मित्रों नमस्कार pathgyan.com में आपका स्वागत है इस ब्लॉग में हम लोग अज्ञेय का जीवन परिचय, जानेंगे और उनकी कौन कौन सी रचना है, और उनके विचार उनके जीवन सम्बन्धी उनके ही शब्दों में.
अज्ञेय का जीवन परिचय
- जन्म 7 मार्च 1911 कुशीनगर और इनकी मृत्यु 4 अप्रैल 1987 को नई दिल्ली में हुई, आगे को प्रतिभाशाली शैली कार्यकाल का प्रतिभाशाली कवि भी माना गया है.
- इनके पिता का नाम पंडित हीरा नंद शास्त्री था यह प्राचीन लिपियों के विशेषज्ञ थे, इनका बचपन इनके पिता की नौकरी के साथ कई स्थानों की परिक्रमा करते हुए बीता, लखनऊ श्रीनगर जम्मू घूमते हुए इनका परिवार 1919 में नालंदा पहुंचा नालंदा में आगे के पिता ने आगे से हिंदी लिखवाना चालू किया इसके बाद 1911 में आगे का परिवार काशी पहुंचा उसी में आगे के पिता ने आगे का यज्ञोपवीत कराया.
- अज्ञेय जी ने घर परिभाषा सहित इतिहास और विज्ञान की प्रारंभिक शिक्षा प्रारंभिक की, 1925 में अकेले मैट्रिक के प्राइवेट परीक्षा पंजाब से की इसके बाद 2 वर्ष मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज एवं 3 वर्ष फार्मोन कॉलेज लाहौर में संस्थागत शिक्षा पाई, वही बीएससी और अंग्रेजी में MA पूर्वार्ध पूरा किया, इसी बीच भगत सिंह के साथ ही बने और 1930 में गिरफ्तार हो गए, आगे जी 6 वर्ष ये नजर बंद होने के बाद 1936 में कुछ दिनों तक आगरा के समाचार पत्र सैनिक के संपादन मंडल में रहे.
- बाद में विशाल भारत के संपादकीय विभाग में रहे कुछ दिन ऑल इंडिया रेडियो में रहने के बाद अज्ञ ने 1943 में सैन्य सेवा में प्रविष्ट हुए, 1946 में सैन्य सेवा से मुक्त होकर वह शब्द रूप से साहित्य में लगे मेरठ और उसके बाद इलाहाबाद और अंत में दिल्ली में उन्होंने अपना केंद्र बनाया।
- 1943 में 7 कवियों के वक्तव्य और कविताओं को लेकर एक लंबे भूमिका के साथ तार सप्तक का संपादन किया आगे ने आधुनिक हिंदी कविता लिखी को एक नया मोड़ दिया जिसे प्रयोगशील कविता की संज्ञा दी गई इसके बाद समय-समय पर उन्होंने दूसरा तीसरा और चौथा संपादन भी किया.
अज्ञेय जी का रचना का प्रकार
आगे की कृति बहुमुखी है और वह उनके समृद्ध अनुभव उनके कविता में दिखता है उन्होंने अपने समय में जो समाज में घटनाएं घट रही हैं उसके अनुसार कविताओं की रचना की जिससे लोगों को शिक्षा मिल सके, इनका वास्तविक उद्देश्य लोगों को एक सही दिशा प्रदान करना था अपनी रचनाओं के माध्यम से, क्योंकि उस समय भारत आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था और उस समय भी जातिवाद आदि बहुत सारी परेशानियां भारत के सामने थी इन सब चीजों का इन कवि पर एक विशेष प्रभाव पड़ा और उन्होंने कविताओं के माध्यम से अपनी रचनाओं को और अपने भावनाओं को रखा, इनके रचना में कविता कहानी उपन्यास नाटक यात्रा वृतांत व्यक्तिगत निर्णय निबंध आत्म चिंतन आत्मा अनुवाद समीक्षा संपादन शामिल है.
अज्ञेय का जीवन परिचय के शब्द उनके ही शब्दों में
कृतिकार की निगाह नहीं होती, यह तो नहीं कहूँगा। पर यह असंदिग्ध है कि वह निगाह एक नहीं होती। एक निगाह से देखना।कलाकार की निगाह से देखना नहीं है। स्थिर, परिवर्तनहीन दृष्टि सिद्धांतवादी की हो सकती है, सुधारक-प्रचारक की हो सकती हैऔर- भारतीय विश्वविद्यालयों के संदर्भ में-अध्यापक की भी हो सकती है, पर वैसी दृष्टि रचनाशील प्रतिभा की दृष्टि नहीं है।
‘अज्ञेय’ : अपनी निगाह में इस शीर्षक के नीचे यहाँ जो कुछ कहा जा रहा है उसे इसलिए ज्यों-का-त्यों स्वीकार नहीं किया जा सकता। वह स्थिर उत्तर नहीं है। यह भी हो सकता है कि उसके छपते-छपते उससे भिन्न कुछ कहना उचित और सही जान पड़ने लगे।
चालू मुहावरे में कहा जाए कि यह केवल आज का, इस समय का कोटेशन है। कल को अगर बदला जाए तो यह न समझना होगा किअपनी बात का खंडन किया जा रहा है, केवल यह समझना होगा कि वह कल का कोटेशन है जो कि आज से भिन्न है। फिर यह भी है कि कलाकार की निगाह अपने पर टिकती भी नहीं। क्यों टिके? दुनिया में इतना कुछ देखने को पड़ा है : ‘क्षण। क्षण परिवर्तित प्रकृति वेश’ जिसे ‘उसने आँख भर देखा।’ इसे देखने से उसको इतना अवकाश कहाँ कि वह निगाह अपनी ओर मोड़े। वह तो जितना कुछ देखता है उससे भी आगे बढ़ने की विवशता में देता है ‘मन को दिलासा, पुन: आऊँगा-भले ही बरस दिन अनगिन
युगों के बाद! कलाकार की निगाह, अगर वह निगाह है और कलाकार की है तो, सर्वदा सब-कुछ की ओर लगी रहती है। अपने पर टिकने का अवकाश उसे नहीं रहता। नि:संदेह ऐसे बहुत-से कलाकार पड़े हैं, जिन्होंने अपने को देखा है, अपने बारे में लिखा है। अपने बारे में लिखना तो आजकल का एक रोग है। बल्कि यह रोग इतना व्यापक है कि जिसे यह नहीं है वही मानो बेचैन हो उठता है कि मैं कहीं अस्वस्थ तो नहीं हूँ? लेखकों में कई ऐसे भी हैं जिन्होंने केवल अपने बारे में लिखा है-जिन्होंने अपने सिवा कुछ देखा ही नहीं है।
लेकिन सरसरी तौर पर अपने बारे में लिखा हुआ सब-कुछ एक ही मानदंड से नहीं मापा जा सकता, उसमें कई कोटियाँ हैं। क्योंकि देखनेवाली निगाह भी कई चोटियों की हैं। आत्म-चर्चा करने वाले कुछ लोग तो ऐसे हैं कि निज की निगाह कलाकार की नहीं, व्यवसायी की निगाह है। यों आजकल सभी कलाकार न्यूनाधिक मात्रा में व्यवसायी हैं; आत्म-चर्चा आत्म-पोषण का साधन है इसलिए आत्मरक्षा का एक रूप है। कुछ ऐसे भी होंगे जो कलाकार तो हैं लेकिन वास्तव में आत्म-मुग्ध हैं-नार्सिसस-गोत्रीय कलाकार! लेकिन अपने बारे में लिखने वालों में एक वर्ग ऐसा का भी है जो कि वास्तव में अपने बारे में नहीं लिखते हैं-अपने को माध्यम बनाकर संसार के बारे में लिखते हैं। इस कोटि के कलाकार की जागरूकता का ही एक पक्ष यह है कि यह निरंतर अपने देखने को ही देखता चलता है.अनवरत अपने संवेदन के खरेपन की कसौटी करता चलता है। जिस भाव-यंत्र के सहारे वह दुनिया पर और
दुनिया उस पर घटित होती रहती है, उस यंत्र की ग्रहणशीलता का वह बराबर परीक्षण करता रहता है। भाव-यंत्र का ऐसा परीक्षण एक सीमा तक किसी भी युग में आवश्यक रहा होगा, लेकिन आज के युग में वह एक अनिवार्य कर्तव्य हो गया है। तो अपनी निगाह में अज्ञेय। यानी आज का अज्ञेय ही। लिखने के समय की निगाह में वह लिखता हुआ अज्ञेय। बस इतना ही और उतने समय का ही। अज्ञेय बड़ा संकोची और समाज भीर है। इसके दो पक्ष हैं। समाज भीरु तो इतना है कि कभी-कभी दुकान में कुछ चीज़ें खरीदने के लिए घुसकर भी उलटे-पाँव लौट आता है क्योंकि खरीददारी के लिए दुकानदार से बातें करनी पडेंगी। लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है जिसके
मूल में निजीपन की तीत्र भावना है, वह जिसे अँग्रेज़ी ऑफ़ प्राइवेसी कहते हैं। किन चीजों को अपने तक, या अपनों तक ही सीमित रखना चाहिए, इसके बारे में अज्ञेय की सबसे बड़ी स्पष्ट और दृढ़ धारणाएँ हैं।
इनमें से बहुत-सी लोगों की साधारण मान्यताओं से भिन्न हैं। यह भेद एक अँग्रेज़ी साहित्य के परिचय की राह से समझा जा सकता है : उस साहित्य में इसे चारित्रिक गुण माना गया है। मनोवेगों को अधिक मुखर न होने दिया जाए, निजी अनुभूतियों के निजीपन को अक्षुण्ण रखा जाए : “प्राइवेट फ़ेसेज़ इन पब्लिक प्लीज लेकिन इस निरोध अथवा संयमन के अलावा भी कुछ बातें हैं। एक सीमा है जिसके आगे अज्ञेय अस्पृश्य रहना ही पसंद करता है। जैसे कि एक सीमा से आगे वह दूसरों के जीवन में प्रवेश या हस्तक्षेप नहीं करता है। इस तरह का अधिकार वह बहुत थोड़े लोगों से चाहता है और बहुत थोड़े लोगों को देता है। जिन्हें देता है उन्हें अबाध रूप से देता है, जिनसे
चाहता है उनसे उतने ही निर्बाध भाव से चाहता है। लेकिन जैसा कि पहले कहा गया है, ऐसे लोगों की परिधि बहुत कड़ी है। इससे गलतफहमी जरूर होती है। बहुत-से लोग बहुत नाराज भी हो जाते हैं। कुछ को इसमें मनहूसियत की झलक मिलती है, कुछ अहम्मन्यता पाते हैं, कुछ आभिजात्य का दर्प, कुछ और कुछ। कुछ की समझ में यह निरा आडंबर है और भीतर के शून्य को छिपाता है जैसे प्याज का छिलका पर छिलका। मैं साक्षी हूँ कि अज्ञेय को इन सब प्रतिक्रियाओं से अत्यंत क्लेश होता है।
लेकिन एकतो यह क्लेश भी निजी है। दूसरे इसके लिए वह अपना स्वभाव बदलने का यत्न नहीं करता, न करना चाहता है। सभी को कुछ-कुछऔर कुछ को सब-कुछ-वह मानता है उसके लिए आत्म-दान की परिपाटी यही हो सकती है। सिद्धांतत: वह स्वीकार करेगा कि ‘सभीको सब-कुछ’ का आदर्श इससे अधिक ऊँचा है। पर वह आदर्श सन्यासी का ही हो सकता है। या कम-से-कम निजी जीवन में कलाकार का तो नहीं हो सकता। बहुत-से कलाकार उससे भी छोटा दायरा बना लेते हैं जितना कि अज्ञेय का है और कोई-कोई तो ‘कुछ को
कुछ, बाकी अपने को सब-कुछ’ के ही आदर्श पर चलते हैं। ऐसा कोई न बचे जिसे उसने अपना कुछ नहीं दिया हो, इसके लिए अज्ञेय बराबर यत्नशील है। लेकिन सभी के लिए वह सब-कुछ दे रहा है, ऐसा दावा वह नहीं करता और इस दंभ से अपने को बचाये रखना चाहता है।
अज्ञेय का जन्म खँडहरों में शिविर में हुआ था। उसका बचपन भी वनों और पर्वतों में बिखरे हुए महत्त्वपूर्ण पुरातत्त्वावशेषों के मध्य में बीता। इन्हीं के बीच उसने प्रारंभिक शिक्षा पायी। वह भी पहले संस्कृत में, फिर फारसी और फिर अँग्रेज़ी में। और इस अवधि में वह सर्वदा अपने पुरातत्त्वज्ञ पिता के साथ, और बीच-बीच में बाकी परिवार से-माता और भाइयों से-अलग, रहता रहा। खुदाई में लगे हुए पुरातत्त्वान्वेषी पिता के साथ रहने का मतलब था अधिकतर अकेला ही रहना। और अज्ञेय बहुत बचपन से एकांत का अभ्यासी है और बहुत कम चीज़ों से उसको इतनी अकुलाहट होती है जितनी लगातार लंबी अवधि तक इसमें व्याघात पड़ने से। जेल में अपने सहकर्मियों के दिन-रात के अनिवार्य साहचर्य से त्रस्त होकर उसने स्वयं काल-कोठरी की माँग की थी और महीनों उसमें
रहता रहा। एकांत जीवी होने के कारण देश और काल के आयाम का उसका बोध कुछ अलग ढंग का है। उसके लिए सचमुच ‘कालोह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी।’ वह घंटों निश्चल बैठा रहता है, इतना निश्चल कि चिड़िया उसके कंधों पर बैठ जाएँ या कि गिलहरियाँ उसकी टाँगों पर से फाँदती हुई चली जाएँ। पशु-पक्षी और बच्चे उससे बड़ी जल्दी हिल जाते हैं। बड़ों को अज्ञेय के निकट आना भले ही कठिन जान पड़े, बच्चों का विश्वास और सौहार्द उसे तुरत मिलता है। पशु उसने गिलहरी के बच्चे से तेंदुए के बच्चे तक पाले हैं, पक्षी बुलबुल से मोर-चकोर तक; बंदी इनमें से दो-चार दिन से अधिक किसी को नहीं रखा। उसकी निश्चलता ही उन्हें आश्वस्त कर देती है। लेकिन गति का उसके लिए दुर्दांत आकर्षण है। निरी अंध गति का नहीं, जैसे तेज मोटर या हवाई जहाज की,
यद्यपि मोटर वह काफ़ी तेज रफ्तार से चला लेता है। (पहले शौक था, अब केवल आवश्यकता पड़ने पर चला लेने की कुशलता है,शौक नहीं है।) आकर्षण है एक तरह की ऐसी लय-युक्ति गति का-जैसे घुड़दौड़ के घोड़े की गति, हिरन की फलाँग या अच्छे तैराक का अंग-संचालन, या शिकारी पक्षी के झपट्टे की या सागर की लहरों की गति। उसके लेखन में, विशेष रूप से कविता में, यह आकर्षण मुखर है। पर जीवन में भी उतना ही प्रभावशाली है।
एक बार बचपन में अपने भाइयों को तैरते हुए देखकर वह उनके अंग-संचालन से इतना मुग्ध हो उठा कि तैरना न जानते हुए भी पानी में कूद पड़ा और डूबते-डूबते बचा-यानी मूर्छितावस्था में निकाला गया। लय-युक्त गति के साथ-साथ, उगने या चीज़ में, उसके विकास की बारीक-से-बारीक क्रिया में, अज्ञेय को बेहद दिलचस्पी है: वे चीज़ें छोटी हों या बड़ी, च्यूँटी और पक्षी हों या वृक्ष और हाथी; मानव-शिशु हो या नगर और कस्बे का समाजा वनस्पतियों और पशु-पक्षियों का विकास तो केवल देखा ही जा सकता है; शहरी मानव और उसके समाज की गतिविधियों से पहले कभी-कभी बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया होती थी-क्षोभ और क्रोध होता था; अब धीरे-धीरे समझ में आने लगा है कि ऐसी राजस प्रतिक्रियाएँ देखने में थोड़ी बाधा जरूर होती है। अब आक्रोश को वश करके उन गतिविधियों को ठीक-ठीक समझने और उनको निर्माणशील लीकों पर डालने का उपाय खोजने का मन होता है। पहले विद्रोह था जो विषयिगत था-‘सब्जेक्टिव’ था। अब प्रवृत्ति है जो किसी हृद तक असम्पृक्त बुद्धि से प्रेरित है। एक ह॒द तक जरूर प्रवृत्ति के साथ एक प्रकार की अंतर्मुखता आई है। समाज को बदलने चलने से
पहले अज्ञेय बार-बार अपने को जाँचता है कि कहाँ तक उसके विश्वास और उसके कर्म में सामंजस्य है-या कि कहाँ नहीं है। यह भी जोड़ दिया जा सकता है कि वह इस बारे में भी सतर्क रहता है कि उनके निजी विश्वासों में और सार्वजनिक रूप से घोषित (पब्लिक) आदर्श में भेद तो नहीं है? धारणा और कर्म में सौ प्रतिशत सामंजस्य तो सिद्धों को मिलता है।
आज के युग में शायद विलास की वस्तुएं हैं। इसलिए इस कारण से अज्ञेय हिंदी भाइयों और विशेष रूप से हिंदी वाले भाइयों से कुछ और अलग पड़ जाता है और कुछ और अकेला हो जाता है। यहाँ यह भी स्वीकार कर लिया जाए कि यहाँ शायद सच्चाई को अधिक सरल करके सामने रखा गया है; उतनी सरल वास्तविकता नहीं है। एक साथ ही चरम निश्चलता का और चरम गतिमयता का आकर्षण अज्ञेय की चेतना के अंतर्विरोध का सूचक
है। पहाड़ उसे अधिक प्रिय है या सागर, इसका उत्तर वह नहीं दे पाया है, स्वयं अपने को भी। वह सर्वदा हिमालय के हिमशिखरों की ओर उन्मुख कुटीर में रहने की कल्पना किया करता है और जब-तब उधर कदम भी बढ़ा लेता है; पर दूसरी ओर वह भागता है बराबर सागर की ओर, उसके उद्वेलन से एकतानता का अनुभव करता है। शांत सागर-तल उसे विशेष नहीं मोहता-चट्टानों पर लहरों का घात-प्रतिघात ही उसे मुग्ध करता है। सागर में वह दो बार डूब चुका है; चट्टानों की ओट से सागर-लहर को देखने के लोभ में वह कई बार फिसलकर गिरा है और दैवात् ही बच गया है। पर मन:स्थिति ज्यों-की-त्यों है : वह हिमालय के पास रहना चाहता है पर सागर के गर्जन से दूर भी नहीं रहना चाहता! कभी हँसकर कह देता है : “मेरी कठिनाई यही है कि भारत का सागर-तठ सपाट
दक्षिण में है-कहीं पहाड़ी तट होता तो. क्योंकि इस अंतर्विरोध का हल नहीं हुआ है, इसलिए वह अभी स्वयं निश्चयपूर्वक नहीं जानता है कि वह अंत में कहाँ जा टिकेगा। दिल्ली या कोई भी शहर तो वह विश्राम स्थल नहीं होगा, यह वह श्रुव मानता है। पर वह कूर्मांचल हिमालय में होगा, कि कुमारी अंतरीप के पास (जहाँ चट्टानें तो हैं!), या समझौते के रूप में विंध्य के अंचल की कोई वनखंडी जहाँ नदी-नाले का मर्मर ही हर समय सुनने को मिलता रहे-इसका उत्तर उसे नहीं मिला। उत्तर की कमी कई बार एक अशांति के रूप में प्रकट हो जाती है। वह ‘कहीं जाने के लिए’ बैचेन हो उठता है। (मुक्तिबोध का ‘माइग्रेशन इन्स्टिक्ट’?) कभी इसकी सूरत निकल आती है; कभी नहीं निकलती तो वह् घर ही का सब सामान उलट-पुलटकर उसे नया रूप दे देता है : बैठक को शयनकक्ष, शयनकक्ष को पाठागार,
पाठागार को बैठक इत्यादि। उससे कुछ दिन लगता है कि मानो नए स्थान में आ गए-फिर वह पुराना होने लगता है तो फिर सब बदल दिया जाता है! इसीलिए घर का फर्नीचर भी अज्ञेय अपने डिजाइन का बनवाता है। ये जो तीन चौकियाँ हैं न, इन्हें दिया जाए तो पलंग बन जाएगा; ये जो दो डेस्क-सी दीखती हैं, एक को घुमाकर दूसरे से पीठ जोड़ दीजिए, भोजन की मेज बन जाएगी यदि आप फर्श पर नहीं बैठ सकते। वह जो पलंग दीखता है, उसका पल्ला उठा दीजिए- नीचे वह संदूक है। या उसे एक सिरे पर खड़ा कर दीजिए तो वह आलमारी का काम दे जाएगा! दीवार पर शरद् ऋतु के चित्र हैं न ? सबको उलट दीजिए : अब सब चित्र वसंत के अनुकूल हो गए-अब बिछावन भी उठाकर शीतलपाटियाँ डाल दीजिए और सभी चीज़ों का ताल-मेल हो गया.
अज्ञेय मानते है कि बुद्धि से जो काम किया जाता है उसकी नींव हाथों से किये गए काम पर है। जो लोग अपने हाथों का सही उपयोग नहीं करते उनकी मानसिक सृष्टि में भी कुछ विकृति या एकांगिता आ जाती है। यह बात काव्य-रचना पर विशेष रूप से लागू है क्योंकि अन्य सब कलाओं के साथ कोई-न-कोई शिल्प बँधा है, यानी अन्य सभी कलाएँ हाथों का भी कुछ कौशल माँगती हैं। एक काव्य-कला ही ऐसी है कि शुद्ध मानसिक कला है| प्राचीन काल में शायद इसीलिए कवि-कर्म को कला नहीं गिना जाता था। अज्ञेय प्राय: ही हाथ से कुछ-न-कुछ बनाता रहता है और बीच-बीच में कभी तो मानसिक रचना को बिलकुल स्थगित करके केवल
शिल्प-वस्तुओं के निर्माण में लग जाता है। बढ़ईगिरी और बाग़वानी का उसे खास शौक है। लेकिन और भी बहुत-सी दस्तकारियों में थोड़ी-बहुत कुशलता उसने प्राप्त की है और इनका भी उपयोग जब-तब करता रहता है। अपने काम के देशी काट के कपड़े भी वह सी लेता है और चमड़े का काम भी कर लेता है। थोड़ी-बहुत चित्रकारी और मूर्तिकारी वह करता है। फोटोग्राफी का शौक भी उसे बराबर
रहा है और बीच-बीच में प्रबल हो उठता है। हाथों से चीज़ें बनाने के कौशल का प्रभाव ज़रूरी तौर पर साहित्य-रचना पर भी पड़ता है। अज्ञेय प्राय: मित्रों से कहा करता है कि अपने हाथ से लिखने और शीघ्रलेखक को लिखाने में एक अंतर यह है कि अपने हाथ से लिखने में जो बात बीस शब्दों में कही जाती
लिखाते समय उसमें पचास शब्द या सौ शब्द भी सर्फ़कर दिए जाते हैं! मितव्यय कला का एक स्वाभाविक धर्म है। रंग का, रेखा का, मिट्टी या शब्द का अपव्यय भारी दोष है। अपने हाथ से लिखने में परिश्रम किफायत की ओर सहज ही जाता है। लिखाने में इसमें चूक भी हो सकती है। विविध्व प्रकार के शिल्प के अभ्यास से मितव्यय का-किसी भी इष्ट की प्राप्ति में कम-से-कम श्रम का-सिद्धांत सहज- स्वाभाविक बन जाता है। भाषा के क्षेत्र में इससे नपी-तुली, सुलझी हुई बात कहने की क्षमता बढ़ती है, तर्क-पद्धति व्यवस्थित।
अज्ञेय का जीवन परिचय के बारे में अन्य जानकारी
मूल नाम : सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन
जन्म: 7 मार्च 1911, कुशीनगर, देवरिया (उत्तर प्रदेश)
भाषा : हिंदी, अंग्रेजी
विधाएँ : कहानी, कविता, उपन्यास, निबंध्र, नाटक, यात्रा वृत्तांत, संस्मरण
कविता : भग्नदूत, चिंता, इत्यलम्, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्रधनु रौंदे हुए ये, अरी ओ करुणा प्रभामय,आँगन के पार द्वार, पूर्वा, सुनहले शैवाल, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, सागर-मुद्रा, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, महावृक्ष के नीचे, नदी की बाँक पर छाया, ऐसा कोई घर आपने देखा है (हिंदी) प्रिज़न डेज़ एंड अदर पोयम्स (अंग्रेजी)
उपन्यास : शेखर : एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने अपने अजनबी, बीनू भगत
कहानी संग्रह : विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप
यात्रा वृत्तांत : अरे यायावर रहेगा याद, एक बूँद सहसा उछली
निबंध : सबरंग, त्रिशंकु, आत्मपरक, आधुनिक साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल, संवत्सर
संस्मरण : स्मृति लेखा
डायरी : भवंती, अंतरा, शाश्वती
नाटक : उत्तरप्रियदर्शी
अनुवाद : गोरा (रवींद्रनाथ टैगोर – बॉग्ला से)
संपादन : तार सप्तक (तीन खंड), पुष्करिणी, रूपांबरा (सभी कविता संकलन), सैनिक, विशाल भारत, प्रतीक, दिनमान, नवभारत टाइम्स (हिंदी), वाक्, एवरीमैंस (अंग्रेजी)
अज्ञेय जी को जीवन में दिया जाने वाला सम्मान
साहित्य अकादमी पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार
नाटक
चुनी हुई कविताएँ
संस्मरण
उत्तर त्रियदर्शी
संवाद
वसंत का अग्रदूत
आत्मकथा
“अज्ञेय’ : अपनी निगाह में
निबंध
ऋण-स्वीकारी हूँ
कला का स्वाभाव और उद्देश्य
कविता : श्रव्य से पाठ्य तक
काल का डमरु-नाद
छाया का जंगल
ताली तो छूट गयी
नई कविता : प्रयोग के आयाम
भारतीयता
मरुथल की सीपियाँ
रूढ़ि और मौलिकता
वैज्ञानिक सत्ता, मिथकीय सत्ता और कवि
वासुदेव प्याला
शब्द, मौन, अस्तित्व
स्मृति और काल
स्मृति और देश
संस्कृति और परिस्थिति
संस्कृति और परिस्थिति
साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया
साहित्व-बोध : आधुनिकता के तत्व
सौन्दर्य-बोध और शिवत्व-बोध
डायरी
डायरी
मैं वह धर हैं
यात्रावृत
एक बूँद सहसा उछली
बीसवीं शती का गोलोक
अन्य भूमिकाएँ रचनावली
अज्ञेय रचनावली खंड: 1
संपूर्ण कविताएँ -1 खंड: 2
संपूर्ण कविताएँ – 2 खंड: 3
संपूर्ण कहानियाँ खंड : 4
शेखर : एक जीवनी खंड : 5
अपने-अपने अजनबी खंड : 5
नदी के ढीप खंड : 6
छाया मेखल खंड : 6
बारहअम्भा खंड : 6
बीनू भगत
उपन्यास
गोरा
कहानियाँ
पत्नी का पत्र
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