अज्ञेय की रचनाएँ

मित्रों नमस्कार pathgyan.com में आपका स्वागत है इस ब्लॉग में हम लोग अज्ञेय की रचनाएँ जानेंगे और जानेंगे उनकी कविता उनके ही शब्दों में,उनकी कविता का कुछ भाग आप लोगों के लिए,इससे आप लोगों को उनकी रचना के बारे में जानने का मौका मिलेगा।

अज्ञेय की रचनाएँ

 

विश्वप्रिया

 

छिपाये हुए हो?

में कौन-सी बिजलियाँ सोती हैं?

वह मेरे साथ चलती है।

मैं नहीं जानता कि वह कौन है; कहाँ से आयी है;

कहाँ जाएगी! किन्तु अपने अचल घूँघट

छिपाये, अपने अचल वसनों में सोयी

मेरे साथ ऐसे चल रही है जैसे अनुभूति के साथ कसक.

बह मेरी वधू है।

मैं ने उसे कभी नहीं देखा। जिस संसार में मैं रहता

उस में उस का अस्तित्व ही कभी नहीं अपना मुँह

मेरे शरीर का प्रत्येक अणु उस की समीपता को प्रतिध्वनित करता है।

मैं अपनी बधू को नहीं पहचानता।

मैं उसे अनन्त काल से साथ लिवाये आ

पर उस अनन्त काल के सहवास के बाद भी हम अपरिचित हैं।

मैं उस काल का स्मरण तो क्या,

कल्पना भी नहीं कर सकता जब वह

के आगे नहीं थी; पर वह अभी अस्फुट, अपने में ही निहित है.

वह है मेरे अन्तरतम की भूखा

बह एक स्वप्न है, इसलिए सच है;

बह कभी हुई नहीं, इसलिए सदा से है;

मैं उस से अत्यन्त अपरिचित हूँ,

इसलिए वह सदा मेरे साथ चलती

इसलिए वह मेरी अत्यन्त अपनी है;

मैं ने उसे प्रेम नहीं किया, इसलिए मेरा सारा विश्व उसे पहचानता नहीं,

उस के अदृश्य पैरों में लोड कर एक भव्य विस्मय

से उस का आह्वान करता है, ‘प्रिये!”

छाया, छाया, तुम कौन

 

छाया! मैं तुम में किस वस्तु का अभिलापी हूँ?

मुक्त कुन्तलों की एक लट, ग्रीवा की एक बंकिम मुद्रा

और एक बेधक मुस्कान, और बस?

छाया! तुम्हारी नित्यता, तुम्हारी चिरन्‍्तन सत्यता क्या है?

आँखों की एक दमक – आँखें अर्थपूर्ण और रह:शील,

अतल और छलकती हुई; किन्तु फिर भी केवल आँखें-

छाया! मैं क्या पा चुका और क्‍या खोज रहा हूँ?

मैं नहीं जानता, मैं केवल यह जानता हूँ, कि मेरे पास सब कुछ है

और कुछ नहीं; कि तुम मेरे अस्तित्व की सार हो किन्तु स्वयं नहीं हो!

 

विश्व-नगर नगर में कौन सुनेगा मेरी मूक पुकार-

भरे एकाकी उर की तड़प रही झंकार-

‘अपरिचित! करू तुम्हें क्या प्यार?’

नहीं जानता हूँ मैं तुम को, नहीं माँगता कुछ प्रतिदान;

मुझे लुटा भर देना है, अपना अनिवार्य, असंयत गाना

जो अबाध के सखा! नहीं मैं अपनाने का इच्छुक हैं;

अभिलाषा कुछ नहीं मुझे, मैं देने वाला भिश्षुक हूँ!

परिचय, परिणय के बन्ध्न से भी घेरूँ मैं तुम को क्यों?

सृष्टि-मात्र के वाज्छनीय सुख! मेरे भर हो जाओ क्यों?

प्रेमी-प्रिय का तो सम्बन्ध स्वयं है अपना विच्छेदी-

भरी हुई अंजलि मैं हू, तुम विश्व-देवता की वेदी!

अनिर्णीत! अज्ञात! तुम्हे मं टेर रहा हूँ बारम्बार-

मेरे बद्ध हृदय में भरा हुआ है युगों-युगों का भारा

इसी का हूँ कि अपरिचिता

में कौन सुनेगा मेरी मूक पुकार-

 

एकायन

 

सखि! आ गये नीम को बौरा

हुआ चित्रकर्मा बसंत अवनी-तल पर सिरमौरा

आज नीम की कहता से भी लगा ठपकने मादक मधु-रस!

सखि! आ गये नीम को बौरा

प्रणय -केलि का आयोजन सब करते हैं सब ठौर’-

कठिन यत्र से इसी तथ्य के प्रति मैं नयन मूँद

किन्तु जगाता पड़कुलिया का स्वर कह एकाएक, ‘सखी, तू?’

सखि! आ गये नीम को बौरा!

प्रिय के आगम की कब तक है बाट जोहनी और?

फैलाये पाँवड़े सिरिस ने बुन-बुन कर सौरभ के जाल-

और पलाश आरती लेने लिये खड़े हैं दीपक-धाल!

सखि! आ गये नीम को बौरा

‘पीड़ाएँ बोलीं, ‘तेरी प्रणय-क्रियाएँ हो लीं।’

किस उत्सर्ग-भरे सुख से मैं ने उन के आघात सहे!

मैं ही नहीं, अखिल जग ही तो, उसे, स्मिति हो!

 

सृष्टि विवश बह गयी वहाँ तो

मैं ने तुम से कभी कुछ नहीं माँगा।

जब मधु-संध्या के धुंधलके में मैं पश्चिमी आकाश को देखती बैठी होती

झूमता हुआ मुझे छू जाता है, तब मैं अपने भीतर एक रिक्ति पाती हूँ और अनुभव करती:

मैं ने तुम्हें कभी कुछ नहीं दिया।

किन्तु जब उस घोर नीरव दोपहरी में मैं आकाश-समुद्र की

के स्व॒र में सिसक उठती है, तब मैं जान जाती हूँ कि मेरा हृदय अब

हूँ कि तुमने मुझे प्रेम से वंचित रखा है। छिन्न बादल-फेन देखती हैं,

नहीं रहा है।

और बुलबुल सहसा एकाकी पीड़ा

सधु म॑जरि, अलि, पिक-रव,

नव-बसन्त क्या जाने मेरी पीर!

प्रियतम क्यों आते हैं मधु को फूल,

जब तेरे बिन मेरा जीवन धूल?

सुमन, समीर

 

करुणे, तू खड़ी-खड़ी क्या सुनती!

उस निश्लीरिणी की कल-धारा को बाँधे क्या कूल-किनारा!

देव-गिरा के मुक्तक-दाने खड़ी रहेगी कब तक गुनती?

जरत की स्तक् अंडली से राव्न-पीड़ा कह लिकली!

तू मुख्था, हतसंज्ञ करों से उन फूलों में क्या है चुनती!

पाएगी क्‍या! स्वयं अकिंचन दे बिखरे निज उर का रोदन!

बुझ जाएगी वह चुति तो तू खड़ी ही रहेगी कर धुनती!

करुणे, तू खड़ी-खड़ी क्या सुनती!

पुजारिन कैसी हूँ मैं नाथा

झुका जाता लज्जा से माया

छिपे आयी हूँ मन्दिर-द्वार छिपे ही भीतर

किन्तु कैसे लूँ वदन निहार-छिपे कैसे

दया से आँख मूँद लो देव! नहीं माँगूँगी मैं वरदान,

तुम्हें अनदेखे दे कर भेंट-तिमिर में हूँगी अन्तर्घाना

ध्यान मत दो तुम मेरी ओर-न पूछो क्या लायी हूँ साचा

गान से भरा हुआ यह हृदय-अह््य को चित-तत्पर ये हाथा

पुजारिन कैसी हूँ मैं नाथ!

टूट गये सब कृत्रिम बन्धना

नदी लाँघ कूलों की सीमा, अर्णव-र्मि हुई, गति-भीमा:

अनुल्ल॑ध्य, यद्यपि अति-धीमा है तुझ को मेरा आवाहना

डूढ गये सब कृत्रिम बन्धना

छिल्न हुआ आचार-नियन्त्रण-कैसे बैधे प्रणय-आक्रन्दन?

दृष्टि-वशीकृत उर का स्पन्दन तुझे मानता है जीवन-घना

गये सब कृत्रिम बन्धन!

 

कहीं किसी ने गाया

मैं  तेरा हू-तू मेरा है

कैसा यह प्रेम घनेरा है”

मेरा मन भर आया.

प्रियतम, कभी तुम्हारे

मुख से ये ही शब्द सुने थे मैं ने-

अनजाने में मन के धागे से यह बेध गुने थे मैं ने

आज चीर परदा अतीत का यही वाक्य तारे-सा चमका

सुकृति के आकर्षण में,

मैं-हाँ, मैं भी बोल नहीं पायी थी कब तक!और दूसरी, जब मैं कौशल से छिपे-छिपे आ निकट तुम्हारे, छल से

वे दो वाक्य सुने थे, जाने किस के प्रति उजारित

किन्तु जिन्हें सुन मेरा कण-कण हुआ कंटकित, पुलकित:

“मैं तेरा हूँ-तू मेरा है, कैसा यह प्रेम घनेरा है!’

आज चीर परदा अतीत का यही वाक्य तारे-सा चमका;

कहीं किसी ने गाया

है-तू मेरा है, कैसा यह प्रेम घनेरा है”

मेरा मन भर आया.

 

आज, इस अजल्न निर्झर के तठ पर प्रिय, क्षण-सर हम नीरव

रह कर इस के स्वर में लय कर डालें

अपने प्राणों का यह अविरल रौरवा

प्रिया उस की अजल्न गति क्या कहती है?

शक्ति ओ अनन्त ओ अगाधा’

प्राणों की स्पन्दन गति उस के साथ-साथ रहती है-

“मेरा प्रोजवल क्रन्दन हो अवाधा’

प्रिय, आओ इस की सित फेनिन स्मित के नीचे

तस किन्तु कम्पन-श्लथ हाथ मिला कर

शोणित के प्रवाह में जीवन का शैथिल्य भुला कर

किसी अनिर्वच् सुख से आँखें मीचे

हर खो जाये वैदिक पर्वक्य सिंदा करा

ग्रथित अँगुलियाँ, कर भी मिले

प्रिय, हम बैठ रहें इस तठ पर!

अह्स सह यह नि्लर गाता जाए, राता जाए. जिरजस्वरा

पर, एकस्वर क्यों? देखो तो. उड़ते फ्लिल

रजतकणों में बहुरंगों का नर्तना

क्यों न हमारा प्रणय रहेगा स्वप्निल छायाओं का शुप्र चिरन्तन दर्पण!

इन सब सन्देहों को आज घुला दो!

क्षण की अजर अमरता में बिखरा दो!

उर में लिये एक ललकार, सुला दो,

चिर जीवन की ओझी नश्वरताएँ! सब जाएँ, बह जाएँ:

यह अजल्न बहता है निर्झरा

आज, अंजलि-बद्ध खड़े हम शीश नवा लें।

उठे कि सोये प्राणों में पीड़ा का सर्मर-

हम अपना-अपना सब कुछ दे डालें

मैं तुम को, तुम मुझे, परस्पर पा ले!

मूक हो, वह लय गा लें…जो अजल्न बहुरंगमवी, जैसी यह निर्झर-बह अजज्न जो बहता निर्शरा!

 

ओ तेरा यह अविकल मर्मरा

ओ पथ-रोधक चट्टानों को भी खंडित कर देने वाले!

ओ प्रत्यवलोकन के हित भी रुक कर सांस न लेने वाले!

विफल जगत्‌ का हृदय चीर कर कर्म-तरी के खेलने वाले!

तू हँसता है, या तुझ को हँसती है कोई निर्देश नियति,

तू बढ़ता है, या कि तुझे ले बही जा रही जीवन की गति!

ओ अजद्न, ओ पीड़ा-निर्झरा! ओ तेरा यह अविकल मर्मरा

तेरी गति में इन आँखों को पीड़ा ही पीड़ा क्यों दीखी?

तीखेपन के कारण? पर मदिरा भी तो होती है तीखी!

मदिरा में भी चंचल बुद्बुद, मदिरा भी करती है विहवल:

मदिरा में भी तो कोई सम्मोहन रहता ही है बेकल!

अजख्रता! इस गतिमान चिरन्तनता की

ओ अजस जो पीड़ा निर्झर! ओ तेरा यह अविकल मर्मरा

कुछ भी हो हम-तुम चिरसंगी इस जगती में

ही बस जाने वाले, दुत गति, धीमे,

बिजित, विजेता; गतियुत, परिमित; आगे बदते को अभिप्रेरित-

अपर नियन्त्रण किन्तु किसी से बाधित;

तुम, उस अनुल्ल॑ध्य गति-क्रम से-मैं, पाषाण-हृदय प्रियतम

ओ अजस, ओ पीड़ा-निर्झर! ओ तेरा यह अविकल मर्मरा

प्रणयी निर्झर! आओ, हम दोनों के प्राणों में पीड़ा-झंझा के झोंके

एक बबंडर आज उठावें-बाँध तोड़ कर सतत जगावें

विवश पुकारें जो नभ् पर छा जावें!

एक मूक आह्वान, सदा एकस्वर,

कहता जावे, कहता जावे, निर्सर दोनों ही के अन्तरतम की गूढ व्यचाएँ

 

इस मन्दिर में तुम होगे क्या?

इन उपासकों से क्या मुझ को? ये तो आते ही रहते हैं।

जहाँ देव के चरण छू सके-सौरभ-निर्झर ही बहते हैं

अब भी जीता पदस्पर्श? मुझ को यह बदला दोगे क्या?

कितने वर्ष बाद आयी हूँ उन पर अपनी बेंट चढ़ाने!

मैं चिर, विमुख, झुका कर मस्तक कालान्तर को आज भुलाने!

क्या बोलूँ-यदि बोल भी सकूँ। तुम आदेश करोगे क्या?

पीठ शून्य भी हो, आँखें क्यों करें न चरण-स्मृति का तर्पणा

देव! देव! उर आरति-दीपक! यह लो मेरा मूक समर्पणा

मेरी उग्र दिदृक्षा को माया से भी न वरोगे क्या?

इस मन्दिर में तुम होगे क्या?

प्रियतम, आज बहुत दिन बादा

आँखों में आँसू बन चमकी तेरी कसक भरी-सी याद

आज सुना है युगों-युगों पर तेरे स्वर का मीठा मर्मर-

जिसे डुबाये था अब तक जग का वह निष्फल रौरव-नादा

बह झर-झर

बिपुल राशि में संचित था जो मेरे प्राणों में अवसाद!

प्रियतम, आज बहुत दिन बादा

रो लेने दो मुझ को जी भर-यही

मुझे न रोको आज कि मुझ पर छाया है उत्कट उन्मादा

प्रियतम, आज बहुत दिन बादा

 

मरीचिका 

बिलुलित थे पलाश के फूल-

थी मलयानिल में परिमल धूल

सी भठकी फिरती थी बन में भौरों की गुंजार,

मानो पुष्पों से कहती हो, ‘मधुमय है मधु का संसार!

में तू छिपती फिरती-करती सरिता-सी कल्लोल,

आव से मुझ से कहती, ‘क्या दोगे फूलों का मोल?”

कर तू थी खिल जाती सुन कर मेरी करुण पुकार-

“मायाविनि! मरीचिका है यह, या छलना, या तेरा प्यार?”

झलकती थी इस में तब मधु की मन-मोहक माया!

पथ से ले निज मूक व्यथा उद्धान्त,

पीड़ा की उच्छवासों-सी कँपती हैं शाखाएँ

जीता सधु, भूला मधु-गायन बिखरी भौरों की

दबा हुआ सूने में फिरता बन-बिहगों का हाहाकारा

अन्तस्तल में मीठा-मीठा गूँज

 

सम्भाव्य

सम्भव था रजनी रजनीकर की ज्योत्त्रा से रंजित होती,

सम्भव था परिमल मालति से ले कर यामिनि मंडित होती!

सम्भव था तब आँखों में सुषमा निशि की आलोकित होती,

पर छायी अब घोर घटा, गिरते केवल शिशराम्बुद मोती!

सम्भव था बन की वल्लरियाँ कोकिल-

राग-पराग-विहीना कलियाँ भ्रान्त भ्रमर

सम्भव था मम जीवन में गायन की तानें विकसित होतीं,

पर निर्मम नीरव इस ऋतु में नीरव आशा की स्मित होतीं!

सम्भव था निःसीम प्रणय यदि आँखों से आँखें मिल जातीं,

सम्भव था मेरी पीड़ा भी सुखमय विस्मृति में रल जाती-

सम्भव था उजड़े हृदयों में प्रेमकली भी फिर खिल आती!

किन्तु कहाँ! सम्भाव्य स्मृति से सिहर-सिहर उठती यह छाती!

 

लिली बेल

क्योंकर मुझे भुलाओगे

दीप बुझेगा पर दीपक की स्मृति को कहाँ.

तारें वीणा की टूठेंगी-लय को कहाँ दबाओगे?

फूल कुचल दोगे तो भी सौरभ को कहाँ छिपाओगे?

मैं तो चली चली, पर अब तुम क्योंकर मुझे भुलाओगे?

तारागण के कम्पन में तुम मेरे आँसू देखोगे,

सलिला की कलकल श्वनि में तुम मेरा रोना लेखोगे।

पुष्पों में, परिमल समीर में व्याप्त मुझी को पाओेगे,

मैं तो चल्ली चली, पर प्रियवर! क्योंकर मुझे भुलाओ।

 

क्रान्ति-पथे

तोड़ो मृदुल वल्लकी के ये सिसक–

दूर करो संगीत-कुंज से कृत्रिम फूलों का शृंगारा

भूलो कोमल, स्फीत जेह स्वर, भूलो क्रीडा का व्यापार,

हृदय-पटल से आज मिटा दो स्मृतियों का अभिनव संसारा

चैरव शंखनाद की गूँजें फिर-फिर वीरोचित ललकार,

मुरझाये ह॒दयों में फिर से उठे गयन-भेदी हुंकारा

धरधक उठे अन्तस्तल में फिर क्रान्ति-मीतिका की झंकार-

विहवल, विकल, विवश, पागल हो नाच उठे उन्मद संसार!

दीघ हो उठे उरस्थली में आशा की ज्वाला

नसःसस में उद्दंड हो उठे नवयौवन रस का संचारा

तोड़ो बाच्य, छोड़ दो गायन, तज दो सकरुण हाहाकार,

आगे है अब युद्धक्षेत्र -फिर, उस के आगे-कारागारा!

 

रहस्य

मेरे उर में क्या अन्तर्हित है, यदि यह जिज्ञासा हो,

दर्पण ले कर क्षण भर उस में मुख अपना, प्रिय! तुम लख लो!

यदि उस में प्रतिबिम्बित हो मुख सस्मित, सानुराग, अम्लान,

‘्रेम-क्रिग्ध है मेरा उर भी”, तत्क्षण तुम यह लेना जाना

यदि मुख पर सोती अवहेला या रोती हो विकल व्यथा:

दया-भाव से झुक जाना, त्रिया समझ हृदय की करुण व्यथा!

मेरे उर में क्या अन्तर्हित है, यदि यह जिज्ञासा हो,

दर्पण ले कर क्षण भर उस में मुख अपना, प्रिय! तुम लख लो!

 

असीम प्रणय की तृष्णा

आशाहीना रजनी के अन्तस्‌ की चाहें,

हिमकर-विरह-जनित वे भीषण आहें

अभिसारिका ऊषा के मुख पर पुलकित

अ्रीडा की लाली आती है,

भर जाते हो शिरा-शिरा में,

हुए ज्यों दामिनी घन में,

क्या दूँ, देवा तुम्हारी

मैं-जो छुद्नं मे भी क्षुद्र, तुम्हें के

अपनी कविता? भव की छोटी रचनाएँ जिस का आधार?

कैसे उस की गरिमा में भर दूँ गहराता पाराबार?

अपने निर्मित चित्र? वही

तेरे कल्पित छाया-अभिनय की छाया के भी प्रतिरूपा

अपनी जर्जर वीणा के उलझे-से तारों का संगीत?

जिसमें प्रतिदिन क्षण-भंगुर लय बुद्बुद होते रहें प्रमीता!

असफलता के शव पर स्तूप?

विश्वदेव! यदि एक बार,

पा कर तेरी दया अपार, हो उन्मत्त, भुला संसार-

मैं ही विकलित, कम्पित हो कर-नखरता की संज्ञा खो

बस एक बारा

 

उषा के समय

प्रियतम, पूर्ण हो गया गाना

हम अब इस मृदु अरुणाली में होवें अन्तर्घाना

लहर-लहर का कलकल अविरल, कॉप-काँप अब हुआ अचंचल

व्यापक मौन सधुर कितना है, गदूद अपने प्राण!

थे सब चिर-बांछित सुख अपने, बाद उषा के होंगे सपने-

फिर भी इस क्षण के गौरव में हम-तुम हों अम्लाना

नभ में राग-भरी रेखाएँ, एक-एक कर मिटती जाएँ-

किसी शक्ति के स्वागत को है यह बहुरंग विताना

सरण? पिघल कर सजल शक्ति से, मिल जाना उस सहच्छक्ति से

करें मृत्यु का क्यों न उल्लसित आहबाना

राग समाप्त! चलो अब जागो, निद्रा में नव-चेतन माँगो!

नयी उषा का मृत्यु हमारी से होगा उत्थान!

प्रियतम, पूर्ण हो गया गाना

 

प्रेरणा

जब-जब थके हुए हाथों से छूट लेखनी गिर जाती है

‘सूखा उर का रस-स्नोत’ यह शंका मन में फिर जाती है.

तभी, देवि, क्यों सहसा दीख, झपक, छिप जाता तेरा स्मित-मुख-

कविता की सजीव रेखा-सी मानस-पट पर तिर आती है?

 

घृणा का गान

सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गाना

को अछूत कह वस्त्र बचा कर भागे,

‘बहिनें छोड़ बिलखती, बढ़े जा रहे आगे!

रुक कर उत्तर दो, मेरा है अप्रतिहत आहवान-

सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गाना

उन्हें झोमते गा, मरते हैं खानों में,

रक्त चूस ठठरी को

सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गाना

तुम, जो महलों में बैठे दे सकते हो आदेश,

“मरने दो बच्चे, ने आओ खींच पकड़ कर केश’

नहीं देख सकते निर्धन के घर दो मुट्ठी धान-

सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गाना

तुम, जो पा कर शक्ति कलम में हर लेने की प्राण-

‘निःशक्तों’ की हत्या में कर सकते हो अभिमाना

जिनका मत है, ‘नीच मरें, दृह़ रहे हमारा स्थान”

सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गाना

तुम, जो मन्दिर में बेदी पर डाल रहे हो फूल,

“जीवन क्या है? धूला’

तुम, जिस की लोलुपता ने ही धूल किया उद्यान-

सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गाना

तुम, सत्ताधारी, मानवता के शव पर आसीन,

जीवन के चिर-रिपु, विकास के प्रतिद्न्द्दी प्राचीन,

तुम, श्मशान के देव! सुनो यह रण-भेरी की तान-

आज तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गाना।

 

प्रिया के हित गीत

दृश्य लख कर प्राण बोले : ‘गीत लिख दे त्रिया के हिता’

समर्थन में पुलक बोली : ‘प्रिया तो सम-भागिनी है

साथ तेरे दुखित-नन्दिता’

सहसा वायु का झोंका तुनक कर बोला, ‘ग्रिया मुझ में नहीं है?”

नदी की द्ुत लहर ने ठोका-

“किरण-द्व मेरे हृदय में स्मित उसी की बस रही है।

भर, तनिक-सी और झुक आयी

‘नहीं क्या उस की लुनाई इस लचीली मसृण-मदु

आकार रेखा में बही है?”

सिहर कर तर-पात भी बोले बनाली के,

आक्षितिज उन्मुक्त लहरे खेत शाली के-

आत्म-लय के, बोध के, इस परम रस से पार

ग्रन्धि मानो रूप की, स्वावलम्ब, बिन आधार,

अलग प्रिय, एकान्त कुछ, कोई कहीं है?

दही है, रे वहीं है

दृश्य से अभिभूत,

प्रिये, तुझ को भूल कर एकान्त, अन्तःपूत,

क्यों कि एक प्राण

प्रिय तो है भावना,

 

कह

देख क्षितिज पर भरा चाँद

देख क्षितिज पर भरा चाँद, मन उमेगा, मै ने भुजा बड़ायी।

हम दोनों के अन्तराल में कमी नहीं कुछ दी दिखलायी,

किन्तु उधर, प्रतिकूल दिशा में, उसी भुजा की आलस्बित परछाई

अनायस बढ़, लील धरा को, क्षिति की सीमा तक जा छावी!

 

बिकाऊ

 

खोयी आँखें लौटीं

बरी मिट्टी का लोंदा

रचने लगा कुम्हार खिलौने।

मूर्ति पहली वह

कितनी सुन्दरा और दूसरी-

करे रूपदर्शी! यह क्या है

आँखें फिर खोयीं, फिर लौटीं,

फिर बोला वह

यह भी न कह सकता, कि

टिकाऊ तो जिस पैसे पर यह-वह

-तुम भी क्या नहीं हैं?)

बह भी नहीं है

बल्कि वही तो

अखती बिकाऊ

 

कवि-कर्म

ब्राह्म वेला में उठ कर

साध कर साँस

बाँध कर आसन

बैठ गया कृतिकार रोध कर चित्त चूँगा।

एक ने पूछा : कवि ओ, क्या रचते हो?

कबि ने सहज बताया।

दूसरा आया।-अरे, क्या कहते हो?

तुम अमुक रचोगे? लेकिन क्यों?

शान्त स्वर से कवि ने समझाया।

तभी तीसरा आया। किन्तु, के!

आमूल भूल है यह उपक्रम

परम्परा से यह होता आया है यों।

छोड़ो यह भझमा!

कबि ने धीर भाव से उसे भी मनाया।

यों सब जान गये

कुतिकार आत दित क्या रकते बाला है

पर वह? बैठा है सने हाथ, अनमना,

सामने तकता मिट्टी के लॉदे को

कहीं, कभी, पहचान सके बह अपना

भोर का सुन्दर सपना।

झुक गयी साँझ

पर मैं ने क्यों बनाया?

क्या रचा?

-हाया यह क्या रचाया।

 

रोपयित्री

गलियारे से

उन दिन लख भंगिमा तुम्हारी

और हाथ की मुद्रा,

यही लगा था मुझे

खेत में छिटक रही हो बीजा

डॉगर रौंद गये हैं सभी क्यारियाँ

भूल गया मै आज, अरे! सहसा पाता हूँ

अंकुर एक-अनेक-असंख्य-न ।

हो रोमांचिता

हाँ, विस्मय-विभोर

सब जैसे हैं, यैं भी हूँ

मनोर॑ग में मेरे भी वह आने वाली

धान-भरी बाली सोनाली

बिरक रही है : मैं भी आँचल

तब पसार दूँगा जब गूँजेगी उस की पद-पायल,

मैं भी लूँगा बीन-छीन

कण-दो कण जो भी हाथ लगेंगे

किन्तु जानता हूँ,

धरणी सुखदा, शुभदा, वरदा,

भरी है पर बह एणान नेरा

है तुम को, केवल तुम को।

भूल गयी थी स्मृति-दुर्बला)-पर

सुम्हें मं नहीं भूला।

 

अँधेरी अकेली राता

तुम्हीं ने लुक-छिप कर

आज न जाने कितने दिन बाद

से मेरी मुलाकाता

और इस अकेले सच्नाठे में

उठती है रह-रह कर

एक टीस-सी अकस्मात्‌

कि कहने को तुम्हें इस

इतने घने अकेले में

मेरे पास कुछ भी नहीं है बाता

क्यों नहीं पहले कभी मैं इतना गूँगा हुआ?

क्यों नहीं प्यार के सुध-घूले क्षणों में

मुझे इस तीखे ज्ञान ने छुआ?

कि खो देना तो देना नहीं होता-

भूल जाना और, उत्सर्ग है और बात

कि जब तक वाणी हारी नहीं

और वह हार मैं ने अपने में पूरी स्वीकारी नहीं,

अपनी भावना, संवेदना भी वाणी नहीं-

तब तक वह प्यार भी

निरा संस्कार है, संस्कारी नहीं।

 

जीवन

चाबुक खाये

भागा जाता सागर-तीरे

मुँह लटकाये

मानो धरे लकीर जमे खारे झागों की-

ढाँगों के बीच दबाये।

रिरियाता कुत्ता यह पूँछ लड़ड़ाती

कटा हुआ जाने-पहचाने सब कुछ से

इस सूखी तपती रेती के विस्तार

और अजाने, अनपहच्ाने सब से,

दुर्गम, निर्मम, अन्तह्ीन उस ठंडे पारावार

समय क्षण-भर थमा

समय क्षण-भर थमा-सा

फिर तोल डैने

उड़ गया पंछी क्षितिज की ओर

मद्धिम लालिमा ढरकी अलक्षिता

तिरोहित हो चली ही थी कि सहसा

फूट तारे ने कहा : रे समय,

तू क्या थक गया?

रात का संगीत फिर

तिरने लगा आकाश में।

 

नाता-रिश्ता

की अलौकिकता है)

आषा की पकड़ में से फिसलती जाती हुई

भावना का अर्थ-

जो उस अंजलि-भर रेत में थी जो

थ्लो कर अलग करने में-

मुद्ठियों से फिसल कर नदी में बह

(उसी अकाल, अकूल नदी में जिस में से फिर

अंजिल भरेगी और फिर सोने की कनी फिसल कर बह जाएगी।)

तुम सदा से वह गान हो जिस की ठेक-भर गाने से रह गयी।

मेरी वह फूस की मड़िया जिस का छप्पर तो

हवा के झोंकों के लिए रह गया

पर दीबारें सब बेमौसम की वर्षा में बह गयी.

नाता-रिश्ता है-इसी में मै हूँ

और इतनी कही बात है जो बार-बार कही गयी

में कही जाने से रह गयी।

 

युद्ध-बिराम

 

नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है।

अब भी ये रौंदे हुए खेत

हमारी अवरुद्ध जिजीबिषा के सहमे हुए साक्षी हैं;

अब भी ये दलदल में फँसी हुई मौत की मशीनें

उन के अमानवी लोभ के कुंठित, अशमित प्रेत

अब भी हमारे देवदारु-वनों की छाँहों

पहाड़ी खोहों में चट्टानों की ओट में

बनैली बूँखार आँखें घात में बैठी हैं

अब भी दूर अध-दिखती ऊँचाइयों पर

जमें हैं गिद्ध प्रतीक्षा के बोझ से

जरदनें झुकाये हुए।

नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है

इन अनोखी रंगशाला में

नाठक का अन्तराल मानो

समय है सिनेमा का

कितनी रील?

कितनी क्िस्तें?

कितनी मोहलत?

कितनी देर जलते

तम्बाकू के धुएँ

कितनी देर चाय

की चिरायँध के बदले

का सहारा?

बाह-बाही की

चिकनी सहलाहट में रकेगा कारवाँ हमारा?

नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है

हिस-चोदियों पर छाये हुए बादल केवल परदा हैं-

बिराम है, पर

बाँस की टट्टियाँ, धोखे की हैं

भूख को मिटाने के मानवी दायित्व का स्वीकार नहीं,

मिटाने की भूख की लोलुप

बन्दूक के कुन्दे से हल के हत्ये की

हमें अब भी अधिक चिकनी लगती,

फुफकार ही उन के पार है।

संगीन की धार से हल के फाल की चमक

अब भी अधिक शीतल,

और हम मान लेते

मानव मानव था और

बच्चे किलकते उधर भी

और नारियाँ दुलराती हैं.

पर अभी कुछ नहीं बदला है

क्यों कि उधर का निज़ञाम

 

 

 

आज़ादी आत्मनिर्णय

आराम ईमानदारी का अधिकार!

नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है

कुछ नहीं रुका है।

अब भी हमारी धरती

कर की जलती और इंडिया दिख जाती हैं.

अब भी हमारे आकाश पर

धुएँ की रेखाएं अन्धी

देश के जन-जन का

यह लेह और विश्वास

जो हमें बताता है

कि हम भारत के लाल हैं-

वही हमें यह भी याद दिलाता है

कि हमीं इस पुण्य-भू के

-सीमान्त के धीर,

हमें बल दो, देशवासियों,

क्यों कि तुम बल

इंद्रति दिक्पाल हैं।

विदा के चौराहे पर : अनुचिन्तन

यह एक और घर

पीछे छूट गया,

एक और भ्रम

जब तक था मीठा था

कोई अपना नहीं कि

केवल सब अपने हैं हैं बीच-

बीच में अन्तराल

जिन में हैं झीने जाल

मिलानेवाले कुछ, कुछ दूरी और दिखानेवाले

पर सच में सब सपने हैं।

पथ लम्बा है: मानो तो वही मधुर है

या मत मानो तो भी वह सच्चा है।

यो सच्चे हैं भ्रम भी, सपने भी

सच्चे हैं अजनबी-और अपने भी।

देश-देश की रंग-रंग की मिट्टी है

हर दिक्‌ का अपना-अपना है आलोक-स्रोत

दिक्लाल-जाल के पार विशद निरवधि सूने में

फहराता पाल चेतना की, बढ़ता जाता है प्राण-पोत।

हैं घाट? स्वयं मैं क्या हूँ? है बाट? देखता हैं मैं ही।

पतवार? वही जो एकरूप है सब से-

इबत्ता का बिरादा

यों घर-जो पीछे छूटा था-

वह दूर पार फिर बनता है

यो भ्रम-यों सपना-यों चित्‌-सत्य

लीक-लीक पथ के डोरों से

नया जाल फिर तनता है

 

यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया

यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया है

कि होती जाती है,

यह छोटा-सा जाना हुआ क्षण है

कि हो कर नहीं देता;

जिन से मैं अपने को जोड़ नहीं पाता

ये अजनबियरते हैं

जिसे मैं देखता हूँ कि जो मुझे देखता है, मैं नहीं जान पाता।

यानी कि सपना हमारा है या मैं सपने का

इतना भी नहीं पहचान पाता।

बह बाहर जो ठोस है

जो मेरे बाहर है या कि जिस के मैं बाहर

मुझे ऐसा निश्चय है कि वह है, है;

जिसे कहने लगूँ तो यह कह आता है

कि ऐसा है कि मुझे निश्चय है!

 

एक दिन

ठीक है, कभी तो कहीं तो चला जाऊँगा

पर अभी कही जाना नहीं चाहता।

अभी नभ के समुद्र मे

शरद के मेघों की मछलियाँ किलोलती हैं

सधुमाली के झूमरों में

कलियाँ पलकें अधखोलती हैं

अभी मेहूँदी की गन्ध-लहरें

पचरीले मन-कगारों की दरारें

दबोचती हैं

अभी, एकाएक, मैं तुम्हें छूना, पाना,

तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाना नहीं चाहता

पर अभी तुम्हारी सिग्घ छांह से

अपने को हटाना नहीं चाहता!

ठीक है, कभी तो कहीं तो चला जाऊँगा

पर अभी कहीं जाना नहीं चाहता।

शब्द सूझते हैं जो गहराइयाँ टोहते हैं

पर छन्दों मं बँधते नहीं,

बिम्ब उभरते हैं जो मुझे ही मोहते है

मुझ से सधते नहीं,

एक दिन-होगा!-तुम्हारे लिए लिख दूँगा

प्यार का अनूठा गीत,

पर अभी मैं मौन में निहाल हैँ-

गाना-गुनगुनाना नहीं चाहता!

क्या करूँ: इतना कुछ है जो छिपाना

पर अभी बताना नहीं चाहता।

ठीक है, कभी तो कहीं तो चला जाऊँगा

पर अभी कहीं जाना नहीं चाहता, नहीं चाहता!

 

शहतूत

 

कापी में तूने

कुचले हुए शहतूत क्यों फेंके,

क्या तूने चुराये-

पराये शहतूत यहाँ खाये हैं?

क्यों नहीं बताती

अच्छा, अगर नहीं भी खाद्े

आँख क्यों नहीं मिलाती?

और तूने यह गाल पर क्या लगाया?

ओह, तो क्या शहतूत इसी लिए चुराये-

सच नहीं खाये?

तो ज़रूर चुराये, अब आँख न चुरा!

शहतूत के रस की रंगत से

सँबला जाएँगे

तो लोग चोरी मुझे लगाएँगे

और कहेंगे कि तुझे भी चोरी के

जक लड़की, हम किसे बताएँगे!

कैसे समझाएँगे?

च्छा, आ, वापी की जगत पर बैठ कर यही सोचें।

लड़की, तू क्यों नहीं आती?

 

सृष्टि की।

सब ओर निराकार शून्य था और अनन्त आकाश में अन्धकार छाया हुआ था। ईश्वर ने कहा – प्रकाश हो! और प्रकाश हो गया। उसके

आलोक में ईश्वर ने आकाश के असंख्य टुकड़े किये और प्रत्येक में एक-एक तारा जड़ दिया। तब उसने सौर-मंडल बनाया। और उसे

जान पड़ा कि उसकी रचना अच्छी लता-बेलें उगायीं और तब उसने वनस्पति-पौधे, झाड़-झंखाड़, उन पर मँडराने को भौरे और तितलियाँ, गाने को

झींगुर भी बनाये।

तब उसने पशु-पक्षी भी बनाये और उसे जान पड़ा कि उसकी रचना अच्छी है।

लेकिन उसे शान्ति नहीं हुई। तब उसने जीवन में बैचित्र्य लाने के लिए दिन और रात, आँधी-पानी, बादल-मेंह, धूप-छाँह

इत्यादि बनाये; और फिर कीड़े-मकोड़े, मकड़ी, मच्छर, बरें, बिच्छू और अन्त में साँप भी बनाये।

लेकिन फिर उसे सन्तोष नहीं हुआ। तब उसने ज्ञान का नेत्र खोलकर सुदूर भविष्य में देखा। अन्धकार में पृथ्वी और सौर-लोक

पर छाई हुई प्राणहीन धुन्ध् में कहीं एक हलचल, फिर उस हलचल में धीरे-धीरे एक आकार, एक शरीर जिसमें असाधारण कुछ नहीं

है, लेकिन फिर भी सामर्थ्य है, एक आत्मा जो निर्मित होकर भी अपने आकार के भीतर बँधती नहीं, बढ़ती ही जाती है, एक प्राणी

जो जितनी बार धूल को छूता है, नया ही होकर, अधिक प्राणवान्‌ होकर उठ बड़ होता है.

ईश्वर ने जान लिया कि भविष्य का प्राणी यही मानव है। तब उसने पृथ्वी पर से धुँध को चीरकर एक मुट्ठी धूल उठावी और

उसे अपने हृदय के पास ले जाकर उसमें अपने विराट आत्मा की एक साँस फूँक दी – मानव की सृष्टि हो गयी।

ईश्वर ने कहा – जाओ, मेरी रचना के महाप्राण नायक, सृष्टि के अवरसा

लेकिन कृतित्व का सुख ईश्वर को तब भी नहीं प्राप्त हुआ, उसमें का कलाकार अतृप्त ही रह गया।

क्योंकि पृथ्वी खड़ी रही, तारे खड़े

विराट सुन्दर विश्व में गति नहीं आयी।

रहे। सूर्य प्रकाशवान नहीं हुआ, क्योंकि उसकी किरणें बाहर फूट निकलने से रह गयीं। उस

दूर पड़ा हुआ आदिम साँप हँसता रहा। वह जानता था कि क्यों सृष्टि नहीं चलती। और वह

गुंजलक में लपेटे बैठा हुआ था।

इस ज्ञान को खूब संभालकर अपनी

एक बार फिर ईश्वर ने ज्ञान का नेत्र खोला और फिर मानव के दो बूँद आँसू लेकर स्त्री की रचना की।

मानव ने चुपचाप उसको स्वीकार कर लिया, सन्तुष्ट वह पहले ही था, अब सन्तोष द्विगुणित हो गया। उस शांत जीवन में अब कोई कमी न रही आयी ओर सृष्टि अब भी न चली।

और वह चिरन्तन साँप बैठा हँसता रहा।

 

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