मित्रों आप सभी लोगों को नमस्कार कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में इस ब्लॉग पोस्ट पर आपको मिलेगा,ब्लॉग वेबपेज पर स्पीड से दिखे जिससे आप लोगों को सुविधा हो इसलिए इसे 7 पार्ट में बनाया गया है.
पद – राग गौड़ी,कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में
उनमनि चढ्या महारस पीवै।
अवधू मेरा मन मतिवारा, उन्मनि चढ़ा मगन रस पीवै त्रिभवन भया उजियारा॥टेक॥
गुड़ करि ग्यान ध्याँन कर महुवा भव भाठी करि भारा॥
सुषमन नारी सहजि समानी, पीयै पीवनहारा॥
दोइ पुड़ जोड़ि चिगाई भाठी, चुया महा रस भारी॥
काम क्रोध दोइ किया पलीता, छुटि गई संसारी॥
सुंनि मंडल मैं मँदला बाजै, तहाँ मेरा मन नाचै।
गुर प्रसादि अमृत फल पाया, सहजि सुषमनाँ काछै॥
पूरा मिल्या तबैं सुख उपज्यौ, तन की तपनि बुझानी।
कहै कबीर भवबंधन छूटै, जोतिहिं जोति समानी॥
*टिप्पणी:* ख-पूरा मिल्या तबै सुष उपनाँ॥
छाकि परो आतम मतिवारा, पीवत राँम रस करत बिचारा॥
बहुत मोलि महँगे गुड़ पावा, लै कसाब रस राँम चुवावा॥
तन पाटन मैं कीन्ह पसारा, माँगि माँगि रस पीवै बिचारा॥
कहै कबीर फाबी मतिवारी, पीवत राम रस लगी खुमारी॥
बोलौ भाई राम की दुहाई,
इहि रसि सिव सनकादिक माते, पीवत अजहूँ न अघाई॥
इला प्यंगुला भाठी कीन्हीं, ब्रह्म अगनि परजारी।
ससि हरसूर द्वार दस मूँदें, लागी जोग जुग तारी॥
मन मतिवाला पीवै राँम रस, दूजा कछू न सुहाई।
उलटी गंग नीर बहि आया, अमृत धार चुवाई॥
पंच जने सो सँग करि लीन्हें, चलत खुमारी लागी।
प्रेम पियालै पीवन लागे, सोवत नागिनी जागी॥
सहज सुंनि मैं जिनि रस चाष्या सतगुर थैं सुधि पाई॥
दास कबीर इही रसि माता, कबहुँ उछकि न जाई॥
राम रस पाईया रे, ताथैं बिसरि गये रस और॥टेक॥
रे मन तेरा को नहीं खैंचि लेइ जिनि भार।
विरषि बसेरा पंषि का, ऐसा माया जाल॥
और मरत को रोइए, जो आपा थिर न रहाइ।
जो उपज्या सो बिन सिहै ताथैं दुख करि मरै बलाइ।
जहाँ उपज्या तहाँ फिरि रच्या रे, पीवत मरदन लाग॥
कहै कबीर चित चेतिया, ताथैं राम सुमरि बैराग॥
राम चरन मनि भाये रे।
अस ढरि जाहु राम के करहा, प्रेम प्रीतिल्यौ लाये रे॥
आँब चढ़ी अँबली रे अँबली बबूर चढ़ी नगबेली रे।
द्वै रथ चढ़ि गयौ राँड कौ करहा, मन पाटी की सैली रे॥
कंकर कूई पतालि पनियाँ, सूनै बूँद बिकाई रे।
बजर परौ इति मथुरा नगरी, काँन्ह पियासा जाई रे॥
एक दहिड़िया दही जमायौ, दूसरी परि गई साई रे॥
न्यूँति जिमाऊ अपनौ करहा छार मुनिस कौ डारी रे।
इहि बँनि बाजै मदन भेरि रे, उहि बँनि बाजे तूरा रे।
इहि बँनि खेले राही रुकमनि, उहिं बनि कान्हा अहीरा रे।
आसि पासि तुरसी कौ बिरवा, माँहि द्वारिका गाँऊ रे।
तहाँ मेरो ठाकुर राम राइ है, भगत कबीरा नाऊँ रे॥
थिर न रहै चित थिर न रहै, च्यंतामणि तुम्ह कारणि हौ।
मन मैले मैं फिर फिर आहौं, तुम सुनहु न दुख बिसरावन हो॥टेक॥
प्रेम खटोलवा कसि कसि बाँध्यो, बिरह बान तिहि लागू हो।
तिहि चढ़ि इँदऊ करत गवँसिया, अंतर जमवा जागू हो॥
महरु मछा मारि न जाँनै, गहरै पैठा धाई हो।
दिन इक मगरमछ लै खैहै, तब को रखिहै बंधन भाई हो॥
महरू नाम हरइये जाँनै, सबब न बूझै बौरा हो।
चारै लाइ सकल जग खायो, तऊ न भेट निसहरा हो॥
जो महराज चाहौ महरईये, तो नाथौ ए मन बौरा हो।
तारी लाइकैं सिष्टि बिचारौ, तब गाहि भेटि निसहुरा हो॥
टिकुटि भइ काँन्ह के कारणि, भ्रमि भ्रमि तीरथ कीन्हाँ हो।
सो पद देहु मोरि मदन मनोहर, जिहि पदि हरि मैं चीन्हाँ हो॥
दास कबीर कीन्ह अस गहरा, बूझै कोई महरा हो।
यह संसार जात मैं देखौं, ठाढ़ौ रहौ कि निहुरा हो॥
बीनती एक राम सुनि थोरी, अब न बचाइ राखि पति मोरी॥टेक॥
जैसैं मंदला तुमहि बजावा, तैसैं नाचत मैं दुख पावा॥
जे मसि लागी सबै छुड़ावौ, अब मोहिं जनि बहु रूप कछावौ॥
कहैं कबीर मेरी नाच उठावौ, तुम्हारे चरन कँवल दिखलावो॥
मन थिर रहै न घर है मेरा, इन मन घर जारे बहुतेरा॥टेक॥
घर तजि बन बाहरि कियौ बास, घर बने देखौं दोऊ निरास॥
जहाँ जाँऊँ तहाँ सोग संताप, जुरा मरण कौ अधिक बियाप॥
कहै कबीर चरन तोहि बंदा, घर मैं घर दे परमानंदा॥
कैसे नगरि करौं कुटवारी, चंचल पुरिष बिचषन नारी॥टेक॥
बैल बियाइ गाइ भई बाँझ, बछरा दूहै तीन्यूँ साँझ॥
मकड़ी धरि माषी छछि हारी, मास पसारि चीन्ह रखवारी॥
मूसा खेटव नाव बिलइया, मीडक सोवै साप पहरइया॥
निति उठि स्याल स्यंघ सूँ झूझै, कहै कबीर कोई बिरला बूझै॥
माई रे चूँन बिलूँटा खाई, वाघनि संगि भई सबहिन कै, खसम न भेद लहाई॥
सब घर फोरि बिलूँटा खायौ, कोई न जानैं भेव।
खसम निपूतौ आँगणि सूतौ, राँड न देई लेव॥
पाडोसनि पनि भई बिराँनी, माँहि हुई घर घालै।
पंच सखी मिलि मंगल गाँवैं, यह दुख याकौं सालै॥
द्वै द्वै दीपक धरि धरि जोया, मंदिर सादा अँधारा।
घर घेहर सब आप सवारथ, न हरि किया पसारा॥
होत उजाड़ सबै कोई जानै, सब काहू मनि भावै।
कहै कबीर मिलै जौ सतगुर, तौ यहु चून छुड़ावै॥
*टिप्पणी:* ख-खसम न भेद लषाई।
विषिया अजहू सख आसा, हूँण न देइ हरि के चरन निवासा॥टेक॥
सुख माँगे दुख पहली आवै, तातै सुख माँग्याँ नहीं भावै॥
जा सुख थें सिव बिरंचि डराँनाँ, सो मुख हमहु साच करि जाना।
सुखि छ्या ड्या तब सब दुख भागा, गुर के सबद मेरा मन लागा॥
निस बासुरि विषैतनाँ उपगार, विषई नरकि न जाताँ बार।
कहैं कबीर चंचल मति त्यागी, तब केवल राम नाम त्यौं लागी॥
*टिप्पणी:* ख-हौन देई न हरि के चरन निवास॥
तुम्ह गारडू मैं विष का माता, कहै न जिवावौ मेरे अमृतदाता॥
संसार भवंगम डसिले काया, अरु दुखदारन व्यापै तेरी माया॥
सापनि क पिटारै जागे, अह निसी रोवै ताकूँ फिरि फिरि लागैं।
कहै कबीर को को नहीं राखे, राम रसाँइन जिनि जिनि चाखे॥
माया तजूँ तजी नहीं जाइ, फिर फिर माया मोहे लपटाइ॥टेक॥
माया आदर माया मान, माया नहीं तहाँ ब्रह्म गियाँन॥
माया रस माया कर जाँन, माया करनि ततै परान॥
माया जप तप माया जोग, माया बाँधे सबही लोग॥
माया जल थलि माया आकासि, माया व्यापि रही चहुँ पासि॥
माया माता माया पिता, असि माया अस्तरी सुता॥
माया मारि करै व्यौहार, कहैं कबीर मेरे राम अधार॥
ग्रिह जिनि जाँनी रूड़ौ रे।
कंचन कलस उठाइ लै मंदिर, राम कहै बिन धूरौ रे॥टेक॥
इन ग्रिह मन डहके सबहिन के, काहू कौ पर्यो न पूरौ रे॥
राजा राणाँ राव छत्रापति, जरि भये भसम कौं कूरौ रे॥
सबथैं नीकौ संत मँडलिया, हरि भगतनि कौं भेरौ रे॥
गोविंद के गुन बैठे गैहैं, खैहैं, टूकौ टेरौ रे॥
ऐसौं जानि जाँपौं जगजीवन, जग सूँ तिनका तोरौं रे॥
कहै कबीर राम भजबे कौं, एक आध कोई सूरौ रे॥
रजसि मीन देखी बहु पानी, काल जाल की खबरि न जानी॥टेक॥
गारै गरबनौ औघट घाट, सो जल छाड़ि बिकानौं हाट॥
बँध्यो न जानैं जल उदमादि, कहै कबीर सब मोहे स्वादि॥
काहै रे मन दह दिस धावै, विषिया संगि संतोष न पावै॥टेक॥
जहाँ जहाँ कलपैं तहाँ बंधना, तरन कौ थाल कियौं तैं रथनाँ॥
जौ पै सुख पइयत इन माँही, तौ राज छाड़ि कत बन कौं जाँहीं॥
आनँद सहत तजौ विष नारी, अब क्या झीषै पतित भिषारी॥
कहै कबीर यहु सुख दिन चारि, तजि विषिया भजि चरन मुरारि॥
जियरा जाहि गौ मैं जाँनाँ, जो देखा सो बहुरि न पेष्या माटी सूँ लपटाँनाँ॥
बाक्ल बसतर किया पहरिबा, का तप बनखंडि बास॥
कहा मूगध रे पाँहन पूजै, काजल डारै गाता॥
कहै कबीर सुर मुनि उपदेसा, लोका पंथि लगाई॥
सुनौ संतौ सुमिरौ भगत जन, हरि बिन जनम गवाई॥
हरि ठग जग कौ ठगौरी लाई, हरि कै वियोग कैसे जीऊँ मेरी माई॥टेक॥
कौन पूरिष कौ काकी नारी, अभिअंतरि तुम्ह लेहु बिचारी॥
कौन पूत को काको बाप, कौन मरैं कौन करै संताप॥
कहै कबीर ठग सौं मन माना, गई ठगौरी ठग पहिचाना॥
साईं मेरे साजि दई एक डोली, हस्त लोक अरु मैं तैं बोली॥टेक॥
हक झंझर सम सूत खटोला, त्रिस्ना बाद चहुँ दिसि डोला॥
पाँच कहार का भरम न जाना, एकै कह्या एक नहीं माना॥
भूमर थाम उहार न छावा, नैहर जात बहुत दुख पावा॥
कहै कबीर बन बहुत दुख सहिये, राम प्रीति करि संगही रहिये॥
बिनसि जाइ कागद की गुड़िया, जब लग पवन तबै उग उड़िया॥टेक॥
गुड़िया कौ सबद अनाहद बोलै, खसम लियै कर डोरी डोलै॥
पवन थक्यो गुड़िया ठहरानी, सीस धनै धुनि रोवै प्राँनी।
कहै कबीर भजि सारँगपानी, नाहीं तर ह्नैहै खैंचा तानी॥
मन रे तन कागद का पुतला।
लागै बूँद बिनसि जाइ छिन में, गरब कर क्या इतना॥
माटी खोदहिं भीत उसारैं, अंध कहै घर मेरा॥
आवै तलब बाँधि लै चालैं, बहुरि न करिहै फेरा॥
खोट कपट करि यहु धन जोर्या, लै धरती मैं गाड्यौ॥
रोक्यो घटि साँस नहीं निकसै, ठौर ठौर सब छाड्यौ॥
कहै कबीर नट नाटिक थाके, मदला कौन बजावै॥
गये पषनियाँ उझरी बाजी, को काहू कै आवै॥92॥
झूठे तन कौ कहा रखइये, मरिये तौ पल भरि रहण न पइये॥
षीर षाँढ़ घृत प्यंउ सँवारा, प्राँन गये ले बाहरि जारा॥
चोवा चंदन चरनत अंगा, सो तन जरै काठ के संगा॥
दास कबीर यहु कीन्ह बिचारा, इक दिन ह्नैहै हाल हमारा॥
देखहुक यह तन जरता है, घड़ी पहर बिलँबौ रे भाई जरता है॥
काहै कौ एता किया पसारा, यह तन जरि करि ह्नैहै छारा॥
नव तन द्वादस लागा आगि, मुगध न चेतै नख सिख जागी॥
काम क्रोध घट भरे बिकारा, आपहिं आप जरै संसारा॥
कहै कबीर हम मृतक समाँनाँ, राम नाम छूटै अभिमाना॥
तन राखनहारा को नाहीं, तुम्ह सोच विचारि देखौ मन माँही॥
जोर कुटुंब आपनौ करि पारौं, मुंड ठोकि ले बाहरि जारौं॥
दगाबाज लूटैं अरु रोवै, जारि गाडि षुर षोजहिं षोवै॥
कहत कबीर सुनहुँ रे लोई, हरि बिन राखनहार न कोई॥
अब क्या सोचै आइ बनी, सिर पर साहिब राम धनी॥
दिन दिन पाप बहुत मैं कीन्हा, नहीं गोब्यंद की संक मनीं॥
लेट्यो भोमि बहुत पछितानी, लालचि लागौ करत धनीं॥
छूटी फौज आँनि गढ़ घेरौं, उड़ि गयौ गूडर छाड़ि तनीं॥
पकरौं हंस जम ले चाल्यौ मंदिर रोवै नारि धनीं॥
कहै कबीर राम कित सुमिरत, चीन्हत नाहिन एक चिनी॥
जब जाइ आइ पड़ोसी घेरौं, छाँड़ि चल्यौ तजि पुरिष पनीं॥
सुबटा डरपत रहु मेरे भाई, तोहि डर ई देत बिलाई॥
तीनि बार रूँधै इक दिन मैं, कबहुँ कै खता खवाई॥
या मंजारी मुगध न माँनै, सब दुनियाँ डहकाई॥
राणाँ राव रंक कौ व्यापै, करि करि प्रीति सवाई॥
कहत कबीर सुनहुँ रे सुबटा, उबरै हरि सरनाई॥
लाषौ माँहि तै लेत अचानक, काह न देत दिखाई॥
का माँगूँ कुछ थिर न रहाई, देखत नैन चल्या जग जाई॥ टेक॥
इक लष पूत सवा लष नाती, ता रावन घरि दिया न बाती॥
लंका सी कोट समंद सी खाई, ता रावन का खबरि न पाई॥
आवत संग जात सँगाती, कहा भयौ दरि बाँधे हाथी॥
कहै कबीर अंत की बारी, हाथ झाड़ि जैसे चले जुवारी॥
राम थोरे दिन को का धन करना, धंधा बहुत निहाइति मरना॥टेक॥
कोटि धज साह हस्ती बँधी राजा, क्रिपन को धन कौनें काजा॥
धन कै गरबि राम नहीं जाना, नागा ह्नै जंम पै गुदराँनाँ॥
कहै कबीर चेतहु रे भाई, हंस गया कछु संगि न जाई॥
काह कूँ माया दुख करि जोरी, हाथि चूँन गज पाँच पछेवरी॥टेक॥
नाँ को बँध न भाई साँथी, बाँधे रहे तुरंगम हाथी॥
मैड़ो महल बावड़ी छाजा, छाड़ि गये सब भूपति राजा॥
कहै कबीर राम ल्यौ लाई, धरी रही माया काहू खाई॥
*टिप्पणी:* ख-मैडा पहल अरु सोभित छाजा।
माया का रस षाण न पावा, तह लग जम बिलवा ह्नै धावा॥टेक॥
अनेक जतन करि गाड़ि दुराई, काहू साँची काहू खाई॥
तिल तिल करि यहु माया जोरी, चलति बेर तिणाँ ज्यूँ तासी॥
कहै कबीर हूँ ताँका दास, माया माँहैं रहैं उदास॥
मेरी मेरी दुनिया करते, मोह मछर तन धरते,
आगै पीर मुकदम होते, वै भी गये यौं करते॥टेक॥
जिसकी ममा चचा पुनि किसका, किसका पंगड़ा जोई॥
यहु संसार बजार मंड्या है, जानैगा जग कोई॥
मैं परदेसी काहि पुकारौं, इहाँ नहीं को मेरा॥
यहु संसार ढूँढ़ि सब देख्या, एक भरोसा तेरा॥
खाँह हलाल हराँम निवारै, भिस्त भिस्त तिनहू कौं होई॥
पंच तत का भरम न जानै दो जगि पड़िहै सोई॥
कुटुंब कारणि पाप कमावै, तू जाँणै घर मेरा॥
ए सब मिले आप सवारथ, इहाँ नहीं को तेरा॥
सायर उतरौ पंथ सँवारौ, बुरा न किसी का करणाँ॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, ज्वाब खसम कूँ भरणा॥
*टिप्पणी:* ख-मेरी मेरी सब जग करता।
रे यामै क्या मेरा क्या तेरा, लाज न मरहि कहत घर मेरा॥टेक॥
चारि पहर निस भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा॥
जैसैं बनियें हाट पसारा, सब जग का सो सिरजनहारा॥
ये ले जारे वै ले गाड़े, इनि दुखिइनि दोऊ घर छाड़े॥
कहउ कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम्ह बिनसि रहैगा सोई॥
नर जाँणै अमर मेरो काया, घर घर बात दुपहरी छाया॥
मारग छाड़ि कुमारग जीवै, आपण मरैं और कूँ रोवै॥
कछू एक किया एक करणा, मुगध न चेतै निहचै मरणाँ॥
ज्यूँ जल बूँद तैसा संसारा उपजत, बिनसत लागै न बारा॥
पंच पँषुरिया एक सरीरा, कृष्ण केवल दल भवर कबीरा॥
*टिप्पणी:* ख-मुगध न देखे॥
मन रे अहरषि बाद न कीजै, अपनाँ सुकृत भरि भरि लीजै॥
कुँभरा एक कमाई माटी, बहु विधि जुगाति बणाई॥
एकनि मैं मुक्ताहल मोती, एकनि ब्याधि लगाई॥
एकनि दीना पाट पटंबर एकनि सेज निवारा॥
एकनि दोनों गरै कुदरी, एकनि सेज पयारा॥
साची रही सूँम की संपति, मुगध कहै यहु मेरी॥
अंत काल जब आइ पहुंचा, छिन में कीन्ह न बेरी॥
कहत कबीर सुनौ रे संतो, मेरी मेरी सब झूठी॥
चड़ा चौथा चूहड़ा ले गया तणी तणगती टूटी॥
हड़ हड़ हड़ हड़ हसती है, दीवाँनपनाँ क्या करती है।
आड़ी तिरछी फिरती है, क्या च्यौं च्यौं म्यौं म्यौं करती है॥
क्या तूँ रंगी क्या तूँ चंगी, क्या सुख लौड़ै कीन्हाँ॥
मीर मुकदम सेर दिवाँनी, जंगल केर षजीना।
भूले भरमि कहा तुम्ह राते, क्या मदुमाते माया॥
राम रंगि सदा मतिवाले, काया होइ निकाया॥
कहत कबीर सुहाग सुंदरी, हरि भजि ह्नै निस्तारा॥
सारा षलक खराब किया है, माँनस कहा बिचारा॥
हरि के नाँइ गहर जिनि करऊँ, राम नाम चित मूखा न धरऊँ॥टेक॥
जैसे सती तजै संसारा, ऐसै जियरा करम निवारा॥
राग दोष दहूँ मैं एक न भाषि, कदाचि ऊपजै चिता न राषि॥
भूले विसरय गहर जौ होई, कहै कबीर क्या करिहौ मोहि॥
मन रे कागज कोर पराया, कहा भयौ ब्यौपार तुम्हारै, कल तर बढ़े सवाया॥टेक॥
बड़े बौहरे साँठी दीन्हौ कलतर काढ़ो खोटै॥
चार लाख अरु असी ठीक दे जनम लिष्यो सब चोटै॥
अबकी बेर न कागद कीरौं, तौ धर्म राई सूँ तूटै॥
पूँजी बितड़ि बांदे ले दैहै, तब कहै कौन के छूटै॥
गुरुदेव ग्याँनी भयौ लगनियाँ, सुमिरन दीन्हौ हीरा॥
बड़ी निसरना नाव राम कौ, चढ़ि गयौ कीर कबीरा॥
धागा ज्यूँ टूटै त्यूँ जोरि, तूटै तूटनि होयगी, नाँ ऊँ मिलै बहोरि॥टेक॥
उरझा सूत पाँन नहीं लागै, कूच फिरे सब लाई।
छिटकै पवन तार जब छूटै, तब मेरौ कहा बसाई॥
सुरझ्यौ सूत गुढ़ी सब भागी, पवन राखि मन धीरा॥
पचूँ भईया भये सनमुखा, तब यहु पान करीला॥
नाँन्हीं मैदा पीसि लई है, छाँणि लई द्वै बारा॥
कहै कबीर तेल जब मेल्या, बुतत न लागी बारा॥
ऐसा औसरि बहुरि न आवै, राम मिलै पूरा जन पावै॥टेक॥
जनम अनेक गया अरु आया, की बेगरि न भाड़ा पाया॥
भेष अनेक एकधूँ कैसा, नाँनाँ रूप धरै नट जैसा॥
दाँन एक माँगों कवलाकंत, कबीर के दुख हरन अनंत॥
हरि जननी मैं बालिक तेरा, काहे न औगुण बकसहु मेरा॥टेक॥
सुत अपराध करै दिन केते, जननी कै चित रहै न तेते॥
कर गहि केस करे जौ घाता, तऊ न हेत उतारै माता॥
कहैं कबीर एक बुधि बिचारी, बालक दुखी दुखी महतारी॥
गोब्यदें तुम्ह थैं डरपौं भारी, सरणाई आयौ क्यूँ गहिये, यहु कौन बात तुम्हारी॥टेक॥
धूप दाझतैं छाँह तकाई, मति तरवर सचपाऊँ॥
तरवर माँहै ज्वाला निकसै, तौ क्या लेई बुझाऊँ॥
जे बन जलैं त जल कुँ धावै, मति जल सीतल होई॥
जलही माँहि अगनि जे निकसै, और न दूजा कोई॥
तारण तिरण तूँ तारण, और न दूजा जानौं॥
कहै कबीर सरनाँई आयौ, अपनाँ देव नहीं मानौं॥
मैं गुलाँम मोहि बेच गुसाँई, तन मन धन मेरा रामजी के ताँई॥टेक॥
आँनि कबीरा हाटि उतारा, सोई गाहक बेचनहारा॥
बेचै राम तो राखै कौन राखै राम तो बेचै कौन॥
कहै कबीर मैं तन मन जाना, साहब अपनाँ छिन न बिसार्या॥
अब मोहि राम भरोसा तेरा,
जाके राम सरीखा साहिब भाई, सों क्यूँ अनत पुकारन जाई॥
जा सिरि तीनि लोक कौ भारा, सो क्यूँ न करै जन को प्रतिपारा॥
कहै कबीर सेवौ बनवारी, सींची पेड़ पीवै सब डारी॥
जियरा मेरा फिरै रे उदास, राम बिन निकसि न जाई साँस, अजहूँ कौन आस॥टेक॥
जहाँ जहाँ जाँऊँ राम मिलावै न कोई, कहौ संतौ कैसे जीवन होई॥
जरै सरीर यहु तन कोई न बुझावै, अनल दहै निस नींद न आवै॥
चंदन घसि घसि अंग लगाऊँ, राम बिना दारुन दुख पाऊँ।
सतसंगति मति मनकरि धीरा, सहज जाँनि रामहि भजै कबीरा॥
राम कहौ न अजहूँ केते दिना, जब ह्नै है प्राँन तुम्ह लीनाँ॥टेक॥
भौ भ्रमत अनेक जन्म गया, तुम्ह दरसन गोब्यंद छिन न भया॥
भ्रम्य भूलि परो भव सागर, कछु न बसाइ बसोधरा॥
कहै कबीर दुखभंजना, करौ दया दुरत निकंदना॥
हरि मेरा पीव भाई, हरि मेरा पीव, हरि बिन रहि न सकै मेरा जीव॥टेक॥
हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया, राम बड़े मैं छुटक लहुरिया।
किया स्यंगार मिलन कै ताँई, काहे न मिलौ राजा राम गुसाँई॥
अब की बेर मिलन जो पाँऊँ, कहै कबीर भौ जलि नहीं आँऊँ॥
राम बान अन्ययाले तीर, जाहि लागे लागे सो जाँने पीर॥टेक॥
तन मन खोजौं चोट न पाँऊँ, ओषद मूली कहाँ घसि लाँऊँ॥
एकही रूप दीसै सब नारी, नाँ जानौं को पियहि पियारी॥
कहै कबीर जा मस्तिक भाग, नाँ जानूँ काहु देइ सुहाग॥
आस नहिं पूरिया रे, राम बिन को कर्म काटणहार॥
जद सर जल परिपूरता, पात्रिग चितह उदास।
मेरी विषम कर्म गति ह्नै परा, ताथैं पियास पियास॥
सिध मिलै सुधि नाँ मिलै, मिलै मिलावै सोइ॥
सूर सिध जब भेटिये, तब दुख न ब्यापै कोइ॥
बौछैं जलि जैसें मछिका, उदर न भरई नीर॥
त्यूँ तुम्ह कारनि केसवा, जन ताला बेली कबीर॥
राम बिन तन की ताप न जाई, जल मैं अगनि उठी अधिकाई॥टेक॥
तुम्ह जलनिधि मैं जल कर मीनाँ, जल मैं रहौं जलहि बिन षीनाँ।
तुम्ह प्यंजरा मैं सुवनाँ तोरा, दरसन देहु भाग बड़ा मोरा॥
तुम्ह सतगुर मैं नौतम चेला, कहै कबीर राम रमूं अकेला॥
गोब्यंदा गुँण गाईये रे, ताथैं भाई पाईये परम निधान॥टेक॥
ऊंकारे जग ऊपजै, बिकारे जग जाइ।
अनहद बेन बजाइ करि रह्यों गगन मठ छाइ॥
झूठै जग डहकाइया रे क्या जीवण की आस।
राम रसाँइण जिनि पीया, तिनकैं बहुरि न लागी रे पियास॥
अरघ षिन जीवन भला, भगवत भगति सहेत।
कोटि कलप जीवन ब्रिथा, नाँहिन हरि सूँ हेत॥
संपति देखि न हरषिये, बिपति देखि न रोइ।
ज्यूँ संपति त्यूँ बिपति है करता करै सु होइ॥
सरग लोक न बाँछिये, डरिये न नरक निवास।
हूँणा थाँ सो ह्नै रह्या, मनहु न कीजै झूठी आस॥
क्या जप क्या तप संजमाँ, क्या तीरथ ब्रत स्नान।
जो पै जुगति जाँनियै, भाव भगति भगवान॥
सँनि मंडल मैं सोचि लै, परम जोति परकास॥
तहूँवा रूप न रेष है, बिन फूलनि फूल्यौ रे आकास॥
कहै कबीर हरि गुण गाइ लै, सत संगति रिदा मँझारि।
जो सेवग सेवा करै, तो सँगि रमैं रे मुरारि॥
*टिप्पणी:* ख-भगवंत भजन सहेत॥
मन रे हरि भजि हरि भजि हरि भज भाई।
जा दिन तेरो कोई नाँही, ता दिन राम सहाई॥टेक॥
तंत न जानूँ मंत न जानूँ, जानूँ सुंदर काया।
मीर मलिक छत्रापति राजा, ते भी खाये माया॥
बेद न जानूँ, भेद न जानूँ, जानूँ एकहि रामाँ॥
पंडित दिसि पछिवारा कीन्हाँ, मुख कीन्हौं जित नामा।
राज अंबरीक के कारणि, चक्र सुदरसन जारै।
दास कबीर कौ ठाकुर ऐसौ, भगत की सरन उबारै॥
राम भणि राम भणि राम चिंतामणि, भाग बड़े पायौ छाड़ै जिनि॥टेक॥
असंत संगति जिनि जाइ रे भूलाइ, साथ संगति मिलिं हरि गुँण गाइ।
रिदा कवल में राखि लुकाइ, प्रेम गाँठि दे ज्यूँ छूटि न जाइ।
अठ सिधि नव निथि नाँव मँझारि, कहै कबीर भजि चरन मुरारि॥
निरमल निरमल राम गुण गावै, सौ भगता मेरे मनि भावै॥टेक॥
जे जन लेहिं राम नाँउँ, ताकी मैं बलिहारी जाँउँ॥
जिहि घटि राम रहे भरपूरि, ताकी मैं चरनन की धूरि॥
जाति जुलाहा मति कौ धीर, हरषि हरषि गुँण रमैं कबीर॥
जा नरि राम भगति नहीं साथी, सो जनमत काहे न मूवौ अपराथी॥टेक॥
गरभ मूचे मुचि भई किन बाँझ, सकर रूप फिरै कलि माँझ।
जिहि कुलि पुत्र न ग्याँन बिचारी, बाकी विधवा काहे न भई महतारी।
कहै कबीर नर सुंदर सरूप, राम भगत बिन कुचल करूप॥
राम बिनाँ धिग्र धिग्र नर नारी, कहा तैं आइ कियौ संसारी॥
रज बिना कैसो रजपूत, ग्यान बिना फोकट अवधूत॥
गनिका कौ पूत कासौ कहैं, गुर बिन चेला ग्यान न लहै॥
कबीर कन्याँ करै स्यंगार, सोभ न पावै बिन भरतार॥
कहै कबीर हूँ कहता डरूँ, सुषदेव कहै तो मैं क्या करौं॥
जरि जाव ऐसा जीवनाँ, राजा राम सूँ प्रीति न होई।
जन्म अमोलिक जात है, चेति न देखै कोई॥टेक॥
मधुमाषी धन संग्रहै, यधुवा मधु ले जाई रे।
गयौ गयौ धन मूँढ़ जनाँ, फिरि पीछैं पछिताई रे॥
विषिया सुख कै कारनै, जाइ गानिका सूँ प्रीति लगाई रे।
अंधै आगि न सूझई, पढ़ि पढ़ि लोग बुझाई रे॥
एक जनम कै कारणैं, कत पूजौ देव सहँसौ रे।
काहे न पूजौ राम जी, जाकौ भगत महेसौ रे॥
कहै कबीर चित चंचला, सुनहू मूढ़ मति मोरी।
विषिय फिर फिर आवई, राजा राम न मिले बहोरी॥
*टिप्पणी:* ख-प्रति में इसके आगे यह पद है-
राम न जपहु कवन भ्रम लाँगे।
मरि जाहहुगे कहा कहा करहु अभागे॥टेक॥
राम राम जपहु कहा करौ वैसे, भेड कसाई कै घरि जैसे।
राम न जपहु कहा गरबना, जम के घर आगै है जाना॥
राम न जपहु कहा मुसकौ रे, जम के मुदगरि गणि गणि खहुरे।
कहै कबीर चतुर के राइ, चतुर बिना को नरकहि जाइ॥
राम न जपहु कहा भयौ अंधा राम बिना जँम मैले फंधा॥टेक॥
सुत दारा का किया पसारा, अंत की बेर भये बटपारा॥
माया ऊपरि माया माड़ी, साथ न चले षोषरी हाँड़ा॥
जपौ राम ज्यूँ अंति उबारै, ठाढ़ी बाँह कबीर पुकारै॥
डगमग छाड़ि दै मन बौरा।
अब तौ जरें बरें बनि आवै, लीन्हों हाथ सिंधौरा॥टेक॥
होइ निसंक मगन ह्नै नाचौ, लोभ मोह भ्रम छाड़ौ॥
सूरौ कहा मरन थैं डरपैं, संतों न संचैं भाड़ौ॥
लोक वेद कुल की मरजादा, इहै कलै मैं पासी।
आधा चलि करि पीछा फिरिहै ह्नै है जग मैं हाँसी॥
यह संसार सकल है मैला, राम कहै ते सूवा।
कहै कबीर नाव नहीं छाँड़ौं, गिरत परत चढ़ि ऊँचा॥
का सिधि साधि करौं कुछ नाहीं, राम रसाँइन मेरी रसनाँ माँहीं॥टेक॥
नहीं कुछ ग्याँन ध्याँन सिधि जोग, ताथैं उपजै नाना रोग।
का बन मैं बसि भये उदास, जे मन नहीं छाड़ै आसा पास॥
सब कृत काच हित सार, कहै कबीर तजि जग ब्यौहार॥
जीवत कछु न कीया प्रवानाँ, मूवा मरम को काँकर जाना॥
जौं तैं रसना राम न कहियो, तौ उपजत बिनसत भरमत रहियौ॥टेक॥
जैसी देखि तरवर की छाया, प्राँन गये कहु काकी माया॥
संधि काल सुख कोई न सोवै, राजा रंक दोऊ मिलि रोवै॥
हंस सरोवर कँवल सरीरा, राम रसाइन पीवै कबीरा॥
का नाँगे का बाँधे चाम, जौ नहीं चीन्हसि आतम राम॥टेक॥
नागे फिरें जोग जे होई, बन का मृग मुकुति गया कोई॥
मूँड़ मूड़ायै जौ सिधि होई, स्वर्ग ही भेड़ न पहुँची कोई॥
ब्यंद राखि जे खेलै है भाई, तौ षुसरै कौंण परँम गति पाई॥
पढ़ें गुनें उपजै अहंकारा, अधधर डूबे वार न पारा॥
कहै कबीर सुनहु रे भाई, राम नाम किन सिधि पाई॥
हरि बिन भरमि बिगूते गदा।
जापै जाऊँ आपनपौं छुड़ावण, ते बीधे बहु फंधा॥टेक॥
जोगी कहै जोग सिधि नीकी, और दूजी भाई॥
लुंचित मुंडित मोनि जटाधर, ऐ जु कहै सिधि पाई॥
जहाँ का उपज्या तहाँ बिलाना, हरि पद बिसर्या जबहिं॥
पंडित गुँनी सूर कवि दाता, ऐ जु कहैं बड़ हँमहीं॥
वार पार की खबरि न जाँनी, फिरौं सकल बन ऐसैं॥
यहु मन बोहि थके कउवा ज्यूँ, रह्यौ ठग्यौ सो वैसैं॥
तजि बावैं दाँहिणै बिकार, हरि पद दिढ़ करि गहिये॥
कहै कबीर गूँगे गुड़ खाया, बूझै तो का कहिये॥
चलौ बिचारी रहौ सँभारी, कहता हूँ ज पुकारी।
राम नाम अंतर गति नाहीं, तौ जनम जुवा ज्यूँ हारी॥टेक॥
मूँड़ मुड़ाइ फूलि का बैठे, काँननि पहरि मजूसा।
बाहरि देह षेह लपटानीं, भीतरि तौ घर मूसा॥
गालिब नगरी गाँव बसाया, हाँम काँम हंकारी।
घालि रसरिया जब जँम खैंचे, तब का पति रहै तुम्हारी॥
छाँड़ि कपूर गाँठि विष बाँध्यौ, मूल हुवा ना लाहा।
मेरे राम की अभौ पद नगरी, कहै कबीर जुलाहा॥
कौन बिचारि करत हौ पूजा, आतम राम अवर नहीं दूजा॥टेक॥
बिन प्रतीतैं पाती तोड़, ग्याँन बिनाँ देवलि सिर फोड़ै॥
लुचरी लपसी आप संधारै, द्वारै ठाढ़ा राम पुकारै॥
पर आत्म जौ तत बिचारै, कहि कबीर ताकै बलिहारै॥
कहा भयौ तिलक गरै जपमाला, मरम न जानैं मिलन गोपाला॥
दिन प्रति पसू करै हरिहाई, गरैं काठ बाकी बाँनि न जाई।
स्वाँग सेत करणी मनि काली, कहा भयौ गलि माला घाली॥
बिन ही प्रेम कहा भयौ रोये, भीतरि मैल बाहरि का धोये॥
गल गल स्वाद भगति नहीं धीर, चीकन चंदवा कहै कबीर॥
ते हरि आवेहि काँमाँ, जे नहीं आतम रामाँ॥टेक॥
थोरी भगति बहुत अलंकारा, ऐसे भगता मिलैं अपारा॥
भाव न चीन्हैं हरि गोपाला, जानि क अरहट कै गलि माला॥
कहै कबीर जिनि गया अभिमाना, सो भगता भगवंत समानाँ॥
कहा भयौ रवि स्वाँग बनायौ, अंतरजामी निकट न आयौ॥टेक॥
विषई विषे ढिढावै, गावै, राम नाम मनि कबहूँ न भावै॥
पापी परलै जाहि अभागै, अमृत छाड़ि विषै रसि लागे॥
कहै कबीर हरि भगति न साधी, भग मुषि लागि मूये अपराधी॥
जौ पैं पिय के मनि नाहीं भाये, तौ का परोसनि कै हुलसाये॥
का चूरा पाइल झमकायें, कहा भयौ बिछुवा ठमकायें॥
का काजल स्यंदूर कै दीयैं, सोलह स्यंगार कहा भयौ कीयै॥
अंजन मंजन करै ठगौरी, का पचि मरै निगौडी बौरी॥
जौ पै पतिब्रता ह्नै नारी, कैसे ही रही सो पियहिं पियारी॥
तन मन जीवन सौपि सरीरा, ताहि सुहागिन कहै कबीरा॥
दूभर पनियाँ भर्या न जाई, अधिक त्रिषा हरि बिन न बुझाई॥टेक॥
उपरि नीर ले ज तलि हारी, कैसे नीर भरे पनिहारी॥
उधर्यौ कूप घाट भयौ भरी, चली निरास पंच पनिहारी॥
गुर उपदेश भरी ले नीरा, हरषि हरषि जल पीवै कबीरा॥
कहौ भइया अंबर काँसूँ लागा, कोई जाँणँगा जाँननहारा॥टेक॥
अंबरि दीसे केता तारा कौन चतुर ऐसा चितवनहारा॥
जे तुम्ह देखौ सो यहु नाँही, यहु पद अगम अगोचर माँही॥
तीनि हाथ एक अरधाई, ऐसा अंबर चीन्हौ रे भाई॥
कहै कबीर जे अंबर जाने, ताही सूँ मेरा मन माँनै॥
तन खोजौ नर करौ बड़ाई, जुगति बिना भगति किनि पाई॥टैक॥
एक कहावत मुलाँ काजी, राम बिना सब फोकटबाजी॥
नव ग्रिह बाँभण भणता रासी, तिनहुँ न काटी कौ पासी॥
कहै कबीर यहु तन काचा, सबद निरंजन राम नाम साचा ॥
जाइ परो हमरो का करिहै, आप करै आप दुख भरिहै॥टेक॥
ऊभड़ जाताँ बाट बतावै, जौ न चलै तौ बहुत दुख पावै॥
अंधे कूप क दिया बताई, तरकि पड़े पुनि हरि न पत्याई॥
इंद्री स्वादि विषै रसि बहिहै, नरकि पड़े पुनि राम न कहिहै॥
पंच सखी मिलि मतौ उपायौ, जंम की पासी हंस बँधायौ॥
कहै कबीर प्रतीति न आवै, पाषंड कपट इहै जिय भावै॥
ऐसे लोगनि सूँ का कहिये।
जे नर भये भगति थैं न्यारे, तिनथैं सदा डराते रहिये॥टेक॥
आपण देही चरवाँ पाँनी ताहि निंदै जिनि गंगा आनी॥
आपण बूड़ैं और कौ बोड़ै, अगनि लगाइ मंदिर मैं सोवै॥
आपण अंध और कूँ काँनाँ, तिनकौ देखि कबीर डराँनाँ।
है हरि जन सूँ जगत लरत है, फुँनिगा कैसे गरड़ भषत है॥टेक॥
अचिरज एक देखह संसारा, सुनहाँ खेदै कुंजर असवारा॥
ऐसा एक अचंभा देखा जंबक करै केहरि सूँ लेखा॥
कहै कबीर राम भजि भाई, दास अधम गति कबहुँ न जाई॥
हैं हरिजन थैं चूक परी, जे कछु आहि तुम्हारी हरी॥टेक॥
मोर तोर जब लग मैं कीन्हाँ, तब लग त्रास बहुत दुख दीन्हाँ॥
सिध साधिक कहैं हम सिधि पाई, राम नाम बिन सबै गँवाई॥
जे बैरागी आस पियासी, तिनकी माया कदे न नासी॥
कहै कबीर मैं दास तुम्हारा, माय खंडन करहु हमारा॥1
सब दुनी सयाँनी मैं बौरा, हँम बिगरे बिगरौ जिनि औरा॥टेक॥
मैं नहीं बौरा राम कियो बौरा, सतगुर जारि गयौ भ्रम मोरा॥
विद्या न पढूँ बाद नहीं जानूँ, हरि गुँन कथत सुनत बौराँनूँ॥
काँम क्रोध दोऊ भये विकारा, आपहि आप जरे संसारा॥
मीठो ककहा जाहि जो भावै, दास कबीर राम गुँन गावै॥
अब मैं राम सकल सिधि पाई, आँन कहूँ तो राम दुहाई॥टेक॥
इहि चिति चाषि सबै रस दीठा, राम नाम सा और न मीठा॥
औरे रसि ह्नैहै कफ गाता, हरि रस अधिक अधिक सुखदाता॥
दूजा बणिज नहीं कछु बाषर, राम नाम दोऊ तत आषर॥
कहै कबीर जे हरि रस भोगी, ताकूँ मिल्या निरंजन जोगी॥
रे मन जाहिं जहाँ तोहि भावै, अब न कोई तेरे अंकुस लावै॥टेक॥
जहाँ जहाँ जाई तहाँ तहाँ रामा, हरि पद चीन्हि कियौ विश्रामा।
तन रंजित तब देखियत दोई, प्रगट्यौ ग्याँन जहाँ तहाँ सोई॥
लीन निरंतर बपु बिसराया, कहै कबीर सुख सागर पाया॥
बहुरि हम काहैं कूँ आवहिंगे।
बिछुरे पंचतत्त की रचना, तब हम रामहि पावहिंगे॥टेक॥
पृथी का गुण पाँणी सोष्या, पाँनी तेज मिलावहिंगे॥
तेज पवन मिलि सबद मिलि, सहज समाधि लगावहिंगे॥
जैसे बहु कंचन के भूषन, ये कहि गालि तवावहिंगे॥
ऐसै हम लोक वेद के बिछुरें, सुनिहि माँहि समावहिंगे॥
जैसे जलहि तरंग तरंगनी, ऐसैं हम दिखलावहिंगे॥
कहै कबीर स्वामी सुख सागर, हंसहि हंस मिलावहिंगे॥
कबीरा संत नदी गया बहि रे,
ठाढ़ी माइ कराड़े टेरै, है कोई ल्यावैगहि रे॥टेक॥
बादल बाँनी राम घन उनयाँ, बरिषै अमृत धारा॥
सखी नीर गंग भरि आई, पीवै प्राँन हमारा॥
जहाँ बहि लागे सनक सनंदन, रुद्र ध्याँन धरि बैठे॥
सूर्य प्रकास आनंद बमेक मैं घर कबीर ह्नै पैठे॥
अवधू कामधेन गहि बाँधी रे।
भाँड़ा भंजन करे सबहिन का, कछू न सूझे आँधी रे॥टेक॥
जौ ब्यावै तौ दूध न देई, ग्यामण अंमृत सरवै॥
कौली धाल्याँ बडहि चालै ज्यूँ घेरौं त्यूँ दरवै॥
तिहि धेन थैं इंछ्या पूगी पाकड़ि खूँटै बाँधी रे।
ग्वाड़ा माँहै आनँद उपनो, खूँटै दोऊ बाँधी रे।
साई माइ सास पनि साई, साई बाकी नारी।
कहै कबीर परम पद पाया, संतौ लेहु बिचारी॥
पद – राग आसावरी
ऐसा रे अवधू की वाणी, ऊपरि कूवटा तलि भरि पाँणीं॥टेक॥
जब लग गगन जोति नहीं पलटै, अबिनासा सुँ चित नहीं विहुटै।
जब लग भँवर गुफा नहीं जानैं, तौ मेरा मन कैसै मानैं॥
जब लग त्रिकुटी संधि न जानैं, ससिहर कै घरि सूर न आनैं।
जब लग नाभि कवल नहीं सोधै, तौ हीरै हीरा कैसै बेधैं॥
सोलह कला संपूरण छाजा, अनहद कै घरि बाजैं बाजा॥
सुषमन कै घरि भया अनंदा, उलटि कबल भेटे गोब्यंदा।
मन पवन जब पर्या भया, क्यूँ नाले राँपी रस मइया।
कहै कबीर घटि लेहु बिचारी, औघट घाट सींचि ले क्यारी॥
मन का भ्रम मन ही थैं भागा, सहज रूप हरि खेलण लागा॥टेक॥
मैं तैं तैं ए द्वै नाहीं, आपै अकल सकल घट माँहीं।
जब थैं इनमन उनमन जाँनाँ, तब रूप न रेष तहाँ ले बाँनाँ॥
तन मन मन तन एक समाँनाँ, इन अनभै माहै मनमाँना॥
आतमलीन अषंडित रामाँ, कहै कबीर हरि माँहि समाँनाँ॥
आत्माँ अनंदी जोगी, पीवै महारस अंमृत भोगी॥टेक॥
ब्रह्म अगनि काया परजारी, अजपा जाप जनमनी तारी॥
त्रिकुट कोट मैं आसण माँड़ै, सहज समाधि विषै सब छाँड़ै॥
त्रिवेणी बिभूति करै मन मंजन, जन कबीर प्रभु अलष निरंजन॥
या जोगिया को जुगति जु बूझै, राम रमै ताकौ त्रिभुवन सूझै॥
प्रकट कंथा गुप्त अधारी, तामैं मूरति जीवनि प्यारी।
है प्रभू नेरै खोजै दूरि, ज्ञाँन गुफा में सींगी पूरि॥
अमर बेलि जो छिन छिन पीवै, कहै कबीर सो जुगि जुगि जीवै॥
सो जोगी जाकै मन मैं मुद्रा, रात दिवस न करई निद्रा॥टेक॥
मन मैं आँसण मन मैं रहणाँ, मन का जप तप मन सूँ कहणाँ॥
मन मैं षपरा मन मैं सींगी, अनहद बेन बजावै रंगी।
पंच परजारि भसम करि भूका, कहै कबीर सौ लहसै लंका॥
बाबा जोगी एक अकेला, जाके तीर्थ ब्रत न मेला॥टेक॥
झोलीपुत्र बिभूति न बटवा, अनहद बेन बजावै॥
माँगि न खाइ न भूखा सोवै, घर अँगना फिरि आवै॥
पाँच जना का जमाति चलावै, तास गुरु मैं चेला॥
कहै कबीर उनि देस सिधाय, बहुरि न इहि जगि मेला॥
जोगिया तन कौ जंत्रा बजाइ, ज्यूँ तेरा आवागमन मिटाइ॥
तत करि ताँति धर्म करि डाँड़ि, सत की सारि लगाइ।
मन करि निहचल आसँण निहचल, रसनाँ रस उपजाइ॥
चित करि बटवा तुचा मेषली, भसमै भसम चढ़ाइ।
तजि पाषंड पाँच करि निग्रह, खोजि परम पद राइ॥
हिरदै सींगी ग्याँन गुणि बाँधौ, खोजि निरंजन साँचा।
कहै कबीर निरंजन की गति, जुगति बिनाँ प्यंड काचा॥
अवधू ऐसा ज्ञाँन बिचारी, ज्यूँ बहुरि न ह्नै संसारी॥
च्यँत न सोच चित बिन चितवैं, बिन मनसा मन होई।
अजपा जपत सुंनि अभिअंतरि, यहू तत जानैं सोई॥
कहै कबीर स्वाद जब पाया, बंक नालि रस खाया।
अमृत झरै ब्रह्म परकासैं तब ही मिलै राम राया॥
गोब्यंदे तुम्हारै बन कंदलि, मेरो मन अहेरा खेलै।
बपु बाड़ी अनगु मृग, रचिहीं रचि मेलैं॥टेक॥
चित तरउवा पवन षेदा, सहज मूल बाँधा।
ध्याँन धनक जोग करम, ग्याँन बाँन साँधा॥
षट चक्र कँवल बेधा, जारि उजारा कीन्हाँ।
काम क्रोध लोभ मोह, हाकि स्यावज दीन्हाँ॥
गगन मंडल रोकि बारा, तहाँ दिवस न राती।
कहै कबीर छाँड़ि चले, बिछुरे सब साथी॥
साधन कंचू हरि न उतारै, अनभै ह्नै तौ अर्थ बिचारै॥
बाँणी सुंरग सोधि करि आणै आणौं नौ रँग धागा।
चंद सूर एकंतरि कीया, सीवत बहु दिन लागा।
पंच पदार्थ छोड़ि समाँनाँ, हीरै मोती जड़िया।
कोटि बरष लूँ क्यूँ सीयाँ, सुर नर धधैं पड़या॥
निस बासुर जे सोबै नाहीं, ता नरि काल न खाई।
कहै कबीर गुर परसादैं सहजै रह्या समाई॥
जीवत जिनि मारै मूवा मति ल्यावैं,
मास बिहूँणाँ घरिमत आवै हो कंता॥टेक॥
उर बिन षुर बिन चंच बिन, बपु बिहूँना सोई।
सो स्यावज जिनि मारै कंता, जाकै रगत मांस न होई॥
पैली पार के पारथी, ताकी धुनहीं पिनच नहीं रे।
तो बेली को ढूँक्यों मृग लौ, ता मृग कैसी सनहीं रे॥
मार्या मृग जीवता राख्या, यहु गुरु ग्याँन मही रे।
कहै कबीर स्वाँमी तुम्हारे मिलन की, बेली है पर पात नहीं रे॥
धरी मेरे मनवाँ तोहि धरि टाँगौं,
तै तौ कीयौ मेरे खसम सूँ षाँगी॥टेक॥
प्रेम की जेवरिया तेरे गलि बाँधूँ, तहाँ लै जाँउँ जहाँ मेरौ माधौ।
काया नगरीं पैसि किया मैं बासा, हरि रस छाड़ि बिषै रसि माता॥
कहै कबीर तन मन का ओरा भाव भकति हरिसूँ गठजोरा॥
परब्रह्म देख्या हो तत बाड़ी फूली, फल लागा बडहूली।
सदा सदाफल दाख बिजौरा कौतिकहारी भूली॥टेक॥
द्वादस कूँवा एक बनमाली, उलट नीर चलावै।
सहजि सुषमनाँ कूल भरावै, दह दिसि बाड़ी पावै॥
ल्यौकी लेज पवन का ढींकू, मन मटका ज बनाया।
सत की पाटि सुरति का चठा, सहजि नीर मुलकाया॥
त्रिकुटी चढ़îौ पाव ढौ ढारै, अरध उरध की क्यारी।
चंद सूर दोऊ पाँणति करिहै, गुर सुषि बीज बिचारी॥
भरी छाबड़ा मन बैकुंठा, साँई सूर हिया रगा।
कहै कबीर सुनहु रे संतो, हरि हँम एकै संगा॥
राम नाम रँग लागौ कुरंग न होई, हरि रंग सौ रंग और न कोई॥
और सबै रंग इहि रंग थैं छूटै, हरि रंग लागा कदे न खूटै।
कहै कबीर मेरे रंग राम राँई, और पतंग रंग उड़ि जाई॥
कबीरा प्रेम कूल ढरै, हँमारे राम बिना न सरे।
बाँधि ले धौंरा सीचि लै क्यारी ज्यूँ तूँ पेड़ भरैं॥टेक॥
काया बाड़ी महैं माली, टहल करै दिन राती।
कबहूँ न सोवै काज भँवारे, पाँण तिहारी माती॥
सेझै कूवा स्वाजि अति सीतल, कबहूँ कुवा बनहीं रे।
भाग हँमारे हरि रखवाले, कोई उजाड़ नहीं रे॥
गुर बीज जनाया कि रखि न पाया, मन को आपदा खोई।
औरै स्यावढ़ करै षारिसा, सिला करै सब कोई॥
जौ घरि आया तौ सब ल्याया, सबही काज सँवार्या।
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, थकित भया मैं हार्या॥
राजा राम बिना तकती धो धो।
राम बिना नर क्यूँ छूटौगे, जम करै नग धो धो धो॥टेक॥
मुद्रा पहर्या जोग न होई, घूँघट काढ़ा सती न कोई।
मा कै सँगि हिलि मिलि आया, फौकट सटै जनम गँवाया।
कहै कबीर जिनि हरि पद चीन्हाँ, मलिन प्यंड थैं निरमल कीन्हा॥
है कोई राम नाम बतावै, वस्तु अगोचर मोहि लखावै॥टेक॥
राम नाम सब बखानै, राम नाम का मरम जाँनैं॥
ऊपर की मोहि बात न भावै, देखै गावैं तौ सुख पावै।
कहै कबीर कछू कहत न आवै, परचै बिनाँ मरम को पावै॥
गोब्यंदे तूँ निरंजन तूँ निरंजन राया।
तेरे रूप नहीं रेख नाँहीं, मुद्रा नहीं माया॥
समद नाँहीं सिषर नाँहीं, धरती नाँहीं गगनाँ।
रबि ससि दोउ एकै नाँहीं, बहता नाँहीं पवनाँ॥
नाद नाँही ब्यँद नाँहीं काल नहीं काया।
जब तै जल ब्यंब न होते, तब तूँहीं राम राया॥
जप नाहीं तप नाहीं जोग ध्यान नहीं पूजा।
सिव नाँहीं सकती नाँहीं देव नहीं दूजा॥
रुग न जुग न स्याँम अथरबन, बेदन नहीं ब्याकरनाँ।
तेरी गति तूँहि जाँनै, कबीरा तो मरनाँ॥
राम कै नाँइ निसाँन बागा, ताका मरक न जानै कोई।
भूख त्रिषा गुण वाकै नाँहीं, घट घट अंतरि लोई॥टेक॥
बेद बिबर्जित भेद बिबर्जित बिबर्जित पाप रु पुंन्यं।
स्वाँन बिबर्जित ध्यान बिबर्जित, बिबर्जित अस्थूल सुंन्यं।
भेष बिबर्जित भीख बिबर्जित, बिबर्जित ड्यंमक रूपं।
कहै कबीरा तिहूँ लोक बिबर्जित, ऐसा तत्त अनूप॥
राम राम राम रमि रहिए, साषित सेती भूलि न कहिये॥
का सुनहाँ कौ सुमृत सुनायें, का साषित पै हरि गुन गाँये।
का कऊवा कौं कपूर खवाँयें, का बिसहर कौं दूध पिलाँयें।
साषित सुनहाँ दोऊ भाई, वो नींदे कौ भौंकत जाई।
अंमृत ले ले नींब स्यँचाई, कत कबीर बाकी बाँनि न जाई॥
अब न बसूँ इहि गाँइ गुसाँई, तेरे नेवगी खरे सयाँने हो रामा॥टेक॥
नगर एक तहाँ जीव धरम हता, बसै जु पच किसानाँ।
नैनूँ निकट श्रवनूँ रसनूँ, इंद्री कह्या न मानै हो राम॥
गाँइ कु ठाकुर खेत कु नेपै, काइथ खरच न पारै।
जोरि जेवरी खेति पसारै, सब मिलि मोकौं मारै हो राम॥
खोटी महतौ बिकट बलाही, सिर कसदम का पारै।
बुरा दिवाँन दादि नहिं लागै, इक बाँधे इक मारै हो राम॥
धरमराई जब लेखा माँग्या, बाकी निकसी भारी।
पाँच किसानाँ भाजि गये हैं, जीव धर बाँध्यौ पारी हो राम॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, हरि भजि बाँधौ भेरा।
अबकी बेर बकसि बंदे कौं, सब खेत करौ नबैरा॥
ता भै थैं मन लागौ राम तोही, करौ कृपा जिनि बिसरौ मोहीं॥टैक॥
जननी जठर सह्या दुख भारी,
सो संक्या नहीं गई हमारी॥
दिन दिन तन छीजै जरा जनावै,
केस गहे काल बिरदंग बजावै॥
कहै कबीर करुणामय आगैं,
तुम्हारी क्रिपा बिना यहु बिपति न भागै॥
कब देखूँ मेरे राम सनेही, जा बिन दुख पावै मेरी देही॥टेक॥
हूँ तेरी पंथ निहारूँ स्वाँमी,
कब रमि लहुगे अंतरजाँमी॥
जैसैं जल बिन मीन तलपै,
एैसे हरि बिन मेरा जियरा कलपै॥
निस दिन हरि बिन नींद न आवै,
दरस पियासी राम क्यूँ सचु पावै।
कहै कबीर अब बिलंब न कीजै,
अपनौ जाँनि मोहि दरसन दीजै॥
सो मेरा राम कबै घरि आवै, तो देखे मेरा जिय सुख पावै॥टेक॥
बिरह अगिनि तन दिया जराई, बिन दरसन क्यूँ होइ सराई॥
निस बासुर मन रहे उदासा, जैसैं चातिग नीर पियासा॥
कहै कबीर अति आतुरताई, हमकौं बेगि मिलौ राम राई॥
मैं सामने पीव गौंहनि आई।
साँई संगि साथ नहीं पूगी, गयौ जोबन सुपिनाँ की नाँई॥टेक॥
पंच जना मिलि मंडप छायौ, तीन जनाँ मिलि लगन लिखाई।
सखी सहेली मंगल गावैं, सुख दुख माथै हलद चढ़ाई॥
नाँना रंगयै भाँवरि फेरी, गाँठि जोरि बावै पति ताई।
पूरि सुहाग भयो बिन दूलह, चौक कै रंगि धरो सगौ भाई॥
अपने पुरिष मुख कबहूँ न देख्यौ, सती होत समझी समझाई।
कहै कबीर हूँ सर रचि मरिहूँ, तिरौ कंत ले तूर बजाई॥
धीरैं धीरैं खाइबौ अनत न जाइबौ, राम राम राम रमि रहिबौ॥
पहली खाई आई माई, पीछै खैहूँ जवाई।
खाया देवर खाया जेठ, सब खाया ससुर का पेट।
खाया सब पटण का लोग, कहै कबीर तब पाया जोग॥
मन मेरौ रहटा रसनाँ पुरइया, हरि कौ नाऊँ लैं लैं काति बहुरिया॥टेक॥
चारि खूँटी दोइ चमरख लाई, सहजि रहटवा दियौ चलाई।
सासू कहै काति बहू ऐसैं, बिन कातैं निसतरिबौ कैसैं॥
कहै कबीर सूत भल काता, रहटाँ नहीं परम पद दाता॥
अब की घरी मेरी घर करसी, साथ संगति ले मोकौं तिरसीं॥टेक॥
पहली को घाल्यौ भरमत डाल्यौ, सच कबहूँ नहीं पायी॥
अब की धरनि धरी जा दिन थैं सगलौ भरम गमायौ॥
पहली नारि सदा कुलवंती, सासू सुसरा मानैं॥
देवर जेठ सबनि की प्यारी, पिव कौ मरम न जाँनैं॥
अब की धरनिधरी जा दिन थैं, पीव सूँ बाँन बन्यूँ रे।
कहै कबीर भग बपुरी कौ, आइ रु राम सुन्यूँ रे॥
मेरी मति बौरी राम बिसारौं, किहि बिधि रहनि रहूँ हौ दयाल॥
सेजै रहूँ नैंन नहीं देखौं, यह दुख कासौं कहूँ हो दयाल॥टेक॥
सासु की दुखी ससुर की प्यारी, जेठ के तरसि डरौं रे॥
नणद सुहेली गरब गहेली, देवर कै बिरह जरौं हो दयाल॥
बाप सावको करैं लराई, माया सद मतिवाली।
सगौ भइया लै सलि चिढ़हूँ तब ह्नै हूँ पीयहि पियारी॥
सोचि बिचारि देखौं मन माँहीं, औसर आइ बन्यूँ रे।
कहै कबीर सुनहु मति सुंदरि, राजा राम रमूँ रे॥
अवधू ऐसा ग्याँन बिचारी, ताथै भई पुरिष थैं नारी॥
ना हूँ परनी नाँ हूँ क्वारी, पून जन्यूँ द्यौ हारी।
काली मूँड कौ एक न छोड़ो, अजहूँ अकन कुवारी॥
बाम्हन के बम्हनेटी कहियौ, जोगी के घरि चेला।
कलमाँ पढ़ि पढ़ि भई तुरकनी, अजहूँ फिरौं अकेली॥
पीहरि जाँऊँ न सासुरै, पुरषहिं अंगि न लाँऊँ।
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, अंगहि अँग छुवाँऊँ॥
*टिप्पणी:* ख-पूत जने जनि हारी।
मीठी मीठी माया तजी न जाई।
अग्याँनी पुरिष कौ भोलि भोलि खाई॥टेक॥
निरगुण सगुण नारी, संसारि पियारी,
लषमणि त्यागी गोरषि निवारी।
कीड़ी कुंजर मैं रही समाई,
तीनि लोक जीत्या माया किनहुँ न खाई॥
कहै कबीर पद लेहु बिचारी,
संसारि आइ माया किन्हूँ एक कही षारी॥
मन कै मैलौ बाहरि ऊजलौ किसी रे,
खाँडे की धार जन कौ धरम इसी रे॥टेक॥
हिरदा कौ बिलाव नैन बगध्यानी,
ऐसी भगति न होइ रे प्रानी॥
कपट की भगति करै जिन कोई,
अंत की बेर बहुत दुख होई॥
छाँड़ि कपट भजौ राम राई,
कहै कबीर तिहुँ लोक बड़ाई॥
चौखौ वनज ब्यौपार, आइनै दिसावरि रे राम जपि लाहौ लीजै॥टेक॥
जब लग देखौं हाट पसारा,
उठि मन बणियों रे, करि ले बणज सवारा।
बेगे ही तुम्ह लाद लदाँनों,
औघट घआ रे चलनाँ दूरि पयाँनाँ॥
खरा न खोटा नाँ परखानाँ,
लाहे कारनि रे सब मूल हिराँनाँ॥
सकल दुनीं मैं लोभ पियारा,
मूल ज राखै रे सोई बनिजारा॥
देस भला परिलोक बिराँनाँ,
जन दोइ चारि नरे पूछौ साथ सयाँनाँ॥
सायर तीन न वार न पारा,
कहि समझावै रे कबीर बणिजारा॥
जौ मैं ग्याँन बिचार न पाया, तौ मैं यौं ही जनम गँवाया॥
यह संसार हाट करि जाँनूँ, सबको बणिजण आया।
चेति सकै सो चेतौ रे भाई, मूरिख मूल गँवाया॥
थाके नैंन बैंन भी थाके, थाकी सुंदर काया।
जाँमण मरण ए द्वै थाके, एक न थाकी माया।
चेति चेति मेरे मन चंचल, जब लग घट में सासा।
भगति जाव परभाव न जइयौ, हरि क चरन निवासा॥
जे जन जाँनि जपैं जग जीवन, तिनका ग्याँन नासा।
कहै कबीर वै कबहूँ न हारैं, जाँने न ढारै पासा॥
लावौं बाबा आगि जलावौं घरा रे, ता कारनि मन धंधै परा रे॥
इक डाँइनि मेरे मन मैं बसै रे, नित उठि मेरे जिय को डसै रे।
या डाँइन्स ले लरिका पाँच रे, निस दिन मोहि नचावैं नाच रे।
कहै कबीर हूँ ताकौ दास, डाँइनि कै सँगि रहे उदास॥
बंदे तोहि बंदिगी सौ काँम, हरि बिन जानि और हराँम।
दूरि चलणाँ कूँच वेगा, इहाँ नहीं मुकाँम॥टेक॥
इहाँ नहीं कोई यार दोस्त, गाँठि गरथ न दाम।
एक एकै संगि चलणाँ, बीचि नहीं बिश्राँम॥
संसार सागर बिषम तिरणाँ, सुमरि लै हरि नाँम।
कहै कबीर तहाँ जाइ रहणाँ, नगर बसत निधाँन॥
झूठा लोग कहैं घर मेरा।
जा घर माँहैं बोलै डोलैं, सोई नहीं तन तेरा॥टेक॥
बहुत बँध्या परिवार कुटुँब मैं, कोई नहीं किस केरा।
जीवित आँषि मूँदि किन देखौ, संसार अंध अँधेरा॥
बस्ती मैं थैं मारि चलाया, जंगलि किया बसेरा।
घर कौ खरच खबरि नहीं भेजी, आप न कीया फेरा॥
हस्ती घोड़ा बैल बाँहणी, संग्रह किया घणेरा।
भीतरि बीबी हरम महल मैं, साल मिया का डेरा॥
बाजी को बाजीगर जाँनैं कै बाजीगर का चेरा।
चोरा कबहूँ उझकि न देखै चेरा अधिक चितेरा॥
नौ मन सूत उरझि नहीं सुरझै, जनमि जनमि उरझेरा।
कहै कबीर एक राम भजहु रे, बहुरि न हैगा फेरा॥
हावड़ि धावड़ि जनम गवावै, कबहुँ न राम चरन चित लावै॥
जहाँ जहाँ दाँम तहाँ मन धावै, अँगुरी, गिनताँ रैंनि बिहावै।
तृया का बदन देखि सुख पावै, साथ की संगति कबहूँ न आवै॥
सरग के पंथि जात सब लोई सिर धरि पोट न पहुँच्या कोई।
कहै कबीर हरि कहा उबारे, अपणैं पाव आप जो मारै॥
प्राँणी काहै कै लोभ लागि, रतन जनम खोयौ।
बहुरि हीरा हाथि न आवै, राम बिना रोयौ॥टेक॥
जल बूँद थैं ज्यानि प्यंड बाँध्या, अगनि कुंढ रहाया।
दस मास माता उदरि राख्या, बहुरि लागी माया॥
एक पल जीवन का आसा नाहीं, जम निहारे सासा।
बाजीगर संसार कबीरा, जाँनि ढारौ पासा॥
फिरत कत फूल्यौ फूल्यौ।
जब दस मास उधर मुखि होते, सो दिन काहै भूल्यौ॥
जौ झारै तौ होई भसम तन, रहम कृम ह्नै जाई॥
काँचै कुंभ उद्यक भरि राख्यौ, तिनकी कौन बड़ाई॥
ज्यूँ माषी मधु संचि करि, जोरि जोरि धन कीनो॥
मूय पीछै लेहु लेहु करि, प्रेत रहन क्यूँ दोनों॥
ज्यू घर नारी संग देखि करि, तब लग संग सुहेली॥
मरघट घाट खैचि करि राखे, वह देखिहु हंस अकेली॥
राम न रमहु मदन कहा भूले, परत अँधेररैं कूवा॥
कहै कबीर सोई आप बँधायौ, ज्यूँ नलनी का सूवा॥
जाइ रे दिन हीं दिन देहा, करि लै बौरी राम सनेहा॥टेक॥
बालापन गयौ जोबन जासी, जुरा मरण भौ संकट आसी।
पलटै केस नैन जल छाया, मूरिख चेति बुढ़ापा आया॥
राम कहत लज्या क्यूँ कीजै, पल पल आउ घटै तन छीजै।
लज्या कहै हूँ जम की दासी, एकै हाथि मूदिगर दूजै हाथि पासी॥
कहै कबीर तिनहूँ सब हार्या, राम नाम जिनि मनहु बिसार्या॥
मेरी मेरी करताँ जनम गयौ, जनम गयौ पर हरि न कह्यौ॥टेक॥
बारह बरस बालापन खोयौ, बीस बरस कछु तप न कयौ।
तीन बरस कै राम न सुमिरौं, फिरि पछितानौं बिरध भयो॥
आयौ चोर तुरंग मुसि ले गयौ, मोरी राखत मगध फिरै॥
सीस चरन कर कंपन लागै, नैन नीर अस राल बहै।
जिभ्या बचन सूध नहीं निकसै, तब सुकरित की बात कहै॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ धन संच्यो कछु संगि न गयौ।
आई तलब गोपाल राइ की, मैंडी मंदिर छाड़ि चल्यौ॥
जाहि जाती नाँव न लीया, फिरि पछितावैगौ रे जीया॥
धंधा करत चरन कर घाटे, जाउ घटि तन खीना।
बिषै बिकार बहुत रुचि माँनी, माया मोह चित दीन्हाँ॥
जागि जागि नर काहें सोवै, सोइ सोइ कब जागेगा।
जब घर भीतरि चोर पड़ैंगे, अब अंचलि किसके लागेगा॥
कहै कबीर सुनहु रे संतो, करि ल्यौ जे कछु करणाँ।
लख चौरासी जोनि फिरौगे, बिना राम की सरनाँ॥
माया मोहि मोह हित कीन्हाँ, ताथैं मेरो ग्याँन ध्याँन हरि लीन्हाँ॥
संसार ऐसा सुपिन जैसा, न सुपिन समाँन।
साँच करि नरि गाँठि बाँध्यौं, छाड़ि परम निधाँन॥
नैन नेह पतंग हुलसै, पसू न पेखै आगि।
काल पासि जु मुगध बाँध्या, कलंक काँमिनी लागि॥
करि बिचार बिकार परहरि, तिरण तारण सोइ।
कहै कबीर रघुनाथ भजि नर, दूजा नाँही कोइ॥
तेरा तेरा झूठा मीठा लागा, ताथैं साचे सूँ मन भागा॥
झूठे के घरि झूठा आया, झूठै खाना पकाया।
झूठी सहन क झूठा बाह्या, झूठै झूठा खाया॥
झूठा ऊठण झूठा बैठण, झूठो सबै सगाई।
झूठे के घरि झूठा राता, साचे को न पत्याई॥
कहै कबीर अलह का पगुरा, साँचे सूँ मन लावौ।
झूठे केरी संगति त्यागौ, मन बंछित फल पावौ॥
कौंण कौण गया राम कौंण कौण न जासी,
पड़सी काया गढ़ माटी थासी॥टेक॥
इंद्र सरीखे गये नर कोड़ी, पाँचौं पाँडौं सरिषी जोड़ी।
धू अबिचल नहीं रहसी तारा, चंद सूर की आइसी वारा॥
कहै कबीर जब देखि संसारा, पड़सी घट रहसी निरकारा॥
ताथैं सेविये नाराँइणाँ प्रभू मेरो दीनदयाल दया करणाँ॥
जौ तुम्ह पंडित आगम जाँणौं, विद्या व्याकरणाँ।
तंत मंत सब ओषदि जाणौं, अति तऊ मरणाँ॥
राज पाट स्यंघासण आसण, बहु सुंदर रमणाँ।
चंदन चीर कपूर विराजत, अंति तऊ मरणाँ॥
जोगी जती तपी संन्यासी, बहु तीरथ भरमणाँ।
लुंचित मुंडित मोनि जटाधर, अंति तऊ मरणाँ॥
प्रोचि बिचारि सबै जग देख्या, कहूँ न ऊबरणाँ।
कहै कबीर सरणाई आयौ, मेटि जामन मरणाँ॥
पाँड़े न करसि बाद बिबादं, या देही बिना सबद न स्वादं॥
अंड ब्रह्मंड खंड भी माटी माटी नवनिधि काया।
माटी खोजत सतगुर भेट्या, तिन कछू अलख लखाया॥
जीवत माटी मूवा भी माटी, देखौ ग्यान बिचारी।
अंति कालि माटी मैं बासा, लेटे पाँव पसारी॥
माटी का चित्र पवन का थंभा, ब्यंद संजोगि उपाया।
भाँनैं घड़े सवारै सोई, यहु गोब्यंद की माया।
माटी का मंदिर ग्यान का दीप पवन बाति उजियारा।
तिहि उजियारै सब जग सूझै कबीर ग्याँन बिचारा॥
मेरी जिभ्या बिस्न नैन नाराँइन, हिरदै जपौं गोबिंदा।
जब दुवार जब लेख माँग्या, तब का कहिसि मुकंदा॥
तूँ ब्राह्मण मैं कासी का जुलाहा, चीन्हि न मोर गियाना।
तैं सब माँगे भूपति राजा, मोरे राम धियाना॥
पूरब जनम हम ब्राँह्मन होते, वोछैं करम तप हीनाँ।
रामदेव की सेवा चूका, पकरि जुलाहा कीन्हाँ॥
नौमी नेम दसमी करि संजम, एकादसी जागरणाँ।
द्वादसी दाँन पुन्नि की बेलाँ, सर्व पाप छ्यौ करणाँ॥
भौ बूड़त कछू उपाय करीजै, ज्यूँ तिरि लंघै तीरा।
राम नाम लिखि मेरा बाँधौ, कहै उपदेस कबीरा॥
कहु पाँडे कैसी सुचि कीजै, सुचि कीजै तौ जनम न लीजै॥
जा सुचि केरा करहु बिचारा, भिष्ट नए लीन्हा औतारा।
जा कारणि तुम्ह धरती काटी, तामै मूए जीव सौ साटी॥
जा कारणि तुम्ह लीन जनेऊ, थूक लगाइ कातै सब कोऊ।
एक खाल घृत केरी साखा, दूजी खाल मैले घृत राखा॥
सो घृत सब देवतनि चढ़ायौ, सोई घृत सब दुनियाँ भायौ।
कहै कबीर सुचि देहु बताई, राम नाम लीजौ रे भाई॥
कहु पाँड़े सुचि कवन ठाँव, जिहि घरि भोजन बैठि खाऊँ॥
माता जूठा पिता पुनि जूठा जूठे फल चिल लागे।
जूठ आँवन जूठा जाँनाँ, चेतहु क्यूँ न अभागे॥
अन्न जूठा पाँनी पुनि जूठा, जूठे बैठि पकाया।
जूठी कड़छी अन्न परोस्या, जूठे जूठा खाया॥
चौका जूठा गोबर जूठा, जूठी का ढोकारा।
कहै कबीर तेई जन सूचे, जे हरि भजि तजहिं बिकारा॥
हरि बिन झूठे सब ब्यौहार, केते कोऊ करौ गँवार॥टेक॥
झूठा जप तप झूठा ग्याँन, राम राम बिन झूठा ध्याँन।
बिजि नखेद पूजा आचार, सब दरिया मैं वार न पार॥
इंद्री स्वारथ मन के स्वाद, जहाँ साच तहाँ माँडै बाद।
दास कबीर रह्या ल्यौ लाइ, मर्म कर्म सब दिये बहाइ॥
चेतनि देखै रे जग धंधा,
राम नाम का मरम न जाँनैं, माया कै रसि अंधा॥टेक॥
जतमत हीरू कहा ले आयो, मरत कहा ले जासी।
जैसे तरवर बसत पँखेरू, दिवस चारि के बासी॥
आपा थापि अवर कौ निंदै, जन्मत हो जड़ काटी।
हरि को भगति बिना यहु देही, धब लौटैे ही फाटी॥
काँम क्रोध मोह मद मंछर, पर अपवाद न सुणिये।
कहैं कबीर साथ की संगति, राम नाम गुण भणिये॥
रे जम नाँहि नवै व्यापारी, जे भरैं जगाति तुम्हारी॥
बसुधा छाड़ि बनिज हम कीन्हों, लाद्यो हरि को नाँऊँ।
राम नाम की गूँनि भराऊँ, हरि कै टाँडे जाँऊँ॥
जिनकै तुम्ह अगिवानी कहियत, सो पूँजी हँम पासा।
अबै तुम्हारी कछु बल नाँहीं, कहै कबीरा दासा॥
मींयाँ तुम्ह सौं बोल्याँ बणि नहीं आवै।
हम मसकीन खुदाई बंदे, तुम्हारा जस मनि भावै॥
अलह अवलि दीन का साहिब, जार नहीं फुरमाया।
मुरिसद पीर तुम्हारै है को, कहौ कहाँ थैं आया॥
रोजा करै निवाज गुजारै, कलमैं भिसत न होई।
संतरि काबे इक दिल भीतरि, जे करि जानैं कोई॥
खसम पिछाँनि तरस करि जिय मैं माल मनी करि फीकी।
आपा जाँनि साँई कूँ जाँनै, तब ह्नै भिस्त सरीकी॥
माटी एक भेष धरि नाँनाँ, सब मैं ब्रह्म समानाँ॥
कहै कबीर भिस्त छिटकाई, दाजग ही मन मानाँ॥
अलह ल्यौ लाँयें काहे न रहिये, अह निसि केवल राम नाम कहिये॥
गुरमुखि कलमा ग्याँन मुखि छुरि, हुई हलाहल पचूँ पुरी॥
मन मसीति मैं किनहूँ न जाँनाँ, पंच पीर मालिम भगवानाँ॥
कहै कबीर मैं हरि गुन गाऊँ, हिंदू तुरक दोऊ समझाऊँ॥
रे दिल खोजि दिलहर खोजि, नाँ परि परेसाँनीं माँहि।
महल माल अजीज औरति, कोई दस्तगोरी क्यूँ नाँहि॥
पीराँ मुरीदाँ काजियाँ, मुलाँ अरू दरबेस।
कहाँ थे तुम्ह किनि कीये, अकलि है सब नेस॥
कुराना कतेबाँ अस पढ़ि पढ़ि, फिकरि या नहीं जाइ॥
दुक दम करारी जे करै, हाजिराँ सुर खुदाइ॥
दरोगाँ बकि बकि हूँहि खुसियाँ, बे अकलि बकहिं पुमाहिं।
इक साच खालिक खालक म्यानै, सो कछू सच सूरति माँहि॥
अलह पाक तूँ नापाक क्यूँ, अब दूसर नाँहीं कोइ।
कबीर करम करीम का, करनीं करै जाँनै सोइ॥
*टिप्पणी:* क-प्रति में आठवीं पंक्ति का पाठ इस प्रकार है-
साचु खलक खालक, सैल सूरति माँहि॥
खालिक हरि कहीं दर हाल।
पंजर जसि करद दुसमन मुरद करि पैमाल॥
भिस्त हुसकाँ दोजगाँ दुंदर दराज दिवाल।
पहनाम परदा ईत आतम, जहर जंगम जाल।
हम रफत रहबरहु समाँ, मैं खुर्दा सुमाँ बिसियार।
हम जिमीं असमाँन खालिक, गुद मुँसिकल कार॥
असमाँन म्यानैं लहँग दरिया, तहाँ गुसल करदा बूद।
करि फिकर रह सालक जसम, जहाँ से तहाँ मौजूद॥
हँम चु बूँद खालिक, गरक हम तुम पेस।
कबीर पहन खुदाइ की, रह दिगर दावानेस॥
अलह राम जीऊँ तेरे नाई, बंदे ऊपरि मिहर करी मेरे साँई॥
क्या ले माटी भुँइ सूँ, मारैं क्या जल देइ न्हवायें।
जो करै मसकीन सतावै, गूँन ही रहै छिपायें॥
क्या तू जू जप मंजन कीये, क्याँ मसीति सिर नाँयें।
रोजा करैं निमाज गुजारैं, क्या हज काबै जाँयें॥
ब्राह्मण ग्यारसि करै चौबीसौं, काजी महरम जाँन।
ग्यारह मास जुदे क्यू कीये, एकहि माँहि समाँन॥
जौ रे खुदाइ मसीति बसत है, और मुलिक किस केरा।
तीरथ मूरति राम निवासा, दुहु मैं किनहूँ न हेरा॥
पूरिब दिसा हरी का बासा, पछिम अलह मुकाँमा।
दिल ही खोजि दिलै दिल भीतरि, इहाँ राम रहिमाँनाँ॥
जेती औरति मरदाँ कहिये, सब मैं रूप तुम्हारा।
कबीर पंगुड़ा, अलह राम का, हरि गुर पीर हमारा॥
*टिप्पणी: * ख-सब मैं नूर तुम्हारा॥
मैं बड़ मैं बड़ मैं बड़ माँटी, मण दसना जट का दस गाँठी॥
मैं बाबा का जाध कहाँऊँ, अपणी मारी नींद चलाऊँ।
इनि अहंकार घणें घर घाले, नाचर कूदत जमपुरि चाले॥
कहै कबीर करता ही बाजी, एक पलक मैं राज बिराजी॥
काहे बीहो मेरे साथी, हूँ हाथी हरि केरा।
चौरासी लख जाके मुख मैं, सो च्यंत करेगा मेरा॥टेक॥
कहौ गौन षिबै कहौ कौन गाजै, कहा थैं पाँणी निसरै।
ऐसी कला अनत है जाकैं, सो हँम कौं क्यूँ बिसरै॥
जिनि ब्रह्मांड रच्यै बहु रचना, बाब बरन ससि सूरा।
पाइक पंच पुहमि जाकै प्रकटै, सो क्यूँ कहिये दूरा॥
नैन नालिक जिनि हरि सिरजे, बसन बसन बिधि काया।
साधू जन कौं क्यूँ बिसरै, ऐसा है राम राया॥
को काहू मरम न जानैं, मैं सरनाँगति तेरी।
कहै कबीर बाप राम राया, हुरमति राखहु मेरी॥
कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-7
कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-6
कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-5
कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-4
कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-3
कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-2
कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-1
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