कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-2

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कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-2

 

साखी – गुरुसिष हेरा कौ अंग,कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में

 

ऐसा कोई न मिले, हम कों दे उपदेस।

भौसागर में डूबता, कर गहि काढ़े केस॥1॥

 

ऐसा कोई न मिले, हम को लेइ पिछानि।

अपना करि किरपा करे, ले उतारै मैदानि॥2॥

 

ऐसा कोई ना मिले, राम भगति का गीत।

तनमन सौपे मृग ज्यूँ, सुने बधिक का गीत॥3॥

 

ऐसा कोई ना मिले, अपना घर देइ जराइ।

पंचूँ लरिका पटिक करि, रहै राम ल्यौ लाइ॥4॥

 

ऐसा कोई ना मिले, जासौ रहिये लागि।

सब जग जलता देखिये, अपणीं अपणीं आगि॥5॥

 

ऐसा कोई न मिले, बूझै सैन सुजान।

ढोल बजंता ना सुणौं, सुरवि बिहूँणा कान॥6॥)

 

ऐसा कोई ना मिले, जासूँ कहूँ निसंक।

जासूँ हिरदे की कहूँ, सो फिरि माडै कंक॥6॥

 

ऐसा कोई ना मिले, सब बिधि देइ बताइ।

सुनि मण्डल मैं पुरिष एक, ताहि रहै ल्यो लाइ॥7॥

 

हम देखत जग जात है, जग देखत हम जाँह।

ऐसा कोई ना मिले, पकड़ि छुड़ावै बाँह॥8॥

 

तीनि सनेही बहु मिले, चौथे मिले न कोइ।

सबे पियारे राम के, बैठे परबसि होइ॥9॥

 

माया मिले महोर्बती, कूड़े आखै बेउ।

कोइ घाइल बेध्या ना मिलै, साईं हंदा सैण॥10॥

 

सारा सूरा बहु मिलें, घाइला मिले न कोइ।

घाइल ही घाइल मिले, तब राम भगति दिढ़ होइ॥11॥

 

(टिप्पणी: ख-जब घाइल ही घाइल मिलै।

प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिलै न कोइ।)

 

प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, तब सब बिष अमृत होइ॥12॥

टिप्पणी: ख-जब प्रेमी ही प्रेमी मिलें।

 

हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।

अब घर जालौं तास का, जै चलै हमारे साथि॥13॥

 

जाणै ईछूँ क्या नहीं, बूझि न कीया गौन।

भूलौ भूल्या मिल्या, पंथ बतावै कौन॥15॥

 

कबीर जानींदा बूझिया, मारग दिया बताइ।

चलता चलता तहाँ गया, जहाँ निरंजन राइ॥16॥

 

साखी – सूरा तन कौ अंग

 

काइर हुवाँ न छूटिये, कछु सूरा तन साहि।

भरम भलका दूरि करि, सुमिरण सेल सँबाहि॥1॥

 

षूँड़ै षड़ा न छूटियो, सुणि रे जीव अबूझ।

कबीर मरि मैदान मैं, करि इंद्राँ सूँ झूझ॥2॥

 

कबीर साईं सूरिवाँ, मन सूँ माँडै झूझ।

पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज॥3॥

टिप्पणी: ख-पंच पयादा पकड़ि ले।

 

सूरा झूझै गिरदा सूँ, इक दिसि सूर न होइ।

कबीर यौं बिन सूरिवाँ, भला न कहिसी कोइ॥4॥

 

कबीर आरणि पैसि करि, पीछै रहै सु सूर।

सांईं सूँ साचा भया, रहसी सदा हजूर॥5॥

 

गगन दमाँमाँ बाजिया, पड़ा निसानै घाव।

खेत बुहार्‌या सूरिवै, मुझ मरणे का चाव॥6॥

 

कबीर मेरै संसा को नहीं, हरि सूँ लागा हेत।

काम क्रोध सूँ झूझणाँ, चौड़े माँड्या खेत॥7॥

 

सूरै सार सँबाहिया, पहर्‌या सहज संजोग।

अब कै ग्याँन गयंद चढ़ि, खेत पड़न का जोग॥8॥

 

सूरा तबही परषिये, लडै धणीं के हेत।

पुरिजा पुरिजा ह्नै पड़ै, तऊ न छाड़ै खेत॥9॥

 

खेत न छाड़ै सूरिवाँ, झूझै द्वै दल माँहि।

आसा जीवन मरण की, मन आँणे नाहि॥10॥

 

अब तो झूझ्याँही वणौं, मुढ़ि चाल्या घर दूरि।

सिर साहिब कौ सौंपता, सोच न कीजै सूरि॥11॥

 

अब तो ऐसी ह्नै पड़ी, मनकारु चित कीन्ह।

मरनै कहा डराइये, हाथि स्यँधौरा लीन्ह॥12॥

 

जिस मरनै थे जग डरै, सो मरे आनंद।

कब मारिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमाँनंद॥13॥

 

कायर बहुत पमाँवही बहकि न बोलै सूर।

कॉम पड्याँ ही जाँणिहै, किसके मुख परि नूर॥14॥

 

जाइ पूछौ उस घाइलै, दिवस पीड निस जाग।

बाँहणहारा जाणिहै, कै जाँणै जिस लाग॥15॥

 

घाइल घूमै गहि भर्‌या, राख्या रहे न ओट।

जतन कियाँ जावै नहीं, बणीं मरम की चोट॥16॥

 

ऊँचा विरष अकासि फल, पंषी मूए झूरि।

बहुत सयाँने पचि रहे, फल निरमल परि दूरि॥17॥

 

दूरि भया तौ का भया, सिर दे नेड़ा होइ।

जब लग सिर सौपे नहीं, कारिज सिधि न होइ॥18॥

 

कबीर यहु घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।

सीस उतारै हाथि करि, सो पैसे घर माँहि॥19॥

 

कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध।

सीर उतारि पग तलि धरै, तब निकटि प्रेम का स्वाद॥20॥

 

प्रेम न खेती नींपजे, प्रेम न हाटि बिकाइ।

राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥21॥

 

सीस काटि पासंग दिया, जीव सरभरि लीन्ह।

जाहि भावे सो आइ ल्यौ, प्रेम आट हँम कीन्ह॥22॥

 

सूरै सीस उतारिया, छाड़ी तन की आस।

आगै थैं हरि मुल किया, आवत देख्या दास॥23॥

 

भगति दुहेली राम की, नहिं कायर का काम।

सीस उतारै हाथि करि, सो लेसी हरि नाम॥24॥

 

भगति दुहेली राँम की, नहिं जैसि खाड़े की धार।

जे डोलै तो कटि पड़े, नहीं तो उतरै पार॥25॥

 

भगति दुहेली राँम की, जैसी अगनि की झाल।

डाकि पड़ै ते ऊबरे, दाधे कौतिगहार॥26॥

 

कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार।

ग्याँन षड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार॥27॥

 

कबीरा हीरा वणजिया, महँगे मोल अपार।

हाड़ गला माटी गली, सिर साटै ब्यौहार॥28॥

 

जेते तारे रैणि के, तेते बैरी मुझ।

घड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौं तुझ॥29॥

 

जे हारर्‌या तौ हरि सवां, जे जीत्या तो डाव।

पारब्रह्म कूँ सेवता, जे सिर जाइ त जाव॥30॥

 

सिर माटै हरि सेविए, छाड़ि जीव की बाँणि।

जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाँणि न जाणि॥31॥

 

टूटी बरत अकास थै, कोई न सकै झड़ झेल।

साथ सती अरु सूर का, अँणी ऊपिला खेल॥32॥

 

ढोल दमामा बाजिया, सबद सुणइ सब कोइ।

जैसल देखि सती भजे, तौ दुहु कुल हासी होइ॥32॥

 

सती पुकारै सलि चढ़ी, सुनी रे मीत मसाँन।

लोग बटाऊ चलि गए, हम तुझ रहे निदान॥33॥

 

सती बिचारी सत किया, काठौं सेज बिछाइ।

ले सूती पीव आपणा, चहुँ दिसि अगनि लगाइ॥34॥

 

सती सूरा तन साहि करि, तन मन कीया घाँण।

दिया महौल पीव कूँ, तब मड़हट करै बषाँण॥35॥

 

सती जलन कूँ नीकली, पीव का सुमरि सनेह।

सबद सुनन जीव निकल्या, भूति गई सब देह॥36॥

 

सती जलन कूँ नीकली, चित धरि एकबमेख।

तन मन सौंप्या पीव कूँ, तब अंतर रही न रेख॥37॥

 

हौं तोहि पूछौं हे सखी, जीवत क्यूँ न मराइ।

मूंवा पीछे सत करै, जीवत क्यूँ न कराइ॥38॥

 

कबीर प्रगट राम कहि, छाँनै राँम न गाइ।

फूस कौ जोड़ा दूरि करि, ज्यूँ बहुरि लागै लाइ॥39॥

 

कबीर हरि सबकूँ भजै, हरि कूँ भजै न कोइ।

जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ॥40॥

 

आप सवारथ मेदनी, भगत सवारथ दास।

कबीर राँम सवारथी, जिनि छाड़ीतन की आस॥41॥

 

 

साखी – काल कौ अंग

झूठे सुख कौ सुख कहैं, मानत है मन मोद।

खलक चवीणाँ काल का, कुछ मुख मैं कुछ गोद॥1॥

 

आज काल्हिक जिस हमैं, मारगि माल्हंता।

काल सिचाणाँ नर चिड़ा, औझड़ औच्यंताँ॥2॥

 

काल सिहाँणै यों खड़ा, जागि पियारो म्यंत।

रामसनेही बाहिरा तूँ क्यूँ सोवै नच्यंत॥3॥

 

सब जग सूता नींद भरि, संत न आवै नींद।

काल खड़ा सिर उपरै, ज्यूँ तोरणि आया बींद॥4॥

 

आज कहै हरि काल्हि भजौगा, काल्हि कहे फिरि काल्हि।

आज ही काल्हि करंतड़ाँ, औसर जासि चालि॥5॥

 

कबीर पल की सुधि नहीं, करै काल्हि का साज।

काल अच्यंता झड़पसी, ज्यूँ तीतर को बाज॥6॥

 

कबीर टग टग चोघताँ, पल पल गई बिहाइ।

जीव जँजाल न छाड़ई, जम दिया दमामा आइ॥7॥

 

जूरा कूंती, जीवन सभा, काल अहेड़ी बार।

पलक बिना मैं पाकड़ै, गरव्यो कहा गँवार॥8॥)

 

मैं अकेला ए दोइ जणाँ छेती नाँहीं काँइ।

जे जम आगै ऊबरो, तो जुरा पहूँती आइ॥8॥

 

बारी-बारी आपणीं, चेले पियारे म्यंत।

तेरी बारी रे जिया, नेड़ी आवै निंत॥9॥

 

मालन आवत देखि करि, कलियाँ करी पुकार।

फूले फूले चुणि लिए, काल्हि हमारी बार॥11॥

 

बाढ़ी आवत देखि करि, तरवर डोलन लाग।

हम कटे की कुछ नहीं, पंखेरू घर भाग॥12॥

 

फाँगुण आवत देखि करि, बन रूना मन माँहि।

ऊँची डाली पात है, दिन दिन पीले थाँहि॥13॥

 

पात पंडता यों कहै, सुनि तरवर बणराइ।

अब के बिछुड़े ना मिलै, कहि दूर पड़ैगे जाइ॥14॥)

 

दों की दाधी लाकड़ी, ठाढ़ी करै पुकार।

मति बसि पड़ौं लुहार के, जालै दूजी बार॥10॥

 

मेरा बीर लुहारिया, तू जिनि जालै मोहि।

इक दिन ऐसा होइगा, हूँ जालौंगी तोहि॥15॥)

 

जो ऊग्या सो आँथवै, फूल्या सो कुमिलाइ।

जो चिणियाँ सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ॥11॥

 

जो पहर्‌या सो फाटिसी, नाँव धर्‌या सो जाइ।

कबीर सोइ तत्त गहि, जो गुरि दिया बताइ॥12॥

 

निधड़क बैठा राम बिन, चेतनि करै पुकार।

यहु तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार॥13॥

 

पाँणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति।

एक दिनाँ छिप जाँहिंगे, तारे ज्यूँ परभाति॥14॥

 

कबीर यहु जग कुछ नहीं, षिन षारा षिन मीठ।

काल्हि जु बैठा माड़ियां, आज नसाँणाँ दीठ॥15॥

 

कबीर मंदिर आपणै, नित उठि करती आलि।

मड़हट देष्याँ डरपती, चौड़े दीन्हीं जालि॥16॥

 

मंदिर माँहि झबूकती, दीवा केसी जोति।

हंस बटाऊ चलि गया, काढ़ौ घर की छोति॥17॥

 

ऊँचा मंदिर धौलहर, माटी चित्री पौलि।

एक राम के नाँव बिन, जँम पाड़गा रौलि॥18॥

 

काएँ चिणावै मालिया, चुनै माटी लाइ।

मीच सुणैगी पायणी, उधोरा लैली आइ॥26॥

 

काएँ चिणावै मालिया, लाँबी भीति उसारि।

घर तौ साढ़ी तीनि हाथ, घणौ तौ पौंणा चारि॥27॥

 

ऊँचा महल चिणाँइयाँ, सोवन कलसु चढ़ाइ।

ते मंदर खाली पड़ा, रहे मसाणी जाइ॥28॥)

 

कबीर कहा गरबियो, काल गहै कर केस।

नाँ जाँणै कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस॥19॥

 

इहर अभागी माँछली, छापरि माँणी आलि।

डाबरड़ा छूटै नहीं, सकै त समंद सँभालि॥30॥

 

मँछी हुआ न छूटिए, झीवर मेरा काल।

जिहिं जिहिं डाबर हूँ फिरौ, तिहि तिहिं माँड़ै जाल॥31॥

 

पाँणी माँहि ला माँछली, सक तौ पाकड़ि तीर।

कड़ी कूद की काल की, आइ पहुँता कीर॥32॥

 

मंद बिकंता देखिया, झीवर के करवारि।

ऊँखड़िया रत बालियाँ, तुम क्यूँ बँधे जालि॥33॥

 

पाँणी मँहि घर किया, चेजा किया पतालि।

पासा पड़ा करम का, यूँ हम बीधे जाल॥34॥

 

सूकण लगा केवड़ा, तूटीं अरहर माल।

पाँणी की कल जाणताँ, गया ज सीचणहार॥35॥)

 

कबीर जंत्रा न बाजई, टूटि गए सब तार।

जंत्रा बिचारा क्या करै, चलै बजावणहार॥20॥

 

धवणि धवंती रहि गई, बुझि गए अंगार।

अहरणि रह्या ठमूकड़ा, जब उठि चले लुहार॥21॥

 

कबीर हरणी दूबली, इस हरियालै तालि।

लख अहेड़ी एक जीव, कित एक टालौ भालि॥38॥)

 

पंथी ऊभा पंथ सिरि, बुगचा बाँध्या पूठि।

मरणाँ मुँह आगै खड़ा, जीवण का सब झूठ॥22॥

 

जिसहि न हरण इत जागि, सी क्यूँ लौड़े मीत।

जैसे पर घर पाहुण, रहै उठाए चीत॥40॥)

 

यहु जिव आया दूर थैं, अजौ भी जासी दूरि।

बिच कै बासै रमि रह्या, काल रह्या सर पूरि॥23॥

 

कबीर गफिल क्या फिरै, सोवै कहा न चीत।

एवड़ माहि तै ले चल्या, भज्या पकड़ि षरीस॥45॥

 

साईं सू मिसि मछीला, के जा सुमिरै लाहूत।

कबही उझंकै कटिसी, हुँण ज्यों बगमंकाहु॥46॥)

 

राम कह्या तिनि कहि लिया, जुरा पहूँती आइ।

मंदिर लागै द्वार यै, तब कुछ काढणां न जाइ॥24॥

 

बरिया बीती बल गया, बरन पलट्या और।

बिगड़ीबात न बाहुणै, कर छिटक्याँ कत ठौर॥25॥

 

बरिया बीती बल गया, अरू बुरा कमाया।

हरि जिन छाड़ै हाथ थैं, दिन नेड़ा आया॥26॥

 

कबीर हरि सूँ हेत करि, कूड़ै चित्त न लाव।

बाँध्या बार षटीक कै, तापसु किती एक आव॥27॥

 

बिष के बन मैं घर किया, सरप रहे लपटाइ।

ताथैं जियरे डरैं गह्या, जागत रैणि बिहाइ॥28॥

 

कबीर सब सुख राम है, और दुखाँ की रासि।

सुर नर मुनिवर असुर सब, पड़े काल की पासि॥29॥

 

काची काया मन अथिर, थिर थिर काँम करंत।

ज्यूँ ज्यूँ नर निधड़क फिरै, त्यूँ त्यूँ काल हसंत॥30॥

 

बेटा जाया तो का भया, कहा बजावै थाल।

आवण जाणा ह्नै रहा, ज्यौ कीड़ी का थाल॥51॥)

 

रोवणहारे भी मुए, मुए जलाँवणहार।

हा हा करते ते मुए, कासनि करौं पुकार॥31॥

 

जिनि हम जाए ते मुए, हम भी चालणहार।

जे हमको आगै मिलै, तिन भी बंध्या मार॥32॥

 

साखी – कस्तूरियाँ मृग कौ अंग

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।

ऐसै घटि घटि राँम हैं, दुनियाँ देखै नाँहि॥1॥

 

कोइ एक देखै संत जन, जाँकै पाँचूँ हाथि।

जाके पाँचूँ बस नहीं, ता हरि संग न साथि॥2॥

 

सो साईं तन में बसै, भ्रम्यों न जाणै तास।

कस्तूरी के मृग ज्यूँ फिरि फिरि सूँघै घास॥3॥

 

हूँ रोऊँ संसार कौ, मुझे न रोवै कोइ।

मुझको सोई रोइसी, जे राम सनेही होइ॥5॥

 

मूरो कौ का रोइए, जो अपणै घर जाइ।

रोइए बंदीवान को, जो हाटै हाट बिकाइ॥6॥

 

बाग बिछिटे मिग्र लौ, ति हि जि मारै कोइ।

आपै हौ मरि जाइसी, डावाँ डोला होइ॥7॥)

 

कबीर खोजी राम का, गया जु सिंघल दीप।

राम तौ घट भीतर रमि रह्या, जो आवै परतीत॥4॥

 

घटि बधि कहीं न देखिए, ब्रह्म रह्या भरपूरि।

जिनि जान्या तिनि निकट है, दूरि कहैं थे दूरि॥5॥

 

मैं जाँण्याँ हरि दूरि है, हरि रह्या सकल भरपूरि।

आप पिछाँणै बाहिरा, नेड़ा ही थैं दूरि॥6॥

 

कबीर बहुत दिवस भटकट रह्या, मन में विषै विसाम।

ढूँढत ढूँढत जग फिर्‌या, तिणकै ओल्है राँम॥7॥)

 

तिणकै ओल्हे राम है, परबत मेहैं भाइ।

सतगुर मिलि परचा भया, तब हरि पाया घट माँहि॥7॥

 

राँम नाँम तिहूँ लोक मैं, सकलहु रह्या भरपूरि।

यह चतुराई जाहु जलि, खोजत डोलैं दूरि॥8॥

 

हरि दरियाँ सूभर भरिया, दरिया वार न पार।

खालिक बिन खाली नहीं, जेंवा सूई संचार॥10॥)

 

ज्यूँ नैनूँ मैं पूतली, त्यूँ खालिक घट माँहि।

मूरखि लोग न जाँणहिं, बाहरि ढूँढण जाँहि॥9॥

 

पद – राग धनाश्री

 

जपि जपि रे जीयरा गोब्यंदो, हित चित परमांनंदौ रे।

बिरही जन कौ बाल हौ, सब सुख आनंदकंदौ रे॥टेक॥

धन धन झीखत धन गयौ, सो धन मिल्यौ न आये रे॥

ज्यूँ बन फूली मालती, जन्म अबिरथा जाये रे॥

प्रांणी प्रीति न कीजिये, इहि झूठे संसारी रे॥

धूंवां केरा धौलहर जात न लागै बारी रे॥

माटी केरा पूतला, काहै गरब कराये रे॥

दिवस चार कौ पेखनौ, फिरि माटी मिलि जाये रे॥

कांमीं राम न भावई, भावै विषै बिकारी रे॥

लोह नाव पाहन भरी, बूड़त नांही बारी रे॥

नां मन मूवा न मारि सक्या, नां हरि भजि उतर्‌या पारो रे॥

कबीर कंचन गहि रह्यौ, काच गहै संसार रे॥

 

न कछु रे न कछू राम बिनां।

सरीर धरे की रहै परमगति, साध संगति रहनाँ॥टेक॥

मंदिर रचत मास दस लागै, बिनसत एक छिनां।

झूठे सुख के कारनि प्रांनीं, परपंच करता घना॥

तात मात सुख लोग कुटुंब, मैं फूल्यो फिरत मनां।

कहै कबीर राम भजि बौरे, छांड़ि सकल भ्रमनां॥

 

कहा नर गरबसि थोरी बात।

मन दस नाज टका दस गंठिया, टेढ़ौ टेढ़ौ जात॥टेक॥

कहा लै आयौ यहु धन कोऊ, कहा कोऊ लै जात॥

दिवस चारि की है पतिसाही, ज्यूँ बनि हरियल पात॥

राजा भयौ गाँव सौ पाये, टका लाख दस ब्रात॥

रावन होत लंका को छत्रापति, पल मैं गई बिहात॥

माता पिता लोक सुत बनिता, अंत न चले संगात॥

कहै कबीर राम भजि बौरे, जनम अकारथ जात॥

 

नर पछिताहुगे अंधा।

चेति देखि नर जमपुरि जैहै, क्यूँ बिसरौ गोब्यंदा॥टेक॥

गरभ कुंडिनल जब तूँ बसता, उरध ध्याँन ल्यो लाया।

उरध ध्याँन मृत मंडलि आया, नरहरि नांव भुलाया॥

बाल विनोद छहूँ रस भीनाँ, छिन छिन बिन मोह बियापै॥

बिष अमृत पहिचांनन लागौ, पाँच भाँति रस चाखै॥

तरन तेज पर तिय मुख जोवै, सर अपसर नहीं जानैं॥

अति उदमादि महामद मातौ, पाष पुंनि न पिछानै॥

प्यंडर केस कुसुम भये धौला, सेत पलटि गई बांनीं॥

गया क्रोध मन भया जु पावस, कांम पियास मंदाँनीं॥

तूटी गाँठि दया धरम उपज्या, काया कवल कुमिलांनां॥

मरती बेर बिसूरन लागौ, फिरि पीछैं पछितांनां॥

कहै कबीर सुनहुं रे संतौ, धन माया कछू संगि न गया॥

आई तलब गोपाल राइ की, धरती सैन भया॥401॥

 

लोका मति के भोरा रे।

जो कासी तन तजै कबीर, तौ रामहिं कहा निहोरा रे॥टेक॥

तब हमें वैसे अब हम ऐसे, इहै जनम का लाहा।

ज्यूँ जल मैं जल पैसि न निकसै, यूँ ढुरि मिलै जुलाहा॥

राम भगति परि जाकौ हित चित, ताकौ अचिरज काहा॥

गुर प्रसाद साध की संगति, जग जीते जाइ जुलाहा॥

कहै कबीर सुनहु रे संतो, भ्रमि परे जिनि कोई॥

जसं कासी तस मगहर ऊसर हिरदै राम सति होई॥

 

ऐसी आरती त्रिभुवन तारै, तेज पुंज तहाँ प्रांन उतारै॥

पाती पंच पुहुप करि पूजा, देव निरंजन और न दूजा॥

तन मन सीस समरपन कीन्हां, प्रकट जोति तहाँ आतम लीना॥

दीपक ग्यान सबद धुनि घंटा पर पुरिख तहाँ देव अनंता॥

परम प्रकाश सकल उजियारा, कहै कबीर मैं दास तुम्हारा॥

 

साखी – निगुणाँ कौ अंग

हरिया जाँणै रूषड़ा, उस पाँणीं का नेह।

सूका काठ न जाणई, कबहू बूठा मेह॥1॥

 

झिरिमिरि झिरिमिरि बरषिया, पाँहण ऊपरि मेह।

माटी गलि सैंजल भई, पाँहण वोही तेह॥2॥

 

पार ब्रह्म बूठा मोतियाँ, बाँधी सिषराँह।

सगुराँ सगुराँ चुणि लिया, चूक पड़ी निगुराँह॥3॥

 

कबीर हरि रस बरषिया, गिर डूँगर सिषराँह।

नीर मिबाणाँ ठाहरै, नाऊँ छा परड़ाँह॥4॥

 

कबीर मूँडठ करमिया, नव सिष पाषर ज्याँह।

बाँहणहारा क्या करै, बाँण न लागै त्याँह॥5॥

 

कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझा मन।

कहि कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सुपहला दिन॥6॥

 

कहि कबीर कठोर कै, सबद न लागै सार।

सुधबुध कै हिरदै भिदै, उपजि विवेक विचार॥7॥

 

बेकाँमी को सर जिनि बाहै, साठी खोवै मूल गँवावे।

दास कबीर ताहि को बाहैं, गलि सनाह सनमुखसरसाहै॥8॥

 

पसुआ सौ पानी पड़ो, रहि रहि याम खीजि।

ऊसर बाह्यौ न ऊगसी, भावै दूणाँ बीज॥9॥)

 

मा सीतलता के कारणै, माग बिलंबे आइ।

रोम रोम बिष भरि रह्या, अमृत कहा समाइ॥8॥

 

सरपहि दूध पिलाइये, दूधैं विष ह्नै जाइ।

ऐसा कोई नाँ मिले, स्यूँ सरपैं विष खाइ॥9॥

 

जालौ इहै बड़पणाँ, सरलै पेड़ि खजूरि।

पंखी छाँह न बीसवै, फल लागे ते दूरि॥10॥

 

ऊँचा कूल के कारणै, बंस बध्या अधिकार।

चंदन बास भेदै नहीं, जाल्या सब परिवार॥11॥

 

कबीर चंदन के निड़ै, नींव भि चंदन होइ।

बूड़ा बंस बड़ाइताँ, यौं जिनि बूड़ै कोइ॥12॥

 

पद – राग गौड़ी

 

        दुलहनी गावहु मंगलचार,

        हम घरि आए हो राजा राम भरतार॥टेक॥

        तन रत करि मैं मन रत करिहूँ, पंचतत्त बराती।

        राम देव मोरैं पाँहुनैं आये मैं जोबन मैं माती॥

        सरीर सरोवर बेदी करिहूँ, ब्रह्मा वेद उचार।

        रामदेव सँगि भाँवरी लैहूँ, धनि धनि भाग हमार॥

        सुर तेतीसूँ कौतिग आये, मुनिवर सहस अठ्यासी।

        कहै कबीर हँम ब्याहि चले हैं, पुरिष एक अबिनासी॥1॥

 

        बहुत दिनन थैं मैं प्रीतम पाये, भाग बड़े घरि बैठे आये॥टेक॥

        मंगलाचार माँहि मन राखौं, राम रसाँइण रमना चाषौं।

        मंदिर माँहि भयो उजियारा, ले सुतो अपना पीव पियारा॥

        मैं रनि राती जे निधि पाई, हमहिं कहाँ यह तुमहि बड़ाइ।

        कहै कबीर मैं कछु न कीन्हा सखी सुहाग मोहि दीन्हा॥

 

        अब तोहि जान न देहुँ राम पियारे, ज्यूँ भावै त्यूँ होहु हमारे॥

        बहुत दिनन के बिछुरे हरि पाये, भाग बड़े घरि बैठे आये॥

        चरननि लागि करौं बरियायी, प्रेम प्रीति राखौं उरझाई।

        इत मन मंदिर रहौ नित चोषै, कहै कबीर करहु मति घोषैं॥

 

        मन के मोहन बिठुला, यह मन लागौ तोहि रे।

        चरन कँवल मन मानियाँ, और न भावै मोहि रे॥टेक॥

        षट दल कँवल निवासिया, चहु कौं फेरि मिलाइ रे।

        दहुँ के बीचि समाधियाँ, तहाँ काल न पासैं आइ रे॥

        अष्ट कँवल दल भीतरा, तहाँ श्रीरंग केलि कराइ रे।

        सतगुर मिलै तौ पाइए, नहिं तौ जन्म अक्यारथ जाइ रे॥

        कदली कुसुम दल भीतराँ, तहाँ दस आँगुल का बीच रे।

        तहाँ दुवारस खोजि ले जनम होत नहीं मीच रे॥

        बंक नालि के अंतरै, पछिम दिसाँ की बाट रे।

        नीझर झरै रस पीजिये, तहाँ भँवर गुफा के घाट रे॥

        त्रिवेणी मनाइ न्हवाइए सुरति मिलै जो हाथि रे।

        तहाँ न फिरि मघ जोइए सनकादिक मिलिहै साथि रे॥

        गगन गरिज मघ जोइये, तहाँ दीसै तार अनंत रे।

        बिजुरी चमकि घन बरषिहै, तहाँ भीजत हैं सब संत रे॥

        षोडस कँवल जब चेतिया, तब मिलि गये श्री बनवारि रे।

        जुरामरण भ्रम भाजिया, पुनरपि जनम निवारि रे॥

        गुर गमि तैं पाइए झषि सरे जिनि कोइ रे।

        तहीं कबीरा रमि रह्या सहज समाधी सोइ रे॥

        *टिप्पणी: * ख-जन्म अमोलिक।

 

        गोकल नाइक बीठुला, मेरौ मन लागै तोहि रे।

        बहुतक दिन बिछुरै भये, तेरी औसेरि आवै मोहि रे॥

        करम कोटि कौ ग्रेह रच्यो रे, नेह कये की आस रे।

        आपहिं आप बँधाइया, द्वै लोचन मरहिं पियास रे॥

        आपा पर संमि चीन्हिये, दीसैं सरब सँमान।

        इहि पद नरहरि भेटिये, तूँ छाड़ि कपट अभिमान रे॥

        नाँ कलहूँ चलि जाइये नाँ सिर लीजै भार।

        रसनाँ रसहिं बिचारिये, सारँग श्रीरँग धार रे॥

        साधै सिधि ऐसी पाइये, किंवा होइ महोइ।

        जे दिठ ग्यान न ऊपजै, तौ आहुटि रहै जिनि कोइ रे॥

        एक जुगति एकै मिलैं किंबा जोग कि भोग।

        इन दून्यूँ फल पाइये, राम नाँम सिधि जोग रे॥

        प्रेम भगति ऐसी कीजिये, मुखि अमृत अरिषै चंद रे।

        आपही आप बिचारिये, तब कंता होइ अनंद रे॥

        तुम्ह जिनि जानौं गीत है, यहू निज ब्रह्म विचार।

        केवल कहि समझाइया, आतम साधन सार रे।

        चरन कँवल चित लाइये, राम नाम गुन गाइ॥

        कहै कबीर मंसा नहीं, भगति मुकति गति पाइ रे॥

        *टिप्पणी:* ख-प्रति में इसके आगे यह पद है-

 

        अब मैं राम सकल सिधि पाई, आन कहूँ तौ राम दुहाई॥

        इहि विधि बसि सबै रस दीठा, राम नाम सा और न मीठा।

        और रस ह्नै कफगाता, हरिरस अधिक अधिक सुखराता॥

        दूजा बणज नहीं कछु वाषर, राम नाम दोऊ तत आषर।

        कहै कबीर हरिस भोगी, ताकौं मिल्या निरंजन जोगी॥

 

        अब मैं पाइबो रे पाइबो ब्रह्म गियान,

        सहज समाधें सुख में रहिबो, कोटि कलप विश्राम॥

        गुर कृपाल कृपा जब कीन्हौं, हिरदै कँवल बिगासा।

        भाग भ्रम दसौं दिस सुझ्या, परम जोति प्रकासा॥

        मृतक उठ्या धनक कर लीयै, काल अहेड़ी भाषा।

        उदय सूर निस किया पयाँनाँ, सोवत थैं जब जागा॥

        अविगत अकल अनुपम देख्या, कहताँ कह्या न जाई।

        सैन करै मन हो मर रहसैं, गूँगैं जाँनि मिठाई॥

        पहुप बिनाँ एक तरवर फलिया, बिन कर तूर बजाया।

        नारी बिना नीर घट भरिया, सहज रूप सौ पाया॥

        देखत काँच भया तन कंचन, बिना बानी मन माँनाँ।

        उड़îा बिहंगम खोज न पाया, ज्यूँ जल जलहिं समाँनाँ॥

        पूज्या देव बहुरि नहीं पूजौं, न्हाये उदिक न नाउँ।

        आपे मैं तब आया निरष्या, अपन पै आपा सूझ्या।

        आपै कहत सुनत पुनि अपनाँ, अपन पै आपा बूझ्या॥

        अपनै परचै लागी तारी, अपन पै आप समाँनाँ।

        कहै कबीर जे आप बिचारै, मिटि गया आवन जाँना॥

 

        नरहरि सहजै ही जिनि जाना।

        गत फल फूल तत तर पलव, अंकूर बीज नसाँनाँ॥

        प्रकट प्रकास ग्यान गुरगमि थैं, ब्रह्म अगनि प्रजारी।

        ससि हरि सूर दूर दूरंतर, लागी जोग जुग तारी॥

        उलटे पवन चक्र षट बेधा, मेर डंड सरपूरा।

        गगन गरजि मन सुंनि समाना, बाजे अनहद तूरा॥

        सुमति सरीर कबीर बिचारी, त्रिकुटी संगम स्वामी।

        पद आनंद काल थैं छूटै, सुख मैं सुरति समाँनी॥

 

        मन रे मन ही उलटि समाँना।

        गुर प्रसादि अकलि भई तोकौं नहीं तर था बेगाँना॥

        नेड़ै थे दूरि दूर थैं नियरा, जिनि जैसा करि जाना।

        औ लौ ठीका चढ्या बलीडै, जिनि पीया तिनि माना॥

        उलटे पवन चक्र षट बेधा, सुन सुरति लै लागि।

        अमर न मरै मरै नहीं जीवै, ताहि खोजि बैरागी॥

        अनभै कथा कवन सी कहिये, है कोई चतुर बिबेकी।

        कहै कबीर गुर दिया पलीता, सौ झल बिरलै देखी॥

 

        इति तत राम जपहु रे प्राँनी, बुझौ अकथ कहाँणी।

        हीर का भाव होइ जा ऊपरि जाग्रत रैनि बिहानी॥

        डाँइन डारै, सुनहाँ डोरै स्पंध रहै बन घेरै।

        पंच कुटुंब मिलि झुझन लागे, बाजत सबद सँघेरै॥

        रोहै मृग ससा बन घेरे, पारथी बाँण न मेलै।

        सायर जलै सकल बन दाझँ, मंछ अहेरा खेलै॥

        सोई पंडित सो तत ज्ञाता, जो इहि पदहि बिचारै।

        कहै कबीर सोइ गुर मेरा, आप तीरै मोहि तारै॥

 

        अवधू ग्यान लहरि धुनि मीडि रे।

        सबद अतीत अनाहद राता, इहि विधि त्रिष्णाँ षाँड़ी॥

        बन कै संसै समंद पर कीया मंछा बसै पहाड़ी।

        सुई पीवै ब्राँह्मण मतवाला, फल लागा बिन बाड़ी॥

        षाड बुणैं कोली मैं बैठी, मैं खूँटा मैं गाढ़ी।

        ताँणे वाणे पड़ी अनँवासी, सूत कहै बुणि गाढ़॥

        कहै कबीर सुनहु रे संतौ, अगम ग्यान पद माँही।

        गुरु प्रसाद सुई कै नांकै, हस्ती आवै जाँही॥

 

        एक अचंभा देखा रे भाई, ठाढ़ा सिंध चरावै गाई॥टेक॥

        पहले पूत पीछे भइ माँई, चेला कै गुरु लागै पाई।

        जल की मछली तरवर ब्याई, पकरि बिलाई मुरगै खाई॥

        बैलहि डारि गूँनि घरि आई, कुत्ता कूँ लै गई बिलाई॥

        तलिकर साषा ऊपरि करि मूल बहुत भाँति जड़ लगे फूल।

        कहै कबीर या पद को बूझै, ताँकूँ तीन्यूँ त्रिभुवन सूझै॥

 

        हरि के षारे बड़े पकाये, जिनि जारे तिनि पाये।

        ग्यान अचेत फिरै नर लोई, ता जनमि डहकाए॥

        धौल मँदलिया बैल रबाबी, बऊवा ताल बजावै।

        पहरि चोलन आदम नाचै, भैसाँ निरति कहावै॥

        स्यंध बैठा पान कतरै, घूँस गिलौरा लावै॥

        उँदरी बपुरी मंगल गावै, कछु एक आनंद सुनावै॥

        कहै कबीर सुनहु रे संतौ, गडरी परबत खावा।

        चकवा बैसि अँगारे निगले, समंद अकासा धावा॥

 

        चरखा जिनि जरे।

        कतौंगी हजरी का सूत नणद के भइया कीसौं॥

        जलि जाई थलि ऊपजी, आई नगर मैं आप।

        एक अचंभा देखिया, बिटिया जायौ बाप॥

        बाबल मेरा ब्याह करि, बर उत्यम ले चाहि।

        जब लग बर पावै नहीं, तब लग तूँ ही ब्याहि॥

        सुबधी कै घरि लुबधी आयो, आन बहू कै भाइ।

        चूल्हे अगनि बताइ करि, फल सौ दीयो ठठाइ॥

        सब जगही मर जाइयौ, एक बड़इया जिनि मरै।

        सब राँडनि कौ साथ चरषा को धारै॥

        कहै कबीर सो पंडित ज्ञाता जो या पदही बिचारै।

        पहलै परच गुर मिलै तौ पीछैं सतगुर तारे॥

 

        अब मोहि ले चलि नणद के बीर, अपने देसा।

        इन पंचनि मिलि लूटी हूँ, कुसंग आहि बदेसा॥टेक॥

        गंग तीर मोरी खेती बारी, जमुन तीर खरिहानाँ।

        सातौं बिरही मेरे निपजैं, पंचूँ मोर किसानाँ॥

        कहै कबीर यह अकथ कथा है, कहताँ कही न जाई।

        सहज भाइ जिहिं ऊपजै, ते रमि रहै समाई॥

 

        अब हम सकल कुसल करि माँनाँ, स्वाँति भई तब गोब्यंद जाँनाँ॥ टेक ॥

        तन मैं होती कोटि उपाधि, भई सुख सहज समाधि॥

        जम थैं उलटि भये हैं राम, दुःख सुख किया विश्राँम॥

        बैरी उलटि भये हैं मीता साषत उलटि सजन भये चीता॥

        आपा जानि उलटि ले आप, तौ नहीं ब्यापै तीन्यूँ ताप॥

        अब मन उलटि सनातन हूवा, तब हम जाँनाँ जीवन मूवा॥

        कहै कबीर सुख सहज समाऊँ, आप न डरौं न और डराऊँ॥

 

        संतौं भाई आई ग्यान की आँधी रे।

        भ्रम की टाटी सबै उडाँणी, माया रहै न बाँधी॥टेक॥

        हिति चित की द्वै थूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा।

        त्रिस्नाँ छाँति परि घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा॥

        जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी॥

        कूड़ कपट काया का निकस्या हरि की गति जब जाँणी॥

        आँधी पीछै जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भींनाँ।

        कहै कबीर माँन के प्रगटे उदित भया तम षींनाँ॥

 

        ब घटि प्रगट भये राम राई, साधि सरीर कनक की नाई॥टेक॥

        नक कसौटी जैसे कसि लेइ सुनारा, सोधि सरीर भयो तनसारा॥

        उपजत उपजत बहुत उपाई, मन थिर भयो तबै तिथि पाई॥

        बाहरि षोजत जनम गँवाया, उनमनीं ध्यान घट भीतरि पाया।

        बिन परचै तन काँच कबीरा, परचैं कंचन भया कबीरा॥

 

        हिंडोलनाँ तहाँ झूलैं आतम राम।

        प्रेम भगति हिंडोलना, सब संतन कौ विश्राम॥टेक॥

        चंद सूर दोइ खंभवा, बंक नालि की डोरि।

        झूलें पंच पियारियाँ, तहाँ झूलै जीय मोर॥

        द्वादस गम के अंतरा, तहाँ अमृत कौ ग्रास।

        जिनि यह अमृत चाषिया, सो ठाकुर हम दास॥

        सहज सुँनि कौ नेहरौ गगन मंडल सिरिमौर।

        दोऊ कुल हम आगरी, जो हम झूलै हिंडोल॥

        अरध उरध की गंगा जमुना, मूल कवल कौ घाट।

        षट चक्र की गागरी, त्रिवेणीं संगम बाट।

        नाद ब्यंद की नावरी, राम नाम कनिहार।

        कहै कबीर गुण गाइ ले, गुर गँमि उतरौ पार॥

 

        कौ बीनैं प्रेम लागी री माई कौ बीन। राम रसाइण मातेरी, माई को बीनैं॥टेक॥

        पाई पाई तूँ पुतिहाई, पाई की तुरियाँ बेचि खाई री, माई कौ बीनैं॥

        ऐसैं पाईपर बिथुराई, त्यूँ रस आनि बनायौ री, माई कौ बीनैं।

        नाचैं ताँनाँ नाँचै बाँनाँ, नाचैं कूँ पुराना री, माई को बीनैं॥

 

        मैं बुनि करि सियाँनाँ हो राम, नालि करम नहीं ऊबरे॥

        दखिन कूट जब सुनहाँ झूका, तब हम सगुन बिचारा।

        लरके परके सब जागत है हम घरि चोर पसारा हो राम॥

        ताँनाँ लीन्हाँ बाँनाँ लीन्हाँ, माँस चलवना डऊवा हो राम।

        एक पग दोई पग त्रोपग, सँघ सधि मिलाई।

        कर परपंच मोट बाँधि आये, किलिकिलि सबै मिटाई हो राम॥

        ताँनाँ तनि करि बाँनाँ बुनि करि, छाक परी मोहि ध्याँन।

        कहै कबीर मैं बुंनि सिराँना जानत है भगवाँनाँ हो राम॥

 

        तननाँ बुनना तज्या कबीर, राम नाम लिखि लिया शरीर॥टेक॥

        जब लग भरौं नली का बेह, तब लग टूटै राम सनेह॥

        ठाड़ी रोवै कबीर की माइ, ए लरिका क्यूँ जीवै खुदाइ।

        कहै कबीर सुनहुँ री माई, पूरणहारा त्रिभुवन राइ॥

 

        जुगिया न्याइ मरै मरि जाइ।

        धर जाजरौ बलीडौ टेढ़ौ, औलोती डर राइ॥

        मगरी तजौ प्रीति पाषे सूँ डाँडी देहु लगाइ।

        छींको छोड़ि उपरहि डौ बाँधा, ज्यूँ जुगि जुगि रहौ समाइ।

        बैसि परहडी द्वार मुँदावौं, ख्यावों पूत घर घेरी।

        जेठी धीय सासरे पठवौं, ज्यूँ बहुरि न आवै फेरी॥

        लहुरी धीइ सवै कुश धोयौ, तब ढिग बैठन माई।

        कहै कबीर भाग बपरी कौ, किलिकिलि सबै चुकाँई॥

 

        मन रे जागत रहिये भाई।

        गाफिल होइ बसत मति खोवै, चोर मूसै घर जाई॥

        षट चक की कनक कोठड़ी, बसत भाव है सोई।

        ताला कूँजी कुलफ के लागे, उघड़त बार न होई॥

        पंच पहरवा सोइ गये हैं, बसतै जागण लोगी।

        करत बिचार मनहीं मन उपजी, नाँ कहीं गया न आया।

        कहै कबीर संसा सब छूटा, राम रतन धन पाया॥

 

        चलन चलन सब को कहत है, नाँ जाँनौं बैकुंठ कहाँ है॥

        जोजन एक प्रमिति नहिं जानै, बातन ही बैकुंठ बषानै।

        जब लग है बैकुंठ की आसा, तब लग नाहीं हरि चरन निवासा॥

        कहें सुनें कैसें पतिअइये, जब लग तहाँ आप नहिं जइये।

        कहै कबीर बहु कहिये काहि, साध संगति बैकुंठहि आहि॥

 

        अपने विचारि असवारी कीजै, सहज के पाइड़े पाव जब दीजे॥

        दै मुहरा लगाँम पहिराँऊँ, सिकली जीन गगन दौराऊँ।

        चलि बैकुंठ तोहि लै तारों, थकहि त प्रेम ताजनैं मारूँ॥

        जन कबीर ऐसा असवारा, बेद कतेब दहूँ थैं न्यारा॥

 

        अपनैं मैं रँगि आपनपो जानूँ, जिहि रंगि जाँनि ताही कूँ माँनूँ॥

        अभि अंतरि मन रंग समानाँ, लोग कहैं कबीर बौरानाँ।

        रंग न चीन्हैं मुरखि लोई, जिह रँगि रंग रह्या सब कोई॥

        जे रंग कबहूँ न आवै न जाई, कहै कबीर तिहिं रह्या समाई॥

 

        झगरा एक नवेरो राम, जें तुम्ह अपने जन सूँ काँम॥टेक॥

        ब्रह्म बड़ा कि जिनि रू उपाया, बेद बड़ा कि जहाँ थैं आया।

        यह मन बड़ा कि जहाँ मन मानै, राम बड़ा कि रामहि जान।

        कहै कबीर हूँ खरा उदास, तीरथ बड़े कि हरि के दास॥

 

        दास रामहिं जानि है रे, और न जानै कोइ॥टेक॥

        काजल दइ सबै कोई, चषि चाहन माँहि बिनाँन।

        जिनि लोइनि मन मोहिया, ते लोइन परबाँन॥

        बहुत भगति भौसागरा, नाँनाँ विधि नाँनाँ भाव।

        जिहि हिरदै श्रीहरि, भेटिया, सो भेद कहूँ कहूँ ठाउँ॥

        तरसन सँमि का कीजिये, जौ गुनहिं होत समाँन।

        सींधव नीर कबीर मिल्यौ है, फटक न मिल पखाँन॥

 

        कैसे होइगा मिलावा हरि सनाँ, रे तू विषै विकार न तजि मनाँ॥

        रे तै जोग जुगति जान्याँ नहीं, तैं गुर का सबद मान्याँ नहीं।

        गंदी देही देखि न फूलिये, संसार देखि न भूलिये॥

        कहै कबीर राम मम बहु गुँनी, हरि भगति बिनाँ दुख फुनफुनी॥

 

        कासूँ कहिये सुनि रामा, तेरा मरम न जानै कोई जी।

        दास बबेकी सब भले, परि भेद न छानाँ होई जी॥

        ए सकल ब्रह्मंड तैं पूरिया, अरु दूजा महि थान जी।

        राम रसाइन रसिक है, अद्भुत गति बिस्तार जी॥

        भ्रम निसा जो गत करे, ताहि सूझै संसार जी॥

        सिव सनकादिक नारदा, ब्रह्म लिया निज बास जी।

        कहै कबीर पद पंक्याजा, अष नेड़ा चरण निवास जी॥

 

        मैं डोरै डारे जाऊँगा, तौ मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥

        सूत बहुत कुछ थोरा, ताथै, लाइ ले कंथा डोरा।

        कंथा डोरा लागा, तथ जुरा मरण भौ भागा॥

        जहाँ सूत कपास न पूनी, तहाँ बसै इक मूनी।

        उस मूनीं सूँ चित लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥

        मेरे डंड इक छाजा, तहाँ बसै इक राजा।

        तिस राजा सूँ चित लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥

        जहाँ बहु हीरा धन मोती, तहाँ तत लाइ लै जोती।

        तिस जोतिहिं जोति मिलाँऊँगा, तौ मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥

        जहाँ ऊगै सूर न चंदा, तहाँ देख्या एक अनंदा।

        उस आनँद सूँ लौ लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥

        मूल बंध इक पावा, तहाँ सिध गणेश्वर रावाँ।

        तिस मूलहिं मूल मिलाऊँगा, तौ मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥

        कबीरा तालिब तेरा, जहाँ गोपत हरी गुर मोरा।

        तहाँ हेत हरि चित लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥

 

        संतौं धागा टूटा गगन बिनसि गया, सबद जु कहाँ समाई।

        ए संसा मोहि निस दिन व्यापै, कोइ न कहैं समझाई॥टेक॥

        नहीं ब्रह्मंड पुँनि नाँही, पंचतत भी नाहीं।

        इला प्यंगुला सुखमन नाँही, ए गुण कहाँ समाहीं।

        नहीं ग्रिह द्वारा कछू नहीं, तहियाँ रचनहार पुनि नाँहीं।

        जीवनहार अतीत सदा संगि, ये गुण तहाँ समाँहीं॥

        तूटै बँधै बँधै पुनि तूटै, तब तब होइ बिनासा।

        तब को ठाकुर अब को सेवग, को काकै बिसवासा॥

        कहै कबीर यहु गगन न बिनसै, जौ धागा उनमाँनाँ।

        सीखें सुने पढ़ें का कोई, जौ नहीं पदहि समाँना॥

 

        ता मन कौं खोजहु रे भाई, तन छूटे मन कहाँ समाई॥टेक॥

        सनक सनंदन जै देवनाँमी भगति करी मन उनहुँ न जानीं।

        सिव विरंचि नारद मुनि ग्यानी, यन का गति उनहुँ नहीं जानीं॥

        धू प्रहिलाद बभीषन सेषा, तन भीतर मन उनहुँ न देषा।

        ता मन का कोइ जानै भेव, रंचक लीन भया सुषदेव॥

        गोरष भरथरी गोपीचंदा, ता मन सौं मिलि करै अनंदा।

        अकल निरंजन सकल सरीरा, ता मन सौं मिलि रहा कबीरा॥

 

        भाई रे बिरले दोसत कबीरा के, यहु तत बार बार काँसो कहिये।

        भानण घड़ण सँवारण संम्रथ, ज्यूँ राषै त्यूँ रहिये॥टेक॥

        आलम दुनों सबै फिरि खोजी, हरि बिन सकल अयानाँ।

        छह दरसन छ्यानबै पाषंड, आकुल किनहुँ न जानाँ॥

        जप तप संजम पूजा अरचा, जोतिग जब बीरानाँ।

        कागद लिखि लिखि जगत भुलानाँ, मनहीं मन न समानाँ॥

        कहै कबीर जोगी अरु, जंगम ए सब झूठी आसा।

        गुर प्रसादि रटौ चात्रिग ज्यूँ, निहचैं भगति निवासा॥

 

        कितेक सिव संकर गये ऊठि, राम समाधि अजहूँ नहिं छूटि॥टेक॥

        प्रलै काल कहुँ कितेक भाष, गये इंद्र से अगणित लाष।

        ब्रह्मा खोजि परो गहि नाल, कहै कबीर वै राम निराल॥

 

        अच्यंत च्यंत ए माधौ, सो सब माँहिं समानाँ।

        ताह छाड़ि जे आँन भजत हैं, ते सब भ्रंमि भुलाँनाँ॥

        ईस कहै मैं ध्यान न जानूँ, दुरलभ निज पद मोहीं।

        रंचक करुणाँ कारणि केसो, नाम धरण कौं तोहीं॥

        कहौ थौं सबद कहाँ थै आवै, अरु फिर कहाँ समाई।

        सबद अतीत का मरम न जानै, भ्रंमि भूली दुनियाई॥

        प्यंड मुकति कहाँ ले कीजै, जो पद मुकति न होई।

        प्यंडै मुकति कहत हैं मुनि जन, सबद अतीत था सोई॥

        प्रगट गुपत गुपत पुनि प्रगट, सो कत रहै लुकाई।

        कबीर परमानंद मनाये, अथक कथ्यौ नहीं जाई॥

 

        सो कछू बिचारहु पंडित लोई, जाकै रूप न रेष बरण नहीं कोई॥टेक॥

        उपजै प्यंड प्रान कहाँ थैं आवै, मूवा जीव जाइ कहाँ समावै।

        इंद्री कहाँ करिहि विश्रामा, सो कत गया जो कहता रामा।

        पंचतत तहाँ सबद न स्वादं, अलख निरंजन विद्या न बादं।

        कहै कबीर मन मनहि समानाँ, तब आगम निगम झूठ करि जानाँ॥

 

        जौं पैं बीज रूप भगवाना, तौ पंडित का कथिसि गियाना॥टेक॥

        नहीं तन नहीं मन नहीं अहंकारा, नहीं सत रज तम तीनि प्रकारा॥

        विष अमृत फल फले अनेक, बेद रु बोधक हैं तरु एक।

        कहै कबीर इहै मन माना, कहिधूँ छूट कवन उरझाना॥

 

        पाँडे कौन कुमति तोहि लागी, तूँ राम न जपहि अभागी॥

        वेद पुरान पढ़त अस पाँडे खर चंदन जैसैं भारा।

        राम नाम तत समझत नाँहीं, अंति पड़ै मुखि छारा॥

        बेद पढ्याँ का यहु फल पाँडे, सब घटि देखैं रामा।

        जन्म मरन थैं तौ तूँ छूटै, सुफल हूँहि सब काँमाँ॥

        जीव बधत अरु धरम कहत हौ, अधरम कहाँ है भाई।

        आपन तौ मुनिजन ह्नै बैठे, का सनि कहौं कसाई ॥

        नारद कहै ब्यास व्यास यौं भाषैं, सुखदेव पूछौ जाई।

        कहै कबीर कुमति तब छूटै, जे रहौ राम ल्यौ लाई ॥

 

        पंडित बाद बदंते झूठा।

        राम कह्माँ दुनियाँ गति पावै, षाँड कह्माँ मुख मीठा ॥टेक॥

        पावक कह्माँ मूष जे दाझैं, जल कहि त्रिषा बुझाई।

        भोजन कह्माँ भूष जे भाजै, तौ सब कोई तिरि जाई ॥

        नर कै साथि सूवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।

        जो कबहूँ उड़ि जाइ जंगल में, बहुरि न सुरतै आनै ॥

        साची प्रीति विषै माया सूँ, हरि भगतनि सूँ हासी।

        कहै कबीर प्रेम नहीं उपज्यौ, बाँध्यौ जमपुरि जासी ॥

 

        जौ पै करता बरण बिचारै, तौ जनमत तीनि डाँड़ि किन सारै॥टेक॥

        उतपति ब्यंद कहाँ थैं आया, जो धरी अरु लागी माया।

        नहीं को ऊँचा नहीं को नीचा, जाका प्यंड ताही का सींचा।

        जे तूँ बाँभन बभनी जाया, तो आँन वाँट ह्नै काहे न आया।

        जे तूँ तुरक तुरकनी जाया, तो भीतरि खतनाँ क्यूँ न कराया।

        कहै कबीर मधिम नहीं कोई, सौ मधिम जा मुखि राम न होई ॥

 

        

        काहे कौ कीजै पाँडे छोति बिचारा।

        छोतिहीं तै उपना सब संसारा॥टेक॥

        हमारे कैसे लोहू तुम्हारै कैसे दूध।

        तुम्ह कैसे बाँह्मण पाँडे हम कैसे सूद॥

        छोति छोति करता तुम्हहीं जाए।

        तौ ग्रभवास काहें कौं आए॥

        जनमत छोत मरत ही छोति।

        कहै कबीर हरि की बिमल जोति॥

 

        कथता बकता सुनता सोई, आप बिचारै सो ग्यानी होई ॥

        जैसे अगनि पवन का मेला, चंचल बुधि का खेला।

        नव दरवाजे दसूँ दुवार,प बूझि रे ग्यानी ग्यान विचार॥

        देहौ माटी बोलै पवनाँ, बूझि रे ज्ञानी मूवा स कौनाँ।

        मुई सुरति बाद अहंकार, वह न मूवा जो बोलणहार॥

        जिस कारनि तटि तीरथि जाँहीं, रतन पदारथ घटहीं माहीं।

        पढ़ि पढ़ि पंडित बेद बषाँणै, भीतरि हूती बसत न जाँणै॥

        हूँ न मूवा मेरी मुई बलाइ, सो न मुवा जौ रह्मा समाइ।

        कहै कबीर गुरु ब्रह्म दिखाया, मरता जाता नजरि न आया ॥

 

        हम न मरैं मरिहैं संसारा, हँम कूँ मिल्या जियावनहारा ॥

        अब न मरौ मरनै मन माँना, ते मूए जिनि राम न जाँना।

        साकत मरै संत जन जीवै, भरि भरि राम रसाइन पीवै ॥

        हरि मरिहैं तौ हमहूँ मरिहैं, हरि न मरै हँम काहे कूँ मरिहैं।

        कहै कबीर मन मनहि मिलावा, अमर भये सुख सागर पावा ॥

 

        कौन मरै कौन जनमै आई, सरग नरक कौने गति पाई ॥

        पंचतत अतिगत थैं उतपनाँ एकै किया निवासा।

        बिछूरे तत फिरि सहज समाँनाँ, रेख रही नहीं आसा ॥

        जल मैं कुंभ कुंभ मैं जल है, बाहरि भीतरि पानी।

        फूटा कुंभ जल जलहिं समानाँ, यह तत कथौ गियानी ॥

        आदै गगनाँ अंतै गगनाँ मधे गगनाँ माई।

        कहै कबीर करम किस लागै, झूठी संक उपाई ॥

 

        कौन मरै कहू पंडित जनाँ, सो समझाइ कहौ हम सनाँ ॥टेक॥

        माटी माटी रही समाइ, पवनै पवन लिया सँग लाइ ॥

        कहै कबीर सुंनि पंडित गुनी, रूप मूवा सब देखै दुनी ॥

 

        जे को मरै मरन है मीठा, गुरु प्रसादि जिनहीं मरि दीठा ॥

        मुवा करता मुई ज करनी, मुई नारि सुरति बहु धरनी।

        मूवा आपा मूवा माँन, परपंच लेइ मूवा अभिमाँन ॥

        राम रमे रमि जे जन मूवा, कहै कबीर अविनासी हुआ ॥

 

        जस तूँ तस तोहि कोइ न जान, लोग कहै सब आनहिं आँन ॥टेक॥

        चारि बेद चहुँ मत का बिचार इहि भ्रँमि भूलि परो संसार।

        सुरति सुमृति दोइ कौ बिसवास, बाझि परौं सब आसा पास॥

        ब्रह्मादिक सनाकादिक सुर नर, मैं बपुरो धूँका मैं का कर।

        जिहि तुम्ह तारौ सोई पै तिरई, कहै कबीर नाँतर बाँध्यौ मरई ॥

 

        लोका तुम्ह ज कहत हौ नंद कौ, नंदन नंद कहौ धुं काकौ रे।

        धरनि अकास दोऊ नहीं होते, तब यहु नंद कहाँ थौ रे ॥टेक॥

        जाँमैं मरै न सँकुटि आवै, नाँव निरंजन जाकौ रे।

        अबिनासी उपजै नहिं बिनसै, संत सुजस कहैं ताकौ रे ॥

        लष चौरासी जीव जंत मैं भ्रमत नंदी थाकौ रे।

        दास कबीर कौ ठाकुर ऐसो, भगति करै हरि ताकौ रे ॥

 

        निरगुण राँम निरगुण राँम जपहु रे भाई, अबिगति की गति लखी न जाई ॥टेक॥

        चारि बेद जाको सुमृत पुराँनाँ नौ ब्याकरनाँ मरम न जाँनाँ ॥

        चारि बेद जाकै गरड समाँनाँ, चरन कवल कँवला नहीं जाँनाँ ॥

        कहै कबीर जाकै भेदै नाँहीं, निज जन बैठे हरि की छाहीं ॥

 

        मैं सबनि मैं औरनि मैं हूँ सब।

        मेरी बिलगि बिलगि बिलगाई हो,

        कोई कहो कबीर कहो राँम राई हो ॥टेक॥

        नाँ हम बार बूढ़ नाही, हम ना हमरै चिलकाई हो।

        पठए न जाऊँ अरवा नहीं आऊँ सहजि रहूँ हरिआई हो ॥

        वोढन हमरे एक पछेवरा, लोक बोलै इकताई हो ॥

        जुलहे तनि बुनि पाँनि न पावल, फार बुनि दस ठाँई हो ॥

        त्रिगुँण रहित फल रमि हम राखल, तब हमारौ नाउँ राँम राई हो ॥

        जग मैं देखौं जग न देखै मोहि, इहि कबीर कछु पाई हो ॥

        *टिप्पणी:* ख-ना हम बार बूढ़ पुनि नाँही।

 

        लोका जानि न भूलौ भाई।

        खालिक खलक खलक मैं खालिक, सब घट रहौ समाई ॥टेक॥

        अला एकै नूर उपनाया, ताकी कैसी निंदा।

        ता नूर थै सब जग कीया, कौन भला कौन मंदा ॥

        ता अला की गति नहीं जाँनी गुरि गुड़ दीया मीठा ॥

        कहै कबीर मैं पूरा पाया, सब घटि साहिब दीठा ॥

 

        राँम मोहि तारि कहाँ लै जैहो।

        सो बैकुंठ कहौ धूँ कैसा, करि पसाव मोहि दैहो ॥टेक॥

        जे मेरे जीव दोइ जाँनत हौ, तौ मोहि मुकति बताओ।

        एकमेक रमि रह्मा सबनि मैं, तो काहे भरमावै॥

        तारण तिरण जबै लग कहिये, तब लग तत न जाँनाँ।

        एक राँम देख्या सबहिन मैं कहै कबीर मन माँनाँ ॥

 

        सोहं हंसा एक समान, काया के गुँण आँनही आन ॥टेक॥

        माटी एक सकल संसार, बहुबिधि भाँडे घड़ै कुँभारा।

        पंच बरन दस दुहिये गाइ, एक दूध देखौ पतिआइ।

        कहै कबीर संसा करि दूरि त्रिभवननाथ रह्या भरपूर ॥

 

        प्यारे राँम मनहीं मनाँ।

        कासूँ कहूँ कहन कौं नाहीं, दूसरा और जनाँ॥टेक॥

        ज्यूँ दरपन प्रतिब्यंब देखिये आप दवासूँ सोई।

        संसौ मिट्यौ एक कौ एकै, महा प्रलै जब होई॥

        जौ रिझाऊँ तौ महा कठिन है, बिन रिझायैं थैं सब खोटी।

        कहै कबीर तरक दोइ साधै, ताकी मति है मोटी॥

 

        हँम तौ एक एक करि जाँनाँ।

        दोइ कहै तिनही कौं दोजग, जिन नाँहिन पहिचाँनाँ॥टेक॥

        एकै पवन एक ही पानी, एक जोति संसारा।

        एक ही खाक घड़े सब भाँडे, एक ही सिरजनहारा॥

        जैसै बाढ़ी काष्ट ही काटै, अगिनि न काटै कोई॥

        सब घटि अंतरि तूँहीं व्यापक, धरै सरूपै सोई॥

        माया मोहे अर्थ देखि करि, काहै कूँ गरबाँनाँ॥

        निरभै भया कछू नाहिं ब्यापै, कहै कबीर दिवाँनाँ॥

 

        अरे भाई दोइ कहा सो मोहि बतायौ, बिचिही भरम का भेद लगावौ॥टेक॥

        जोनि उपाइ रची द्वै धरनीं दीन एक बीच भई करनी।

        राँम रहीम जपत सुधि गई, उनि माला उनि तसबी लई॥

        कहै कबीर चेतहु रे भौंदू, बोलनहारा तुरक न हिंदू॥

 

        ऐसा भेद बिगूचन भारी। बेद कतेब दीन अरु दुनियाँ, कौन पुरिषु कौननारी॥टेक॥

        एक बूंद एकै मल मूतर, एक चाँम एक चाँम एक गूदा।

        एक जोति थैं सब उतपनाँ, कौन बाँम्हन कौन सूदा॥

        माटी का प्यंड सहजि उतपनाँ, नाद रु ब्यंद समाँनाँ।

        बिनसि गयाँ थै का नाँव धरिहौ, पढ़ि गुनि हरि भ्रँन जाँना॥

        रज गुन ब्रह्मा तम गुन संकर, सत गुन हरि है सोई।

        कहै कबीर एक राँम जपहु रे, हिंदू तुरक न कोई॥

 

        हँमारे राँम रहीम करीमा केसो, अलाह राँम सति सोई।

        बिसमिल मेटि बिसंभर एकै, और न दूजा कोई॥टेक॥

        इनके काजी मूलाँ पीर पैकंबर, रोजा पछिम निवाजा।

        इनकै पूरब दिसा देव दिज पूजा, ग्यारसि गंग दिवाजा॥

        तुरक मसीति देहुरै हिंदू, दहूँठा राँम खुदाई।

        जहाँ मसीति देहुरा नाहीं, तहाँ काकी ठकुराई॥

        हिंदू तुरक दोऊ रह तूटी, फूटी अरु कनराई।

        अरध उरथ दसहूँ दिस जित तित, पूरि रह्या राम राई॥

        कहै कबीरा दास फकीरा, अपनी रहि चलि भाई॥

        हिंदू तुरक का करता एकै ता गति लखी न जाई॥

 

        काजी कौन कतेब बषांनै।

        पढ़त पढ़त केते दिन बीते, गति एकै नहीं जानैं॥टेक॥

        सकति से नेह पकरि करि सुंनति, बहु नबदूँ रे भाई।

        जौर षुदाई तुरक मोहिं करता, तौ आपै कटि किन जाई॥

        हौं तौ तुरक किया करि सुंनति, औरति सौ का कहिये।

        अरध सरीरी नारि न छूटै, आधा हिंदू रहिये॥

        छाँड़ि कतेब राँम कहि काजी, खून करत हौ भारी।

        पकरी टेक कबीर भगति की, काजी रहै झष मारी॥

 

        मुलाँ कहाँ पुकारै दूरि, राँम रहीम रह्या भरपूरि॥टेक॥

        यहु तौ अलहु गूँगा नाँही, देखे खलक दुनी दिल माँही॥

        हरि गुँन गाइ बंग मैं दीन्हाँ, काम क्रोध दोऊ बिसमल कीन्हाँ।

        कहै कबीर यह मुलना झूठा, राम रहीम सबनि मैं दीठा॥

 

        पढ़ि ले काजी बंग निवाजा, एक मसीति दसौं दरवाजा॥टेक॥

        मन करि मका कबिला करि देही, बोलनहार जगत गुर येही॥

        उहाँ न दोजग भिस्त मुकाँमाँ, इहाँ ही राँम इहाँ रहिमाँनाँ॥

        बिसमल ताँमस भरम कै दूरी, पंचूँ भयि ज्यूँ होइ सबूरी॥

        कहै कबीर मैं भया दीवाँनाँ, मनवाँ मुसि मुसि सहजि समानाँ॥

        टिप्पणी: ख-मन करि मका कबिला कर देही।

        राजी समझि राह गति येही॥

 

        मुलाँ कर ल्यौ न्याव खुदाई, इहि बिधि जीव का भरम न जाई॥टेक॥

        सरजी आँनैं देह बिनासै, माटी बिसमल कींता।

        जोति सरूपी हाथि न आया, कहौ हलाल क्या कीता॥

        बेद कतेब कहौ क्यूँ झूठा, झूठा जोनि बिचारै।

        सब घटि एक एक करि जाँनैं, भौं दूजा करि मारै॥

        कुकड़ी मारै बकरी मारै, हक हक हक करि बोलै।

        सबै जीव साईं के प्यारे, उबरहुगे किस बोलै॥

        दिल नहीं पाक पाक नहीं चीन्हाँ, उसदा षोजन जाँनाँ।

        कहै कबीर भिसति छिटकाई, दोजग ही मन माँनाँ॥

        *टिप्पणी:* ख-उसका खोज न जाँनाँ।

 

        या करीम बलि हिकमति तेरी। खाक एक सूरति बहु तेरी॥टेक॥

        अर्थ गगन में नीर जमाया, बहुत भाँति करि नूरनि पाया॥

        अवलि आदम पीर मुलाँनाँ, तेरी सिफति करि भये दिवाँनाँ॥

        कहै कबीर यहु हत बिचारा, या रब या रब यार हमाराँ॥

 

        काहे री नलनी तूँ कुम्हिलाँनीं, तेरे ही नालि सरोवर पाँनी॥टेक॥

        जल मैं उतपति जल में बास, जल में नलनी तोर निवास।

        ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि॥

        कहैं कबीर से उदिक समान, ते नहीं मूए हँमरे जाँन॥

 

        इब तूँ हास प्रभु में कुछ नाँहीं, पंडित पढ़ि अभिमाँन नसाँहीं॥टेक॥

        मैं मैं मैं जब लग मैं कीन्हा, तब लग मैं करता नहीं चीन्हाँ।

        कहै कबीर सुनहु नरनाहा, नाँ हम जीवत न मूँवाले माहाँ॥

 

        अब का डरौं डर डरहि समाँनाँ, जब थैं मोर तोर पहिचाँनाँ॥टेक॥

        जब लग मोर तोर करि लीन्हां, भै भै जनमि जनमि दुख दीन्हा॥

        अगम निगम एक करि जाँनाँ, ते मनवाँ मन माँहि समाना॥

        जब लग ऊँच नीच कर जाँनाँ, ते पसुवा भूले भ्रँम नाँनाँ।

        कहि कबीर मैं मेरी खोई, बहि राँम अवर नहीं कोई॥

 

        बोलनाँ का कहिये रे माई बोलत बोलत तत नसाई॥टेक॥

        बोलत बोलत बढ़ै बिकारा, बिन बोल्याँ क्यूँ होइ बिचारा॥

        संत मिलै कछु कहिये कहिये, मिलै असंत पुष्टि करि रहिये॥

        ग्याँनी सूँ बोल्या हितकारी, मूरिख सूँ बोल्याँ झष मारी॥

        कहै कबीर आधा घट डोलै, भर्या होइ तौ मुषाँ न बोलै॥

 

        बागड़ देस लूचन का घर है, तहाँ जिनि जाइ दाझन का डर है॥

        सब जग देखौं कोई न धीरा, परत धूरि सिरि कहत अबीरा॥

        न तहाँ तरवर न तहाँ पाँणी, न तहाँ सतगुर साधू बाँणी॥

        न तहाँ कोकिला न तहाँ सूवा, ऊँचे चढ़ि चढ़ि हंसा मूवा॥

        देश मालवा गहर गंभीर डग डग रोटी पग पग नीर॥

        कहैं कबीर घरहीं मन मानाँ, गूँगै का गुड़ गूँगै जानाँ॥

 

        अवधू जोगी जग थैं न्यारा; मुद्रा निरति सुरति करि सींगी, नाद न षंडै धारा॥टेक॥

        बसै गगन मैं दुनीं न देखै, चेतनि चौकी बैठा।

        चढ़ि अकास आसण नहीं छाड़ै, पीवै महा रस मीठा॥

        परगट कंथाँ माहैं जोगी दिल मैं दरपन जीवै।

        सहँस इकीस छ सै धागा, निहचल नाकै पीवै॥

        ब्रह्म अगनि मैं काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।

        कहै कबीर सोई जोगेश्वर, सहज सुंनि ल्यौ लागौ॥

 

        अवधू गगन मंडल घर कीजै, अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नालि रस पीजै॥

        मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमन यों तन लागी।

        काम क्रोध दोऊ भया पलीता, तहँ जोनणीं जागी॥

        मनवाँ जाइ दरीबै बैठा, गगन भया रसि लागा।

        कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, सबद अनाहद बागा॥

 

        कोई पीवै रे रस राम नाम का, जो पीवै सो जोगी रे।

        संतौ सेवा करौ राम की, और न दूजा भोगी रे॥टेक॥

        यहु रस तौ सब फीका भया, ब्रह्म अगनि परजारी रे।

        ईश्वर गौरी पीवन लागे, राँम तनीं मतिवारी रे॥

        चंद सूर दोइ भाठी कीन्ही सुषमनि चिगवा लागी रे।

        अंमृत कूँ पी साँचा पुरया, मेरी त्रिष्णाँ भागी रे॥

        यहु रस पीवै गूँगा गहिला, ताकी कोई न बूझै सार रे।

        कहै कबीर महा रस महँगा, कोई पीवेगा पीवणहार रे॥

 

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कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-7

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