विवेकानंद के विचार-2

pathgyan.com में आपका स्वागत है, विवेकानंद जिनको आधुनिक शंकराचार्य भी कहा गया है उनके विचार। (विवेकानंद के विचार-2)

विवेकानंद के विचार-2
विवेकानंद के विचार-2

विवेकानंद के विचार-2
  प्रेम और निःस्वार्थता

 

  • नि:स्वार्थता अधिक लाभदायक हैं, किन्तु लोगों में उसका अभ्यास करने का धैर्य नहीं हैं
  • उच्च स्थान पर खड़े होकर और हाथ में कुछ पैसे लेकर यह न कहो- “ऐ भिरवारी, आओ यह लो |” परन्तु इस बात के लिए उपकार मानो कि तुम्हारे सामने वह गरीब हैं, जिसे दान देकर तुम अपने आप की सहायता कर सकते हो| पानेवाले का सौभाग्य नहीं, पर वास्तव में देनेवाले का सौभाग्य हैं। उसका आभार मानो कि उसने तुम्हें संसार में अपनी उदारता और दया प्रकट करने का अवसर दिया और इस प्रकार तुम शुद्ध और पूर्ण बन सके।
  • दूसरों की भलाई करने का अनवरत प्रयत्न करते हुए हम अपने आपको भूल जाने का प्रयत्न करते हैं। यह अपने आपको भूल जाना एक ऐसा बड़ा सबक हैं, जिसे हमें अपने जीवन में सीखना है। मनुष्य मूर्खता से यह सोचने लगता हैं कि वह अपने को सुखी बना सकता हैं, पर वर्षों के संघर्ष के पश्चात् अन्त में वह कहीं समझ पाता है कि सच्चा सुख स्वार्थ के नाश में हैं और उसे अपने आपके अतिरिक्त अन्य कोई सुखी नहीं बना सकता।
  • स्वार्थ ही अनैतिकता और स्वार्थहीनता ही नैतिकता हैं।
  • स्मरण रखो, पूरा जीवन देने के लिए ही हैं। प्रकृति देने के लिए विवश करेगी; इसीलिए अपनी खुशी से ही दो….। तुम संग्रह करने के लिये ही जीवन धारण करते हो। मुट्ठी- बँधे हाथ से तुम बटोरना चाहते हो, पर प्रकृति तुम्हारी गर्दन दबाती हैं और तुम्हारे हाथ खुल जाते हैं। तुम्हारी इच्छा हो या न हो, तुम्हें देना ही पड़ता है। जैसे ही तुम कहते हो, ‘मैं नहीं दूँगा’, एक घूँसा पडता हैं और तुम्हें चोट लगती हैं। ऐसा कोई भी नहीं हैं, जिसे अन्त में सब कुछ त्यागना न पड़े।
  • शुद्ध बनना और दूसरों की भलाई करना ही सब उपासनाओं का सार हैं। जो गरीबों, निर्बलों और पीडितों में शिव को देखता है, वही वास्तव में शिव का उपासक हैं; पर यदि वह केवल मूर्ति में ही शिव को देखता हैं, तो यह उसकी उपासना का आरम्भ मात्र हैं।
  • नि:स्वार्थता ही धर्म की कसौटी हैं। जो जितना अधिक नि:स्वार्थी हैं, वह उतना ही अधिक आध्यात्मिक और शिव के समीप हैं…..। और वह यदि स्वार्थी हैं, तो उसने चाहे सभी मन्दिरों में दर्शन किये हों, चाहे सभी तीर्थों का भ्रमण किया हो, चाहे वह रँगे हुए चीते के समान हो, फिर भी वह शिव से बहुत दूर हैं।
  • प्रेम – केवल प्रेम का ही मैं प्रचार करता हूँ, और मेरे उपदेश वेदान्त की समता और आत्मा की विश्वव्यापकता इन्हीं सत्यों पर प्रतिष्ठित हैं।
  • पहले रोटी और फिर धर्म। सब बेचारे दरिद्री भूखों मर रहे हैं, तब हम उनमें व्यर्थ ही धर्म को हँसते हैं। किसी भी मतवाद से भूख की ज्वाला शान्त नहीं हो सकती….। तुम लाखों सिद्धान्तों की चर्चा करो, करोड़ों सम्प्रदाय खड़े कर लो, पर जब तक तुम्हारे पास संवेदनशील हृदय नहीं हैं, जब तक तुम उन गरीबों के लिए वेदों की शिक्षा के अनुरूप तड़प नहीं उठते, जब तक उन्हें अपने शरीर का ही अंग नहीं समझते, जब तक यह अनुभव नहीं करते कि तुम और वे-दरिद्र और धनी, सन्त और पापी – सभी उस एक असीम पूर्ण के, जिसे तुम ब्रह्म कहते हो, अंश हैं, तब तक तुम्हारी धर्म-चर्चा व्यर्थ हैं।
  • दुखियों के दुःख का अनुभव करो और उनकी सहायता करने को आगे बढ़ो, भगवान् तुम्हें सफलता देंगे ही। मैंने अपने हृदय में इस भार को और मस्तिष्क में इस विचार को रखकर बारह वर्ष तक भ्रमण किया। मैं तथाकथित बड़े और धनवान व्यक्तियों के दरवाजों पर गया । वेदना-भरा हृदय लेकर और संसार का आधा भाग पार कर सहायता प्राप्त करने के लिए मैं इस देश (अमरीका) में आया। ईश्वर महान् हैं। जानता हूँ, वह मेरी सहायता करेगा। मैं इस भूखण्ड में शीत से या भूख से भले ही मर जाऊँ, पर हे तरुणो, मैं तुम्हारे लिए एक बसीयत छोड़ जाता हूँ; और वह हैं यह सहानुभूति – गरीबों, अज्ञानियों, और दुःखियों की सेवा के लिए प्राणपण से चेष्टा ।
  • मनुष्य अल्पायु हैं और संसार की सब वस्तुएँ वृथा तथा क्षणभंगुर हैं, पर वे जीवित हैं, जो दूसरों के लिए जीते हैं; शेष सब तो जीवित की अपेक्ष मृत ही अधिक हैं।
  • मैं उस धर्म और ईश्वर में विश्वास नहीं करता, जो विधवा के आँसू पोंछने या अनाथों को रोटी देने में असमर्थ हैं।हे वत्स, प्रेम कभी विफल नहीं होता; आज कल या युगों के पश्चात कभी न कभी सत्य की विजय निश्चय होगी। प्रेम विजय प्राप्त करेगा | क्या तुम अपने साथियों से प्रेम करते हो?
  • तुम्हें ईश्वर को ढूँढ़ने कहाँ जाना है? क्या गरीब, दुःखी और निर्बल ईश्वर नहीं हैं? पहले उन्हीं की पूजा क्यों नहीं करते? तुम गंगा के किनारे खड़े होकर कुआँ क्यों खोदते हो?”
  • प्रेम की सर्वशक्तिमत्ता पर विश्वास करो।…… क्या तुममें प्रेम हैं? तुम सर्वशक्तिमान हो। क्या तुम पूर्णत: नि:स्वार्थी हो? यदि हाँ, तो तुम अजेय हो। चरित्र ही सर्वत्र फलदायक हैं।
  • मेरा हृदय भावनाओं से इतना भरा हुआ हैं कि मैं उन्हें व्यक्त करने में असमर्थ हूँ, तुम उसे जानते हो, तुम उसकी कल्पना कर सकते हो। जब तक लाखों व्यक्ति भूखे और अज्ञानी हैं, तब तक हैं मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को कृतघ्न समझता हूँ, जो उनके बल पर शिक्षित बना, पर आज उनकी ओर ध्यान तक नहीं देता। मैं उन मनष्यों को हतभाग्य कहता हूँ, जो अपने ऐश्वर्य का वृथा गर्व करते हैं और जिन्होंने गरीबों को, पददलितों को पीसकर धन एकत्र किया हैं। पर जो बीस करोड़ व्यक्तियों के लिए कुछ भी नहीं करते, जो भूखे जंगली मनुष्यों की तरह जीवन बिता रहे हैं। भाइयो, हम गरीब हैं, नगण्य हैं, पर ऐसे ही व्यक्ति सदैव परमात्मा के साधन – स्वरूप रहे हैं।
  • मुझे मुक्ति या भक्ति की परवाह नहीं हैं, मैं सैंकडो-हजारों नरक में ही क्यों न जाऊँ, वसन्त की तरह मौन दूसरों की सेवा करना ही मेरा धर्म हैं।
  • मैं मृत्युपर्यन्त अनवरत कार्य करता रहूँगा और मृत्यु के पश्चात भी मैं दुनिया की भलाई के लिए कार्य करूंगा। असत्य की अपेक्षा सत्य अनन्त गुना अधि प्रभावशाली हैं; उसी प्रकार अच्छाई भी बुराई से । यदि ये गुण तुममें विद्यमान हैं, तो उनका प्रभाव आप ही आप प्रकट होगा।
  • विकास ही जीवन और संकोच ही मृत्यु हैं। प्रेम ही विकास और स्वार्थपरता संकोच हैं। इसलिए प्रेम ही जीवन का मूलमन्त्र है। प्रेम करनेवाला ही जीता हैं और स्वार्थी मरता रहता है। इसलिए प्रेम प्रेम ही के लिए करो; क्योंकि एकमात्र प्रेम ही जीवन का ठीक वैसा ही आधार हैं, जैसा कि जीने के लिए श्वास लेना | नि:स्वार्थ प्रेम, नि:स्वार्थ कार्य आदि का यही रहस्य हैं।
  • संसार को कौन प्रकाश देगा? अतीत का आधार त्याग ही था और भविष्य में भी वही रहेगा। पृथ्वी के वीरतम और महानतम पुरुषों को दूसरों की – सब की भलाई के लिए अपनी बलि देनी पड़ेगी । अनन्त प्रेम और अपार दयालुता- सम्पन्न सैकड़ों बुद्धों की आवश्यकता है।
  • मैं पुन: पुन: जन्म धारण करूँ और हजारों मुसीबतें सहता रहूँ, जिससे मैं उस परमात्मा को पूज सकूँ, जो सदा ही वर्तमान हैं, जिस अकेले में मैं सर्वदा विश्वास रखता हूँ, जो समस्त जीवों का समष्टिस्वरूप हैं और जो दुष्टों के रूप में, पीड़ितों के रूप में तथा सब जातियों, सब वर्गों के गरीबों में प्रकट हुआ है। वही मेरा विशेष आराध्य है।
  • हमारा सर्वश्रेष्ठ कार्य तभी होगा, हमारा सर्वश्रेष्ठ प्रभाव तभी पड़ेगा, जब हममें ‘अहं भाव’ लेशमात्र भी न रहेगा
  • आज संसार के सब धर्म प्राणहीन एवं परिहास की वस्तु हो गये हैं। आज जगत का  सच्चा अभाव हैं चरित्र संसार को उनकी आवश्यकता हैं जिनका जीवन उत्कट प्रेम तथा नि:स्वार्थपरता से पूर्ण हैं। वह प्रेम प्रत्येक शब्द को वज्रवत् शक्ति प्रदान करेगा।
  • श्रेष्ठतम जीवन का पूर्ण प्रकाश है आत्मत्याग, न कि आत्माभिमान।
  • जहाँ यथार्थ धर्म हैं, वहीं प्रबलतम आत्मबलिदान है। अपने लिए कुछ मत चाहो, दूसरों के लिए ही सब कुछ करो यही है ईश्वर में तुम्हारे जीवन की स्थिति, गति तथा प्राप्ति।

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