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हेपेटाइटिस बी के बारे में कुछ जानकारी और उपाय
हिपेटाइटिस-बी
ऑस्ट्रेलियाई वायरसके द्वारा हिपेटाइटिस बी रोग हो जाता है। यह रोग होने न पाये, इसका उपाय आजके विज्ञानने सोच लिया है। महीने- महीनेपर एक सुई लगायी जाती है, जिससे कहा जाता है कि इस सुईको लगवानेवाले व्यक्तिको हिपेटाइटिस-बी नहीं हो सकेगा। किंतु हिपेटाइटिस- बी रोग जब हो जाता है तब आजके विज्ञानके पास ऐसी कोई दवा नहीं है, जिससे रोगीको मृत्युके मुखसे बचाया जा सके। शत-प्रतिशत मृत्यु हो जाती है।
रोगका कारण – इस रोगमें ऑस्ट्रेलियाई वायरस खान-पानके द्वारा मुखमार्गसे शरीरमें प्रविष्ट हो जाते हैं और यकृत् (लीवर) – में अड्डा जमा लेते हैं। जब इनका पूरा परिवार विकसित हो जाता है, तब यकृत्की पित्तस्रावक्रियामें अवरोध हो जाता है और यकृत् फूलकर पेटमें फैल जाता है जिसको छूकर हम प्रत्यक्ष कर सकते हैं। इसके बाद असह्य पीडा होने लगती है, हाथ-पैर ठंडे होने लग जाते हैं और रोगीका प्राणान्त हो जाता है।
आयुर्वेद प्राचीनकालसे यकृत् – सम्बन्धी व्याधियोंकी चिकित्सा सफलतापूर्वक करता आ रहा है। आज भी यकृत्की सारी व्याधियोंकी चिकित्सा ( कैंसर छोड़कर ) आयुर्वेदसे हो जाती है।
हिपेटाइटिसका सामान्य अर्थ पीलिया होता है। इस रोगमें गदहपूर्णा (पुनर्नवा ) – जड़का स्वरस ५०-५० ग्राम सुबह, दोपहर, शाम – तीन बार दिया जाता है। मूलीका रस सबेरे और ईखका रस कई बार प्रयोग किया जाता है। आजकल ईखके रसकी जगह ग्लूकोज दे दिया जाता है। ग्लूकोज बड़ी मात्रा में (सौ-सौ ग्राम) तीन-चार बार पिलाते रहना चाहिये । इस तरह हिपेटाइटिस-बीका मुख्य औषध तो गदहपूर्णाका रस है। अन्य औषधियाँ निम्नलिखित हैं-
(१) पुनर्नवामण्डूर-३ ग्राम,
(२) प्रवालपञ्चामृत- ३ ग्राम,
(३) रससिन्दूर – २ ग्राम
(४) सितोपलादि – ५० ग्राम- इन सबकी ३१ पुड़िया बनायें। एक – एक पुड़िया सुबह-दोपहर-शाम खाकर ग्लूकोज मिला हुआ गदहपूर्णाका रस लेते जायें। शौचशुद्धिके लिये छोटी हर्रेका उपयोग करें। आँवलेका रस भी हितकारी है। इस रोगमें हल्दी घोर अपथ्य है।
आधुनिक परीक्षण कराते रहें । औषध डेढ़-दो महीने
चलाना चाहिये।
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