pathgyan.com पर आप लोगों का स्वागत है, gita quotes अवधूत गीता part-2, भगवान दत्तात्रये जी का उपदेश।
gita quotes अवधूत गीता part-2
ब्रह्मा मन और वाणी का विषय नहीं है, यह इससे परे हैं, इसके लिए शब्द और रूप और रंग का प्रयोग नहीं किया जा सकता
जब संपूर्ण जगत मिथ्या ज्ञात होने लगे, और संपूर्ण जगत शुन्य दिखाई देने लगे, उस समय साकार परमात्मा का निराकार स्वरूप मालूम चल जाता है
जब जीवात्मा ब्रह्म ज्ञान को प्राप्त कर लेती है तो वह जान जाती है कि आत्मा और परमात्मा एक ही है फिर ध्यान करने की आवश्यकता नहीं रह जाती
जब जीवात्मा ब्रह्म ज्ञान को प्राप्त कर लेती है, तब जान जाती है, जो मैं खाता हूं, या जो हवन पूजा पाठ अधिकरण करता हूं वह मेरा नहीं है, क्योंकि यह सब तो शरीर के गुण हैं मैं शरीर नहीं मैं आत्मा हूं इसलिए इन सभी चीजों से परे मुक्त स्वरूप हूं
ब्रह्म ज्ञान को प्राप्त जीवात्मा जान जाती है, ना ही इस संसार का कोई आकार है ना ही संसार में कोई विकार है यह संपूर्ण जगत कल्याण का एक स्वरूप है.
जब जीवात्मा और परमात्मा एक ही है तब मैं किसको जानू, अर्थात ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के बाद जीवात्मा परमात्मा से एक रूप हो जाती है
ज्ञान प्राप्ति के बाद माया जगत छूट जाता है, और संपूर्ण जगत में केवल निराकार परमेश्वर दिखाई देता है, उस समय कोई पापी और कोई पुण्यात्मा दिखाई नहीं देता क्योंकि सब बराबर ही दिखाई देते हैं.
जीवात्मा आदि मध्य और अंत से रहित है, जीवात्मा कभी भी बंधन में नहीं है वह निर्मल और शुद्ध स्वरूप है
इस संसार में जितने भी अलग-अलग प्रकार के वर्णाश्रम है, ज्ञान प्राप्ति के बाद यह सब मन और मस्तिष्क से नष्ट होकर केवल परमात्मा दिखाई देता है
पंच तत्वों से बनी यह संसार कुछ नहीं सर्व जगत में केवल मैं ही मैं हूं, ज्ञान होने पर जीवात्मा जान जाती है
आत्मा एक चैतन्य सत्ता है, आत्मा ना स्त्री है ना पुरुष ना ही नपुंसक
आत्मा ना योग से शुद्ध होती है, ना ही मन को नष्ट करने से शुद्ध होती है, ना ही केवल गुरु के उपदेश से शुद्ध होती है, आत्मा तो स्वयं शुद्ध स्वरूप ही है
पंच तत्वों का भौतिक शरीर से परे, आत्मा केवल सर्व रूपों में व्याप्त है
ज्ञान होने पर जीवात्मा जान जाती है, वह बंधन में नहीं वह तो मुक्त स्वरूप है, क्योंकि ब्रह्म स्वरूप होने से वह बंधन में कैसे हो सकती है
जिस प्रकार एक जल में दूसरा जल मिला देने पर, केवल जल ही दिखाई देता है, उसी प्रकार कोई स्त्री और पुरुष नहीं केवल जीवात्मा है
ज्ञानी को संपूर्ण जगत में केवल एक ब्रह्म की ही सत्ता दिखाई देती है, बंधन मुक्ति आदि सब चीजों से परे हो जाता है.
ज्ञान होने पर जीवात्मा जान जाती है कि वह प्रत्यक्ष आकाश के समान परमेश्वर का ही रूप है, जो केवल माया के भ्रम के कारण भटक रहा है
ज्ञान होने पर आत्मा जब अपना स्वरूप जान लेती है, तब गुरु उपदेश उपाधि आदि सब उसके मन से हट जाते हैं
आत्मा ही परम तत्व है, जो शरीर से रहीत है, इसका कोई शरीर नहीं
हे जीवात्मा तू क्यों दुखी होता है, तू आत्मस्वरूप है इस ज्ञान को जानकर मुक्त हो जा
आत्मा को ज्ञानी अज्ञानी नहीं कह सकते, क्योंकि यह स्वयं ही सभी गुणों से संपन्न और प्रकाश स्वरूप है
आत्मज्ञान भी नहीं तर्क नहीं समाधि भी नहीं योग भी नहीं देश भी नहीं काम भी नहीं गुरु का उपदेश भी नहीं, यह स्वभाव सही संपूर्ण गुणों से युक्त है
आत्मा शुभ एवं अशुभ कर्मों से परे हैं जन्म एवं मृत्यु से परे है, इसलिए इसका बंधन ही नहीं यह तो मुक्त स्वरूप है, इसलिए आत्मा मुक्त हो गई ऐसा ज्ञान होने पर प्रतीत नहीं होता
ज्ञान होने पर, संपूर्ण जगत में परमेश्वर का निराकार रूप ही दिखाई देता है, फिर इसे केवल अंदर देखने की जरूरत नहीं है बाहर देखने पर भी सर्वत्र परमात्मा दिखाई देता है
जैसे बारिश में इंद्रधनुष बनता है और नष्ट हो जाता है, केवल दिखाई देता है, उसी प्रकार संसार माया रूप होने के कारण केवल दिखाई देता है लेकिन ज्ञान होने पर मालूम चलता है उसका कोई अस्तित्व ही नहीं
ज्ञान होने पर साकार और निराकार का भेद हटकर केवल जीवात्मा शिव स्वरूप हो जाती है और अपने कल्याण को प्राप्त करती है
आत्मा का ना अपना है ना पराया ना शत्रु है ना मित्र, फिर जीवात्मा तुम अपने मन में दुखी और संताप क्यों लेते हो
जैसी दिन और रात्रि का भेद सभी को मालूम पड़ता है परम ज्ञान होने पर यह सब भेद भी मिट जाता हैं. अर्थात दोनों एक ही दिखाई देते हैं, उसी प्रकार सभी शरीरों में स्थित जीवात्मा एक ही दिखाई देती है
आत्मा सुख-दुख छोटा बड़ा पद प्रतिष्ठा से रहित, सर्व जगत में व्याप्त नाश रहीत है.
आत्मा करता नहीं है और भोक्ता भी नहीं है और वर्तमान के कर्म भी आत्मा के लिए नहीं है यह ममता से परे है, आत्मा का कोई शरीर नहीं है, संपूर्ण जगत इस आत्मा का ही शरीर है
दुख सुख राग द्वेष आत्मा की नहीं है आत्मा तो विशाल आकाश के समान है, जो सर्वत्र व्याप्त है
मन और बुद्धि से तर्क करके आत्मा के स्वरूप को नहीं जाना जा सकता इसके स्वरूप को जानने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है
ज्ञानी अपने शरीर को छोड़ने के बाद, ब्रह्मा में ही ली हो जाता है
ज्ञानी के लिए कर्म बंधन नष्ट हो जाते हैं, फिर वह अपना शरीर का त्याग चाहे तीर्थ में करें चाहे चांडाल के घर में करें, किसी भी मुहूर्त किसी भी देश किसी भी काल में करें वह शरीर छोड़ने के बाद मुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेता है ज्ञानी के लिए कोई बंधन नहीं
ज्ञान होने पर, धर्म अर्थ काम और मोक्ष यह सब ज्ञानी के चित्त से हट जाते हैं, क्योंकि यह सब माया स्वरूप होने से इनका कोई अर्थ नहीं रह जाता
ज्ञान की प्राप्ति होने पर भूत भविष्य और वर्तमान के सब कर्म नष्ट हो जाते हैं, और केवल मुक्त भाव और मुक्त स्वरूप ही जीवात्मा जान जाती है
जिसे ज्ञान हो गया वह सर्वत्र आत्म स्वरूप को देखते हुए अकेला भी सुख पूर्वक रह सकता है, जब संपूर्ण जगत में केवल ब्रह्म और अपनी आत्मा ही दिखाई देती है तब उसके लिए वस्त्र का कोई महत्व नहीं रह जाता, क्योंकि सर्वत्र मैं ही मैं हूं
ज्ञानी केवल आत्मा को ही जानता है और उसकी सभी भ्रांतियां मिट जाती है वह मन से मुक्त हो जाता है वह धर्म एवं अधर्म से परे बंधन और मुक्ति का भाव भी उसे नहीं होता क्योंकि आत्मा तो स्वयं मुक्त स्वरूप है
मंत्र पूजा पाठ विधि विधान क्रिया कर्म सर बंधन ज्ञान की प्राप्ति पर छूट जाते हैं क्योंकि जीवात्मा जीवन मुक्त हो जाती हैं
ज्ञान होने पर सत्य और असत्य का भेद मिट जाता है, यह संपूर्ण जगत शून्य प्रतीत होता है
ज्ञान प्राप्ति में या गुणों में ऊंच-नीच छोटा बड़ा ज्ञानी अज्ञानी गृहस्थ साधू आदि का भेद ना करके, केवल ज्ञान ही देखना चाहिए जहां से मिले ज्ञान ले लेना चाहिए
जीवात्मा का उत्थान गुणों से होता है, जैसे चित्रकारी के नाव से नदी पार नहीं की जा सकती, उसी प्रकार गुणों में जाति या धर्म आदि नहीं देखा जाता
जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से यह जीवन चलता है, सूर्य नहीं सूर्य का प्रकाश कार्य करता है,उसी प्रकार परमात्मा के प्रकाश स्वरूप शक्ति से यह संसार चलता है
एक ही ब्रह्म संपूर्ण जगत को इसी प्रकार बिना प्रयत्न के अपनी शक्ति के द्वारा चलायमान रखता है
जीवात्मा स्वयं ब्रह्म स्वरूप है प्रकृति से भी ज्यादा सूक्ष्म है, प्रकृति यह जीवात्मा का स्वरूप है तथा जीवात्मा कल्याण शिव का स्वरूप है
दत्तात्रेय जी कहते हैं कि मैं ही ब्रह्म हूं, संपूर्ण देवता मुझे ही बजते हैं मैं ही संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त हूं इसलिए देवता भी मुझसे भिन्न नहीं है वह भी मेरा स्वरूप है
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