कबीर दास का जीवन परिचय सम्पूर्ण कथा (kabir das ka jiwan)

pathgyan.com में आप सभी लोगों का स्वागत है इस ब्लॉग में हम कबीर दास का जीवन परिचय सम्पूर्ण कथा (kabir das ka jiwan) के बारे में जानेंगे।कबीर जी समय में जीवन परिस्थिति,उनके माता पिता और संत आदि.

कबीर दास का जीवन परिचय सम्पूर्ण कथा (kabir das ka jiwan)
कबीर दास का जीवन परिचय सम्पूर्ण कथा (kabir das ka jiwan)

 

कबीर दास जी के जन्म के समय की परिस्थिति

काल की कठोर आवश्यकता महात्माओं को जन्म देती है कबीर दास जी का जन्म भी विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ था जिस समय कबीर दास जी का जन्म हुआ उस समय हिंदू जाति धर्म के प्रति अनिभिज्ञता और कर्मठता के प्रति उदासीन हो गई थी, वीरगाथा और वीर गीतों भी अब हिंदू जाति को जगा नहीं पाती थी.

गौरी के समय में मुसलमानों के पांव जन्मे लगे थे उनके गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुलाम वंश की स्थापना कर पठानी सल्तनत को मजबूत कर दिया, इस समय मुस्लिमों की धर्मांधता ने जीवन को बहुत ज्यादा विकराल बना दिया था, खेतों में खून और पसीना एक करने वाले किसानों की कमाई का अधिकांश भूमि कर के रूप में राजकोष में जाने लगा जनता दाने-दाने को तरसने लगी सोने चांदी की तो बात ही क्या है हिंदुओं के घरों में तांबे पीतल की थाली लोटा तक का रहना मुल्तान को खटकने लगा, घोड़े की सवारी करना और अच्छे कपड़े पहनना महान अपराधों में गिना जाने लगा नाम मात्र के अपराध के लिए भी किसी की खाल खिंचवा दिया जाता था.

अलाउद्दीन खिलजी के लड़के को कुतुबुदीन मुबारक के शासनकाल में यह दशा हो गई थी मंदिरों को गिरा कर उसके स्थान पर मस्जिद बनाने का काम चालू हो गया स्त्रियों के मान सम्मान और पतिव्रत की रक्षा करना भी कठिन हो गया, इसी समय रानी पद्मावती के लिए भी युद्ध हुआ, अपने मान सम्मान के लिए रानी पद्मावती और अन्य सभी स्त्रियों ने  अग्नि कुंड में अपने प्राण देकर अपने धर्म की रक्षा की.

इस समय स्थिति ऐसी बन गई थी कि हिंदू जाति में जीवन धीरे-धीरे एक भार सा होने लगा, कहीं भी आशा की झलक दिखाई ना देती थी चारों और निराशा और अंधकार छाया हुआ रहता था.

तैमूर के आक्रमण ने भारत देश को  उजाड़ कर रख दिया था, विपत्ति के समय मनुष्य परमात्मा की ओर ध्यान लगाता है और अपने कष्टों से मुक्ति पाने के लिए आशा करता है लेकिन जब स्थिति में सुधार नहीं होता तब वह परमात्मा की उपेक्षा करने लगता है और उसके अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता।

कबीर दास जी के जन्म के समय हिंदू जाति की यही दशा थी उस समय परिस्थिति बहुत ही प्रतिकूल थी, कबीर दास जी ने इस समय जनता को भक्ति मार्ग की ओर प्रेरित किया लेकिन उस समय भक्ति के लिए जनता अच्छे से तैयार नहीं थी, इसी समय काल में मोहम्मद गजनबी ने सोमनाथ मंदिर नष्ट करके उसमें से हजारों को तलवार के घाट उतारा था, उस समय हजारों ब्राह्मणों ने भगवान को पुकारा था लेकिन वह सभी मुस्लिम आक्रमणकारियों के हाथों सोमनाथ मंदिर में ही मारे गए इसलिए आगे चलकर कबीर दास जी के ज्ञान आश्रित निर्गुण भक्ति मार्ग की ओर सबको झुकना पड़ा.

उस समय परिस्थिति केवल निराकार निर्गुण भक्ति के लिए अनुकूल थी यद्यपि निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति अपने में अलग-अलग स्थान रखती है, लेकिन कहीं ना कहीं निर्गुण भक्ति सगुन और सगुण भक्ति निर्गुण दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, क्योंकि कबीरदास जी राम नाम मंत्र से दीक्षित थे और वह निर्गुण राम और सगुण मूर्तिपूजक राम दोनों थे.

कबीरदास जी अपने श्लोकों के माध्यम से गागर में सागर भर देते थे उस समय कबीर दास जी ने समय और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए लोगों के माध्यम से निर्गुण भक्ति और उस के माध्यम से सगुण भक्ति ज्ञान की शिक्षा सभी लोगों को दी, क्योंकि उस काल में जनता अनपढ़ थी साधारण जनता पर लिखी बहुत कम थी जीवन बहुत अभावों से ग्रसित था, इसीलिए श्लोक लोगों को आसानी से याद हो जाते थे और उनके अर्थ भी वह लोग समझ जाते थे.

कबीर दास जी के जन्म के समय मुसलमानों के अत्याचारों से पीड़ित जनता को अपने जीवित रहने की आशा नहीं रहे गई थी और उनको मृत्यु या धर्म परिवर्तन के अतिरिक्त और कोई उपाय देख नहीं पड़ता था, मुसलमान निर्गुण के उपासक थे इसलिए कबीर दास जी ने भी निर्गुण ब्रह्म की उपासना लोगों को समझाएं और लोगों को समझाया कि हिंदू धर्म भी निर्गुण परंपरा का समर्थन करता है उस के माध्यम से उन्होंने हिंदू धर्म को बचाने का बहुत बड़ा सफल कार्य किया.

 

कबीर दास जी के जीवन काल में संतों की परंपरा

जिस समय कबीर दास जी का जन्म हुआ था वह भक्ति काल था इस काल में मुस्लिमों ने अब भारत को बसने के लिए स्थान ढूंढ लिया था और हिंदू जाति के निराशा दूर करने के लिए भक्ति का आश्रय ग्रहण करना जरूरी था, इस समय कुछ संतो ने निर्गुण भक्ति के माध्यम से मुस्लिम और हिंदुओं के विचारों में समानता लाने का प्रयास किया और उनमें भाईचारे की भावनाओं को विकसित करने का प्रयास किया।

जिससे धर्म के प्रति रुचि बड़े और एक दूसरे के धर्म के प्रति आत्मसम्मान और विश्वास पैदा हो, इससे हिंदुओं में छोटे बड़े का भेद बहुत कुछ कम हुआ और लोगों ने निर्गुण भक्ति के माध्यम से भाईचारे की भावना को विकसित करते हुए ब्रह्म के एकेश्वरवाद पर अपना मत एक किया, और इस समय लोगों ने जाना कि अब समय सभी को समान अधिकार देने का है.

कबीर दास जी के साथ-साथ संतों की बहुत बाढ़ आ गई और अनेक मत चल पड़े नानक दादू शिवनारायण जगजीवनदास आदि जितने प्रमुख संत हुए सबने कबीर दास जी का अनुकरण किया(कबीर दास जी की विधि अपनायी) और अपना-अपना अलग-अलग मत चलाया.

लेकिन समय के साथ-साथ निर्गुण परंपरा लोगों के जीवन में अधिक समय तक स्थान नहीं दे सकी क्योंकि सनातन धर्म में सगुण को निर्गुण कहा गया और निर्गुण को सगुण, कबीर दास जी के परलोक जाने के जिस निर्गुण भक्ति की उन्होंने उपदेश दिया था लोग वहां सब भूलकर कबीर दास जी की पूजा करने लगे और इस प्रकार यह एक निर्गुण ना होकर सगुण भक्ति मार्ग बन गया.

कबीर दास जी के जन्म और मृत्यु के बारे में मतभेद पाया जाता है, फिर भी श्लोक के माध्यम से उनका जन्म 1455 में शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था, और 1575 में माघ की एकादशी के दिन उन्होंने मगहर में प्राण त्यागे थे, अलग-अलग है इतिहासकारों के रिसर्च के अनुसार, कबीर दास जी का जन्म मृत्यु  1456 से 1575 के बीच में हुई थी.

 

कबीर दास जी के माता पिता,

कबीर दास जी के जीवन की घटना के संबंध में कोई निश्चित बात मालूम नहीं चल सकी है, लेकिन फिर भी उनकी जीवनी जो ग्रंथों से मालूम चलती है, काशी में एक सात्विक ब्राह्मण रहते थे जो स्वामी रामानंद के बड़े भक्त थे उनकी एक विधवा कन्या थी उसी को साथ लेकर एक  दिन  स्वामी के आश्रम पर गए प्रणाम करने पर स्वामी जी ने उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया, इससे उनके पिता ने चौक कर सब बात कह दिया तब स्वामी जी ने कहा कि मेरा वचन झूठा नहीं हो सकता परंतु  संतोष करो कि इससे उत्पन्न पुत्र बड़ा प्रतापी होगा.

आशीर्वाद के फलस्वरूप जब इस ब्राह्मण कन्या को पुत्र उत्पन्न हुआ तो लोक लज्जा के भय से उसने उसे नहर तालाब के किनारे डाल दिया, भाग्य से कुछ ही क्षण पश्चात नीरू नाम का एक जुलाहा अपने पत्नी नीमा के साथ उधर से आ निकला, इस दंपत्ति के कोई पुत्र ना था उन्होंने इस बालक को खुशी-खुशी पालन पोषण के लिए रख लिया यही आगे चलकर कबीरदास जी हुए.

वयं कबीर दास जी ने भी अपने भक्ति मार्ग के प्रचार में अपने माता-पिता के बारे में ज्यादा किसी को नहीं बताया, कबीर दास का जीवन परिचय कई ग्रंथों में लिखा है कि कबीर दास जी की इच्छा थी यदि मेरा ब्राह्मण कुल में जन्म हुआ होता तो अच्छा होता वे पूर्व जन्म के अपने ब्राह्मण होने की कल्पना कर अपना परितोष कर लेते, उन्होंने कई ऐसा श्लोक लिखा है

पूरब जन्म हम ब्राह्मण होते वोछे कर्म तप हीन

कबीर दास जी के श्लोक के अनुसार, उनका जन्म मगहर में हुआ था फिर वह बाद में काशी में बस गए, इसलिए मृत्यु के समय वहां फिर से मगहर में चले गये.

 

कबीर दास का जीवन परिचय सम्पूर्ण,कबीरदास जी के गुरु 

एक किवंदन्ती है कि जब कबीर भजन गा-गा कर उपदेश देने लगे तब उन्हें पता चला कि बिना किसी गुरु से दीक्षा लिये हमारे उपदेश मान्य नहीं होंगे क्योंकि लोग उन्हें ‘निगुरा’ कहकर चिढ़ाते थे। लोगों का कहना था कि जिसने किसी गुरु से उपदेश नहीं ग्रहण किया, वह औरों को क्या उपदेश देगा! अतएव कबीर को किसी को गुरु बनाने की चिंता हुई। कहते हैं, उस समय स्वामी रामानंदजी काशी में सबसे प्रसिद्ध महात्मा थे। अतएव कबीर उन्हीं की सेवा में पहुँचे।

परंतुउन्होंने कबीर के मुसलमान होने के कारण उनको अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। इस पर कबीर जी ने उपाय सोचा । रामानंद जी पंचगंगा घाट पर नित्य प्रति प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में ही स्नान करने जाया करते थे उस घाट की सीढ़ियों पर कबीर पहले से ही जाकर लेट रहे। स्वामीजी जब स्नान करके लौटे तो उन्होंने अँधेरे में इन्हें न देखा, उनका पाँव इनके सिर पर पड़ गया जिस पर स्वामीजी के मुँह से ‘राम राम’ निकल पड़ा। कबीर ने चट उठकर उनके पैर पकड़ लिये और कहा कि आप राम राम का मंत्र देकर आज मेरे गुरु हुए हैं। रामानंदजी से कोई उत्तर देते न बना। तभी से कबीर ने अपने को रामानंद का शिष्य प्रसिद्ध कर दिया

‘कासी में हम प्रकट भये हैं रामानंद चेताए’ कबीर का यह वाक्य इस बात के प्रमाण में प्रस्तुत किया जाता है कि रामानंद जी उनके गुरु थे। जिन प्रतियों के आधार पर इस ग्रंथावली का संपादन किया गया है उसमें यह वाक्य नहीं है और न ग्रंथसाहब ही में यह मिलता है।  परंतु वे गुरु और शिष्य का शारीरिक साक्षात्कार आवश्यक नहीं समझते थे। उनका विश्वास था कि गुरु के साथ मानसिक साक्षात्कार से भी शिष्यत्व का निर्वाह हो सकता है. परंतु इसके अनन्तर भी वे जीवनपर्यंत राम नाम रटते रहे जो स्पष्टतः रामानंद के प्रभाव का सूचक है; अतएव स्वामी रामानंद को कबीर का गुरु मानने में कोई अड़चन नहीं है; चाहे उन्होंने स्वयं उन्हीं से मंत्र ग्रहण किया हो अथवा उन्हें अपना मानस गुरु बनाया हो।

 

कबीरदास जी के शिष्य 

धर्मदास और सुरतगोपाल नाम के कबीर के दो चेले हुए। धर्मदास बनिए थे। उनके विषय में लोग कहते हैं कि वे पहले मूर्तिपूजक थे, उनका कबीर से पहले पहल काशी में साक्षात्कार हुआ था। उस समय कबीर ने उन्हें मूर्तिपूजक होने के कारण खूब फटकारा था।

फिर वृंदावन में दोनों की भेंट हुई। उस समय उन्होंने कबीर को पहचाना नहीं; पर बोले- ‘तुम्हारे उपदेश ठीक वैसे हैं जैसे एक साधु ने मुझे काशी में दिए थे।’ इस समय कबीर ने उनकी मूर्ति को, जिसे वे पूजा के लिए सदैव अपने साथ रखते थे, जमुना में डाल दिया।

तीसरी बार कबीर स्वयं उनके घर बाँधोगढ़ पहुँचे। वहाँ उन्होंने उनसे कहा कि तुम उसी पत्थर की मूर्ति पूजते हो जिसके तुम्हारे तौलने के बाट हैं।इस प्रकार परीक्षा लेकर कबीर जी ने शिष्य बनाये।

उनके दिल में यह बात बैठ गयी और ये कबीर के शिष्य हो गये। कबीर की मृत्यु के बाद धर्मदास ने छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ की एक अलग शाखा चलाई और सुखगोपाल काशीवाली शाखा की गद्दी के अधिकारी हुए। धीरे-धीरे दोनों शाखाओं में बहुत भेद हो गया। कबीर कर्मकांड को पाखंड समझते थे और उसके विरोधी थे; परंतु आगे चलकर कबीरपंथ में कर्मकांड की प्रधानता हो गयी। कंठी और जनेऊ कबीरपंथ में भी चल पड़े। दीक्षा से मृत्युपर्यंत कबीरपंथियों को कर्मकांड की कई क्रियाओं का अनुसरण करना पड़ता है।

 

कबीरदास जी का गृहस्थ जीवन 

इसमें लोगों का अलग अलग मत है,कबीर के साथ प्रायः लोई का भी नाम लिया जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि यह कबीर की शिष्या थी और आजन्म उनके साथ रही! अन्य इसे उनकी परिणीता स्त्री बताते हैं और कहते हैंकि इसके गर्भ से कबीर को कमाल नाम का पुत्र और कमाली नाम की पुत्री हुई थी। कबीर ने कामिनी की बहुत निंदा की है।

‘नारि नसावै तीनि सुख, जो नर पासै होइ।

भगति मुकति निज ज्ञान में, पैसि न सकई कोइ॥

एक कनक अरु कामिनी, विष फल कीएउ पाइ।

देखे ही थे विष चढ़े, खाए सूँ मरि जाइ॥’

एक कबीर जी के जीवन से सम्बंधित कहानी  लोई एक बनखण्डी वैरागी की परिपालिता कन्या थी। वह लोई उस वैरागी को स्नान करते समय लोई में लपेटी और टोकरी में रखी हुई गंगाजी में बहती हुई मिली थी। लोई में लपेटी हुई मिलने के कारण ही उसका नाम लोई पड़ा। बनखण्डी वैरागी की मृत्यु के बाद एक दिन कबीर उनकी कुटिया में गये। वहाँ अन्य संतों के साथ उन्हें भी दूध पीने को दिया गया, औरों ने तो दूध पी लिया, पर कबीर ने अपने हिस्से का रख छोड़ा। पूछने पर उन्होंने कहा कि गंगापार एक साधु आ रहे हैं, उन्हीं के लिए रख छोड़ा है। थोड़ी देर में सचमुच एक साधु आ पहुँचा जिससे अन्य साधु कबीर की सिद्धई पर आश्चर्य करने लगे। उसी दिनसे लोई उनके साथ हो ली।

 

कबीरदास जी के जीवन के चमत्कारिक कार्य

कबीर के विषय में कई आश्चर्यजनक कथाएँ प्रसिद्ध हैं जिनसे उनमें शक्तियों का होना सिद्ध किया जाता है। महात्माओं के विषय में प्रायः ऐसी कल्पनाएँ की ही जाती हैं,कहते हैं कि एक बार सिकंदर लोदी के दरबार में कबीर पर अपने आपको ईश्वर कहने का अभियोग लगाया गया।

काजी ने उन्हें काफिर बताया और उनको मृत्युदण्ड की आज्ञा हुई। बेड़ियों से जकड़े हुए कबीर नदी में फेंक दिए गये। परंतु जिन कबीर को माया मोह की न बाँध सकती थी, जिनकी पाप की बेड़ियाँ कट चुकी थीं उन्हें यह जंजीर बाँधे न रख सकी और वे तैरते हुए नदी तट पर आ खड़े हुए। अब काजी ने उन्हें धधकते हुए अग्निकुण्ड में डलवाया, किंतु उनके प्रभाव से आग बुझ गयी और कबीर की दिव्य देह पर आँच तक न आयी।

उनके शरीर नाश के इस उद्योग के भी निष्फल हो जाने पर उन पर एक मस्त हाथी छोड़ा गया। उनके पास पहुंचकर हाथी उन्हें नमस्कार कर चिग्घाड़ता हुआ भाग खड़ा हुआ। इसका आधार कबीर का यह पद कहा जाता है.

‘अहो मेरे गोव्यंद तुम्हारा जोर, काजी बकिवा हस्ती तोर॥

बाँधि भुजा भले करि डारौं, हस्ती कोपि सूँड मैं मारौं॥

भाग्यो हस्ती चीसा मारी, वा मूरति की मैं बलिहारी॥

महावत तोकूँ मारी साँटी, इसही मराउँ धालौं काटी॥

हस्ती न तोरै धरे ध्रियान, वाकै हिरदे बसै भगवान॥

कहा अपराध संत हौं कीन्हाँ, बाँधि पोट कुंजर कू दीन्हा॥

कुंजर पोट बहु बंदन करै, अँगहुँ न सूझै काजी अँधरै॥

तीनि बेर पतियारा लीन्हा, मन कठोर अजहूँ न पतीनाँ॥

कहै कबीर हमारे गोव्यंद, चौथे पद भै जन को गयंद॥’

 

 

कबीरदास जी का परलोक गमन

कबीर का जीवन अंधविश्वासों का विरोध करने में ही बीता था। अपनी मृत्यु से भी उन्होंने इसी उद्देश्य की पूर्ति की। मुक्ति की कामना से लोग काशीवास करके यहाँ तन त्यागते हैं और मगहर में मरने का अनिवार्य परिणाम या फल नरकगमन माना जाता है। यह अंधविश्वास अब तक चला आता है। कहते हैं कि इसी के विरोध में कबीर मरने के लिए काशी छोड़कर मगहर चले गये थे। वे अपनी भक्ति के कारण ही अपने आपको मुक्ति का अधिकारी समझते थे।

ज्यों जल छाड़ि बाहर भयो मीना। पूरब जनम हौं तप का हीना॥

बकहु राम कवन गति मोरी। तजिले बनारस मति भइ थोरी॥

 उनकी अंतिम क्रिया के विषय में एक बहुत ही विलक्षण प्रवाद प्रसिद्ध है। कहते हैं हिंदू उनके शव का अग्निसंस्कार करना चाहते थे और मुसलमान उसे कब्र में गाड़ना चाहते थे। झगड़ा यहाँ तक बढ़ा कि तलवारें चलने की नौबत आ गयी। पर हिंदू-मुसलिम ऐक्य की कबीर की आत्मा यह बात कब सहन कर सकती थी।

आत्मा ने आकाशवाणी की ‘लड़ो मत! कफन उठाकर देखो।’ लोगों ने कफन उठाकर देखा तो शव के स्थान पर एक पुष्प राशि पाई गयी, जिसको हिंदू-मुसलमान दोनों ने आधा-आधा बाँट लिया। अपने हिस्से के फूलों को हिन्दुओं ने जलाया और उनकी राख को काशी ले जाकर समाधिस्थ किया। वह स्थान अब तक कबीरचौरा के नाम से प्रसिद्ध है। अपने हिस्से के फूलों के ऊपर मुसलमानों ने मगहर ही में कब्र बनाई। यह कहानी भी विश्वास करने योग्य नहीं है, परंतु इसका मूल भाव अमूल्य है।

 

कबीरदास जी के तात्विक सिद्धांत

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, कबीर ने चाहे जिस प्रकार हो रामानंद से रामनाम की दीक्षा ली थी; परंतु कबीर के राम रामानंद के राम से भिन्न थे। राम से उनका तात्पर्य निर्गुण ब्रह्म से है। उन्होंने ‘निरगुण राम निरगुण राम जपहु रे भाई’ का उपदेश दिया है। उनकी रामभावना भारतीय ब्रह्म भावना से सर्वथा मिलती है। जैसा कि कुछ लोग भ्रमवश समझते हैं. ब्रह्म ही जगत् में एकमात्रा सत्ता है, इसके अतिरिक्त संसार में और कुछ नहीं है। जो कुछ है, ब्रह्म ही है। ब्रह्म ही से सबकी उत्पत्ति होती है और फिर उसी में सब लीन हो जाते हैं।

कबीर के शब्दों में-

‘पाणी ही ते हिम भया, हिम ह्नै गया बिलाइ।

जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाइ॥’

संसार का यह दुःख मायाकृत है परंतु जो लोग माया में लिपटे रहते हैं वे इस दुःख में पड़े हुए भी उसे समझ नहीं सकते। इस दुःख का ज्ञान उन्हीं को हो सकता है जिन्होंने मायात्मक अज्ञानावरण हटा दिया है। माया में पड़े हुए लोग तो इस दुःख को सुख ही समझते हैं.

सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै।

 दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै॥

कबीर का दुःख अपने लिए नहीं है, वे अपने लिए नहीं रोते, संसार के लिए रोते हैं क्योंकि उन्होंने जीवों के लिए अपना अस्तित्व समर्पित कर दिया था,माया में पड़ा हुआ मनुष्य अपनी ही बात सोचता रहता है, इसी से वह परमात्मा को नहीं पा सकता। परमात्मा को पाने के लिए इस ‘ममता’ को छोड़ना पड़ता है-

कबीरदास जी के व्यावहारिक सिद्धांत

कबीरदासजी ने धार्मिक सिद्धान्तों के साथ साथ उनकी पुष्टि के लिए अनेक स्थानों पर अलौकिक आचरण अथवा व्यवहारों का वर्णन किया है। यदि उनकी वाणी का पूरा पूरा विवेचन किया जाय तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि उनकी साखियों का विशेष संबंध लौकिक आचरणों से है तथा पदों का संबंध विशेष कर धार्मिक सिद्धान्तों तथा अंशतः लौकिक आचरण से है।

उन्होंने किसी नामधारी धर्म के बन्धन में अपने आपको नहीं डाला और स्पष्ट कह दिया है कि मैं न हिंदू हूँ न मुसलमान।जिस सत्य को कबीर धर्म मानते हैं, वह सब धर्मों में है। परंतु इस सत्य को सबने मिथ्या विश्वास और पाखंड से परिच्छिन्न कर दिया है। धार्मिक सुधार और समाज सुधार का घनिष्ठ संबंध है।

धर्मसुधारक को समाज सुधारक होना पड़ता है। कबीर ने भी समाज सुधार के लिए अपनी वाणी का उपयोग किया है। हिन्दुओं की जातिपाँति, छुआछूत, खानपान आदि के व्यवहारों और मुसलमानों के चाचा की लड़की ब्याहने, मुसलमानी आदि कराने का उन्होंने चुभती भाषा में विरोध किया है और इनके विषय में हिंदू मुसलमान दोनों की जी भरकर धूल उड़ाई है।

कबीर जी लोगो को समझाना चाहते थे की ईश्वर की भक्ति और ज्ञान की श्रेष्ठ है, अपना समय कर्म कांड में ना लगाकर भक्ति और ज्ञान को अपना समय दें. कबीर जी ने योग के चक्रों के सम्बन्ध में भी लोगो को बताया था.

कबीरदास जी का काव्य 

कबीर के काव्य के विषय में बहुत कुछ बातें उनके रहस्यवाद के अंतर्गत आ चुकी हैं; यहाँ पर बहुत कम कहना शेष है। कविता के लिए उन्होंने कविता नहीं की है। उनकी विचारधारा सत्य की खोज में बही है, उसी का प्रकाश करना उनका ध्येय है। उनकी विचारधारा का प्रवाह जीवनधारा के प्रवाह से भिन्न नहीं है। उसमें उनका हृदय घुला मिला है, उनकी प्रतिभा हृदयसमन्वित है। उनकी बातों में बल है जो दूसरे पर प्रभाव डाले बिना नहीं रह सकता।

इसमें संदेह नहीं कि कबीर मेंऐसी भी उक्तियाँ हैं जिनमें कविता के दर्शन नहीं होते और ऐसे पद्य कम नहीं हैं किंतु उनके कारण कबीर के वास्तविक काव्य का महत्व कम नहीं हो सकता है, जो अत्यंत उच्चकोटि का है और जिसका बहुत कुछ माधुर्य रहस्यवाद के प्रकरण के अंतर्गत दिखाया जा चुका है।

कबीर के काव्य में नीचे लिखी हुई खटकने वाली बातें भी हैं, जिनकी ओर स्थान-स्थान पर संकेतकरते आये हैं-

  1. एक ही बात को उन्होंने कई बार दुहराया है, जिससे कहीं-कहीं रोचकता जाती रहती है।
  2. उनके ज्ञानीपन की शुष्कता का प्रतिबिम्ब उनकी भाषा का अक्खड़पन होकर पड़ा है।
  3. उनकी आधी से अधिक रचना दार्शनिक पद्यमात्रा है, जिसको कविता नहीं कहना चाहिए।
  4. उनकी कविता में साहित्यिकता का सर्वथा अभाव है। थोड़ी सी साहित्यिकता आ जाने सेपरंपरानुबद्ध रसिकों के लिए उपालम्भ का स्थान न रह जाता।
  5. उनकी भाषा परिमार्जित है और न उनके ग्रंथ पिंगलशास्त्रा के नियम के अनुकूल हैं।

 

कबीरदास जी की भाषा 

 

कबीर की भाषा के बारे में बात करना कठिन कार्य है, निर्णय करना टेढ़ी खीर है क्योंकि वह खिचड़ी है। कबीर की रचना में कई भाषाओं के शब्द मिलते हैं, उन्होंने ब्रज भाषा,अवधि,फारसी शब्द,उर्दू शब्द, और उस समय की जनता की भाषा में लोगों को शिक्षा दी.

इसके  कारण ही उन्होंने दूर-दूर के साधुसंतों का सत्संग किया था जिससे स्वाभाविक ही उन पर भिन्न-भिन्न प्रान्तों की बोलियों का प्रभाव पड़ा।

 

उपसंहार

हिंदी के काव्यसाहित्य में कबीर के स्थान का निर्णय करना कठिन है तुलना के लिए एक ही क्षेत्रा के कवियों को लेना चाहिए। कबीर का काव्य मुक्त क्षेत्र के अंतर्गत है। उसमें भी उन्होंने कुछ ज्ञान पर कहा है और कुछ नीति पर।‘कबीर यह घर प्रेम का खाला का घर नाहि।

सीस उतारै हाथ करि सो पैसे घर माँहि॥’

कबीर जी वृन्दावन काशी और अन्य तीर्थ में जाकर साधु संतों से मिलते, और ज्ञान की चर्चा करते, कबीरदास जी ईश्वर का दर्शन कर चुके थे और लोगों को उनकी भाषा में ज्ञान दिया करते थे.कबीरदास जी की सम्पूर्ण रचना साखी,सबद,रमैनी है, इन तीनो में उनकी संपूर्ण दोहे रचना आदि है.

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