाता है, वहाँ से काम, क्रोध, अहंकार और अन्य विकार भाग जाते हैं। ये विकार फिर ठहर नहीं सकते। सभी धर्मों का आदर करें, लेकिन अपने मन को अपनी ही धर्मनिष्ठा से तृप्त करें। साधना और भजन के माध्यम से, मनुष्य ईश्वर को प्राप्त करके अपने असली घर लौट जाता है।
ईश्वर हमारे अपने हैं, जैसे हमारी माता। उनके पास हम अपनी भावनाओं और संघर्षों को व्यक्त कर सकते हैं। ईश्वर अपने आगमन से पहले साधक के हृदय में प्रेम, भक्ति, विश्वास और व्याकुलता पहले ही भर देते हैं। हृदय को स्थिर करना आवश्यक है, क्योंकि जब तक हृदय में कामना की हवा बहती रहती है, तब तक ईश्वर का दर्शन संभव नहीं है।
सच्चे भक्त का विश्वास और भक्ति कभी समाप्त नहीं होती। भगवद चर्चा होते ही भक्त उन्मत्त हो उठता है। विश्वासी भक्त ईश्वर के अलावा सांसारिक धन और मान को कोई महत्व नहीं देता। संसार में ईश्वर ही सत्य हैं और बाकी सब असत्य।
दुर्लभ मानव-जन्म प्राप्त कर जो व्यक्ति ईश्वर की प्राप्ति के लिए प्रयास नहीं करता, उसका जन्म व्यर्थ है। ईश्वर की भक्ति और अटूट निष्ठा के साथ संसार के सभी कार्य करने से जीव संसार-बंधन में नहीं फंसता। जो ईश्वर के चरण-कमल पकड़ लेता है, वह संसार से नहीं डरता।
ईश्वर के चरण-कमल पकड़कर संसार का काम करो, बंधन का डर नहीं रहेगा। पहले ईश्वर प्राप्ति का प्रयास करो, फिर जो इच्छा हो, कर सकते हो। जो ईश्वर पर निर्भर करते हैं, उन्हें ईश्वर वैसे ही मार्गदर्शन करते हैं जैसे वे चाहते हैं; उनकी अपनी कोई चेष्टा नहीं होती।
गुरु लाखों मिलते हैं, लेकिन सच्चा शिष्य मिलना दुर्लभ है। उपदेश करने वाले बहुत मिलते हैं, लेकिन उपदेश पालन करने वाले विरले ही होते हैं। ईश्वर का प्रकाश सबके हृदय में समान होता है, लेकिन यह साधुओं के हृदय में अधिक प्रकाशित होता है।
समाधि की अवस्था में मन को उतना ही आनंद मिलता है जितना जीती मछली को तालाब में छोड़ने से मिलता है। ज्ञान पुरुष है, भक्ति स्त्री है। पुरुष मायानारी से तभी छूट सकता है जब वह परम बैरागी हो, लेकिन भक्ति से माया सहज ही छूट जाती है।
काजल की कोठरी में कितनी भी सावधानी रखो, कुछ न कुछ कसा जरूर लगेगा। इसी प्रकार, युवक-युवती सावधानी के साथ रहें, लेकिन कुछ न कुछ काम जागेगा ही। दर्पण स्वच्छ होने पर उसमें मुंह दिखायी देता है, इसी प्रकार हृदय के स्वच्छ होते ही उसमें भगवान का रूप प्रकट होता है।
ईश्वर को अपना मानकर किसी एक भाव से उनकी सेवा-पूजा करने का नाम भक्तियोग है। कलियुग में, अन्य योगों की तुलना में भक्तियोग से सहज ही ईश्वर की प्राप्ति होती है। ध्यान करना चाहते हो तो तीन स्थानों पर कर सकते हो—मन में, घर के कोने में और वन में।
केवल ईश्वर ज्ञान ही ज्ञान है और बाकी सब अज्ञान है। भगवान भक्तिके बश हैं, उन्हें अपनी ओर ममता और प्रेम चाहिए। जिसका मन ईश्वर के प्रेम से भर गया है, उसे संसार का कोई सुख अच्छा नहीं लगता। जो प्रभु के प्रेम में बाबला हो गया है और सब कुछ उनके चरणों में अर्पण कर दिया है, उसका सारा भार प्रभु स्वयं अपने ऊपर ले लेते हैं।
संसार में आकर भगवान के विषय में तर्क-वितर्क करने से कोई लाभ नहीं होता। जो प्रभु को प्राप्त कर आनंद का अनुभव करता है, वही धन्य है। सभी मनुष्य जन्म-जन्मान्तर में कभी न कभी भगवान को देखेंगे ही।
यदि सूई के छेद में धागा डालना चाहते हो तो उसे पतला करो, और यदि मन को ईश्वर में पिरोना चाहते हो तो दीन-हीन बनो। भक्त का हृदय भगवान की बैठक है। संसार में जो जितना सह सकता है, वही उतना महात्मा है।
जिसका मन रूपी चुंबक भगवान के चरण-कमलों की ओर रहता है, उसे डूबने या राह भूलने का डर नहीं होता। साधना की राह में कई बार गिरना-उठना होता है, लेकिन प्रयास करने पर साधना सही हो जाती है।
सत्य बोलना हमेशा आवश्यक है। कलियुग में सत्य का आश्रय लेने के बाद अन्य किसी साधन की आवश्यकता नहीं। सत्य ही कलियुग की तपस्या है। संसार के यश और निंदा की परवाह किए बिना ईश्वर के मार्ग पर चलना चाहिए।
एक महात्मा की कृपा से कितने ही जीवों का उद्धार हो जाता है। साधक के भीतर यदि कोई आसक्ति है, तो सारी साधना व्यर्थ हो जाएगी। जो ईश्वर में नित्य डूबा रहता है, उसकी प्रेम-भक्ति कभी सूखती नहीं। लेकिन दो-एक दिन की भक्ति से संतुष्ट रहने वाला, सीके पर रखे हुए रिसते घड़े के जल की तरह, भक्ति जल्दी ही सूख जाती है।
संसार में ईश्वर व्याप्त हैं, लेकिन उन्हें प्राप्त करने के लिए साधना करनी पड़ती है। जिस मन से साधना करनी है, वही यदि विषयासक्त हो जाए तो साधना असंभव हो जाती है।
जल में नाव होना हानिकारक नहीं है, लेकिन नाव में जल नहीं होना चाहिए। साधक संसार में रह सकता है, लेकिन उसके भीतर संसार नहीं होना चाहिए।
मन और मुख को एक करना ही साधना है। ईश्वर महान होने के बावजूद, अपने भक्त के तुच्छ उपहार को प्रेमपूर्वक स्वीकार करते हैं।
जिसके मन में ईश्वर के नाम में रुचि है और भगवान में लगन लग गई है, उसका संसार-बिकार अवश्य दूर होगा और भगवान की कृपा निश्चित रूप से प्राप्त होगी।
अपने सभी कर्मफलों को ईश्वर को अर्पण कर दो और किसी फल की कामना न करो। वासना के लेशमात्र भी होने पर भगवान नहीं मिल सकते। अहंकार के जाते ही सब जंजाल दूर हो जाते हैं। “मैं प्रभु का दास हूँ, मैं उसकी संतान हूँ, मैं उसका अंश हूँ”—यह सतत अहंकार अच्छे हैं। ऐसे अभिमान से भगवान मिलते हैं।
जिसकी साधना यहाँ सही है, वही वहाँ भी सही होती है, और जिस साधना की कमी यहाँ है, वही वहाँ भी अनुभव की जाती है। हर व्यक्ति को वैसा ही फल मिलता है जैसा उसका भाव होता है।
सफेद कपड़े पर थोड़ी भी स्याही का दाग साफ नजर आता है; इसी तरह, पवित्र व्यक्तियों का थोड़ा भी दोष अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। जिस घर में प्रतिदिन हरि-कीर्तन होता है, वहाँ कलियुग का प्रभाव नहीं हो सकता।
ईश्वर के आश्रय में रहते हुए, “यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ” जैसी चिंताओं में मत पड़िए। विश्वासी भक्त भले ही जीवनभर भगवान का दर्शन न भी पाए, लेकिन वह भगवान को नहीं छोड़ता।
संसार कच्चे कुएँ की तरह है—इसके किनारे पर सावधानी से खड़े रहना चाहिए। थोड़ा असावधानी भी आपके गिरने का कारण बन सकती है, और निकलना कठिन हो सकता है।
संसार के काम करते रहें, लेकिन अपने मन को हर समय संसार से विमुख रखें। कामिनी और कांचन ही माया के प्रतीक हैं। इनकी आकर्षण में फंसने से जीव की सारी स्वाधीनता चली जाती है और भौतिक संसार में बंधन में पड़ जाता है।
संसार में सुख-दुख तो रहेगा ही, लेकिन ईश्वर के चरण-कमल में मन लगाना एक अलग बात है। दुःख के हाथ से मुक्ति पाने का और कोई उपाय नहीं है। साधु-संग से जीव का मायारूपी नशा उतर जाता है।
यदि कोई ऐसा व्यक्ति हो जिससे दस लोग अच्छी प्रेरणा प्राप्त करते हों और शुभ कार्यों में लगते हों, तो समझना चाहिए कि उसके भीतर भगवान की विशेष विभूति है। जो सोचता है, “मैं जीव हूँ,” वह जीव है; और जो सोचता है, “मैं शिव हूँ,” वह शिव है।
ईश्वर को पकड़े रखने से इहलौकिक और पारलौकिक अनेक लाभ होते हैं, लेकिन जब ईश्वर को त्यागते हैं, तो सब कुछ व्यर्थ हो जाता है। भगवान की प्राप्ति के लिए व्याकुल होकर रोना ही उपाय है। लोग बहुत कुछ पा लेने के लिए रोते हैं, लेकिन भगवान के लिए क्या कोई एक बूँद भी आँसू गिराता है? भगवान के लिए आँसू बहाओ, तब उन्हें प्राप्त करोगे।
ईश्वर पाने का एकमात्र उपाय विश्वास है। जिसको विश्वास हो गया, उसका काम बन गया। मुँह में राम और बगल में छुरी नहीं रखना चाहिए। ईश्वर के नाम में ऐसा विश्वास होना चाहिए कि नाम लेने से अब पाप नहीं रह सकते और बंधन समाप्त हो सकते हैं।
ईश्वर एकमात्र गुरु हैं। अज्ञान के चलते चौरासी का चक्कर चलता है। दूसरे को सिखाने के लिए व्याकुल न हों। जो आपको ज्ञान और भक्ति प्राप्त कराए, वही उपाय करें और भगवान के चरण-कमलों में मन लगाएं। परनिंदा और परचर्चा से बचें।
विश्वास तारता है और अहंकार डुबाता है। पहले भगवान को प्राप्त करने की कोशिश करें और फिर संसार की इच्छाएं रखें। सात्तिक साधक के बाहरी दिखावे का कोई महत्व नहीं होता। मूर्ख जो बाहरी दिखावे के लिए रंगीन वस्त्र पहनता है, उसका लोक और परलोक दोनों ही नष्ट हो जाते हैं।
साधक संसार का बोझ सिर पर उठाकर भी भगवान की ओर देख सकते हैं। जैसे-जैसे विषयासक्ति घटेगी, ईश्वर के प्रति प्रेम बढ़ेगा। देह को चाहे जितना सुख-दुख हो, भक्त उसकी परवाह नहीं करते। उनका ध्यान हमेशा भगवान के चरणों में लगा रहता है।
ज्ञान होने से व्यक्ति का स्वभाव बदल जाता है। स्वामी के जीवित रहते हुए जो स्त्री ब्रह्मचर्य का पालन करती है, वह नारी नहीं, बल्कि भगवती है। ईश्वर का प्रेम पाने के बाद व्यक्ति बाहरी वस्तुओं को भूल जाता है और यहाँ तक कि अपने शरीर को भी भुला देता है। जब ऐसी अवस्था आती है, तो समझिए कि प्रेम प्राप्त हुआ।
संसार में आत्मपतन स्वाभाविक है। अहंकार करना व्यर्थ है। जीवन और यौवन सब दो घड़ी के सपने की तरह हैं। माता से भक्ति की माँग करने पर वह अवश्य देती हैं, इसमें कोई संदेह नहीं।
ज्ञान प्राप्ति से कर्तव्य बोझ नहीं रहता। उस अवस्था में भगवान सबका भार ले लेते हैं। जिसे ईश्वर के होने का सच्चा बोध हो गया है, वह सांसारिक माया में नहीं पड़ता।
पुस्तकें पढ़ो, श्लोक कहो, लेकिन व्याकुल होकर उनमें डुबकी लगाना आवश्यक है। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए गुरु के वाक्य पर विश्वास करो और कर्म करो। यदि गुरु नहीं हैं, तो भगवान के पास व्याकुल मन से प्रार्थना करो। वे कैसे हैं, यह उनकी कृपा से ही पता चलेगा।
सांसारिक पुरुष धन, मान, विषय आदि असार वस्तुओं का संग्रह कर सुख की आशा करते हैं, लेकिन ये सब किसी प्रकार का सुख नहीं दे सकते। भगवान जीव को पाप में लिपटा नहीं रहने देते; वह अपनी दया से तुरंत उसका उद्धार कर देते हैं।
ईश्वर सभी को देखता है, लेकिन जब तक वह अपनी इच्छाओं से प्रकट नहीं होते, तब तक कोई उन्हें देख या पहचान नहीं सकता। पूर्व दिशा की ओर जितना चलेगे, पश्चिम दिशा उतनी ही दूर होती जाएगी। इसी तरह, धर्मपथ पर जितना अग्रसर होंगे, संसार उतना ही पीछे छूटेगा।
कलियुग में प्रेमपूर्ण ईश्वर भक्ति ही सर्वोत्तम और सार वस्तु है। प्रेम से हरिनाम गाओ और कीर्तन में मस्त होकर नाचो। इससे आप संसार से तर जाएंगे और ईश्वर की प्राप्ति होगी।
गुरु ही माता, गुरु ही पिता और गुरु ही कुलदेवता हैं। महान संकटों में वही हमारी रक्षा करने वाले होते हैं। यह काया, वाक और मन सब उनके चरणों में अर्पण हैं। कीर्तन से स्वधर्म की वृद्धि होती है और मुक्ति की प्राप्ति भी होती है।
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