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एक ऐसा रोग जिसका नाम नहीं
एक रोगीको देखा गया कि उसके दाहिने हाथकी कलाईके तीन हिस्से सूख गये हैं, एक हिस्सा बचा है। उसके उसी हाथकी दो अँगुलियाँ कंधेसे लग गयी हैं, उस हाथको हिलाना या इधर-उधर करना सम्भव न था । वह रुग्ण हाथ केवल बेकार ही नहीं हुआ था, अपितु तकलीफ भी देता रहता था। रोगीका सोना भी कठिन हो रहा था, इस विलक्षण रोगको देखकर हतप्रभ होना पड़ा। उससे पहला प्रश्न था— यह रोग तो पुराना दीखता है, इसकी चिकित्सा क्यों नहीं करायी ? रोगीने कहा— तीन वर्षोंसे दवा करा रहा हूँ, किंतु दिनोंदिन रोग बढ़ता ही जा रहा है।
मैंने कहा – इस रोगका मैं न तो नाम जानता हूँ और न चिकित्सा ही। यह नया रोग है, मेरे लिये अनजान है, आप विज्ञानकी शरण में जायँ । छः महीनेके बाद रोगी लौटा। उसने कहा कि छ: महीनोंतक तरह तरहकी जाँच हुई, अंतमें यह कहा गया कि इस रोगकी दवा अभी निकली नहीं है। इस सिलसिले में भारतके चोटीके चिकित्सास्थानोंमें वह रोगी दौड़ चुका था । रोगी जब छः महीनेके बाद फिर लौटा तो चरकके आदेशसे बाध्य होना पड़ा। सहानुभूतिका तकाजा अलग था।
यह तो साधारणतया समझमें आ ही गया था कि हृदयसे जिन रक्तवाहिनियोंके द्वारा रक्तका जो संचार होता है, उनमेंसे किसीमें अवरोध आ गया है, इस अवरोधको रसराज आदि औषध दूर कर सकता है। फिर प्रकृति और वात, पित्त तथा कफका सामञ्जस्य बैठाकर दवा की गयी। उस दवासे वह रोगी रोगमुक्त हो गया। हाथके सूखे हुए भाग फिर पहलेकी आकारमें आ गये और अँगुलियोंने लिखने-पढ़नेका काम भी सँभाल लिया। धीरे-धीरे वजन उठानेकी आदत डाली गयी। अब वह बीस किलो वजनकी चीज उठा लेता है और उसको लेकर चल भी सकता है। उसे निम्नाङ्कित दवाएँ दी गयीं—
(१) रसराजरस – १ ग्राम,
(२) स्वर्णभस्म – २० मिलीग्राम,
(३) महाशङ्खवटी – २ ग्राम,
(४) कृमिमुद्गररस- ३ ग्राम,
(५) प्रवालपञ्चामृत-३ ग्राम,
(६) पुनर्नवामंडूर- ३ ग्राम,
(७) चन्द्रप्रभावटी – ३ ग्राम,
(८) सीतोपलादि – २५ ग्राम कुल २१ पुड़िया ।
लाभ कम दीखनेपर रसराजकी मात्रा धीरे-धीरे बढ़ाकर ३ ग्रामतक ली जा सकती है।
(१) सुबह-शाम एक-एक पुड़िया शहदसे लेकर एक- पुटिया लहसुन काटकर खाना चाहिये । शीत ऋतुमें यह एकपुटिया लहसुन पाँच-पाँच नगतक लिये जा सकते हैं।
(२) पचास ग्राम साधारण लहसुनको दो चम्मच तिल्ली या सरसोंके तेलमें पीसकर उबटन बनाना चाहिये ।
बहुत महीन नहीं पीसे फिर घायल हाथमें ऊपरसे नीचेतक उबटन लगाये।
सावधानी — उबटन लगाते समय लहसुनको घायल हाथपर धीरे-धीरे रगड़ें। इसे आधे मिनटके लिये भी छोड़ दिया जाय तो त्वचा जल जायगी ।
(३) १० ग्राम ईसबगोलकी भूसी दूध या पानीसे लेकर कैस्टर ऑयल १ से ४ चम्मचतक ले। कैस्टर ऑयल लेनेका प्रकार यह है कि पावभर दूधमें चीनी मिला ले। आठ चम्मच दूध निकाल ले। उसमें एकसे चार चम्मचतक कैस्टर ऑयल सुविधाके अनुसार मिलाये । इतना मिलाये जितनेसे एक बारमें पेट साफ हो जाय । विशेष सूचना – जाड़ेके दिनोंमें आधा अगहन बीत जानेपर एकपुटिया लहसुनका कल्प कर लें। नीरोग रहनेके लिये स्वस्थ व्यक्ति भी कल्प कर सकता है।
उपर्युक्त रोगमें तो प्रत्येक जाड़ेमें इस कल्पका सेवन आवश्यक होता है। २५० ग्राम मलाई निकाला हुआ दूध कड़ाही में डालकर उसी दूधमें २५० ग्राम पानी मिला दें। इस पानीमिले दूधमें एकपुटिया लहसुन कुचलकर पहले दिन एक, दूसरे दिन दो – इस तरह एक-एक बढ़ाते हुए पंद्रहवें दिन पंद्रह लहसुन डालें।
आधा फाल्गुनतक पंद्रह – पंद्रह डालते रहें। उसके बाद चौदह, तेरह, बारह इस क्रमसे एक-एक कम करते हुए ज्येष्ठ आनेके पहलेतक दो-दो डालते रहें। प्रतिदिन वायविडंगका दरदरा चूर्ण १० ग्राम, अर्जुनकी छालका दरदरा चूर्ण ५ ग्राम, १० ग्राम शतावरका चूर्ण ३ ग्राम असगंधका दरदरा चूर्ण दूध- पानीमें डालकर धीमी आँच में पकावें । पानी जल जानेपर अर्थात् दूध शेष रहनेपर छानकर सबको फेंक दें। इस दूधमें तीन छोटी इलायचीका चूर्ण और इच्छाके अनुसार चीनी मिलाकर दूधको पी लें।
(२) स्क्लेरोडर्मा आयुर्वेदके ग्रन्थोंमें इस रोगके सम्बन्धमें कोई जानकारी दी गयी है, यह ढूँढ़ा न जा सका, किंतु आयुर्वेदने बताया है कि प्रकृति, वात, पित्त, कफ और उपसर्गके द्वारा सभी रोगोंको समझा जा सकता है और उसकी चिकित्सा भी
की जा सकती है। इसी आधारपर रोगीको रोगसे मुक्त करनेमें सफलता मिल जाती है।
विज्ञानद्वारा इसका परिचय — आजके चिकित्सा विज्ञानने इस रोगके सम्बन्धमें जानकारियाँ प्राप्त कर ली हैं। विज्ञानका मानना है कि यह एक संयोजी ऊतकों (Connective Tissue) के विकारसे उत्पन्न होनेवाला रोग है। यह रोग, रोगप्रतिरोधी क्षमताकी कमीसे उत्पन्न होता है। इस रोग में छोटी रक्तवाहिकाओंका भीतरी स्तर मोटा हो जाता है। यह रोग प्राय: ३० से ६० वर्षकी अवस्थामें उत्पन्न होते देखा गया है। कम रक्तप्रवाहके कारण प्रायः अँगुलियाँ पीली पड़ जाती हैं। धीरे-धीरे मुर्दा -सी हो जाती हैं।
कुछ लक्षण – (१) अँगुलियोंका सड़ना, (२) अँगुलियोंको घुमाने में कठिनाई होना, (३) त्वचाकी ऊपरी सतहका एकदम पीला होना, (४) मुँहको फैलानेमें असमर्थताका अनुभव होना, (५) अस्थियोंपर पायी जानेवाली त्वचामें कसाव परिलक्षित होना ।
रोग जब विकसित हो जाता है तब पाचनतन्त्रमें विकार, मांसपेशीका क्षय और वेदनाकी अनुभूति होती है।
रोगोंके निदानमें आजके विज्ञानने अत्यधिक सफलता प्राप्त कर ली है। इस रोगके भी परीक्षणसे प्रायः ५०% व्यक्तियोंमें Antimuclear antibody +ve (धनात्मक) पाया जाता है।
इस तरह रोगके निदानमें तो सफलता मिल गयी है, किंतु अभीतक यह रोग विज्ञानके लिये असाध्य है; क्योंकि कोई भी कारगर दवा अभी नहीं निकली है । प्रडिनसोलोन (Prednisolone) से तात्कालिक लाभ पहुँचाया जाता है।
सफल चिकित्सा न होनेके कारण इस रोगसे प्रायः ७०% रोगी ही पाँच वर्षतक जीवित रह पाते हैं।
आयुर्वेदके द्वारा साध्य – – आयुर्वेदमें रसराज नामका एक औषध है, उसका काम है रक्तवाहिनियोंका प्रसारण करना । इस औषधसे रक्तवाहिनीमें जितने विकार आ जाते हैं, उनका भी सफाया हो जाता है और उचित स्थानोंपर रक्तका सञ्चार प्रारम्भ हो जाता है। इस दृष्टिकोणसे स्क्लेरोडर्मा रोगमें यह औषध सफल हो जाता है। दवाका संयोजन निम्न प्रकारसे किया जाय-
- रसराजरस – १ ग्राम, (२) स्वर्णभस्म ३० मिलीग्राम, (३) प्रवालपञ्चामृत-३ ग्राम, (४) चन्द्रप्रभावटी – ३ ग्राम, (५) कृमिमुद्गररस-३ ग्राम, (६) सीतोपलादि – २५
ग्राम, (७) मोतीपिष्टी – १ ग्राम। कुल ३१ पुड़िया बनाकर एक – एक पुड़िया शहदसे तीन बार ( सुबह दोपहर एवं (शाम) लेना चाहिये।
जो लोग लहसुन खाते हों, वे एकपुटिया लहसुन ( बलानुसार एक-एक बढ़ायें) काटकर दवाकी खुराक लेनेके बाद पानी अथवा ५० ग्राम दूधसे ले लें।
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सूचना – यदि ब्लडप्रेशर न हो तो १० दिनके बाद उपर्युक्त योगमें रसराजकी मात्राको दो ग्राम कर दें। फिर २१ वें दिन ३-३ ग्राम कर दें। पेट साफ न होता हो तो रातको छोटी हरेका प्रयोग करें।
पथ्यका पालन करना आवश्यक है। बिना चुपड़ी रोटी, मूँग या चनेकी दाल, नेनुवा, लौकी, परवल, पपीता, भिंडी, करेला, सहजन आदि लें। बथुआ छोड़कर पत्तीका और कोई शाक न लें। खोआ और तली-भुनी चीजें न खायें।
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