परिणामशूल रोग के बारे में जानकारी उपचार

Pathgyan.com में आपका स्वागत है, परिणामशूल रोग के बारे में जानकारी उपचार आयुर्वेदमें कुछ रोगोंके विस्तृत विवरण मिल जाते हैं, जिन्हें आजके यन्त्र देख नहीं पाते। विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है.

परिणामशूल रोग के बारे में जानकारी उपचार
परिणामशूल रोग के बारे में जानकारी उपचार

 

परिणामशूल रोग के बारे में जानकारी उपचार

इस रोगका परिणामशूल यह नाम इसलिये पड़ा है कि छोटी आँतोंमें भोजनके पाक हो जानेके बाद जब किट्टका भाग बड़ी आँतोंमें पहुँचने लगता है तो उदरभाग में असह्य वेदना उत्पन्न होने लगती है। इसलिये इस वेदना (शूल) का नाम परिणामशूल है। परिणामका अर्थ होता है पक जाना; क्योंकि भोजनके पक जानेके बाद यह शूल होता है, इसलिये इसका परिणामशूल नाम सार्थक है।

एक रोगिणी, जिसकी अवस्था ३० – ३२ वर्षकी होगी, इस रोगसे पाँच वर्ष पीडित रही। तीन बजे दिनको उसके उदरमें वेदना प्रारम्भ होती थी, जो छटपटाहटमें परिणत हो जाती थी। इस छटपटाहटको वेदना – निवारक ( पेनकिलर) दवासे कम कर दिया जाता था । प्रत्येक चिकित्सक अपने हाथमें आनेपर इस रोगका सर्वविध यान्त्रिक जाँच करवाते रहे.

 किंतु जाँचसे कोई रोग स्पष्ट नहीं होता था । ३-४ वर्ष बीत जानेके बाद वेदना- निवारक सभी औषध भी बेअसर हो गये। दर्दके मारे कराहते – कराहते रोगिणी बेहोश होने लगी। प्रत्येक दिन तीन बजे दर्द उठता और रोग बेहोशी में परिणत हो जाता, फिर तीन-चार घंटेके बाद पीडा कम होने लगती ।

लक्षण – रोगके नामसे ही इस रोगका लक्षण स्पष्ट हो जाता है। बात यह है कि बड़ी आँतोंकी दीवारमें मलका किट्टभाग जमकर ठोस परतका रूप ले लेता है। जब भोजन पक जानेके बाद, बड़ी आँतोंमें भोजनका यह निस्सार भाग फिर पहुँचने लगता है, तब पुरस्सरणक क्रियाके द्वारा उत्तरोत्तर पुराने परतनुमा किट्टभागके टकराव से यह वेदना शुरू होती है और बढ़ती चली जाती है। इस तरह भोजनके ३-४ घंटे बाद होनेवाले दर्दको परिणामशूल कहते हैं ।

बड़ी आँतका कुछ हिस्सा लीवर और प्लीहाके बीचमें फेफड़ोंके नीचे, आँतके स्पर्शसे ज्ञात हो जाता है।

उक्त रोगिणीके आँतका यह भाग बहुत सूजकर गुठली – सा बाहर दिखने लगा था। उसके इस गाँठको देखकर बहुतोंने इसे हृदयरोग समझ लिया, किंतु यह हृदयरोग नहीं था।

चिकित्सा – चिकित्साकी सफलता यह है कि वह मूलरोगके कारणका निवारण कर दे। कैस्टर ऑयल (एरण्डका तेल) पीनेसे धीरे-धीरे आँतों में चिपके मलका किट्टभाग फूलकर बाहर निकलने लगता है। इसलिये मशीनमें जैसे तेलकी जरूरत होती है, उसी तरह इस रोग में स्नेहन (ऑयलिंग ) की आवश्यकता होती है।

रातको मूँगकी खिचड़ी घीके साथ खाये और सोते समय एकसे चार चम्मचतक शुद्ध कैस्टर ऑयलको थोड़े दूधमें मिलाकर पी लेना चाहिये। उसके बाद मीठा दूध ऊपरसे पी ले। पेट सबका अलग-अलग होता है। इसलिये किसीका आधे चम्मचसे काम चलता है और किसीको चार चम्मच लेना पड़ता है। रोगीको ध्यान देना पड़ेगा कि कितने चम्मच कैस्टर ऑयलसे उसका एक बारमें पेट साफ हो जाता है। एक बार पेट साफ अवश्य होना चाहिये । कैस्टर ऑयल पीनेसे पहले १० ग्राम ईसबगोलकी भूसी लेना आवश्यक है।

इसमें दूसरी सावधानी यह बरतनी पड़ती है कि पेट दो घंटेके बाद खाली न रहे । अर्थात् हर दो-ढाई घंटेपर ५० ग्राम दूधमें एक चम्मच घरका बना चनेका सत्तू मिलाकर पी लिया जाय । जो लोग बिस्कुट खाते हों, वे सत्तूकी जगहपर प्रत्येक दो घंटेके बाद आरारोटका बिस्कुट खाकर दूध या पानी पी सकते हैं।

औषध – (क)

(१) शूलवज्रिणीवटी-४ ग्राम

(२) प्रवालपञ्चामृत-३ ग्राम,

(३) कृमिमुद्गर-३ ग्राम,

(४) महाशंखवटी – २ ग्राम,

(५) सीतोपलादि – २५ ग्राम,

 (६) टंकणभस्म -३ ग्राम,

(७) महाशङ्खभस्म -३ ग्राम और

(८) कपर्दक भस्म ३ ग्राम ।

इन सबकी २१ पुड़िया बना लें। सुबह-शाम एक- एक पुड़िया शहदसे लेकर ऊपरसे एक छटाक दूध पी लें।

(ख) इस रोग में पेट खाली नहीं रहना चाहिये। इसलिये २५० ग्राम दूधको चार भाग करके एक भागको घरके बने चनेके सत्तूके साथ लेते रहें। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है।

(ग) रातको मूँगकी खिचड़ी खाकर सोते समय १० ग्राम ईसबगोलकी भूसी लेकर कैस्टर ऑयल ले लें। खिचड़ीमें घी मिला लें। रोटी भी ली जा सकती है। किंतु खिचड़ी ज्यादा हितकर है। सोते समय एक से चार चम्मच कैस्टर ऑयल थोड़े से दूधमें मिलाकर ले लें। बादमें मीठा दूध पी लें। तीन दिनके बाद इस तकलीफ से मुक्ति मिल जायगी। धीरे-धीरे एक किलोसे कम कैस्टर ऑयल नहीं पीना चाहिये। डेढ़ किलोतक पीना ज्यादा हितकर है।

रोगीके शरीरमें स्थित पित्त भी प्रभावित होने लगता है। यह पित्त रोगीके ललाट आदिमें स्थित कफको धीरे-धीरे सुखाने लगता है। जैसे-जैसे कफ सूखता जाता है, वैसे- वैसे रोगीका सिरदर्द (शिरोवेदना) बढ़ता जाता है। दोपहरमें २ बजेके बाद यह वेदना कम होती जाती है; क्योंकि पित्तका वेग भी कम होने लग जाता है और रोगी फिर सिरमें केवल भारीपन महसूस करता है। उसकी बेचैनी हट जाती है। जीर्ण होनेपर यह रोग ललाटमें परतकी तरह जम जाता है और उसको तेज यन्त्रसे खरोंचकर निकाला जा सकता है।

इस तरह यह रोग बहुत ही कष्टप्रद है। किंतु जितना यह कष्टप्रद है, उतनी ही आयुर्वेदने इसकी चिकित्सा सरल बना दी है। क्योंकि आयुर्वेदने इसके कारणका पता लगा

विशेष – हिंग्वाष्टक चूर्ण ३-३ ग्राम भोजनके पहले लिया है और उस कारणके उत्पन्न होनेसे पहले ही दवाका कौरमें सानकर खा लें। सेवन करा देता है। इसलिये एक-दो दिनमें ही इस रोग से मुक्ति मिल जाती है औषध कुछ दिन चलाते रहना चाहिये ।

पेटमें दर्द हो तब अग्नितुंडीवटी – २ गोली तोड़कर निगल जायँ और हिंग्वाष्टक चूर्ण – ५ ग्राम गरम पानीसे ले लें।

 

 

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